आधुनिक शिक्षा पद्धति पर निबंध: भारत को शिक्षा पद्धति का सम्बन्ध है; अंग्रेजों के भारत आगमन से पूर्व प्राचीन भारतीय पद्धति (Adhunik Shiksha Paddhati Par Nibandh) से शिक्षा दी जाती थी, जिसे गुरुकुल या ऋषिकुल पद्धतिः कहा जाता है। अंग्रेजों के आने के साथ ही उस शिक्षा पद्धति में परिवर्तन होने लगा था न केवल तब शिक्षा पद्धति में ही परिवर्तन हुआ, अपितु शिक्षा के लक्ष्य में भी परिवर्तन हुआ और उसे’ आधुनिक शिक्षा पद्धति’ कहा जाने लगा। वस्तुतः यह अंग्रेजी शिक्षा का भारतीय रूपान्तर मात्र था।
आधुनिक शिक्षा पद्धति पर निबंध

शिक्षा का उद्देश्य है
मानव का सर्वांगीण विकास। सर्वांगीण विकास का अभिप्राय है-व्यक्ति का बौद्धिक, शारीरिक, मानसिक और चारित्रिक विकास। इनके विकास के लिए ही छात्रों को शिक्षा दी जाती है। प्रत्येक देश की शिक्षा पद्धति अपने-अपने देश की संस्कृति, सभ्यता तथा आदर्शों के अनुरूप विविध प्रकार के ज्ञान-विज्ञान, शिल्प तथा कला से युक्त होती है। परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार उसमें समय समय पर परिवर्तन और परिवर्धन भी होता रहता है।
अंग्रेजों का एकमात्र उद्देश्य भारत में येन-केन प्रकारेण अंग्रेजी राज्य को सुदृढ़ करना, सरकारी कार्यालयों के लिए लिपिक (क्लर्क) तैयार करना और भारतीयों के मनों में दास मनोवृत्ति को बढ़ावा देना था। इस विषय में लार्ड मैकाले का कथन था कि-” अंग्रेजी शिक्षा द्वारा अंग्रेजी राज्य के संचालन के लिए सस्ते क्लर्क पैदा किए जाएँ, जो शरीर से भले ही भारतीय दिखाई दें, परन्तु उनको वेष-भूषा, विचारधारा तथा खान-पान सभी अंग्रेजी ढंग का हो।”
मैकाले के उपर्युक्त कथन से एकदम स्पष्ट है कि अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के मूल में क्या उद्देश्य था? अत्यन्त दुःख से कहना पड़ता है कि स्वतन्त्रता के 49 वर्ष बीतने पर अब भी वही घिसी-पिटी तथा सड़ी गली शिक्षा पद्धति चल रही है और उसे आधुनिक शिक्षा पद्धति कहा जा रहा है। इसमें यदि कुछ गुण हैं तो दोष भी है।
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आधुनिक शिक्षा पद्धति के गुण
आधुनिक कही जाने वाली इस शिक्षा पद्धति का गुण यह है कि इसके द्वारा शिक्षा क्षेत्र में स्त्री पुरुष के, जाति-पांति के, पंथ-सम्प्रदाय के भेद को मिटा दिया गया है। इसके द्वारा शिक्षा के द्वार किसी वर्ग के लिए बन्द नहीं हैं, अपितु सबके लिए खुलें हैं। इसके द्वारा केवल भाषा, व्याकरण, गणित और धर्मशास्त्र को ही नहीं, अपितु विज्ञान, व्यापार, शास्त्र, कला, शिल्प, प्रौद्योगिकी और अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग) आदि विविध विषयों की भी शिक्षा दी जाती है। प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य की जा चुकी है। माध्यमिक स्तर तक शुल्क नहीं लिया जाता। कन्याओं की शिक्षा का भी बहुत प्रचार प्रसार हुआ है तथा विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की संख्या में भी पर्याप्त मात्रा में बढ़ी है।
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आधुनिक शिक्षा पद्धति के दोष
आधुनिक शिक्षा पद्धति में गुण हैं तो दोषों की मात्रा भी कम नहीं। इस शिक्षा पद्धति का सबसे बड़ा दोष इसकी वर्तमान परीक्षा प्रणाली है। आज छात्र का वर्ष भर की शिक्षा की योग्यता का निर्णय वार्षिक परीक्षा द्वारा किया जाता है। इस कारण अधिकांश छात्र पूरे वर्ष गम्भीरता से अध्ययन नहीं करते, बल्कि परीक्षा समीप आने पर कुछ चुने हुए प्रश्नों के उत्तर रट कर परीक्षा उत्तीर्ण कर लेते हैं। परीक्षा उत्तीर्ण करना मात्र ही छात्रों का उद्देश्य रह गया है, विषय विशेष में योग्यता प्राप्त करना नहीं। इसी कारण बाजार में कुंजियों और गाईडों की भरमार हो गई है। फिर छात्र उनको याद भी नहीं करते, बल्कि परीक्षा भवन में साथ ले जाते हैं और परीक्षा में खुल कर नकल करते हैं।
