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बैकुंठ शुक्ल का जीवन परिचय? बैकुंठ शुक्ल कौन थे आजादी में क्या योगदान था

बैकुंठ शुक्ल का जीवन परिचय: बैकुंठ शुक्ल का जन्म 1910 में बिहार के जिला मुजफ्फरपुर स्थित जलालपुर नामक गाँव में हुआ था। यह छोटा-सा गाँव छोटा-सा जरूर लगता है किन्तु इसी के निकट हाजीपुर शहर क्रान्तिकारियों की कर्मस्थली के रूप में सुप्रसिद्ध है। बैकुंठ शुक्ल कौन थे?

बैकुंठ शुक्ल का जीवन परिचय

बैकुंठ शुक्ल का जीवन परिचय
Baikunth Shukla Ka Jivan Parichay

Baikunth Shukla Biography in Hindi

सन् 1919 में पंजाब में दमन के विरुद्ध विद्रोह हुआ। इसके लिये नये उत्पीड़क उपाय ‘रौलेट ऐक्ट्स’ अंग्रेजों ने घोषित किये क्योंकि उस समिति के अध्यक्ष का नाम रौलट था। इससे बगैर मुकदमा चलाये व्यक्ति को कैद में डाला जा सकता था।

गांधी जी ने प्रतिरोध आन्दोलन द्वारा भारत में जन प्रदर्शनों-हड़तालों का आयोजन किया जिससे भारत में विद्रोह और अशान्ति की लहर फैल गयी। विदेशी सरकार ने दमन का सहारा ले आन्दोलन को दबाना शुरू कर दिया। पंजाब के जलियाँवाले बाग में, जो अमृतसर में था, एक सभा का आयोजन बुलाया।

सरकार ने अनुमति नहीं दी पर सभा में नागरिकों का समूह अपनी आवाज उठाने एकत्रित हुआ। यह सभा बाग में चारदीवारी से घिरे हुए स्थान पर हो रही थी जहाँ नागरिक मौन कार्यवाही सुन रहे थे। भीड़ निहत्थी थी जिसके चारदीवारी से निकल भागने का भी कोई मार्ग नहीं था।

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जनरल डायर ने उस बाग को घेर लिया। सैनिकों की टुकड़ियों ने भीड़ तितर-बितर करने के बहाने निहत्थे लोगों पर 1600 राउंड गोलियाँ चलायीं, सरकारी आँकड़ों के अनुरूप 379 व्यक्ति मारे गये और 1200 निर्दोष नागरिक इस जघन्य हत्याकांड में घायल हो गये।

इतना ही नहीं, पंजाब में ‘मार्शल ला’ लगा फौजी शासन कर दिया गया जिसके परिणामस्वरूप अनेकों लोग बन्दूक वध के शिकार बने, आसमान से बम वर्षा में मरे, फाँसियों पर लटकाये और अत्यन्त कठोर दंड दे कालेपानी भेजा गया। यह थी विदेशी शासन द्वारा चित्रित एक साधारण दृश्य की झाँकी जो उस समय की सामाजिक वातावरण की कहानी प्रस्तुत करती है।

बैकुंठ शुक्ल का बाल्यकाल

बैकुंठ शुक्ल का बाल्यकाल अभावग्रस्त बीता, ऊँची शिक्षा भी अर्जित नहीं कर सके। समीपवर्ती स्कूल से प्रशिक्षण की शिक्षा ग्रहण कर वे एक प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक बन आजीविका चलाने लगे। इस कार्य से रुचि हटी और साधुओं के सदृश सादे जीवन बिताने लगे।

कुछ दिनों के पश्चात् वे घर-बार छोड़कर ही चले गये। एक वर्ष बाद परिजनों ने तलाश लिया, घर लाकर समझाया-बुझाया और राधिका देवी नामक महिला के साथ बैकुंठ शुक्ल का पाणिग्रहण संस् सम्पन्न करा दिया गया।

गार्हस्थ्य-बन्धन बैकुंठ शुक्ल को अधिक दिनों तक अपनी जकड़ में नहीं रख सका और वे फिर साधु बनकर घर से भाग निकले। परिजनों ने उनको भयभीत करने के लिए दबाव डाला। प्रश्न किया कि अगर वैरागी जीवन व्यतीत ही करना है तो जमीन-जायदाद क्यों गले बाँधे फिरते हो?

