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अभिमान का अंत: साकार ज्ञान का भंडार समझे जाने वाले आचार्य की कहानी

अभिमान का अंत:- आचार्य कालक जैन धर्म के महान ज्ञाता थे। वह साकार ज्ञान का भंडार ही समझे जाते आचार्य थे। दूर-दूर तक उनके ज्ञान का प्रकाश सूर्य के तेज की तरह फैला हुआ था। उनके शिष्यों और प्रशिष्यों की संख्या बहुत थी उनका सारा जीवन परोपकार में बीत रहा था। सभी तरफ उनका यश पुष्प की सुगंध के समान फैल रहा था।

अभिमान का अंत

अभिमान का अंत

एक बार आचार्य कालक अवंति आए। उस समय उनकी आयु बहुत हो चुकी थी। शरीर पर तो वृद्धावस्था ने कुछ कुछ प्रभाव छोड़ा था, लेकिन आचार्य के मुखमंडल पर तेज पहले जैसा ही था । वृद्धावस्था की चिंता किए बिना आचार्य कालक अपने शिष्यों को जैन धर्म के आगमों का ज्ञान निरंतर देते थे। उनकी कर्मशीलता में कहीं कोई कमी नहीं थी, लेकिन शिष्यगण आलस्य करते थे। आचार्य कालक उन्हें समझाते भी थे, लेकिन शिष्यों का प्रमाद बढ़ता ही जाता था। आचार्य कालक शिष्यों की यह उदासीनता देखकर बहुत दुखी होते थे, उन्हें समझाते भी थे।

शिष्यों का प्रमाद जब बढ़ता ही गया, तो आचार्य कालक ने उन्हें सबक सिखाने का निश्चय किया। आचार्य ने संघ के रक्षक को बुलाकर कहा-“मैं अपने इन आलसी शिष्यों को शिक्षा देना चाहता हूं। मैं इन्हें बताए बिना यह स्थान छोड़कर दूसरी जगह जा रहा हूं। जब ये मुझे यहां नहीं पाएंगे, तो इन्हें सम्भवतः अपनी भूल का ज्ञान हो सके। ये सभी शिष्य कर्मबंध के कारण अविनीत हो गए हैं इसीलिए इन्हें ठोकर लगानी जरूरी है।”

“आचार्यवर! जब ये सब मुझसे आपके विषय में पूछेंगे, तब मैं इन्हें क्या बताकर पौछा छुड़ाऊंगा ?” चितित स्वर में रक्षक ने आचार्य कालक से पूछा।

“मैं तुम्हें अपना पता बताकर जा रहा हूं। जब तुम यह अनुभव करो कि इन शिष्यों का प्रमाद दूर हो गया है, तब इन्हें मेरा पता बता देना।” आचार्य कालक ने रक्षक को समझाते हुए कहा। सामाठ इस प्रकार संघ के रक्षक को भली प्रकार समझाकर आचार्य कालक गुप्त रूप से स्वर्णभूमि पहुंच गए। स्वर्णभूमि में आचार्य का प्रशिष्य सागर रहता था। वह सागर के पास पहुंचे।

सागर आगमों की वाचना में तल्लीन था। जब आचार्य कालक उसके पास गए, तो उसने उन्हें पहचाना ही नहीं। सामान्य वृद्ध साधु समझकर सागर ने उठकर उनका स्वागत तक नहीं किया। आचार्य कालक मौन रहे।

आगमों की वाचना के बाद सागर ने उनका अर्थ बताना शुरू किया। जब उसकी नजर बूढ़े आचार्य पर पड़ी, तो उसने पूछा- “साधु महाराज ! मैं जो अर्थ आगमों का बता रहा हूं, वह आपकी समझ में आ रहा है या नहीं ?” आचार्य कालक ने शांत भाव से ‘ऊं’ कहकर अपनी स्वीकृति दे दी।

सागर ने अभिमान भरे स्वर में कहा-” इस प्रकार ‘ऊं’ कहना असावधानी का सूचक है आगम वाचना को पूरे मनोयोग से सुनना चाहिए आपका ध्यान कहां है?” आचार्य कालक शांत भाव से बैठे रहे। उन्होंने सागर की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। पूरी गंभीरता से वह सागर द्वारा बताया अर्थ सुनते रहे।

आचार्य कालक ने सागर को अपना परिचय नहीं बताया। प्रतिदिन वह नियमित समय पर आते और शांत-गंभीर रहकर अपने प्रशिष्य की आगम-वाचना सुनते थे।

उधर अवंति में आचार्य कालक के शिष्यों का बुरा हाल था। जब उन्होंने देखा कि आचार्य कालक संघ में नहीं हैं, तो वे बेचैन हो उठे। सबने उन्हें इधर-उधर काफी खोजा भी। आखिर में हारकर वे संघ के रक्षक के पास पहुंचे। शिष्यों ने कातर भाव से पूछा-” आप ही हम पर उपकार कर सकते हैं। हमें बताने की कृपा करें कि हमारे गुरु कहां चले गए हैं? आप तो सदा संघ में ही रहते हैं। आपको अवश्य पता होगा। जैसे जल के बिना नदी का महत्व नहीं रहता है, उसी प्रकार आचार्य के बिना हमारा जीवन व्यर्थ है।”

संघ रक्षक शिष्यों की कातरता देखकर पिघलने लगा। तभी उसे आचार्य कालक की बात याद आ गई। उसने कठोर स्वर में कहा- “जब आप सबको शिष्य होकर भी अपने आचार्य का पता नहीं है, तब मुझे कैसे पता हो सकता है ? आप सब इतने प्रमादी क्यों हो गए कि वृद्ध आचार्य को यहां से कहीं और जाकर रहना पड़ा है? क्या शिष्य ऐसे ही होते हैं ?”

