आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय? रामचंद्र शुक्ल जी का जन्म कब हुआ था?

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय: आचार्य रामचंद्र शुक्ल (Acharya Ramchandra Shukla Biography in Hindi) हिंदी के सुधी रचनाकारों में मूर्धन्य हैं। उन्होंने साहित्य का इतिहास, निबंध और समीक्षा के क्षेत्र में अपनी रचनाओं द्वारा मानक स्थापित किया। उनके पूर्व हिंदी में साहित्य के इतिहास के नाम पर केवल कविवृत्त ही थे।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय

आचार्य-रामचंद्र-शुक्ल-का-जीवन-परिचय
Acharya Ramchandra Shukla Ka Jeevan Parichay

Acharya Ramchandra Shukla Biography in Hindi

कोई भी सुविचारित इतिहास नहीं था। जार्ज इब्राहम ग्रियर्सन और मिश्र बंधुओं ने हिंदी साहित्य का इतिहास प्रस्तुत किए, किंतु वे दोनों इतिहास अनेक विसंगतियों के कारण सर्वमान्य नहीं हुए। इस संदर्भ में गुण धर्म के कारण मानक बन गया। विगत पचास-साठ वर्षों में दर्जनों हिंदी साहित्य के इतिहास लिखे गए हैं, किंतु वे सभी पूर्णतः शुक्ल जी के इतिहास से प्रभावित हैं।

आचार्य शुक्ल के पूर्व भारतेंदु का से ही हिंदी में निबंध लिखे जा रहे थे और प्रभूत मात्रा में लिखे गए थे। परंतु वे भावुकतापूर्ण और विनोदात्मक थे। उनमें चिंतन और विचार की उपेक्षा थी। स्पष्टतः उनमें साहित्य का उत्कर्ष प्रदान करने का प्रयास नहीं था। आचार्य शुक्ल ने इस दिशा ने में पहल की और बड़ी संख्या में विचार-प्रधान निबंधों की सृष्टि की।

यह हिंदी में अभिनव प्रयोग था। आचार्य शुक्ल के मनोविकार संबंधी निबंध आज भी अद्वितीय मान्य हैं। इसी तरह समीक्षा के क्षेत्र में भी आचार्य शुक्ल ने अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया। उनके पूर्व हिंदी में रीतिकालीन कवियों द्वारा संस्कृत साहित्य शास्त्र के आधार पर पद्य में लिखा गया। रस, अलंकार, वक्रोक्ति, ध्वनि आदि काव्य-सिद्धांतों को ही समीक्षा में प्रयोग किया जाता था। कहीं कोई नवीनता नहीं थी।

सैद्धांतिक समीक्षा पूरी तरह खतिऔनी थी। व्यावहारिक समीक्षा में किसी पूरी प्रवृत्ति, विद्या अथवा किसी कवि की संपूर्ण कृतियों का मूल्यांकन बहुत कम होता था। केवल किसी पुस्तक के गुण-दोषों की पल्लवग्राही समीक्षा की जाती थी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने समीक्षा के क्षेत्र में भी नवीन दृष्टिकोण का सन्निवेश किया। उन्होंने अनेक नए पाश्चात्य सिद्धांतों का भारतीयकरण कर समीक्षा के नए मानदंड स्थिर किए।

रस संबंधी परंपरागत मान्यता की तर्कसंगत नई व्याख्या की। इसके साथ ही उन्होंने अनेक नए-पुराने रचनाकारों साहित्यिक मानदंडों समीक्षा कार्य संपन्न किया। इस प्रकार आचार्य शुक्ल ने हिंदी साहित्य सर्वांग संपन्न करने अपूर्व कार्य किया। योगदान जाएगा और रचनाकारों मार्गदर्शन करते रहेंगे।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जन्म 1884 ई. बस्ती जिले अगोना नामक गांव में हुआ उनके पिता सरकारी नौकर और प्रायः उनका स्थानांतरण हुआ करता था। शुक्ल जी पठन-पाठन व्यवधान उपस्थित होता किसी प्रकार उन्होंने हाईस्कूल तक शिक्षा प्राप्त की। उसके बाद इलाहाबाद वकालत पढ़ने किंतु परीक्षा अनुत्तीर्ण गए।