बैकुंठ शुक्ल ने बड़ी सरलता से बगैर प्रतिरोध अपनी जमीन जायदाद अपने भाई के नाम लिख डाली। सभी लोग चकित थे अनकी सरलता पर मगर वे कोई आदेश थोपने को उत्सुक न थे जिस पर युवक चलने को इच्छुक ही न हो। इस प्रकार वे घर-बार छोड़ पूर्ण रूपेण संन्यासी के वेश में रहने लगे।

क्रान्तिकारी गतिविधियाँ

इन दिनों देश में क्रान्तिकारी गतिविधियाँ बड़ी तेजी से जोर पकड़ रही थीं। अंग्रेजों के अत्याचारों के विरोध में लोग बदले की भावना से संगठित मोर्चा लेने के इच्छुक थे। बहुत से नवयुवक दल उभर चले थे जो नौकरशाही से लोहा लेने के लिए अपनी तैयारी में जुटे थे।

जलालपुर गाँव के एक नवयुवक थे योगेन्द्र शुक्ल । वे अध्ययन करने काशी गये और पढ़ने की जगह उनका सम्पर्क वहाँ के क्रान्तिकारी दल के सदस्यों से हो गया। योगेन्द्र शुक्ल दल के सक्रिय सदस्य बने। बड़ी लगन, उत्साह, आत्मविश्वास और संयम से रह निर्भीकता से कार्यरत रहे जिसके कारण कुछ ही दिनों में क्रान्तिकारियों के विश्वसनीय सहयोगियों में उनकी गणना होने लगी।

सन् 1927 में वे वापिस बिहार लौट आये और अपनी रणस्थली हाजीपुर को ही बना वहाँ संगठन का गुप्त रूप से संचालन करने लगे। इसी हाजीपुर में चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह भी योगेन्द्र शुक्ल के यहाँ आते-जाते रहे और इसी दल से प्रभावित हो युवक बैकुंठ शुक्ल भी सक्रिय सदस्य के रूप में कार्य करने लग गये।

गांधी बाबा के नमक सत्याग्रह आन्दोलन की लहर बिहारी युवकों पर पूरी तरह हावी थी। नगर-नगर, गाँव-गाँव सभाएँ-जुलूस निकलते। एक जुलूस का नेतृत्व करते हुए 6 मास के लिए बैकुंठ शुक्ल को जेल में डाल दिया गया। जेल से निकल उनका हौंसला और बुलंद हो चला था।

जनता में स्वदेशी भावना जाग्रत करने और विदेशियों के विरुद्ध संगठित मोर्चा सम्भालने के लिए दल के नवयुवक बड़े उत्साह से कार्यरत थे। ‘गुप्त साहित्य’ गाँव-गाँव साइकिलों पर जाकर बाँटते प्रचार कार्यों में जुटे थे। इस दल कल विशेष गतिविधियों पर पुलिस की नजर थी।

एक दिन अचानक कार्यालय पर पुलिस दल की टुकड़ी ने छापा मारा। कुछ सदस्य मौके पर बन्दी बना लिये गये मगर बैकुंठ शुक्ल पुलिस की आँखों में धूल झोंक उन्हीं के सामने साइकिल पर सवार हो चतुराई से निकल भागे।

बिहार क्रान्तिकारी संगठन का कार्य एक पुराने साहसिक कामरेड फणीन्द्र घोष के संचालन में क्रियाशील था। इस क्षेत्र में उन्हीं के उत्तरदायित्व में नवयुवकों को दल में भरती किया जाता क्योंकि वे हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र सेना की केन्द्रीय समिति के सम्मानित सदस्य भी थे।

1914 से 1918 तक बहुत-से साहसिक कार्य फणीन्द्र घोष ने किये थे और नजरबन्दी भी काटी थी। महत्त्वपूर्ण विश्वस्त क्रान्तिकारियों की श्रेणी में गिने जाते। किन्तु ‘काकोरी कांड’ के पश्चात् जब संगठन शिथिल होने लगा तो कार्यकर्ताओं में भी बिखराव एवं अनुशासनहीनता आने लगी।

कामरेड फणीन्द्र घोष ने चुपचाप एक महिला से दल की अनुमति के बिना विवाह कर लिया। नियमानुसार विवाहित लोग दल के सदस्य नहीं बनाये जाते थे और अविवाहितों को विवाह पूर्व दल की अनुमति अनिवार्य थी। फणीन्द्र घोष ने विवाह सम्बन्धी सूचना सहयोगियों से छुपाकर गोपनीय रखी।