वर्तमान शिक्षा पद्धति का दूसरा दोष यह है कि छात्र अपने जीवन का ध्येय निश्चित किए बिना ही परीक्षाएँ उत्तीर्ण करते रहते हैं। उपाधियाँ एकत्रित कर लेते हैं। वह सोचते हैं कि किसी सरकारी, अर्द्ध-सरकारी अथवा निजी कार्यालय में नौकरी तो मिल हो जाएगी। वस्तुत: आज की परीक्षाएँ ऐसा माल तैयार करने की मशीनें बन गई हैं, जिस माल का बाजार में कोई ग्राहक ही नहीं है। फलत: इसके कारण शिक्षितों में बेकारी बढ़ती जा रही है।
आधुनिक शिक्षा पद्धति का अन्य दोष यह भी है कि विज्ञान, शिल्प और अभियांत्रिकी जैसे विषयों के छात्र भी उस विषय की गहराई तक जाना नहीं चाहते; उसका लक्ष्य भी प्रमाण-पत्र प्राप्त करना मात्र रह गया है। वे शास्त्र विशेष के सम्पूर्ण सिद्धान्तों से भी अवगत नहीं होते और व्यावहारिक ज्ञान (प्रेक्टिकल) में भी वे अपूर्ण ही रहते हैं। इसी कारण देखा गया है कि अधिकांश पदवीधारी इंजीनियर एक कुशल मिस्त्री से भी कम ज्ञान रखते हैं।
इस शिक्षा पद्धति का एक अन्य दोष यह भी है कि शिक्षित छात्र सफेदपोश तो बनना चाहते हैं, पर हाथ से परिश्रम नहीं करना चाहते। तकनीकी का ज्ञान रखने वाले उपाधिधारी भी चाहते हैं कि कल-कारखानों में काम करते उनके कपड़ों पर बल न पड़े, वे कुर्सी पर बैठे-बैठे आदेश भर देते रहें।
इस शिक्षा पद्धति का सबसे बड़ा दोष यह भी है कि इसमें अनुशासन, संयम, सदाचार, विनम्रता आदि सद्गुणों की उपेक्षा हो रही है। तथाकथित सेकयूलरवाद के नाम से विद्यालयों से धर्मशिक्षा को देश-निकाला दे दिया गया है। फलत: अधिकांश छात्रों में अनुशासन का अभाव, असंयम, उद्यण्डता, फैशनपरस्ती आदि दुर्गुण घर करते जा रहे हैं। भारतीय संस्कृति और सभ्यता से इनका परिचय ‘न’ के बराबर रह गया है। परीक्षा में नकल, बात-बात पर हड़ताल, गुरुजनों का अपमान इसी दोष का दुष्परिणाम है।
आधुनिक शिक्षा पद्धति का एक अन्य दोष यह भी है कि स्वाधीनता के 49 वर्ष बीतने पर भी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही है। आज छात्रों के गले में अंग्रेजी का फन्दा इतने जोरों से कंसा जा रहा है कि छात्रों को रोना भी अंग्रेजी में ही पड़ता है। हिन्दी तथा भारत की अन्य भाषाओं की दुर्दशा हो रही है। अंग्रेजी में ही विद्यार्थी अधिक मात्रा में अनुत्तीर्ण होते हैं और उसी के पढ़ने पर बल दिया जाता है, क्योंकि जीविका या नौकरी का साधन अंग्रेजी बन गई है। यह भारत को इक्कसवीं शताब्दी में ले जाने की नहीं, अपितु सौ साल पीछे धकेलने का षड्यन्त्र है।
स्वतन्त्रता के पश्चात् दो-तीन शिक्षा आयोग भी बैठ चुके हैं, पर शिक्षा पद्धति में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन भारतीयता के अनुरूप वे भी नहीं कर पाये। जनता सरकार ने आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में एक नई शिक्षा समिति गठित की थी, समाचार पत्रों में उसे उनके विचारों से भी किसी परिवर्तन की आशा नहीं है। कारण, सदस्यों का चिन्तन विदेशी और बासी है। राममूर्ति समिति की संस्तुतियां (सिफारिशें) भी आ गई, पर भूतपूर्व प्रधान मंत्री नरसिंह राव ने उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया था।
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उपसंहार
वस्तुत: यदि हम आज भारत को विश्व के समृद्ध राष्ट्रों की श्रेणी में ले जाना चाहते हैं तो शीघ्रातिशीघ्र हमें इस शिक्षा पद्धति को बदल देना चाहिए। आज शिक्षा का सम्बन्ध केवल नौकरी से ही नहीं जोड़ना है, बल्कि उसे नैतिकता से जोड़ना होता है। शिक्षा समाप्ति के बाद छात्र जीविका की चिन्ता से मुक्त हों, यह तो होना चाहिए, पर सबसे बड़ी बात यह है कि वह शिक्षा छात्रों में आत्मविश्वास जगाए। उनमें सच्चरित्रा आये और राष्ट्रीयता का विकास हो। उनमें अपने और अपने देश का गौरवपूर्ण रूप विद्यमान हो। वे देश के शक्तिबोध और सौन्दर्यबोध के प्रतिपूर्णत: जागरूक हो। आधुनिक शिक्षा पद्धति पर निबंध
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