बंता सिंह का जीवन परिचय (Banta Singh Ka Jeevan Parichay), बन्तासिंह का जन्म 1890 पंजाब के जालंधर जिले के सगवाल नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता बूटासिंह बड़े धर्मप्रिय और साहसी थे। वे सदा धार्मिक कार्यों में लगे रहते थे। वे एक अच्छे किसान थे और अच्छे उद्यमी भी। बन्तासिंह की अवस्था जब पांच-छ: वर्ष की हुई, तो वे पढ़ाई-लिखाई करने लगे। वे पढ़ने-लिखने में बड़े तेज थे। उन्हें जो कुछ पढ़ाया जाता था, वह उनके हृदय पटल पर अंकित हो जाया करता था। उन्होंने छठी और सातवीं कक्षाओं की परीक्षाएं एक ही वर्ष में पास कर ली थीं।
बंता सिंह का जीवन परिचय

Banta Singh Ka Jeevan Parichay
बिजली तभी उत्पन्न होती है, जब दो बादल आपस में टकराते हैं। हम अपने घरों में जिस बिजली का उपयोग करते हैं, वह भी संघर्ष से उत्पन्न होती है। संघर्ष अवगुण नहीं बहुत बड़ा गुण है। मनुष्य को स्वतंत्रता का सुख संघर्ष से ही प्राप्त होता है।
संसार में जिन देशों के निवासी संघर्षशील होते हैं, वे ही स्वतंत्रता के सुखों का उपभोग करते हैं। रूसी लेखक टालस्टाय ने एक स्थान पर लिखा है- स्वतंत्रता वीरों के लिए है, कायरों के लिए नहीं। स्वतंत्रता वीर पुरुषों का उसी प्रकार वरण करती है, जिस प्रकार एक कुमारी युवती सत्पुरुष का वरण करती है।
बन्तासिंह में संघर्ष का बहुत बड़ा गुण था। उन्होंने अपने जीवन में देश की स्वतंत्रता के लिए सदा संघर्ष किया। यद्यपि वे स्वतंत्रता के सुखों का उपभोग नहीं कर सके, किन्तु वे स्वतंत्रता प्राप्ति की कामना में चिर निद्रा में अवश्य सो गये। उनकी सब से बड़ी कामना थी
बन्तासिंह प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात् जालंधर चले गये। वहां डी०ए०वी० कॉलेज में नाम लिखा कर पढ़ने लगे। बन्तासिंह जिन दिनों दसवीं कक्षा में पढ़ रहे थे, उन्हीं दिनों कांगड़ा जिले में बड़े जोरों का भूकंप आया।
हजारों मनुष्य बिना घर-द्वार के हो गये, चारों ओर से दुःख भरी आवाजें आने लगीं। बन्तासिंह के कानों में जब भूकम्प पीड़ितों की करुण पुकारें पड़ीं, तो उनका मन व्याकुल हो उठा। वे पढ़ना-लिखना छोड़कर भूकम्प पीड़ितों की सेवा के लिए निकल पड़े।
बन्तासिंह ने भूकम्प पीड़ितों की सेवा के लिए एक दल स्थापित किया। वे स्वयं उस दल के अध्यक्ष थे। उन्होंने कांगड़ा जिले में घूम-घूम कर जिस प्रकार भूकम्प पीड़ितों की सेवा की, उन्हें सहायता पहुंचाई, उससे वे जन-जन प्रिय बन गये। सारे जिले में उनका नाम गूंजने लगा, सभी लोग उनका आदर-सम्मान करने लगे।
बन्तासिंह ने किसी प्रकार हाई स्कूल की परीक्षा पास की हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के पश्चात् वे चीन चले गये; किन्तु वहां उनका मन नहीं लगा, अतः वे चीन से अमेरिका चले गये। उन दिनों अमेरिका में बहुत से भारतीय रहते थे।
अमरीकी सरकार उनके साथ बहुत बुरा बर्ताव करती थी। बन्तासिंह ने जब भारतीयों की दुर्दशा देखी, तो उनका मन दुःख से जर्जर हो गया। उन्होंने अनुभव किया कि भारतीयों की यह दुर्दशा भारत की परतंत्रता के कारण हो रही है। अतः उन्होंने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि जीवित रहेंगे तो स्वतंत्र होकर, नहीं तो मृत्यु की गोद में सो जायेंगे।
बन्तासिंह प्रतिज्ञा करके भारत लौट आये। उन्होंने अपने गांव में स्कूल और पंचायत की स्थापना की। पहले लोग अपने झगड़ों का फैसला कराने के लिए अदालतों में जाते थे, किन्तु जब बन्तासिंह ने पंचायत की स्थापना की, गांव के झगड़ों का फैसला पंचायत में ही होने लगा।
