भारत में आरक्षण की समस्या पर निबंध (Aarakshan Ki Samasya Par Nibandh) :- स्वतन्त्रता प्राप्ति के अनन्तर इस देश के संविधान निर्माताओं ने समाज के सभी वर्गों को राष्ट्र के विकास में बराबर का भागीदार बनाने के लिए तथा आर्थिक और शैक्षाणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की। इसी आधार पर संविधान में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजातियों के लिए सरकारी सेवाओं में आरक्षण की व्यवस्था की गई, ताकि इन वर्गों के लोग भी आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो कर समाज तथा देश की उन्नति में योगदान कर सकें।
भारत में आरक्षण की समस्या पर निबंध

आरम्भ में यह व्यवस्था दस वर्षों के लिए थी, लेकिन हर बार यह अगले दस वर्षों के लिए और बढ़ा दी गई। तत्कालीन सरकारों ने अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के लिए इस वर्ग के मन में यह बात बिठा दी कि आरक्षण में हो अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों को भलाई निहित है। अतः आरक्षण की निरन्तरता में ही उनका हित है।
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भारत में आरक्षण कब आया
हमारी अर्थव्यवस्था में रोजगार के अवसर वैसे ही सीमित हैं। अत: हर बार दस वर्ष की अवधि पूर्ण होते ही आरक्षित वर्गों ने सरकार पर दबाव डाल कर आरक्षण की अवधि बढ़वाई। इसको देख कर कुछ अन्य जातियों ने भी अपने लिए आरक्षण की माँग की। सन् 1979 में तत्कालीन जनता सरकार ने वी०पी० मंडल की अध्यक्षता में एक आयोग बिठाया, जिसे आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों का पता लगाने का दायित्व सौंपा गया। इस आयोग ने 1980 में अपना प्रतिवेदन (रिपोर्ट) सरकार को प्रस्तुत । किया। दस वर्षों तक इस प्रतिवेदन की सिफारिशों की क्रियान्विति नहीं हो सकी।
अचानक 7 अगस्त 1990 को जनता दल के प्रमुख और प्रधानमंत्री श्री विश्वनाथप्रतापसिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों पर क्रियान्वयन की घोषणा की, जिसके द्वारा केन्द्रीय सेवाओं में 27% तथाकथित पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित कर दिए गए। इसको लागू करने के पीछे प्रधानमंत्री ने तर्क दिए कि यह राष्ट्रीय मोर्चे के चुनाव घोषणा पत्र में सम्मिलित था। लेकिन इस विवादास्पद आरक्षण नीति को लागू करने में जो अदूरदर्शितापूर्ण जल्दबाजी की गई, उसकी पहले हो तरह-तरह से विभाजित इस देश को भारी कीमत चुकानी पड़ी।
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आरक्षण को कैसे विभाजित किया गया
इस देश की राजनीति की यह त्रासदी रही है कि इसे नेताओं ने बार-बार जाति और सम्प्रदाय के नाम पर विभाजित करने का प्रयास किया और अपने ‘वोट’ पक्के किए। आरक्षण का वर्तमान निर्णय इस बात को उजागर करता है कि अल्पमत की सरकार जातिवाद को दुधारू गाय की तरह दुहकर अपना ‘वोट बैंक’ बनाना चाहती है। इस समय हमारे देश में बेरोजगारी की भीषण समस्या है। रोजगार के अवसर घटते जा रहे हैं और नौकरी के प्रत्याशियों की संख्या दिन दुगनी रात चौगुनी गति से बढ़ रही है।
- सामान्य – 50.5%
- पिछड़ी जातियों के लिए – 27%
- अनुसूचित जाति व जनजातियों – 22.5%
सरकारी सेवाओं में 22.5% स्थान पहले से ही अनुसूचित जाति व जनजातियों के लिए आरक्षित हैं और अब पिछड़ी जातियों के लिए 27% आरक्षण के साथ कुल 49.5% स्थान आरक्षित हो जाएँगे। सरकार ने अपने इस प्रयास को पिछड़ी जातियों को सामाजिक न्याय दिलाने की दिशा में उठाया गया कदम बताया। जबकि सत्य यह है कि मंडल आयोग की सूची में उल्लिखित तथाकथित पिछड़ी जातियाँ अपने-अपने राज्यों में राजनैतिक और आर्थिक रूप से ताकतवर गुटों के रूप में उभरी हैं। इसलिए मंडल आयोग द्वारा पिछड़ी जातियों को रेखांकित करने का पैमाना ही दोषपूर्ण है।
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भारत के संविधान के अनुसार आरक्षण
हमारे देश के संविधान में साफ-साफ कहा गया है कि आरक्षण का आधार शैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ापन ही होना चाहिए। जबकि मंडल आयोग ने जातिगत आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की। इससे आरक्षण के लिए अंधी दौड़ शुरू हो गई। प्रत्येक जाति, चाहे वह गाँवों में भूमिपति वर्ग की हो या शहरों में अपने पारम्परिक धंधों से जुड़ी हो, आरक्षण की सूची में अपना नाम जड़वाने को उतावली हो गई। इस तरह पूरी सामाजिक संरचना में ही बदलाव आ गया।
