बन्तासिंह धामिया का जीवन परिचय (Bantasingh Dhamiya Ka Jeevan Parichay), धामिया का जन्म 1900 ई० में पंजाब में कला में हुआ था। उनका मन पढ़ने लिखने में बिल्कुल नहीं लगता था खेल-कूद में उनकी बड़ी रुचि थी। पढ़ने जाते थे, तो मार्ग में ही खेल-कूद में संलग्न हो जाते थे। खेल-कूद में भी मारधाड़ अधिक करते थे। किसी से भी डरते नहीं थे। किसी ने जरा-सी भी आंख दिखाई, तो उससे उलझ जाते थे। घर हो या बाहर, धामिया अपने मन की ही करते थे।
बन्तासिंह धामिया का जीवन परिचय

Bantasingh Dhamiya Ka Jeevan Parichay
बन्तासिंह धामिया स्वतंत्रता के अमर पुजारी थे त्याग और बलिदान ही उनका व्रत था। देश के लिए मर-मिटना ही उनका धर्म था। उन्होंने जीवन के प्रथम चरण से लेकर अन्त तक जिस त्याग, जिस प्रेम और जिस शौर्य को प्रकट किया, वह उन्हीं के योग्य था।
देश की सेवा करते ही करते वे देश के चरणों पर सो गये। उनके त्याग और उनके बलिदान की प्रशंसा मनुष्य ही नहीं, देवता भी करेंगे। निम्नांकित पंक्तियों में भी उन्हीं के त्याग का चित्र खींचा गया है।
धामिया को शरीर बड़ा अच्छा मिला था। लम्बा कद था, हष्ट-पुष्ट शरीर था। अंग गठे हुए तथा सुडौल थे। आंखें चमकदार, मुखमंडल सतेज था। दौड़ने में बड़े तेज थे। ऐसा ज्ञात होता था, मानो पैरों में बिजली का यंत्र लगा हो।
धामिया अधिक पढ़-लिख नहीं सके। जब बड़े हुए तो सेना में भर्ती हो गये, किन्तु सेना में भी उनका मन नहीं लगा। इसका कारण यह था कि सेना में उन्हें अनुशासन में रहना पड़ता था, नियमों में बंध कर कार्य करना पड़ता था। वे बड़ी स्वतंत्र प्रकृति के थे। जिस प्रकार पक्षी गगन मंडल में स्वतंत्रतापूर्वक उड़ता है, उसी प्रकार वे भी स्वतंत्रतापूर्वक जीवन व्यतीत करने के अभिलाषी थे। परिणामतः उन्होंने कुछ ही
दिनों पश्चात् सेना की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। धामिया नौकरी से त्यागपत्र देकर घर पर रहने लगे। वे अपना अधिकांश समय कुश्ती लड़ने, दंड-बैठक करने और इधर-उधर घूमने में बिताया करते थे। जब कोई अत्याचार करता या कोई किसी को सताता, तो धामिया बिना किसी भय के उसका विरोध किया करते थे। विरोध करने में वे अपने हानि और लाभ की बिल्कुल चिन्ता नहीं करते थे।
उन दिनों पंजाब में बड़े जोरों के साथ अकाली आन्दोलन चल रहा था। अकाली आन्दोलन था तो धार्मिक आन्दोलन, किन्तु अंग्रेजी शासन के विरुद्ध था अतः उसे स्वतंत्रता का आन्दोलन भी कहा जा सकता है।
हजारों अकाली युवक आन्दोलन में सम्मिलित होकर जय के नारों से आकाश को गुंजा रहे थे। रोज ही गिरफ्तारियां होती थीं और रोज ही लम्बी-लम्बी सजाएं दी जाती थी। धामिया भी आन्दोलन में सम्मिलित हो गये और कुछ ही दिनों में सर्वोपरि बन गये।
धामिया को पग-पग पर धन की कठिनाइयों का अनुभव हो रहा था। उन्होंने सोचा यदि आन्दोलन को गति प्रदान करनी है, तो धन की कठिनाइयां दूर करनी होंगी। धामिया धन के लिए अपने दल के साथ डाके डालने लगे।
