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बक्सर के युद्ध का क्या कारण था? बक्सर युद्ध के क्या परिणाम हुए?

बक्सर के युद्ध का क्या कारण था ( Buxar Ke Yudh Ka Kya Karan Tha ), बक्सर का युद्ध 23 अक्टूबर, 1764 ई. में मेजर हेक्टोर मुनरो 30,000 से 50,000 तक अनुमादित अंग्रेजी सेना के साथ बक्सर पहुँचा वहां एक घमासान युद्ध में शुजा को बुरी तरह पराजित किया। बक्सर के युद्ध से पहले शुजा ने मीर कासिम से प्रस्तावित धन लेने की माँग की और जब मीर कासिम ने धन देने में असमर्थ था तो शुजा ने उसे गिरफ्तार कर लिया। बक्सर के युद्ध से ठीक पहले मीर कासिम कैद से भाग निकला और वर्षों 1777 ई. में उसकी बड़ी दयनीय स्थिति में मृत्यु हो गई।

बक्सर के युद्ध का क्या कारण था (Buxar Ke Yudh Ka Kya Karan Tha)

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बक्सर का युद्ध क्यों हुआ

9 जुलाई, 1763 ई. को बर्दवान के निकट कटवा में, 2 अगस्त, 1763 ई. को मुर्शिदाबाद जिले में गीरिया में, 4-5 सितम्बर, 1763 ई. को राजमहल के निकट उधौनला में अंग्रेजों के हाथों पराजित होने के बाद मीर कासिम मुंगेर की तरफ भागा और तदुपरान्त पटना की ओर पटना की ओर जाते समय उसने मुँगेर के कुछ प्रमुख भारतीय लोगों, जिनमें रामनारायण, दो सेठ बन्धु, राजा बल्लभ व उनके बेटे शामिल थे, को अंग्रेजों के साथ साँठ गाँठ करने के सन्देह में निर्ममतापूर्वक मरवा दिया।

इसी प्रकार पटना में उसने अनेक अंग्रेज बंदियों की हत्या करवा दी। स्पष्टतः पूर्वोक्त लगातार पराजयों से वह निराश हो चुका था। पटना से अंग्रेजों ने उसका कर्मनाशा नदी तक पीछा किया। उसने कर्मनाशा को पार करके अवध के प्रदेश में प्रवेश किया। पानीपत के तृतीय युद्ध के बाद अवध का नवाब शुजाउद्दौला स्वयं को शक्तिशाली अनुभव कर रहा था। वह पानीपत के तृतीय युद्ध में अहमदशाह अब्दाली का मित्र और सहयोगी रह चुका था और उत्तर भारत में मराठा शक्ति के पतनोपरान्त वह मराठा संकट से भी मुक्त था।

शरणार्थी सम्राट शाह आलम द्वितीय ने बिहार पर अपने तीसरे विफल आक्रमण के उपरान्त शरण ली थी। उसने अवध के नवाब शुजाउद्दौला को अपना वजीर नियुक्त किया। अब वह एक प्रतिष्ठित पद मात्र रह गया था और इसके साथ कोई प्रशासनिक दायित्व सम्बद्ध नहीं थे, क्योंकि मुगल सम्राट के पास शासन करने के लिए कोई प्रदेश ही नहीं रह गए थे।

शुजा ने अपनी सैन्य शक्ति के द्वारा दिल्ली में शाह आलम को मुगल पैतृक राजसिंहासन पर पुनर्स्थापित करने का विफल प्रयास मुगल साम्राज्य का पतन और अंग्रेजी राज्य की स्थापना / 31 किया। अंग्रेजों के साथ-साथ मीर कासिम का शुजाउद्दौला के प्रति भी अनुकूल दृष्टिकोण नहीं था, क्योंकि इन दोनों को यह शक था कि शुजा की बंगाल सूबे पर कुदृष्टि है, अर्थात् वह बंगाल को अवध में शामिल करना चाहता है,

परन्तु दिसम्बर, 1763 ई. में बिहार से अपने निष्कासन के बाद मीर कासिम को शुजाउद्दौला से सहायता की याचना करनी पड़ी, क्योंकि मराठों, जाटों या रूहेलों से सैनिक सहायता की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। मीर कासिम यह सोचता था कि मुगल साम्राज्य के वजीर के रूप में शुजा एक मुगल सूबे के अपदस्थ सूबेदार की सहायता करेगा।

मुगल साम्राज्य वस्तुतः अब तक मर चुका था, परन्तु देश में इसकी अभी भी राजनीतिक एवं नैतिक प्रतिष्ठा थी। जनवरी, 1764 ई. में वह मीर कासिम शुजा से मिला और अन्ततः मार्च, 1764 ई. में वह मीर कासिम की सहायता करने के लिए तैयार हो गया।

इस सम्बन्ध में इन दोनों के मध्य हुए समझौते के द्वारा यह तय हुआ कि मीर कासिम सैनिक खर्ची के लिए शुजा को 11 लाख रुपये प्रतिमाह प्रदान करेगा। बंगाल की गद्दी पर पुनस्थापित हो जाने के बाद बिहार के प्रान्त का अवध के साथ विलय कर देगा और प्रस्तुत अभियान के सफल समापन के उपरान्त 3 करोड़ रुपये नकद प्रदान करेगा।