एसेम्बली बमकांड

‘एसेम्बली बमकांड’ और ‘लाहौर बम फैक्टरी’ के अभियुक्तों की तलाश में पुलिस की नजर फणीन्द्र घोष पर थी। उसके गुप्त विवाह के रहस्य को पुलिस जानती थी इसलिए खुफिया तौर पर फणीन्द्र घोष की ससुराल पर उसकी कड़ी नजर थी।

वह एक दिन मस्ती में मुस्कराता पत्नी से मिलने के लिए जैसे ही ससुराल की दहलीज में प्रवेश किया पुलिस अधिकारियों ने उसके हाथों में हथकड़ियाँ जकड़ जेल भेज दिया। पत्नी के प्रेम में व्याकुल क्रान्तिकारी फणीन्द्र घोष ने संयम तोड़ दिया, वह पुलिस मुखबिर बन षड्यन्त्र के रहस्य खोलने को तैयार हो गया।

क्षमा के लिए दल का रहस्य बताते हुए उसने यतीन्द्रनाथ दास और सहारनपुर में डॉ. गया प्रसाद के अतिरिक्त अनेक दल सहयोगी पकड़वाये। फणीन्द्र की उम्र अधिक होने के कारण आदर से लोग ‘दादा’ शब्द से सम्बोधित करते मगर उसने झाँसी स्थित दल के गुप्त पते की जानकारी दे चन्द्रशेखर तक को बन्दी बनवाने का प्रयास किया।

पुलिस फणीन्द्र घोष का सशक्त क्रान्तिकारी दल को छिन्न-भिन्न करने के लिए एक शस्त्र के रूप में प्रयोग करना चाहती थी। भगवानदास माहौर और सदाशिव राव मलकापुरकर बम बनाने के रासायनिक पदार्थों, दो जीवित बम और कारतूस लिये ग्वालियर पहुँचना चाहते थे, दुर्भाग्यवश भुसावल में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।

चन्द्रशेखर ने निर्णय ले लिया था कि फणीन्द्र घोष को तत्काल गोली मार दी जाये। भगवानदास माहौर व सदाशिव राव मलकापुरकर को जलगाँव जेल में रखकर मुकदमा चलाना शुरू किया। इनके विरुद्ध जयगोपाल और फणीन्द्र घोष के गवाही देने जलगाँव जाने से पूर्व योजना बनी कि भगवानदास स्वयं फणीन्द्र घोष को गोली मारेंगे इसीलिए चन्द्रशेखर द्वारा पहचान परेड से पूर्व रिवाल्वर भी पहुँचवा दिया गया।

उनका आदेश था कि गोली से फणीन्द्र घोष को पहले उड़ाया जाये। फणीन्द्र घोष व जयगोपाल जलगाँव लाये गये और कचहरी के पुलिस तम्बू में थे भगवानदास माहौर ने सावधानी से पुलिस तम्बू में प्रवेश किया, दोनों विश्वासघातियों का निशाना साध गोलियाँ चलायीं मगर दुर्भाग्यवश दोनों ही बच निकले।

इसी प्रकार इलाहाबाद में भी फणीन्द्र घोष को गोली से उड़ाने का कार्य दुबारा असफल हो गया। चन्द्रशेखर ने अब यह कार्य बैकुंठ शुक्ल के सुपुर्द कर निर्णय दिया कि फणीन्द्र घोष हर कीमत पर मारा जाना चाहिए। अब बैकुंठ शुक्ल सारी योजना को नये सिरे वे संचालित करने में जुट गये। विश्वासघाती विभीषण की मौत उसके सिर पर मँडरा रही थी।

मगर फणीन्द्र घोष अनुभवी क्रान्तिकारी होने के कारण दाव-पेंच लड़ा पंछी की तरह उड़ निकलता। लेकिन दल का निर्णय बैकुंठ शुक्ल की । आँखों में हर समय नाचता हुआ कदमों को एक निश्चित स्थान पर टिकने नहीं दे रहा था वे तेजी से फणीन्द्र के पीछे दौड़ रहे थे।

8 दिसम्बर, 1930 को अंग्रेजी पोशाक में क्रान्तिकारी विनय कृष्ण बोस, गुप्त और सुधीर कुमार गुप्त धीमे से राइटर्स बिल्डिंग्स में घुसे बाहर दिनेश चपरासी दरवाजे पर खड़ा था उसे धक्का दे दूर हटा दिया और सिम्सन को घेर उसे मार डाला। जब वे बाहर निकलने लगे तब एक गोरे ने रास्ता रोका। उस पर इन्होंने गोलियाँ चलायीं।

