अन्याय की पराजय : अत्याचारी राजा की कहानी

अन्याय की पराजय: आचार्य कालक शास्त्रों के ज्ञाता थे। जैन धर्म के तत्व को वे मन, वाणी और कर्म से धारण आचार्य कर चुके थे। उनकी बहन सरस्वती भी बहुत बुद्धिमती थी। सरस्वती ने भी प्रव्रज्या ले ली थी। भाई और बहन श्रमण समुदाय के साथ जैन आगमों का अपार ज्ञान यत्र-तत्र बांटते रहते थे।

अन्याय की पराजय

अन्याय की पराजय

एक बार आचार्य कालक उज्जयिनी आए। उनका श्रमण संघ और साध्वी बहन सरस्वती साथ थे। वे सभी उस उज्जयिनी नगरी में ठहर गए। उस समय वहां का शासक गर्दभिल्ल नाम का राजा था। वह वीर तो था, लेकिन चरित्रवान नहीं था।

राजा गर्दभिल्ल की नजर एक दिन साध्वी सरस्वती पर पड़ गई। सरस्वती का अपार सौंदर्य देखकर गर्दभिल्ल उस पर मोहित हो गया। राजा ने बलपूर्वक सैनिकों से साध्वी सरस्वती का अपहरण करा लिया और उसे राजमहल में रख लिया। आचार्य कालक ने यह अन्याय अपनी आंखों से देखा। उनकी सगी बहन क्रन्दन कर रही थी और राजा के सैनिक उसे बलपूर्वक ले जा रहे थे।

आचार्य कालक राजा गर्दभिल्ल की राजसभा में पहुंचे। उन्होंने निर्भीक स्वर में राजा गर्दभिल्ल से कहा- “यह कैसा अधर्म हो रहा है आपके राज्य में ? राजा का कार्य प्रजा की रक्षा करना होता है, न कि प्रजा पर अत्याचार करना। यदि राजा के सैनिक ही अपहरण करके साध्वी स्त्रियों का अपमान करने लगें, तो प्रजा क्या करेगी? आप तो राज्य के संरक्षक हैं। आपके द्वारा साध्वी का अपहरण कराया जाना तो कलंक ही है।”

राजा गर्दभिल्ल की राजसभा में अहिंसाव्रत को धारण करने वाले कालकाचार्य की निर्भीक वाणी गूंज उठी। सभा में मौन छाया हुआ था।

मोह और वासना मनुष्य को अंधा कर देते हैं। आचार्य कालक की सच्ची बातों को राजा गर्दभिल्ल ने अनसुना कर दिया। राजसभा में बैठे अमात्यगणों तथा प्रजा के श्रेष्ठजनों ने भी राजा को समझाया, लेकिन मूढपति राजा गर्दभिल्ल ने किसी की बात नहीं सुनी। वह वासना में अंधा-बहरा हो गया था।

आखिर आचार्य कालक का क्षत्रिय तेज जाग उठा। उन्होंने प्रतिज्ञा की ” अन्यायी, अतिचारी राजा गर्दभिल्ल को राजगद्दी से उतार कर ही चैन से बैठूंगा। साध्वी बहन को इस अन्याय से मुक्त कराके ही रहूंगा।”

आचार्य ने उद्घोषणा कर दी” मर्यादाहीन राजा को राज्य से हटाने में यदि मैं सफल नहीं हुआ, तो संघ के निकृष्ट जीवों से भी बुरी गति मेरी हो।”

उज्जयिनी में सभी जानते थे कि राजा गर्दभिल्ल बहुत शक्तिशाली हैं। उसके सामने बड़े बड़े योद्धा थर्राते थे। आचार्य कालक की प्रतिज्ञा का समाचार राजा को देकर अमात्य ने एक बार फिर समझाया- ‘महाराज! आचार्य कालक तेजस्वी जैन मतानुयायी हैं। प्रजा में उनका बहुत ही मान-सम्मान है। आप उनकी साध्वी बहन सरस्वती को आदरसहित श्रमण संघ में भेज दें। यही उचित है, महाराज!” ताकत के अभिमान में चूर राजा गर्दभिल्ल ने अमात्य की बात को भी अनसुना कर दिया।

अमात्य ने कहा- ” राजन्! आचार्य कालक क्षत्रिय वंश के हैं। उन्होंने प्रतिज्ञा की है कि इस अन्याय का बदला अवश्य लेंगे…”

अमात्य की बात बीच में ही काट कर राजा गर्दभिल्ल ने अट्टहास किया। उपहास करते हुए बोला- ” आप उस दुर्बल शरीर वाले साधु से इतना डर गए हैं, अमात्य ? आपको शर्म आनी चाहिए ऐसी दुर्बलता की बात कहते हुए। हम उस सुंदर स्त्री को कदापि नहीं लौटाएंगे। “