1924 ई० को 3 मार्च की रात थी। धामिया अपने दल के युवकों के साथ जमशेद रेलवे स्टेशन के स्टेशन मास्टर के घर पर टूट पड़े। लूट-पाट होने लगी। हठात् एक युवक की दृष्टि एक रूपवती स्त्री पर पड़ी।
उसे देखते ही उसके मन विकार में उत्पन्न हो उठा वह उसके शील को भंग करने के लिए तैयार हो गया। संयोग की बात, धामिया स्त्री के पास जा पहुंचे। उन्होंने विनीत शब्दों में स्त्री से कहा, “मां, हम तुम्हारे शरीर को छूना नहीं चाहते। अच्छा हो,
तुम अपने शरीर के सारे आभूषण अपने आप ही उतार कर दे दो।” स्त्री व्यंग्य-भरे स्वर में बोल उठी, “झूठ, बिल्कुल झूठ! तुम सब केवल आभूषण नहीं चाहते, स्त्रियों की मान-मर्यादा पर डाके भी डालते हो। तुम्हारा यह साथी अभी-अभी मेरा शील भंग करने पर तुला हुआ था।”
स्त्री की बात सुनते ही धामिया की आंखों में क्रोध उबल उठा। उन्होंने क्रोध भरी दृष्टि से अपने साथी की ओर देखते हुए कहा, “क्यों रे, यह मां क्या कह रही है? क्या यह सच है, तू इनका शील भंग करना चाहता था?” साथी का मस्तक झुक गया। धामिया ने अपना गंड़ासा उसकी गर्दन पर तान दिया।
गंड़ासा गर्दन पर गिरना हो चाहता था कि एक दूसरे साथी ने धामिया को पकड़ लिया। धामिया ने गरजते हुए कहा, “आज तो तू बच गया, किन्तु यदि फिर कभी किसी स्त्री की लाज को लूटने का प्रयत्न करेगा, तो मेरे हाथों से बच नहीं सकेगा।”
धामिया प्रत्येक स्त्री को अपनी मां समझते थे। वे ऐसे पुरुष को दंड दिये बिना नहीं रहते थे, जो किसी स्त्री का अपमान करता या बलात् उसका शील भंग करता। वे ऐसे आदमी को भी दंड देने से नहीं हिचकते थे, जो अंग्रेजों से मिल कर देशभक्तों को फंसाया करता था और न्यायालय में देशभक्तों के विरुद्ध गवाहियां दिया करता था।
धामिया ने कई ऐसे लोगों के घरों को लूटा और कई ऐसे लोगों की हत्या की, जो अंग्रेजों के साथ मिल कर देशभक्तों के साथ विश्वासघात किया करते थे। परिणाम यह हुआ कि पुलिस धामिया के पीछे पड़ गई। पुलिस ने धामिया को बन्दी बनाने के लिए चारों ओर जाल बिछा दिया।
बड़े-बड़े पुरस्कारों की घोषणा की गई, किन्तु फिर भी धामिया गिरफ्तार नहीं किये जा सके। कई बार ऐसे अवसर अवश्य आये, जब धामिया पुलिस से घिर गये और दोनों ओर से गोलियां भी चलीं, किन्तु फिर भी वे पुलिस के हाथों में कभी नहीं पड़े।
पुलिस धामिया से डरा करती थी। एक बार धामिया जंगल में छिपे हुए थे। घुड़सवार पुलिस का एक दस्ता वहां जा पहुंचा। नायक की दृष्टि धामिया पर जा पड़ी। किन्तु उसने अपनी आंख बचा ली। वह मुड़ कर दूसरी ओर जाने लगा।
धामिया ने नायक को पुकारते हुए कहा, “क्यों भाई, तुमने मुझे देखकर भी आंखें क्यों चुरा लों?” नायक बोला, “धामियाजी, हम न तो आपको गिरफ्तार करना चाहते हैं और न आपके प्राण लेना चाहते हैं, फिर आप हमसे छेड़छाड़ क्यों कर रहे हैं?”