पंचायत में बन्तासिंह जी के द्वारा जो फैसला होता था, उसे दोनों पक्षों के लोग आदरपूर्वक स्वीकार कर लेते थे। एक बार एक ऐसा मामला पंचायत में आया, जो चीफ कोर्ट में जा चुका था। बन्तासिंह ने उस मामले का भी ऐसा फैसला कर दिया कि दोनों पक्षों के लोग संतुष्ट हो गये।
बन्तासिंह का नाम धीरे-धीरे चारों ओर फैल गया। गांवों की जनता उन्हें अपना नेता मानने लगी। इधर यह हुआ और उधर गोरी सरकार के अधिकारियों के कान खड़े हो गये। वे बन्तासिंह के बढ़ते प्रभाव को देखकर उन्हें ही अपने मार्ग का कांटा समझने लगे। वे उन्हें बदनाम करने लगे और फंसाने के लिए षड्यंत्र भी रचने लगे।
उन दिनों पंजाब के बहुत से लोग अमेरिका में रहते थे। जब भी कोई अमेरिका से अपने घर आता, बन्तासिंह से अवश्य मिला करता था। गोरी सरकार के अधिकारियों ने इसका अर्थ यह लगाया कि हो न हो, अमेरिका में कोई ऐसी संस्था है जो भारत में अंग्रेजी सरकार को उलटना चाहती है। उसी संस्था की ओर से अनेक लोग बन्तासिंह के पास आते हैं। अवश्य बन्तासिंह भी अंग्रेज शासन को उलटने के प्रयत्नों में संलग्न हैं।
निश्चय ही बन्तासिंह गोरों के शासन को उलट देना चाहते थे। उनका गदर पार्टी के कार्यकर्त्ताओं से सम्बन्ध तो था ही, भारत के क्रान्तिकारियों से भी गहरा सम्बन्ध था। उन्होंने जनता में क्रान्ति का बीज बोने के लिए ही पंचायत की स्थापना की थी।
वे गुप्त रूप से विद्रोह की आग जलाने में लगे हुए थे। अधिकारियों को जब इन सभी बातों का पता चला, तो गुप्तचर उनके आगे-पीछे घूमने लगे। किन्तु बन्तासिंह इतने सतर्क रहते थे कि बहुत प्रयत्न करने पर भी सरकारी गुप्तचर उन्हें अपने जाल में फांस नहीं पाते थे।
किन्तु यह बात तो सत्य है ही कि ज्यों-ज्यों दिन बीतते जाते थे, त्यों-त्यों अधिकारियों की चिन्ता भी बढ़ती जा रही थी। एक दिन बन्तासिंह जब अपने घर में नहीं थे, पुलिस ने उनके घर पर धावा बोल दिया। उनके घर की तलाशी ली गई। पुलिस उनके बहुत से कागज-पत्र, अखबार और पुस्तकें उठा ले गई।
कागज पत्रों में पुलिस को कुछ ऐसे सूत्र मिले, जिनसे उसका सन्देह सच निकला। फलतः बन्तासिंह की गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दिया गया। जब वारंट निकाला गया, तो बन्तासिंह अदृश्य हो गये। पुलिस बराबर उनकी टोह में रहती थी किन्तु वे पुलिस के हाथ नहीं आते थे।
एक दिन बन्तासिंह एक गांव में भाषण देने के लिए जा रहे थे। मार्ग में उनकी पुलिस इन्स्पेक्टर से भेंट हो गई। इन्स्पेक्टर ने उन्हें बन्दी बनाने का प्रयत्न किया। किन्तु उन्होंने इन्स्पेक्टर को समझाया कि वह ऐसा न करे। जब इन्स्पेक्टर उनकी बात मानते के लिए तैयार नहीं हुआ, तो उन्होंने इंस्पेक्टर पर गोलियां चला कर उसे धराशायी कर दिया।
बन्तासिंह वहां से भाग निकले। उनके साथ उनका एक साथी भी था। पुलिस को जब इस घटना का पता चला तो वह उन्हें बन्दी बनाने के लिए दौड़ पड़ी। संयोग से बन्ताजी का साथी ठोकर खाकर गिर पड़ा और उसे बड़ी चोट भी आई। बन्तासिंह बड़ी कठिनाई में पड़ गये। साथी ठोकर खाकर गिर पड़ा था और पुलिस सिर पर थी। अन्त में वे साथी को छोड़कर भाग खड़े हुए।
बन्तासिंह भागकर मियाँमीर स्टेशन पर पहुंचे, पर वहां भी पुलिस मौजूद थी। जब गाड़ी आई, तो वे पुलिस की नजरों से बचकर किसी प्रकार एक डिब्बे में जा बैठे, पर डिब्बे में भी पुलिस मौजूद थी। जब गाड़ी चली, तो बन्तासिंह चुपचाप डिब्बे से कूद पड़े। वे भाग कर जालंधर जा पहुंचे। जालंधर पहुंचने पर बन्तासिंह अदृश्य हो गये। पुलिस बराबर उनकी खोज में रहती थी, किन्तु उनका पता नहीं चल रहा था।