“हम बहुत लज्जित हैं। हम अपने प्रमाद का गहरा प्रायश्चित करने को तैयार हैं। काश! हमें आचार्य मिल जाते।” उदास होकर एक शिष्य ने कहा तो सभी ने उसका समर्थन करते हुए कहा ‘सचमुच, हम सभी बहुत दुखी और लज्जित हैं।”

रक्षक ने देखा कि सचमुच ही शिष्यों के दिलों में दुख का गहरा भाव है। उन्हें उदास देखकर रक्षक का मन पसीज गया। उसने बताया- “मैं देख रहा हूं कि तुम सभी दुखी हो। असल में तुम्हारे प्रमाद और आगमों के अध्ययन में पूरी रुचि न होने से आचार्य खिन्न हो गए हैं। जब उन्होंने देखा कि यहां रहकर वह मात्र कर्म बंधन में ही बंधकर रह गए हैं, तब वह यहां से चले गए।”

‘कहां गए हैं हमारे आचार्य ?” सभी ने एक साथ पूछा।

“आर्य सागर के पास स्वर्णभूमि गए हैं।”- रक्षक ने बता दिया। फिर उसने सभी शिष्यों से कहा- ” आप सभी स्वर्णभूमि जाकर गुरु की वंदना करके उन्हें मनाइए। तभी आगमों का गहन ज्ञान आप पा सकेंगे। गुरु के बिना ज्ञान होना संसार में असम्भव ही है।”

संघ रक्षक को संघ की रक्षा का भार सौंपकर शिष्यों ने उसी क्षण अवंति से स्वर्णभूमि की ओर प्रस्थान कर दिया। विशाल श्रमण संघ को प्रस्थान करते देख लोगों ने आचार्य का संघ है? कहां जा रहा है ?” पूछा- “यह किस शिष्यों ने विनयपूर्वक बताया” यह संघ आचार्यवर कालक का है हम स्वर्णभूमि के आर्य सागर के यहां जा रहे हैं। अवंति से हमारी यात्रा शुरू हुई है।”

अवंति से आचार्य कालक का भ्रमण संघ स्वर्णभूमि आ रहा है। यह चर्चा स्वर्णभूमि तक भी पहुंच गई। जब स्वर्णभूमि के श्रावकों ने सुना कि अवंति से आगमों के प्रकांड ज्ञाता, आचार्यवर कालक पधार रहे हैं तो वे सभी एकत्र होकर आर्य सागर के पास पहुंचे। श्रावकों ने आर्य सागर से कहा- ” आर्य! बड़े हर्ष की बात है कि जैन धर्म के तत्व को जानने वाले आचार्य प्रवर कालक अवंति से हमारे नगर में पधार रहे हैं। हमें उनका भावपूर्ण स्वागत करना चाहिए। हे आर्य। आप हमें निर्देश दें। “

दादा गुरु आचार्य कालक के आने का समाचार सुनते ही आर्य सागर पुलकित हो उठे। प्रसन्न होकर वह शिष्यों से बोले – “आज स्वर्णभूमि का भाग्य चमक उठा है। धन्य हैं हम, जिन्हें आचार्य कालक दर्शन देने अवंति से पधार रहे हैं। हमें आचार्य का भावपूर्ण स्वागत करना है। चलिए, हम सभी नगर द्वार पर ही दादा गुरु का स्वागत करके उन्हें यहां लाएंगे।”

स्वर्णभूमि के निवासी खुशी से नाच रहे थे। आर्य सागर के मन में बहुत उत्साह था। शिष्यों के साथ जाते हुए आर्य सागर सोच रहे थे, ‘दादा गुरु के दर्शन करके मैं कृतार्थ हो 44 जाऊंगा। मैं उनसे गंभीर प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करूंगा। दादा गुरु की कृपा से ज्ञान के सागर में डुबकी लगाकर अमृत मोती प्राप्त करूंगा।” सोचते हुए आर्य सागर चले जा रहे थे। सभी नगर-द्वार पर आ पहुंचे।

अवंति से आने वाला आचार्य कालक के शिष्यों का श्रमण संघ स्वर्णभूमि के नगर द्वार पर पहुंचा। आर्य सागर पुलकित और प्रसन्न मन से स्वागत करने के लिए आगे बढ़े। आर्य सागर की आंखें दादा गुरु को खोज रही थीं आखिर बेचैन होकर उन्होंने एक शिष्य से पूछ ही लिया, “हे श्रमण आपके गुरु आचार्य कालक दिखाई नहीं दे रहे हैं? क्या आप लोग अवंति से नहीं आ रहे हैं ? बताइए, मेरे दादा गुरु आचार्य कालक कहां हैं? मैं उनके दर्शन करना चाहता हूं।”

आर्य सागर की ये बातें सुनकर श्रमण संघ आश्चर्य में डूब गया। उसी शिष्य ने कहा ” आर्य सागर! यह क्या कह रहे हैं आप? आचार्य कालक तो अवंति से आपके यहां ही आए हैं। क्या वह नहीं पधारे हैं?”