इस बीच पुलिस गाड़ी सिपाहियों के साथ पहुँच चुकी थी जिसने कोठी को चारों ओर से घेर आगे बढ़ चेतावनी दी वे आत्म-समर्पण करें, अन्यथा भून डाले जायेंगे, वे भाग नहीं सकेंगे। तीनों ने खिड़कियों से झाँककर देखा सचमुच सुरक्षित यहाँ से भाग निकलना सम्भव नहीं, जान बचाने का अन्य कोई रास्ता शेष नहीं बचा, इन्होंने आत्महत्या का प्रयास किया। पुलिस दरवाजे को तोड़कर कमरे में घुसी।

सुधीर कुमार गुप्त शहीद हो चुके थे, विनय ने अस्पताल पहुँचने से पूर्व प्राण त्याग दिये और दिनेश गुप्त को नौकरशाही ने फाँसी पर चढ़ा दिया। वास्तव में मेदनीपुर के बलिदानी कहानियाँ बंगाल के घर-घर में स्फूर्ति एवं त्याग की भावना भर नवयुवकों को संघर्ष करते हुए मर मिटने की प्रेरणा दे रही थीं।

बैकुंठ शुक्ल के नेत्रों में ऐसे क्रान्तिकारियों की जीवन गाथा चलचित्र के समान नाच उठी। मन में फणीन्द्र घोष का विश्वासघाती दृश्य भी उतरकर तैरने लगा-‘कितना नीच और पाशविक वृत्ति का स्वार्थी व्यक्ति है वह, जिसने केवल सुखी जीवन के लिए संगठन को धोखा दिया, सहयोगियों के खून से होली खेली, लेकिन भागकर जायेगा कहाँ ?’

उसकी मुट्ठियाँ सोचते सोचते तन गयीं। वह पथरीले टीले से उठा और फिर अपनी मंजिल की ओर चल पड़ा। उसे पता चला था, फणीन्द्र बेतिया में निवास करता है। बैकुंठ शुक्ल का जीवन परिचय

लाहौर षड्यन्त्र केस

‘लाहौर षड्यन्त्र केस’ के क्रान्तिकारियों में से अनेकों को फाँसी पर चढ़वा कर, कालापानी भिजवाकर पुलिस से जो धन फणीन्द्र ने इनाम-स्वरूप अर्जित किया, उससे सारा जीवन आराम से बैठ चैन की बंसी बजा सकता था।

क्रान्तिकारी आन्दोलन की जड़ें अब उखड़ गयी हैं, शेष सहयोगी अब उसका पीछा करने से घबराते हैं, कतराते हैं। फणीन्द्र की सोच उसे सान्त्वना दे देती और वह निश्चिन्त हो उठता। अब उनसे कोई खतरा नहीं है। मीना बाजार में वह शतरंज और ताश से मन बहलाता बैकुंठ शुक्ल के कदम बेतिया पहुँचकर मीना बाजार के निकट प्रवेश द्वार पर रुका।

यह कलकत्ते की न्यू मार्केट के ढंग से बड़ी तरतीब से बसा था। इसके चार प्रवेश द्वार थे। पैरों से वह मीना बाजार के उस दूकान तक सरलता से पहुँच गया जहाँ फणीन्द्र शतरंज की चाल में खोया था। वह और निकट पहुँच गया। चुपके से बैकुंठ शुक्ल ने अपनी कमर से नेपाली खुखरी निकाल फणीन्द्र पर ऐसा भरपूर वार किया कि वह धराशायी हो लुढ़क गया।

सुरक्षा गार्ड जो सरकार द्वारा उसे मिला था वह अपनी जान बचाकर भाग छूटा। शतरंज पर बैठे खिलाड़ी इस खेल को समझ भी नहीं पाये थे कि बैकुंठ शुक्ल हवा के झोंके के समान एक व्यक्ति की साइकिल छीन मीना बाजार से बाहर निकल गया। शतरंज की बिसात पर बैठे एक खिलाड़ी ने दूकान से उतर दौड़ लगायी और साइकिल रोकने का प्रयास किया।

बैकुंठ शुक्ल ने उसे भी मौत की नींद में सुला दिया। दूसरा पनवाड़ी जो सामने की दूकान से बचाने दौड़ा वह घायल अवस्था में लौट गया जिस पर शुक्ल ने गोली चला दी थी। नारायणी नदी के निर्जन किनारे पर बैकुंठ शुक्ल ने उस साइकिल को छोड़ दिया और बेतिया से लापता हो गया। खुफिया विभाग ने नारायणी नदी के किनारे पड़ी साइकिल उठा ली। उसमें एक धोती बँधी थी।