पढ़ाई छोड़कर मिर्जापुर आए और वहां मिशन स्कूल ड्राइंग टीचर गए। वहीं रहकर उन्होंने चौधरी बदरीनारायण ‘प्रेमघन’ पत्रिका ‘आनंद कादंबिनी’ का संपादन किया। उन्होंने स्वाध्ययन हिंदी अतिरिक्त अंग्रेजी, संस्कृत और बंगला भाषा-साहित्य का गहन ज्ञान अर्जित किया। उसी बीच उनके कुछ साहित्य-संबंधी निबंध प्रकाशित हुए।

उनसे प्रभावित होकर काशी नागरी प्रचारिणी सभा उन्हें ‘हिंदी शब्द सागर’ सहायक संपादक नियुक्त कर काशी बुला लिया। सन् 1908 ई. शुक्ल काशी आए और जीवन भर यहीं रहकर साहित्य सेवा में रहे। सन् 1921 ई. में श्यामसुंदर दास उन्हें काशी हिंदू विश्वविद्यालय हिंदी विभाग प्राध्यापक नियुक्त किया।

1937 ई. बाबू साहब सेवानिवृत्त होने शुक्ल जी हिंदी विभाग अध्यक्ष नियुक्त हुए। उनकी अध्यक्षता हिंदी विभाग का यश देशभर में फैला शुक्ल जी शिष्यों में अनेक भविष्य हिंदी प्रसिद्ध विद्वान् हुए।

समीक्षा ग्रंथ

आचार्य शुक्ल ‘प्रमुख कृतियां निम्नलिखित हैं समीक्षा ग्रंथ – मीमांसा; गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास और जायसी की समीक्षा (त्रिवेणी); काव्य रहस्यवाद; काव्य अभिव्यंजनावाद काव्यग्रंथ-बुद्धचरित और अभिमन्यु वध इतिहास ग्रंथ हिंदी साहित्य का इतिहास।

आचार्य शुक्ल की साहित्य-यात्रा को दो भागों में बांटा जा सकता है। सन् 1904 ई. से सन् 1920 ई. तक के प्रथम भाग को तैयारी काल कहा जा सकता है। इसी काल उन्होंने न्यूमैन के ‘लिटरेचर’ का ‘साहित्य’ शीर्षक से अनुवाद किया। एडिसन के ‘प्लेजर ऑफ इमेजिनेशन’ को ‘कल्पना का आनंद’ शीर्षक से सन् 1905 ई. में अनूदित किया।

सन् 1912 ई. से सन् 1918 ई. तक उन्होंने मनोविकारों संबंधी निबंधों की रचना की और वे ‘सभा’ की पत्रिका ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ में क्रमशः प्रकाशित हुए। हैकल के ‘रिडिल ऑफ दी यूनीवर्स’ का अनुवाद ‘विश्व प्रपंच • शीर्षक से हुआ। इन अनुवादों का प्रभाव शुक्ल जी के मानसिक विकास पर पड़ा।

सन् 1920 ई. के बाद शुक्ल जी के विकास का दूसरा खंड शुरू हुआ। तुलसी, सूर और जायसी पर उन्होंने क्रमशः ‘तुलसी ग्रंथावली’ (1922), जायसी ग्रंथावली (1924) और भ्रमर गीतसार’ (1925) की भूमिकाओं के रूप में लिखा। बाद में इन तीनों समीक्षाओं को ‘त्रिवेणी’ में प्रकाशित किया गया।

‘हिंदी साहित्य का इतिहास भी सन् 1929 ई. में उन्होंने ‘हिंदी शब्द सागर’ की भूमिका के रूप में लिखा। सन् 1922 से 1985 के बीच उनके प्रसिद्ध सैद्धान्तिक समीक्षा संबंधी निबंध-काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था, काव्य में रहस्यवाद, साधारणीकरण और व्यक्ति वैचित्र्यवाद; काव्य में प्राकृतिक दृश्य-छपे। इस प्रकार शुक्ल जी ने विविध दिशाओं में हिंदी साहित्य को प्रौढ़ और उच्च मान प्रदान किया।

हिंदी साहित्य का इतिहास

आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ वैज्ञानिक और आलोचनात्मक पद्धति पर लिखा गया हिंदी का प्रथम इतिहास ग्रंथ है। यद्यपि उनके इतिहास के पूर्व गार्सा द तासी, शिव सिंह सेंगर, जॉर्ज ग्रियर्सन और मिश्र बंधुओं के इतिहास प्रकाशित हो चुके थे, किंतु वे इतिहास न होकर कविवृत्त हैं।