अब आरक्षण सामाजिक सुरक्षा को सार्थक व्यवस्था को जगह नौकरी पाने का एक आसान और सीधा रास्ता भर बन के रह गया है। सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लालच देकर पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथप्रतापसिंह ने पिछड़ी जातियों के युवकों में मेहनती व स्वावलम्बी बनने को अपेक्षा उन्हें आत्मघाती प्रवृत्ति की ओर प्रेरित किया जिससे उनकी उद्यमशीलता कुंठित हो गयी। क्योंकि तब वे आसानी से मिलने वाली नौकरियों की ओर भागने लगे न कि तकनीकी कुशलता वाले दूसरे क्षेत्रों की ओर।
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नौकरियों में आरक्षण
नौकरियों में आरक्षण की इस व्यवस्था द्वारा मेधावी छात्रों के भविष्य पर कुठाराघात होना आरम्भ हो गया। उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय नजर आने लगा। केवल इसी आधार पर कि वे तथाकथित ऊँची जातियों से सम्बन्धित हैं, उनके भविष्य के मार्ग में आरक्षण व्यवस्था के अवरोधक खड़े किए गए। आज इंजीनियरिंग कालेजों में प्रवेश के लिए सामान्य श्रेणी के विद्यार्थियों को 60% अंकों की आवश्यकता होती है, और मेडिकल कालेजों में 77% जबकि आरक्षित श्रेणी के उपर्युक्त कक्षाओं में प्रवेश के लिए केवल 25% व 40% अंक को आवश्यकता है। इससे सामान्य श्रेणी के छात्रों के मन में क्षोभ है। इसलिए मंडल आयोग की सिफारिशों की घोषणा होते ही पूरे देश में विशेषकर उत्तर भारत में छात्रों ने इसका विरोध शुरू कर दिया।
छात्रों ने जगह-जगह आरक्षण विरोधी समितियाँ गठित की। आरक्षण विरोधी आंदोलन उग्र और हिंसक हो गया। एक महीने से भी अधिक समय से स्कूल, कालेज बंद रहे। छात्रों द्वारा बार-बार मार्ग अवरुद्ध किए गए, तथा आरक्षण के विरुद्ध जनचेतना को जगाने का प्रयास किया गया। उत्तर भारत के समस्त नगरों में इस आंदोलन के चलते जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया। आंदोलन ने हिंसक रूप भी ले लिया। कई स्थानों पर सरकारी संपत्ति को हानि पहुँचायी गयो तथा रेलवे को सबसे अधिक हानि उठानी पड़ी। यह सब सरकार की हठधर्मिता के कारण हुआ।
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छात्रों में आरक्षण
सरकार ने छात्रों की शंकाएं व उनके भविष्य के प्रति डर को कम करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया। छात्रों के मन में इतनी निराशा बढ़ गई कि आत्महत्या जैसे कदम उठाने लगे। लगभग 50-60 छात्रों ने आत्मदाह किया। इससे बड़ा देश का दुर्भाग्य क्या होगा कि कल के भविष्य निर्माता छात्रों ने सरकार की हठधर्मिता से निराश होकर अपनी जीवनलीला ही समाप्त कर दी लेकिन सत्ता के भूखे नेताओं को पूरे देश को जातियुद्ध में झोंकने के बाद भी लज्जा नहीं आई। अपना जनाधार बढ़ाने के लिए इस देश के उस समय के मुखिया ने जातिवाद के हथकंडों का सहारा लिया, जिसे इतिहास कभी क्षमा नहीं करेगा।
यह ठीक है कि विश्वनाथप्रतापसिंह की सरकार के पतन के साथ यह मामला कुछ शान्त-सा हो गया, पर आरक्षण के औचित्य और आधारों पर विचार होना अभी शेष है। सरकार द्वारा जाति को सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन का आधार बनाने से जाति व्यवस्था और मान्य तथा मजबूत बनेगी। साथ ही आरक्षण की इस व्यवस्था से भारतीय समाज में द्वेष और दुराग्रह की भावनाएँ और भड़केंगीं। गरीबी मिटाने का उद्देश्य प्रतिस्पर्धा के स्तर में गिरावट ला कर पूरा नहीं किया जा सकता। इसका समाधान अधिक से अधिक रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने में है।
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उपसंहार
आज आरक्षण की जगह सबसे बड़ी जरूरत निष्पक्षता और कानून व व्यवस्था के सख्त पालन की है। यदि दलितों और पिछड़ी जातियों का शोषण होता है तो सरकार को दोषियों के विरुद्ध कठोर कानूनी कार्यवाही करनी चाहिए। सरकार को देखना चाहिए कि शुरू से ही सबको शिक्षा मिले, उच्चशिक्षा के अवसर मिलें तथा दलित व योग्य छात्रों को छात्रवृत्ति मिले। इस प्रकार उन्हें उनकी रुचि के क्षेत्र में आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए न कि उन्हें आरक्षण की बैसाखियाँ देकर मानसिक रूप से अपंग बनाना चाहिए। इसी में छात्रों की भी भलाई है तथा इसी से ही भारतीय समाज की एकता भी स्थिर रह सकेगी। भारत में आरक्षण की समस्या पर निबंध (Aarakshan Ki Samasya Par Nibandh)
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