महर्षि अरविन्द घोष का जीवन परिचय: महर्षि अरविन्द स्वतंत्रता का संदेश लेकर ही भारत की धरती पर आये थे। उनका जन्म 1872 ई० की 15 अगस्त के दिन बंगाल की धरती की गोद में हुआ था। आश्चर्य की बात है कि 1947 ई० की 15 अगस्त को ही भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी और 15 अगस्त के दिन ही अरविन्द का जन्म भी हुआ था।
महर्षि अरविन्द घोष का जीवन परिचय

Aurobindo Ghosh Biography in Hindi
हमारे देश में अधिकांश लोग महर्षि अरविन्द को महर्षि के ही रूप में जानते हैं। वे यही जानते हैं कि अरविन्द ने आज के वैज्ञानिक युग में भी योग की साधना के द्वारा अमूल्य सिद्धियां प्राप्त की थीं। अरविन्द के सम्बन्ध में लोगों की यह धारणा असत्य नहीं है, किन्तु अपने प्रारंभिक जीवन में अरविन्द योग-साधक के अतिरिक्त कुछ और थे।
प्रश्न है, वे कुछ और क्या थे? उत्तर है, वे महान क्रान्तिकारी थे। बंगाल के क्रान्तिकारी आन्दोलन के यदि वे जनक नहीं थे, तो इसमें रंचमात्र संदेह नहीं है कि उनसे क्रान्तिकारी आंदोलन को अत्यधिक प्रेरणा प्राप्त हुई थी।
उन्हीं की प्रेरणा से सैकड़ों बंगाली युवक क्रांति के रंगमंच पर आये थे और सैकड़ों हंसते-हंसते फांसी के तख्ते पर चढ़ गये थे। यदि यह कहा जाय, तो कदाचित् अत्युक्ति नहीं होगी कि उनके छोटे भाई वारीन्द्र को भी उन्हीं से प्रेरणा प्राप्त हुई थी।
यद्यपि अरविन्द ने क्रान्तिकारी के रूप में न तो बम बनाया और न पिस्तौल से किसी अत्याचारी गोरे की हत्या की; किन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि सशस्त्र क्रान्ति के लिए उन्हीं के ओजस्वी शब्दों से प्रेरणा प्राप्त हुई थी। जब भी क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास लिखा जायेगा, अरविन्द के त्याग, देश-प्रेम और साहस की चर्चा बड़े गर्व के साथ की जायेगी।
दोनों के साम्य से पता चलता है कि अरविन्द का जन्म भारत की स्वतंत्रता के लिए ही हुआ था। उन्होंने क्रान्तिकारी के रूप में साधना तो की ही, महान योगी के रूप में भी साधना की। उनकी ही दोनों साधनाओं का फल हमारी वह अमूल्य स्वतंत्रता है, जिसका हम आज उपभोग कर रहे हैं।
महर्षि अरविन्द के पिता का नाम के०डी० घोष था। घोष महोदय बड़ी ही उदार प्रकृति के थे। दान देने में अपनी समता नहीं रखते थे। बंगाल में खुलना के अस्पताल के सिविल सर्जन थे। वे बड़े शिक्षा प्रेमी थे। अपने सभी पुत्रों को उन्होंने अच्छी शिक्षा दिलाई थी।
महर्षि अरविन्द चार भाई थे। उनके सबसे छोटे भाई का नाम वारीन्द्र कुमार घोष था वारीन्द्रकुमार घोष महान क्रान्तिकारी थे। उन्होंने आजीवन क्रान्ति के पथ पर चलकर देश की सेवा की। वे देश की स्वतंत्रता के लिए ही वन्देमातरम् का गान गाते हुए फांसी के तख्ते पर चढ़ गये।
कितने आश्चर्य की बात है कि के०डी० घोष तो अंग्रेजी सभ्यता के पोषक थे, अंग्रेजों के प्रशंसक भी थे, किन्तु उनके दो-दो पुत्रों ने अंग्रेजी राज्य को उलटने में महान कीर्ति प्राप्त की। प्रायः लोग कहते हैं कि माता-पिता के अनुसार ही संतानें भी होती हैं, किन्तु के०डी० घोष की संतानें उनकी प्रकृति के बिल्कुल विपरीत थीं।