एक और अवसर पर धामिया एक फौजी छावनी में जा घुसे। वे एक रिसालेदार के हाथ से उसका झोला और उसकी पिस्तौल छीन कर छावनी से भाग निकले। सेना के जवानों ने उनका पीछा किया, किन्तु वे उनकी पकड़ में नहीं आये।
1924 ई० की 12 दिसम्बर की रात थी। धामिया अपने चार-पांच साथियों के साथ पुलिस से घिर गये। वे किस प्रकार पुलिस से घिरे और किस प्रकार उनके जीवन का अन्त हुआ, यह कहानी बड़ी ही रोमांचकारी है।
श्यामचूसा गांव के एक अपराधी को पुलिस ने यह कहकर छोड़ दिया कि यदि तुम धामिया और उनके दल को गिरफ्तार करा दोगे, तो तुम्हारा अपराध क्षमा कर दिया जायेगा। वह अपराधी मनुष्य लोभ के वशीभूत होकर धामिया के दल में जा मिला। वह भीतर से तो पुलिस से मिला हुआ था, पर ऊपरी मन से पुलिस को जली-कटी सुनाया करता था।
जब उस दुष्ट मनुष्य ने धामिया को अपने विश्वास में ले लिया, तो एक दिन उसने उन्हें अपने घर पर निमंत्रित किया। 12 दिसम्बर की रात्रि का प्रथम प्रहर था। धामिया अपने 3-4 साथियों के साथ उस अपराधी के घर जा पहुंचे।
इधर वे उसके घर पहुंचे, उधर उसने पुलिस को सूचना दे दी। बस फिर क्या था, पुलिस ने पहुंच कर चारों ओर से उस मकान को घेर लिया। धामिया को जब पता लगा, तो वे अपने साथियों सहित चौबारे पर चढ़ गये।
दोनों ओर से गोलियां चलने लगीं। एक ओर तो पुलिस के पचासों जवान थे और दूसरी ओर धामिया और उनके केवल तीन-चार साथी घंटों दोनों ओर से गोलियां चलती रहीं। पुलिस के कई सिपाही तो आहत होकर गिर पड़े, किन्तु धामिया और उनके साथियों का बाल तक बांका हुआ।
इसका कारण यह था कि धामिया और उनके साथी एक ऐसी जगह से गोलियां चला रहे थे, जहां से वे तो पुलिस को देख सकते थे, पर पुलिस उन्हें नहीं देख सकती थी। घंटों गोलियां चलने के बाद भी जब धामिया पकड़े नहीं जा सके, तो पुलिस ने मकान पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा दी। मकान धू-धू कर जलने लगा, चारों ओर से लाल-लाल लपटें उठने लगी।
धामिया के दो साथी खिड़की से कूद कर निकल गये, किन्तु धामिया बरियाम सिंह के साथ नौवारे पर ही रह गये। धामिया भी खिड़की से कूदना चाहते थे किन्तु गोली लगने से वे गिर पड़े। उन्होंने यरियाम सिंह से कहा, “बरियाम, अब मैं बच नहीं सकता। मैं अंग्रेजों के हाथ में न पड़, इसलिए तुम गोली से मेरे जीवन का अन्त करके भाग जाओ वरियामसिंह के लिए वह बड़ा कठिन समय था।
वे अपने वीर और देशभक्त साधी के जीवन का अन्त अपनी गोली से करें, यह कैसे हो सकता था? वे चुपचाप धामिया की ओर देखने लगे। धामिया ने पुनः कराहते हुए कहा, “बरियाम, देश को अंग्रेजों के पंजों से छुड़ाना है। समय बहुत कम उन्होंने रुंधे हुए है।
तुम मेरे जीवन का अन्त करके खिड़की से कूद कर निकल जाओ।” किन्तु फिर भी बरियाम सिंह उस कठिन कार्य को करने के लिए उद्यत नहीं। कंठ से कहा, “भाई धामिया, आप जिस काम को करने के लिए कह रहे हैं, वह मुझसे नहीं हो सकेगा।”
धामिया आवेश-भरे स्वर में बोल उठे, “बरियाम, न कोई मरता है न कोई किसी को मारता है। तुम देश के लिए अपने कर्त्तव्य का पालन करो तुम्हें गुरुजी की शपथ, तुम देश के लिए मेरे जीवन का अन्त करके खिड़की से कूदकर निकल जाओ।” बरियाम ने गोलियों से भरी पिस्तौल धामिया की ओर बढ़ाते हुए कहा, “लो अपने हाथों से ही अपने जीवन का अन्त कर लो।
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