उनमें वैज्ञानिक दृष्टि का सर्वथा अभाव है। शुक्ल जी ने संस्कृति और साहित्य को मानव समाज के आंतरिक और बाह्य प्रयत्नों के मेल में रखकर विवेचित किया। लोकचित्त की प्रवृत्तियां हिंदी साहित्य में किस प्रकार अभिव्यक्त हुई हैं, यह दिखाने के लिए उन्होंने अपने इतिहास के प्रत्येक काल के प्रारंभ में उस काल की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का विवेचन किया है।

काल विशेष की जन प्रवृत्ति के अनुसार ही काल विभाजन किया है। शुक्ल जी ने अपने इतिहास में उसके लेखन के समय तक उपलब्ध सभी सामग्री का सतर्कतापूर्वक विवेचन-विश्लेषण कर उसका उपयोग किया है। उनके द्वारा हिंदी साहित्य का विभिन्न कालों में विभाजन और उनका नामकरण पूर्णतः तर्कसंगत है और वह आज भी सर्वमान्य है।

विचारों की गंभीरता, उत्कृष्ट प्रतिपादन शैली, मूल्यांकन संबंधी तर्कों और प्रमाणों की अकाट्यता के कारण शुक्ल जी द्वारा रचित ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ आज भी हिंदी का श्रेष्ठ इतिहास है।

निबंधकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल शुक्ल जी ने दो प्रकार के निबंधों की रचना की। एक वर्ग में उनके द्वारा रचित मनोविकार संबंधी निबंध हैं और इन्हें ही दूसरे वर्ग में शुक्ल जी द्वारा लिखे गए आलोचनात्मक निबंध। इन निबंधों का संग्रह ‘चिंतामणि, भाग 2’ में किया गया है। मनोविकार संबंधी निबंध ‘चिंतामणि भाग 1’ में संगृहीत हैं।

शुक्ल जी ने अपने मनोविकारों संबंधी निबंधों में मनोविकारों को परिभाषित किया और व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में उनके स्वरूप को विश्लेषित किया है तथा उनकी विशेषताओं को स्पष्ट किया है। क्रोध को परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा है, ‘क्रोध दुःख के चेतन कारण के साक्षात्कार या अनुमान से उत्पन्न होता है।

साक्षात्कार के समय दुःख और उसके कारण के संबंध का परिज्ञान आवश्यक है। इन निबंधों की रचना निगमन पद्धति में हुई है। शुक्ल जी किसी मनोविकार के संबंध में एक सूत्र वाक्य कहते हैं और फिर उसकी व्याख्या करते हैं, जैसे-‘बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है।’ निबंधों के बीच में स्थान-स्थान पर शुक्ल जी व्यंग्य-विनोद का प्रयोग कर लालित्य की सृष्टि करते हैं।

‘लोभ और प्रीति’ शीर्षक निबंध में वे लोभियों पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं, ‘लोभियो, तुम्हारा अक्रोध, तुम्हारा इंद्रिय निग्रह, तुम्हारी मानापमान समता, तुम्हारा तप अनुकरणीय है। तुम्हारी निष्ठुरता, तुम्हारी निर्लज्जता, तुम्हारा अविवेक, तुम्हारा अन्याय विगर्हणीय है। तुम धन्य हो, तुम्हें धिक्कार है!”

निःसंदेह, आचार्य शुक्ल ने हिंदी में मनोविकारों से संबंधित उच्चकोटि के विचार प्रधान निबंधों की रचना कर निबंध-विद्या को महिमामंडित किया और वे हिंदी के सर्वश्रेष्ठ निबंधकार हैं।

समीक्षक आचार्य रामचंद्र शुक्ल

आचार्य शुक्ल ने सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार की समीक्षाएं की हैं। सैद्धांतिक समीक्षा की दृष्टि से उनके द्वारा रचित ‘काव्य में रहस्यवाद काव्य में अभिव्यंजनावाद और ‘रसमीमांसा’ मुख्य हैं। व्यावहारिक समीक्षा की दृष्टि से आचार्य शुक्ल द्वारा तुलसी, सूर और जायसी पर लिखी विस्तृत समीक्षाएं मुख्य हैं।

आचार्य शुक्ल ने सर्वत्र लोकमंगल की कसौटी पर किसी वाद या काव्य को कसा है। उन्होंने रस की नई व्याख्या की संस्कृत के आचार्यों ने रस को अलौकिक, ब्रह्मानंद सहोदर, चिन्मय आदि कहकर उसे रहस्य बना दिया था। आचार्य शुक्ल ने रस को जीवन से संपृक्त कर उसे मानवीय अनुभव में समाहित किया।