“यहां तो एक वृद्ध साधु के अतिरिक्त और कोई भी नहीं आया है।” आर्य सागर ने उलझन भरे स्वर में कहा।

‘आर्य सागर! हमारे आचार्य कालक भी तो वृद्ध ही हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि आपने 44 आचार्यवर को पहचाना ही नहीं हो? हमें लगता है, वह यहीं है। शीघ्र चलिए।” शिष्यों ने उतावले होकर कहा।

आर्य सागर सभी श्रमणों को लेकर चिंतित मन से उपाश्रय में पहुंचे। वहां पहुंचकर अवंति से आए शिष्यों ने आचार्य को तुरंत पहचान लिया। सभी ने आचार्य कालक के चरणों में गिरकर प्रणाम किया, तो आर्य सागर ठगे से खड़े रह गए। अब उन्हें पता चला कि जिसे वह वृद्ध साधु समझकर आगमों की वाचना सुनाकर अर्थ बताया करते थे, वह तो जैन धर्म के तत्वदर्शी आचार्य कालक हैं।

आर्य सागर दादा गुरु के चरणों में जा गिरे। अपने अविवेक और अविनय पर आर्य सागर को मर्मांतक लज्जा आ रही थी। अपराधी की तरह सिर झुका कर आर्य सागर ने शांत-सौम्य मुद्रा में बैठे आचार्य कालक से रुंधे गले से कहा- “दादा गुरु! मैं अपने प्रमादा पर बहुत लज्जित हूं। मुझसे अक्षम्य अपराध हो गया है। आचार्य प्रवर! मेरा अविवेक और अविनय आप क्षमा कर दें। दादा गुरु! मैं अपने किए हुए पर बहुत लज्जित हूं।”

सबने देखा कि आर्य सागर की आंखों से आंसुओं की धारा बह रही है और दादा गुरु आचार्य कालक शांत सौम्य और निर्विकार भाव से आर्य सागर की पीठ पर हाथ रखकर सांत्वना दे रहे हैं।

आचार्य प्रवर ने कहा- “उठो, आर्य सागर इतना दुखी होना ठीक नहीं है। तुमने जानबूझ कर तो मेरी अवहेलना की नहीं है, फिर अपराध-भाव कैसा ?”

दादा गुरु की शांत सौम्य वाणी सुनकर आर्य सागर को कुछ शांति मिली। वह कुछ देर मौन रहे। उनके मन के कोने से कहीं एक विचार उठा। वह सोचने लगे-“मैंने सामान्य वृद्ध साधु समझकर आचार्य कालक जैसे आगमों के ज्ञाता को आगम-वाचना सुनाई है। वह इससे खुश हैं या नहीं? यह जान लेता, तो मुझे संतोष मिल जाता।”

ऐसा सोचकर गर्व के भाव से आर्य सागर ने आचार्य कालक से पूछा – “दादा गुरु ! कृपया यह तो बताएं कि क्या मैं आगम वाचना ठीक प्रकार करता रहा हूं ?”

आचार्य कालक ने देख लिया कि प्रशिष्य सागर के मन में अभिमान आ गया है। वह जानते थे कि अभिमान ही साधक का सबसे बड़ा शत्रु है। शांत भाव से आचार्य ने कहा, ” आर्य सागर तुम्हारी आगम-वाचना तो ठीक है, लेकनि तुम्हारा अभिमान कदापि ठीक नहीं है।”

आर्य सागर मौन रहे। दादा गुरु ने फिर प्यार से समझाते हुए कहा- “बेटे सागर! ज्ञान अपार है, अनंत है। सोचो, अगर मुट्ठी भर धूल एक स्थान से दूसरे स्थान पर और फिर दूसरे से तीसरे स्थान पर रखी जाए, तो वह घटकर कम होती जाती है। ठीक इसी प्रकार तीर्थकरों द्वारा दिया गया ज्ञान भी गणधरों, आचार्यों, उपाध्यायों द्वारा होकर हम तक पहुंचते-पहुंचते बहुत कम हो गया है। फिर अहंकार किस बात का? मिथ्या अभिमान किसलिए ?”

आर्य सागर सिर झुकाए दादा गुरु की बात सुन रहे थे उनके मन में आया अभिमान का मैल ज्ञान के प्रकाश से धुल गया था। वह दादा गुरु के चरणों में गिर गए।

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