उन्हीं दिनों होशियारपुर के चन्दासिंह ने गदर पार्टी के कार्यकर्ता प्यारासिंह को धोखा देकर पुलिस के हवाले कर दिया। बन्तासिंह को जब यह मालूम हुआ, तो उनका खून खौल उठा। उन्होंने उसका काम तमाम करने की प्रतिज्ञा कर ली। एक दिन उन्होंने उसके घर जाकर, उसके बुरे काम का दण्ड दिया।
इस घटना के पश्चात् बन्तासिंह ने अमृतसर के पास एक पुल को डाइनामाइट से उड़ाकर सरकार को हानि तो पहुंचाई ही, उसे अधिक भयभीत भी कर दिया। फल यह हुआ कि बन्तासिंह को बन्दी बनाने के प्रयत्नों को तेज कर दिया गया। बन्तासिंह और पुलिस में लुका-छिपी चलने लगी। यदि कभी बन्तासिंह सामने दिखाई पड़ जाते तो दोनों ओर से खूब गोलियां बरसतीं। अकेले बन्तासिंह पचासों सिपाहियों के बीच से गोली चलाते हुए निकल जाया करते थे।
एक बार पचास-साठ घुड़सवारों ने लगातार सात मील तक बन्तासिंह का पीछा किया, किन्तु फिर भी वे पुलिस के हाथ में न आये। आते भी तो कैसे आते? सिपाही उनसे डरते जो थे। उनका सामना करते हुए कतराया करते थे। जब वे दिखाई पड़ते थे, तो सिपाही आंख बचाकर निकल जाते थे। निरन्तर संघर्ष करने के कारण बन्तासिंह अस्वस्थ हो गये।
बन्तासिंह अपनी अस्वस्थता की स्थिति में अपने घर गये और घर के भीतर ही रहने लगे, किन्तु उनके एक सम्बन्धी ने उनके साथ विश्वासघात किया। एक दिन यह उन्हें अपने घर ले गया। संध्या के पश्चात् का समय था बन्तासिंह अपने सम्बन्धी के कमरे में बैठे हुए थे। सहसा पुलिस दल ने पहुंच कर उन्हें चारों ओर से घेर लिया। इन्स्पेक्टर हथकड़ी लेकर उनके पास पहुंचा। वे समझ गये कि यह सब क्यों और कैसे हुआ है।
बन्तासिंह ने अपने सम्बन्धी की ओर देखते हुए कहा, “तुमने मेरे साथ विश्वासघात क्यों किया? यदि तुम्हें पुलिस को सूचना देनी ही थी, तो मेरी पिस्तौल मुझसे लेकर छुपा क्यों दी? पिस्तौल न सही, एक लाठी ही मेरे पास रहने देते। फिर मैं देखता कि पुलिस मुझे कैसे बन्दी बनाती।” इन्स्पेक्टर सामने ही खड़ा था। वह बोल उठा, “आप अपने को वीर और दूसरों को कायर समझते हैं?”
बन्तासिंह ने उत्तर दिया, “कौन वीर है, कौन कायर है, इसका पता तो तब चल सकता था, जब तुम मेरे हाथ में पिस्तौल दे दो।” पर इन्स्पेक्टर भला उन्हें पिस्तौल क्यों देने लगा? निदान, बन्तासिंह को बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया गया।
बन्तासिंह को होशियारपुर के डिप्टी कमिश्नर की अदालत में पेश किया गया। अदालत के चारों ओर अपार भीड़ एकत्र थी। बन्तासिंह ने दर्शकों को सम्बोधित करते हुए कहा, “भाइयो, आप अधीर न हों। वह दिन शीघ्र ही आने वाला है, जब भारत स्वतंत्र होगा।”
बन्तासिंह को होशियारपुर से लाहौर ले जाया गया। लाहौर के सेशन जज के न्यायालय में उन पर मुकदमा चला। जज अंग्रेज था। उसने उन्हें मृत्युदण्ड दिया। बन्तासिंह दण्ड को सुन कर उछल पड़े। उन्होंने जज को धन्यवाद देते हुए कहा, “आपने मुझे मृत्युदण्ड देकर मुझ पर बड़ा उपकार किया है। मैं अपने शरीर को मातामही के चरणों पर चढ़ाकर अपने जीवन को सार्थक करूंगा, यह अवसर मनुष्य को बड़े पुण्यों के पश्चात् प्राप्त होता है। “
जिन क्षणों में बन्तासिंह के मुख से यह शब्द निकल रहे थे, उनके मुखमंडल पर अपूर्व ज्योति थी, अपूर्व त्याग की प्रभा थी। बन्तासिंह फांसी पर चढ़ कर सदा के लिए अमर हो गये।
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