मीर कासिम और शुजा की संयुक्त सेना में डेढ़ लाख सैनिक थे। विभिन्न जातीय तत्त्वों से गठित इस सेना ने अप्रैल, 1764 ई. में कर्मनाशा नदी को पार किया। इस सेना में प्रशिक्षण और अनुशासन दोनों का अभाव था और चूँकि इसके कोई समान हित और लक्ष्य नहीं थे, अत: यह एक प्रभावशाली योद्धा शक्ति नहीं हो सकती थी।

इसके अतिरिक्त शुजा, मीर कासिम एवं शाह आलम, जो इस अभियान के साथ थे, के मध्य हितों एवं उद्देश्यों के सम्बन्ध में समन्वय की सम्भावना भी नहीं की जा सकती थी। मीर कासिम शुजा को प्रस्तावित धनराशि देने से बचना चाहता था और शुजा धन और प्रदेश दोनों ही प्राप्त करने का इच्छुक था।

बक्सर के युद्ध से पूर्व शुजा ने मीर कासिम से प्रस्तावित धन अदा करने की माँग की और जब मीर कासिम ने धन अदा करने में असमर्थता व्यक्त की, तो शुजा ने उसे गिरफ्तार कर लिया। बक्सर के युद्ध से ठीक पूर्व मीर कासिम कैद से भाग निकला और अनेक वर्षों बाद 1777 ई. में उसकी बड़ी दयनीय स्थिति में मृत्यु हो गई।

मई, 1764 ई. में पटना के आसपास कुछ सैनिक अभियानों के उपरान्त शुजा ने बक्सर के किले में अपना अड्डा जमाया और वहीं वर्षा ऋतु बिताई। मेजर कार्नेक, जिसे शुजा के विरुद्ध के कम्पनी की सेनाओं का सेनानायक बनाया गया था, इस संपूर्ण स्थिति से संतोषजनक रूप से निपटने में सफल नहीं रहा।

उसके स्थान पर मेजर हेक्टोर मुनरो को नियुक्त किया गया, जिसने रोहतास के महत्त्वपूर्ण किले पर अधिकार कर लिया और 30,000 से 50,000 तक अनुमादित अंग्रेजी सेना के साथ बक्सर पहुँचा। यहीं उसने 23 अक्टूबर, 1764 ई. को एक घमासान युद्ध में शुजा को बुरी तरह पराजित किया। शुजा की सेना में विद्यमान पूर्वोक्त मूलभूत दोषों के अतिरिक्त उसके द्वारा युद्धक्षेत्र में सैन्य अभियान की अकुशल योजना, उसके विनाश के प्रमुख कारण थे।

बक्सर के युद्ध के परिणाम (Consequences of the Battle of Buxar)

बक्सर का युद्ध मीर कासिम के साथ शुजा के समझौते या गठबन्धन का परिणाम था और इसी आधार पर बंगाल की राजनीतिक घटनाओं से संबंधित था, परन्तु इससे मीर कासिम के भविष्य पर प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि वह तो मुनरो के आक्रमण से पूर्व ही शुजाउद्दौला के साथ सम्बन्ध विच्छेद कर चुका था।

इस युद्ध में पराजय के परिणाम शुजा को ही झेलने पड़े। केवलमात्र एक ही आघात ने उत्तर भारत के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली शासक को धूलिसात कर दिया। शुजा ने बक्सर में अपनी पराजय के बाद बड़े हतोत्साहित ढंग से युद्ध को चालू रखा, परन्तु अंग्रेजों द्वारा वाराणसी, चुनार और इलाहाबाद पर अधिकार कर लेने के उपरान्त उसकी सेनाओं ने भी उसका साथ छोड़ दिया।

इस निराशाजनक स्थिति में वह आनुवांशिक शत्रुओं रूहेलों और फर्रुखाबाद के बंगश नवाबों के साथ-साथ मराठों तक से सैनिक सहायता और शरण प्राप्त करने के लिए भटकता फिरा। उसके दो सूबों अवध और इलाहाबाद पर अंग्रेजों ने प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित कर लिया। जब युद्ध को नये सिरे से पुनः प्रारम्भ करने के सम्बन्ध में उसके समस्त प्रयास विफल रहे, तो उसने अंग्रेजों के सम्मुख ।

बिना शर्त आत्मसमर्पण करके सुरक्षा की याचना की। शाह आलम पहले ही अंग्रेजों की शरण में चला गया था। सैनिक दृष्टि से बक्सर अंग्रेजों की बहुत बड़ी सैनिक सफलता थी। प्लासी के युद्ध में सिराज-उद्-दौला की पराजय उसके अपने ही सेनानायकों के विश्वासघात के कारण हुई थी,

परन्तु बक्सर में अंग्रेज शुजा के खेमे की सहायता के बिना ही विजयी हुए। इसके अतिरिक्त शुजा, सिराज की भाँति अनुभवहीन और मूर्ख युवक नहीं था, बल्कि वह युद्ध और राजनीति दोनों में निपुण व्यक्ति था।

ऐसे शासक के विरुद्ध विजय प्राप्त करने से कम्पनी की प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि हुई। इस अन्तिम चुनौती पर विजय प्राप्त करने से बंगाल में अंग्रेजी सत्ता के प्रभुत्व के स्थापना की प्रक्रिया पूरी हो गई और अवध – इलाहाबाद क्षेत्र के द्वारा भी उनके प्रभाव विस्तार के लिए उन्मुक्त हो गए।

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