अमात्य समझ गए कि राजा के विनाश का समय निकट है। और किसी ने सच ही कहा है कि विनाश के समय बुद्धि चली जाती है।

आचार्य कालक बुद्धिमान थे। धैर्य को छोड़कर क्षणिक आवेश में कार्य करना उन्होंने सीखा ही नहीं था। वे जानते थे कि उज्जयिनी का राजा गर्दभिल्ल बहुत शक्तिशाली है। आसपास तो सभी उसका लोहा मानते थे। उसे गद्दी से उतारना आसान काम नहीं था, यह वह अच्छी तरह जानते थे ।

धैर्य के सागर आचार्य कालक ने राजा का ध्यान अपनी ओर से हटाने के लिए एक उपाय सोचा। वे उज्जयिनी के राजपथों और गलियों में पागलों की तरह प्रलाप करते हुए घूमने लगे। भीड़ इकट्ठी हो जाती, वे चिल्लाने लगते थे- “गर्दभिल्ल राजा हुआ, तो क्या हुआ ? उसकी रानियां बहुत सुंदर हैं, तो फिर मुझे इससे क्या ? नगर के लोगों ने कपड़े पहने हैं, तो मैं क्या करूं?” और फिर पागलों की तरह जोर-जोर से हंसते रहते थे।

इस प्रकार प्रलाप करते देखकर नगर के सभी लोगों ने यही समझा कि सगी बहन साध्वी सरस्वती के वियोग में आचार्य कालक पागल हो गए हैं। लोग उन्हें देखकर दया से भर उठते थे। राजा गर्दभिल्ल ने सुना कि आचार्य कालक पागल हो गए हैं, तो बहुत खुश हुआ।

उधर राजनीति के ज्ञाता आचार्य कालक ने कुछ दिनों तक उज्जयिनी की सड़कों और गलियों में यह नाटक किया जब उन्हें विश्वास हो गया कि राजा गर्दभिल्ल और नगर के निवासी उन्हें पागल समझकर उनकी ओर से उदासीन हो चुके हैं, तो उज्जयिनी से चुपचाप निकल पड़े।

वहां से चलकर आचार्य कालक सिंधु नदी के तट पर पहुंच गए। वहां अनेक शक सामंत ठहरे हुए थे। आचार्य कालक ने उन शक सामंतों को अपनी विद्याओं के विचित्र चमत्कार दिखाकर प्रभावित किया। शकों को उनका अपार ज्ञान देखकर आश्चर्य हुआ। दिनों-दिन उनकी श्रद्धा आचार्य कालक के प्रति बढ़ती गई।

उन शक सामंतों का मुख्य सामंत आचार्य कालक से बहुत अधिक प्रभावित था। एक बार उन शक सामंतों पर विपत्ति के विकराल बादल मंडराने लगे। वे घबराकर आचार्य कालक के पास पहुंचे। उन्होंने अपनी बुद्धि से अनुमान लगा लिया कि शक सामंतों का सिंधु तट पर रुकना खतरे से भरा हुआ है।

आचार्य कालक ने शकों से कहा- “सिंधु तट पर रहना आपके लिए खतरे से खाली नहीं है। तुरंत यहां से सिंधु पार करके सौराष्ट्र चलिए वहां संकट से मुक्ति मिल जाएगी।” आचार्य की सलाह मानकर सभी शक सामंत सिंधु नदी पार करके सौराष्ट्र में पहुंच गए।

इस प्रकार आचार्य कालक ने शकों को घोर संकट से बचा लिया था। सभी शक सामंत आचार्य के प्रति उपकार का भाव मानकर उनका और अधिक सम्मान करने लगे थे। वर्षा ऋतु आ गई थी। चारों तरफ मार्ग बंद हो गए थे। शक सामंतों के साथ आचार्य कालक को लंबे समय तक सौराष्ट्र में ही रुकना पड़ा।

इसी बीच एक दिन मुख्य सामंत ने शांति भाव से आचार्य कालक से कहा-” आपने हमें अपना परिचय नहीं दिया। कृपया बताइए कि आप कौन हैं? हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ?”

“आपने मुख्य सामंत का निश्छल आदर भाव देखकर आचार्य कालक प्रसन्न हो गए। उन्होंने उसे उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल के अन्याय की कथा सुनाई। आचार्य ने अपनी प्रतिज्ञा की बात भी शक सामंतों को बता दी। सारी बात सुनकर वह वीर सामंत सागर की तरह गरज उठा ” आचार्य प्रवर! आप हमारे लिए गुरु के समान ही पूज्य हैं। आपके साथ हुए घोर अन्याय का बदला हम उस नीच राजा से अवश्य लेंगे। आप निश्चित होकर हमारा मार्गदर्शन करें। आपकी प्रतिज्ञा अवश्य पूर्ण होगी और आपकी साध्वी बहन को भी अन्यायी राजा से शीघ्र ही मुक्ति मिलेगी।”