जाँच-पड़ताल में पुलिस दरभंगा जा पहुँची जहाँ की लांडरी का धोती पर निशान था। लांडरीवाला निकट के मुहल्ले में रहनेवाले युवक गोपाल नारायण के घर पुलिस को ले पहुँचा। गोपाल नारायण शुक्ल को, जो मेडिकल का छात्र था, सी. आई.डी. ने गिरफ्तार कर लिया। उसने स्वीकार किया कि यह धुली धोती उसकी ही है। बैकुंठ शुक्ल फरार हैं, बड़े क्रान्तिकारी हैं।

आगे गोपाल नारायण ने स्पष्ट किया, ‘बैकुंठ शुक्ल उसके घर आये थे फणीन्द्र की जानकारी लेने। एक सप्ताह पूर्व यह धोती वे ले गये थे। मैंने इसे पहचान लिया है।’ गोपाल नारायण सरकारी गवाह बन गया और विश्वासघात करने के परिणामस्वरूप उसे सरकार ने दरोगा बना दिया।

बैकुंठ शुक्ल की गिरफ्तारी के लिए इनाम घोषित हुआ। गोपाल नारायण ने फणीन्द्र घोष की हत्या के रहस्य को खोल दिया था। पुलिस बैकुंठ शुक्ल चाहती थी। उसे पकड़वाने के लिए एक जगन्नाथ सिंह नामक युवक एड़ी-चोटी का पसीना बहा ऊँचा इनाम प्राप्त करने का आकांक्षी था।

उसने पुलिस को सूचित किया – आज बैकुंठ शुक्ल हाजीपुर में सायंकाल प्रवेश करेगा। हाजीपुर के बाहर नदी पर विशाल पुल था। नदी बरसात में भीषण उत्पात मचाती थी मगर इस समय भी हाथी डुबान जल उसमें अठखेलियाँ कर रहा था। पुलिस ने शाम होने से पहले सादी वर्दी में पुल के इर्द-गिर्द अपनी किलेबन्दी ऐसी मजबूत बना ली जिसमें यदि शिकार प्रवेश कर जाये तो निकल न सके ।

बैकुंठ शुक्ल अप्रत्याशित खतरों से भी सावधान अपनी साइकिल से पुल के प्रवेश द्वार में घुसा। उसका अंगूठा असावधानी से ज्यों ही घंटी पर टकराता उसका स्वर गूँज उठता, वह सावधान हो उठता। बैकुंठ शुक्ल का जीवन परिचय

बीच में मंझधार तक बेचैन साइकिल तीव्रता से बढ़ती रही। वह अचानक रेलिंग के निकट दो क्षण उतरकर खड़ा हो गया। इधर-उधर, इर्द-गिर्द, आगे-पीछे, नीचे-ऊपर, दूर-दूर तक अपनी पैनी नजरें दौड़ाकर अपना मस्तक झुकाकर पुल के नीचे कल-कल करती नदी के पावन जल को नमस्कार किया।

जैसे यही पतित पावनी वैतरणी संकट के समय कल्याणी है। रक्षा के लिये वह अपनी गोद में स्थान देती है जब भी व्यक्ति उसकी शरण में कूदकर जाता है। नदी के पावन जल में उसके नेत्र कुछ क्षण आनन्द से डूबे रहे फिर यात्रा को संकट मुक्त समझ साइकिल पर सवार हो वह आगे बढ़ता गया।

साइकिल दूसरे द्वार से बाहर निकल पुल की निचली ढलान से ज्यों ही मुड़ी प्रतीक्षारत पुलिस टुकड़ी ने घेरकर बन्दी बना लिया। मोतीहारी में मुकदमा चलाया गया। पुलिस ने फतेहगढ़ से ला चन्द्रमा सिंह को भी इस केस में फँसाने के लिए प्रयास किया मगर अपराध प्रमाणित होना सम्भव नहीं था। बैकुंठ शुक्ल को फाँसी की सजा सुनायी गयी। सहयोगी महन्त रामशरण दास और भवन सिंह को लम्बी सजाएँ मिलीं। 14 अप्रैल, 1934 को यह वीर क्रान्तिकारी बैकुंठ शुक्ल फाँसी के तख्ते पर मुस्कराते हुए चढ़ गये।

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