महर्षि अरविन्द की प्रारंभिक शिक्षा खुलना में ही हुई थी। किन्तु ऊंची शिक्षा उन्होंने इंग्लैण्ड में प्राप्त की। वे पढ़ने के उद्देश्य से कई वर्षों तक इंग्लैण्ड में रहे। उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्राचीन दर्शनशास्त्र की सफलतापूर्वक शिक्षा प्राप्त की।
उन्होंने सिविल सर्विस की परीक्षा भी दी थी। सभी विषयों में उत्तीर्ण हो गये थे, किन्तु घुड़सवारी में उत्तीर्ण नहीं हो सके थे। यदि वे घुड़सवारी में उत्तीर्ण हो जाते तो भारत में बहुत बड़े अफसर बनते। किन्तु अफसर बनने से क्या उन्हें वह गौरव प्राप्त होता, जो गौरव महान क्रान्तिकारी और महान योगी के रूप में प्राप्त हुआ है।
1903 ई० में अरविन्द की भेंट गायकवाड़ नरेश से हुई। वे उनके ज्ञान और उनके विचारों पर मुग्ध हो उठे। वे उन्हें अपने साथ बड़ौदा ले गये। बड़ौदा में अरविन्द गायकवाड़ नरेश के निजी सचिव के पद पर प्रतिष्ठित हुए।
अरविन्द कई वर्षों तक बड़ौदा में रहे। उन्होंने बड़ौदा में दो कार्य किये। एक तो यह कि वे बड़ौदा के राजा के निजी सचिव थे और दूसरा यह कि बड़ौदा राज्य के राजकीय विद्यालय के प्रधानाचार्य भी थे। बड़ौदा नरेश उनका बड़ा आदर करते थे।
1906-7 ई० के मध्य में बंगाल के विभाजन के प्रश्न को लेकर सारे बंगाल में बड़े जोरों का आन्दोलन हुआ। आन्दोलन दो प्रकार का था, प्रगट और गुप्त प्रगट आन्दोलन उन नेताओं के द्वारा चलाया जा रहा था, जो अहिंसा में विश्वास रखते थे। गुप्त आन्दोलन क्रान्तिकारियों का आन्दोलन था। सारे बंगाल में दोनों प्रकार के आन्दोलनों की धूम थी।
बंग-भंग विरोध आन्दोलन के साथ ही साथ स्वदेशी आन्दोलन भी चल रहा था। स्वदेशी के आन्दोलन के द्वारा स्वदेशी का प्रचार तो किया ही जाता था, विप्लववाद का भी प्रचार किया जाता था। एक ओर तो आन्दोलन चल रहा था और दूसरी ओर दमन चक्र भी चल रहा था। रोज ही गिरफ्तारियां होती थीं और रोज ही सजाएं दी जाती थी।
जेलों की सजाएं तो दी ही जाती थीं, फांसी और काले पानी की सजाएं दी जाती थी। अरविन्द के कानों में जब दमन चक्र का समाचार पड़ा, तो वे बड़ौदा से कलकत्ता जा पहुंचे। कलकत्ता में रहकर उन्होंने तीन मुख्य कार्य किये –
- स्वदेशी वस्तुओं का सारे देश में प्रचार किया
- नेशनल कॉलेज के प्रधानाचार्य के रूप में राष्ट्रीयता के बीज बोये
- ‘बन्देमातरम्’ का संपादन किया। अरविन्द जी ने सारे देश में घूम-घूमकर स्वदेशी का प्रचार किया।
1907 में अप्रैल के महीने में उन्होंने कलकत्ते की एक सभा में भाषण देते हुए कहा था, यदि स्वराज्य लेना है तो जनता को जगाना होगा। जनता को जगाने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा का प्रचार करना होगा। जागृत जनता ही परतंत्रता को समाप्त करके स्वराज्य स्थापित कर सकती है।
इसी प्रकार 1908 ई० में अरविन्द जी ने बम्बई की एक सभा में भाषण करते हुए कहा था, बंगाल की जनता जाग उठी है। वह अंग्रेजों के दमन से कदापि न झुकेगी। इसके विपरीत अंग्रेजी सरकार को ही घुटने टेकने पड़ेंगे, जनता के सामने झुकना पड़ेगा।