वे रस को एक दशा मानते हैं, ‘जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है।’ पुनः इसी कथन को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं, ‘लोक हृदय में हृदय के लीन होने की दशा का नाम रस दशा है। यह दशा न अलौकिक है, न आनंद है, न ब्रह्मानंद सहोदर स्पष्टतः आचार्य शुक्ल को रस की आनंदवादी प्रकृति स्वीकार है,

पर जीवन और प्रत्यक्षानुभूति के साथ जीवन और जगत् से असंपृक्त होने के कारण ही उन्होंने क्रोचे के अभिव्यंजनावाद का दृढतापूर्वक खंडन किया। समीक्षा में शुक्ल जी की दृष्टि सर्वत्र मर्यादावादी और नैतिक रही है।

लोकहित, लोकमंगल, लोकधर्म, शेषसृष्टि के साथ रागात्मक संबंध, लोकचित्त का परिष्कार, आनंद मंगल की साधनावस्था आदि नामों और प्रसंगों द्वारा उन्होंने मूलतः सामाजिक मर्यादावादी नैतिकता का ही प्रश्न उठाया है।

आचार्य शुक्ल ने आनंद की परंपरागत परिभाषा को बदलकर उसकी दो दशाओं-साधानावस्था और सिद्धावस्था बताकर प्रथम अवस्था का बीज भाव ‘करुणा’ और द्वितीय का बीज भाव ‘प्रेम’ माना है। करुणा द्वारा लोक की रक्षा होती है और ‘प्रेम’ द्वारा लोक-रंजन शुक्ल जी के शब्दों में, ‘भावों की छानबीन करने पर मंगल का विधान करनेवाले दो भाव ठहरते हैं।

करुणा और प्रेम करुणा की गति रक्षा की ओर होती है और प्रेम की रंजन की ओर। लोक में प्रथम साध्य रक्षा है। रंजन का अवसर उसके पीछे आता है।’ आनंद संबंधी यह व्याख्या मौलिक है।

शुक्ल जी ने सौंदर्य के संबंध में भी नई उद्भावना की है। वे सौंदर्य को तीन रूपों में व्याख्यायित करते हैं। उन्हें उन्होंने रूप सौंदर्य, भाव सौंदर्य और कर्म सौंदर्य नाम दिया है। जहां ये तीनों रूप दिखाई पड़ें, वहां सौंदर्य चरमकोटि का होता है। राम में इन तीनों का सामंजस्य दिखाई पड़ता है। इसी कारण वे शुक्ल जी की दृष्टि वे में लोक हृदय के प्रेम के सर्वोत्तम आलंबन हैं।

शुक्ल जी (आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय) ने अपनी समीक्षा का मूलाधार लोक मंगल को बनाया था। इसी पर उन्होंने तुलसी, सूर और जायसी की व्यावहारिक समीक्षा की। तुलसी में लोकमंगल और लोक-मर्यादा सर्वाधिक उत्कृष्ट रूप में है, अतः शुक्ल जी ने तुलसीदास को हिंदी का सर्वश्रेष्ठ कवि माना है।

‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में भी शुक्ल जी ने विभिन्न कालों के प्रमुख कवियों की सटीक समीक्षाएं की हैं। ‘छायावाद’ को उन्होंने अभिव्यंजना की एक शैली सिद्ध किया। इससे अनेक विद्वानों ने असहमति जताई, किंतु वे शुक्ल जी के तर्क को काटने में समर्थ नहीं हुए।

असहमति होने पर भी सभी स्वीकार करते हैं कि शुक्ल जी हिंदी के अद्वितीय समीक्षक, निबंधकार और इतिहासकार हैं। उनकी प्रतिभा का प्रकाश जहां भी हुआ है, वहां सत्य का उद्घाटन हुआ है। हिंदी आलोचना आज भी उन्हीं के पथ पर चल रही है।

शुक्ल जी द्वारा उद्भूत कई सूत्र आज भी आलोचना में यथावत्, प्रयुक्त हो रहे हैं। आचार्य शुक्ल की साहित्य सेवा का मूल्यांकन युगों-युगों तक होता रहेगा और हिंदी साहित्य उनका आभारी रहेगा।

सन् 1941 ई. हिंदी महान् विद्वान् आचार्य शुक्ल का निधन हुआ। काशी उनकी स्मृति रक्षा लिए ‘शुक्ल संस्थान’ की स्थापना की गई है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय

यह भी पढ़े –

Leave a Comment