भाग्य और पुरुषार्थ पर निबंध:- भारतीय मनीषियों ने जीवन का लक्ष्य बताया है-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त करना। इन सबको उन्होंने ‘पुरुषार्थ’ नाम दिया है। पुरुष द्वारा अर्थनीय या वांछनीय होने के कारण इन्हें ‘पुरुषार्थ’ कहा जाता है। फिर, बिना परिश्रम या उद्यम के इनकी प्राप्ति नहीं हो सकती, इस कारण भी इनका ‘पुरुषार्थ’ नाम उचित ही है। मनुष्य को अपने लक्ष्य की प्राप्ति बिना पुरुषार्थ या उद्यम के कभी नहीं होती। वस्तुतः पुरुषार्थ ही ध्येय प्राप्ति में सब से बड़ा सहायक है।
भाग्य और पुरुषार्थ पर निबंध

Bhagya Aur Purusharth Par Nibandh
कभी जंगल में भटकने वाला, गुफाओं में निवास करने वाला और पत्तों से तन ढकने वाला मनुष्य आज एक समृद्ध संस्कृति और उन्नत सभ्यता का स्वामी है? कैसे? यह सब उसके परिश्रम का ही फल है। वही मानव जीवन में निरन्तर सफलता प्राप्त करता है जो उद्यमी होता है, कर्म में विश्वास रखता है। एक समय था, तब मनुष्य प्रकृति का दास था। वन के फूल-फल खाकर अपनी उदरपूर्ति करता था, परन्तु आज मनुष्य प्रकृति का दास नहीं, अपितु स्वामी है।
आज उसने जल, स्थल, नभ सब पर अपने अपराजेय साहस का सिक्का जमा दिया है। जीवन में भौतिक सुख, विलास और ऐश्वर्य की सारी सुविधाएँ उसके अथक परिश्रम का ही सुफल है। मानव सभ्यता का लम्बा इतिहास उसके असीम साहस और पुरुषार्थ की कथा है। भगीरथ के अथक परिश्रम का ही सुफल गंगा माता है, जो त्रिताप-नाशिनी है। निर्धन परिवार में उत्पन्न लालबहादुर शास्त्री तथा चमार के घर उत्पन्न रूस का सर्वोसर्वा स्टालिन अपने पुरुषार्थ के बल पर ही महान् बने। उद्योग की महत्ता को बताते हुए प्राचीन नीतिकारों ने कहा है-
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“उद्यमेनैव सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।।
अर्थ का हिंदी अनुवाद
अर्थात् जीवन के सभी कार्य परिश्रम से ही सिद्ध होते हैं, कोरे मनोरथ से नहीं। सोये हुए सिंह के मुख में अपने आप हिरण प्रवेश नहीं करते। (बलवान् होते हुए भी उसे पेट भरने के लिए परिश्रम करना ही पड़ता है। परिश्रम के बल पर ही मनुष्य सागर के गर्भ से मोती निकाल लाता है, पर्वतों को लांघ जाता है, खानों में से रत्नों को प्राप्त करता है और धरती से अन्न उत्पन्न करता है।
परिश्रम और साहस का ही यह फल है कि धरती का मानव चन्द्रमा की सैर कर आया है। मंगल और शुक्र ग्रहों तक उसने अपने उपग्रहों को सफलता से भेजा है तथा वहाँ की स्थिति और वातावरण का ज्ञान पाने को उत्सुक है। यद्यपि लक्ष्य को पाने में व्यक्ति को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, पर साहसी, धीर एवं परिश्रमी मनुष्य जीवन संग्राम में आने वाली कर कठिनाई से जूझते हुए अपनी सफलता के लिए मार्ग प्रशस्त कर लेते हैं।
भाग्यवादी की स्थिति
इसके विपरीत भाग्यवादी मनुष्य आलस्य के कारण सदा कष्ट में डूबा रहता है। अपने आलस्य का दोष वह भाग्य के माथे पर डालता है। अपने सिर पर असफलता की जिम्मेदारी लेने से कतराता है- दैव-दैव आलसी पुकारा।’ ‘भाग्य की रेखा अमिट है, कहकर वह परिश्रम करने से छुटकारा पाना चाहता है। वह जब स्वयं अपना ही उद्धार करने में असमर्थ रहता है तो समाज का क्या कल्याण करेगा?
अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गये सबके दाता राम ॥
आलसी सदा इसी महामन्त्र को जपता रहता है। भाग्यवादी व्यक्ति श्रम नहीं कर सकता। जीवन की किसी परीक्षा में वह खरा नहीं उतरता। भाग्यवादी स्वाभिमानी भी नहीं होता। वह सदा दूसरों के टुकड़ों पर पलता है। फलतः जीवन में असफल होकर दुःख भोगता है।
हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से, केवल भाग्य का सहारा लेने से कुछ नहीं मिलता। यदि भाग्य में है तो वह तभी मिलेगा, जब व्यक्ति पुरुषार्थ करेगा। जैसे एक चक्र से रथ नहीं चल सकता, ऐसे ही परिश्रम के बिना भाग्य ही सफल नहीं होता-
“यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् ।
एवं पुरुषकारेण बिना दैवं न सिध्यति ।।”
पुरुषार्थ का महत्त्व
परिश्रम या पुरुषार्थ का जीवन में व्यापक महत्त्व है। सफलता का आधार ही श्रम है। परिश्रम के महत्त्व को जापान ने समझा और उसे जीवन में अनिवार्य स्थान दिया। यह देश अणुबम का शिकार हुआ था। आज उसने न केवल परिश्रम द्वारा अपने पुराने धावों को भरा है, बल्कि समृद्धि की ओर भी द्रुत गति से बढ़ रहा है। परिश्रम मानव जीवन का सुन्दर आभूषण है। जो समाज इस आभूषण को त्याग देता है, उस पर दुर्भाग्य और विनाश के काले बादल छा जाते हैं।
भाग्यवादी मनुष्य स्वयं अपना शत्रु होता है। वह न स्वयं उन्नति करता है और न ही दूसरे को आगे बढ़ने देता है। परिश्रमी समाज का हितैषी होता है। आज परिश्रम के बल पर ही चिकित्सा के क्षेत्र में चमत्कारी प्रगति कर मनुष्य मौत को चुनौती दे रहा है। कृषि, यातायात, उद्योग इन सब क्षेत्रों की उन्नति में उसके पसीने की बूँदें चमक रही हैं। मनुष्य ने परिश्रम से शक्ति के अथाह स्रोत परमाणु को खोज लिया है। संसार में इतने विकास और परिवर्तन का श्रेय मनुष्य के श्रम को ही है।
कर्म की प्रधानता
भारतीय ऋषि-मुनियों का कहना है कि मानव का भाग्य उसके पूर्व जन्म के कर्मों का ही फल हैं, उसके अनुसार मनुष्य जैसा कर्म करता है, उन्हीं के अनुसार उसे फल भोगना पड़ता है, उससे वह बच नहीं सकता। भाग्यवाद की यह विचारधारा भी मनुष्य को निरन्तर कर्म करने की प्रेरणा देती है। मनुष्य अपने इस जन्म में पिछले जन्मों के कर्मफल को अवश्य भोगेगा। तुलसीदास जी ने कहा है-
सकल पदारथ है जग माँही।
करमहीन नर पावत नाहीं।
इससे तो यही स्पष्ट हुआ है कि भाग्य का निर्माण भी कर्म ही करते हैं। अतः व्यक्ति को आलस्य त्याग कर उद्यम करना चाहिए। जीवन में अनेक बार सफलताएँ आकर मनुष्य के धीरज को परखती हैं। इसलिए उसे निरुत्साहित हो निष्क्रिय नहीं बैठना चाहिए, बल्कि परिश्रमी बनकर चुनौतियों को निर्भयता से स्वीकार कर साहसपूर्वक जीवन में आगे बढ़ते रहना चाहिए।
उपसंहार
परिश्रम भाग्य से कहीं अधिक शक्तिशाली है। भाग्य दुर्बलों का सम्बल है। परिश्रम ही मानव की सफलता का मूल आधार है। इसके सामने भाग्यवाद नहीं टिक सकता। कर्मठ मनुष्य को ही सदा सफलता की देवी जयमाला पहनाती है। श्री मैथिलीशरण गुप्त का कथन है :
न जिसमें पौरुष हो यहाँ, सफलता वह पा सकता कहाँ?
अपुरुषार्थ भयंकर पाप है, न उसमें यश है, न प्रताप है,
दृढ़ रहो ध्रुव धैर्य धरो, उठो, पुरुष हो पुरुषार्थ करो, उठो।
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