अरविन्द ने अपने भाषणों द्वारा स्वदेशी का प्रचार तो किया ही, ‘बन्देमातरम्’ और ‘युगान्तर’ के द्वारा भी स्वदेशी का प्रचार किया। उन्होंने ‘बन्देमातरम्’ और ‘युगान्तर’ में कई ओजस्वी लेख लिखे। उन्होंने अपने उन लेखों में स्वदेशी के प्रचार पर बल तो दिया ही था, तीव्र शब्दों में अंग्रेजी सरकार की दमन नीति की निन्दा भी की थी।
अरविन्द ने नेशनल कॉलेज के प्रधानाचार्य के रूप में सैकड़ों बंगाली युवकों के हृदय में क्रान्ति के बीज बोये और उन्हें देश की स्वतंत्रता के लिए महाक्रान्ति के यज्ञ में भाग लेने की प्रेरणा दी।
अरविन्द जी के इन कार्यों के प्रमाणस्वरूप अंग्रेजी सरकार ने उन पर कर्कश प्रहार किया। उनके ‘बन्देमातरम्’ में प्रकाशित लेखों के कारण उन पर राजद्रोह का मुकद्दमा चलाया गया। (मुकद्दमे में उन्हें जेल की सजा दी गई।
उन्होंने अपनी जेल की सजा को सुनकर कहा था, जेल की सजाओं, लाठियों की चोटों और फांसियों से आन्दोलन दबेगा नहीं। एक दिन आयेगा, जब भारत स्वतंत्र होगा और अंग्रेजों को भारत छोड़ कर चला जाना पड़ेगा।
जेल की सजा को पूरी करने के लिए अरविन्द को अलीपुर जेल में रखा गया। जेल की कोठरी में वे अपना समय तप और साधना में व्यतीत करने लगे। कहा जाता है, उन दिनों उनका मन दिन-रात कृष्ण भगवान के चरणों में लगा रहता था। वे बड़े प्रेम से गीता पढ़ा करते थे। यह भी कहा जाता है कि उनकी साधना और उनके प्रेम पर प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण भगवान ने ज्योति के रूप में उन्हें दर्शन दिया था।
जेल में ही अरविन्द जी का जीवन बदल गया था। उनके विचारों में गहरा परिवर्तन आ गया था। वे हृदय से यह अनुभव करने लगे थे कि भारत को स्वतंत्रता हिंसा से नहीं, साधना से प्राप्त हो सकती है। जब तक साधना से आलोक प्राप्त न किया जाएगा, दासता का अंधकार दूर न होगा।
अरविन्द जब कारागार से बाहर निकले तो गुप्तचर उनके पीछे लग गये। यद्यपि अब वे किसी आंदोलन में भाग नहीं लेना चाहते थे और शान्तिपूर्वक साधना में संलग्न होना चाहते थे, किन्तु अंग्रेज सरकार उन्हें अपने लिए संकट समझती थी। वह उन्हें जेल से बाहर रहने नहीं देना चाहती थी।
अतः अरविन्द ने कलकत्ता छोड़ देने का विचार किया। वे गुप्त रूप से कलकत्ता से पांडिचेरी चले गये। उन दिनों पांडिचेरी में फ्रांसीसियों का राज्य था। अंग्रेज फ्रांसीसियों की आज्ञा के बिना पांडिचेरी में उन्हें बन्दी नहीं बना सकते थे।
अंग्रेज सरकार को जब पांडिचेरी पहुंचने की बात मालूम हुई तो उसने उन्हें बन्दी बनाने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया, किन्तु उसे सफलता प्राप्त नहीं हुई। अरविन्द घोष का जीवन परिचय
अरविन्द ने पांडिचेरी में रहकर योग के द्वारा साधना की। आज के वैज्ञानिक युग में भी उन्होंने साधना के द्वारा सिद्धि प्राप्त करके यह दिखा दिया कि इस स्थूल जगत के अतिरिक्त एक और सूक्ष्म जगत है, जिसमें अनन्त शक्तियां हैं। वे शक्तियां ही मानव-जगत का संचालन करती हैं। यदि मनुष्य चाहे, तो वह योग के द्वारा उन शक्तियों का सान्निध्य प्राप्त कर सकता है।
इनकी मृत्यु 5 दिसम्बर 1950 को हुई थी। वे अपने ज्ञान, अपने प्रेम और अपनी दिव्यता के रूप में आज भी विद्यमान हैं, सदा विद्यमान रहेंगे।
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