शरद ऋतु आ गई। विशाल सेना के साथ शक सामंत आचार्य कालक के निर्देशों का पालन करते हुए चल पड़े। मार्ग में पांचाल और लाट प्रदेशों पर उन्होंने विजय प्राप्त की। वीरता की ध्वजा फहराते हुए आचार्य कालक तथा शक सामंतों की सेना मालव प्रदेश की सीमा पर पहुंच गई। उज्जयिनी में भगदड़ मच गई।

राजा गर्दभिल्ल को अपनी गर्दभी विद्या का बड़ा घमंड था। वह समझता था कि जब तक उसके पास गर्दभी विद्या है, तब तक उसे कोई भी पराजित नहीं कर सकता। असल में वह गर्दभी विद्या का प्रयोग करके शत्रुओं को भ्रमित कर देता था। जब उसे किसी शत्रु के हमले की सूचना मिलती थी, तो वह गर्दभी विद्या को एक ऊंची अट्टालिका के ऊपर स्थापित करा दिया करता था। जब गर्दभी विद्या स्थापित हो जाती थी, तब राजा गर्दभिल्ल अष्टम तप की आराधना करता था। इस आराधना से विद्या सिद्ध हो जाती थी और गर्दभी बड़े विकराल स्वर में रेंकने लगती थी।

जैसे ही गर्दभी विद्या के विकराल रूप से रेंकने की आवाज शत्रुओं के कानों में पहुंचती थी, वैसे ही शत्रु के सैनिकों, हाथियों और घोड़ों के कान फट जाते थे उन्हें खून की उल्टियां होने लगती थीं और वे बेहोश होकर धरती पर गिरने लगते थे तब राजा गर्दभिल्ल शत्रु सेना पर धावा बोल देता था और विजयी हो जाता था।

आचार्य कालक को राजा गर्दभिल्ल के इस गुप्त रहस्य का ज्ञान था। उन्होंने गर्दभी विद्या से निबटने का उपाय खोज लिया। आचार्य कालक ने 108 शब्दबंधी धनुर्धर तैयार किए, जो शब्द सुनते ही एक क्षण में धनुषों से तीरों की वर्षा करके लक्ष्य को बेधने में कुशल थे। आचार्य कालक ने गुप्तचरों को भेजकर यह पता कराया कि गर्दभिल्ल ने उस विकराल गर्दभी विद्या को किस अट्टालिका पर स्थापित कराया है। पता लगाकर उन्होंने धनुर्धरों को वहां नियुक्त कर दिया।

पूरी तैयारी करके आचार्य कालक ने शक सामंतों से कहा- “अन्यायी राजा गर्दभिल्ल के पतन का समय आ गया है। मैं गर्दभी विद्या के प्रभाव को निस्तेज करने का प्रबंध कर चुका हूं। आप आक्रमण करें। आज मेरी प्रतिज्ञा पूरी होगी। अन्याय का आज अंत हो जाएगा।”

शक सामंत तो आचार्य कालक की आज्ञा का ही इंतजार कर रहे थे। राजा गर्दभिल्ल को कुछ भी पता न चल पाया कि कालकाचार्य ने क्या क्या किया है। वह तो अपनी उस आसुरी गर्दभी विद्या के भरोसे घमंड में चूर था।

शक सामंतों ने उज्जयिनी पर धावा बोल दिया।

बैठे 108 धनुर्धरों ने बाण छोड़ दिए। बाणों से गर्दभी का मुख भर गया। उसका प्रभाव नष्ट हो जैसे ही राजा गर्दभिल्ल के इशारे पर गर्दभी विद्या ने मुंह खोला, वैसे ही चारों ओर तैयार गया और जरा-सी भी आवाज नहीं निकली। उल्टे गर्दभी विद्या कुपित हो गई। वह अन्यायी राजा गर्दभिल्ल असहाय खड़ा रह गया।

राजा गर्दभिल्ल पर प्रहार करके अंतर्ध्यान हो गई।

शक सामंतों ने पूरी शक्ति से गर्दभिल्ल पर धावा बोल दिया। अपार सेना के सामने राजा गर्दभिल्ल की एक न चली। वह पराजित हो गया।

गर्दभिल्ल बंदी के रूप में आचार्य कालक के सामने लाया गया। जब उसने देखा कि आचार्य कालक सामने हैं और विजेता शक-सामंत हाथ जोड़कर उनके सामने सिर झुकाए हुए खड़े हैं, तो लज्जा और अपमान से उसका सिर झुक गया।

राजा गर्दभिल्ल को गद्दी से उतार दिया गया। मालव प्रदेश पर शकों का शासन हो गया। साध्वी बहन सरस्वती को मुक्त कराकर पुनः आचार्य कालक ने उन्हें दीक्षा दी और स्वयं भी प्रायश्चित किया।

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