भाई परमानन्द का जीवन परिचय (Bhai Parmanand Ka Jeevan Parichay), भाई परमानन्द जी का जन्म 4 नवम्बर, 1876 में करियाला, पंजाब में हुआ था।वे ऐसे वंश में पैदा हुए थे, जिस वंश के महान् पुरुषों ने देश के चरणों पर अपना मस्तक अर्पित करके महान् ख्याति प्राप्त की थी। लाला हरदयाल अधिक बोलते हैं। उनके मन में जो कुछ रहता है, वे उसे प्रकट कर देते हैं। इसलिए अंग्रेजों को उनसे अधिक भय नहीं है। अधिक भय तो परमानन्द से है, जो बहुत कम बोलते हैं, गुमसुम रहते हैं।
भाई परमानन्द का जीवन परिचय

Bhai Parmanand Ka Jeevan Parichay
पूरा नाम | भाई परमानन्द |
जन्म | 4 नवम्बर, 1876 |
जन्म स्थान | करियाला, पंजाब |
मृत्यु | 8 दिसम्बर, 1947 |
उक्त विचार सैनफ्रांसिस्को की ब्रिटिश कौंसिल के एक अंग्रेज सदस्य ने 1914 ई० में सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी भाई परमानन्द जी के सम्बन्ध में प्रकट किया था। सचमुच भाई परमानन्द महान क्रान्तिकारी होते हुए भी बहुत कम बोलते थे।
इसका कारण यह है कि वे दर्शनशास्त्र के बहुत बड़े विद्वान् थे। वे स्वतंत्रता के अमर साधक तो थे ही, किन्तु जीवन क्या है, संसार क्या है इस विषय पर भी निरन्तर गम्भीरतापूर्वक विचार किया करते थे।
गुरु तेगबहादुर को कौन नहीं जानता? वे सिक्खों के गुरु थे। इतिहास के पृष्ठ साक्षी हैं कि गुरु तेगबहादुर ने देश और धर्म की रक्षा के लिए अपने मस्तक का दान देकर एक अपूर्व दृष्टान्त उपस्थित किया था। भाई मतिदास जी ने भी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने आपको मृत्यु की गोद में डाल दिया था।
भाई बालमुकुन्द हंसते-हंसते सूली पर चढ़ गये थे। उनकी पत्नी रामरती देवी ने अपने पति के वियोग में सती होकर आज के युग में विज्ञान के पंडितों को भी आश्चर्य में डाल दिया था। इसी वीर और यशस्वी वंश में भाई परमानन्द जी ने भी जन्म लिया था। भाई शब्द इस वंश में पैदा हुए महान् पुरुषों के नाम के आगे लगता है।
भाई परमानन्द जी का जन्म पंजाब के झेलम जिले के करियाल नामक ग्राम में हुआ था। पहले यह गांव भारत में था किन्तु विभाजन के पश्चात् पाकिस्तान में चला गया। भाई परमानन्दजी की प्रारम्भिक शिक्षा गांव में हुई। ऊंची शिक्षा उन्होंने लाहौर में प्राप्त की।
भाई परमानन्द 1903 ई० में एम०ए० की परीक्षा पास करने के पश्चात् लाहौर में एंग्लो-वैदिक कॉलेज में इतिहास और अर्थशास्त्र के अध्यापक गये। वेतन के रूप में वे केवल 75 रुपये मासिक लेते थे। वे प्रबन्ध समिति के सदस्य भी थे। वे जब तक अध्यापक रहे, कभी भी 75 रुपये से अधिक वेतन नहीं लिया।
भाई परमानन्द जी जिन दिनों वैदिक कॉलेज में अध्यापक थे, उन्हीं दिनों वे वैदिक धर्म का प्रचार करने के लिए दक्षिण अफ्रीका गये। उन दिनों गांधीजी भी दक्षिण अफ्रीका में रहते थे। उन्होंने बड़े आदर से भाईजी को अपने निवास स्थन में ठहराया था। भाईजी ने गांधीजी को सुप्रसिद्ध दार्शनिक थारो के ग्रंथों की विशेषताएं बताई थीं। उन्हीं की प्रेरणा से गांधीजी ने थारो के ग्रन्थों का अध्ययन भी किया था।
भाईजी दक्षिण अफ्रीका में वैदिक धर्म का प्रचार करने के पश्चात् इंग्लैण्ड चले गये। इंग्लैण्ड में उनकी भेंट सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा से हुई। श्यामजी कृष्ण वर्मा उन दिनों इंडिया हाउस की स्थापना करके भारत की स्वतंत्रता के प्रचार में लगे हुए थे।
जो भी भारतीय युवक इंग्लैण्ड जाता था, श्यामजी उसके हृदय में देशभक्ति उत्पन्न करते थे और उसे भारत की स्वतंत्रता के लिए कार्य करने की प्रेरणा दिया करते थे। उन दिनों वीर सावरकर भी श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ ही साथ इंडिया हाउस में रहते थे।
भाई परमानन्द जी ने इंग्लैण्ड में किंग्स कॉलेज में डाक्टरेट करने का निश्चय किया। डाक्टरेट के लिए उन्होंने एक नया विषय चुना था- भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी का राज्य। भाईजी ने जब ईस्ट इंडिया कम्पनी के राज्य का इतिहास पढ़ा, तो उनकी आंखें खुल गई।
ईस्ट इंडिया कम्पनी ने जिस तरह भारत में अपना राज्य स्थापित किया था, उसे पढ़कर उनके रोंगटे खड़े हो गये। उन्होंने बड़ी खोज के साथ अपना शोध प्रबन्ध लिखकर तैयार किया। उन्होंने अपने उस शोध में बड़ी सच्चाई के साथ ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कारनामों का चित्र खींचा था।
भाईजी ने जब अपना शोध प्रबन्ध कॉलेज में दाखिल किया, तो अंग्रेज निर्णायकों ने उनके शोध प्रबन्ध को अस्वीकृत कर दिया। फलत: भाईजी को डाक्टरेट की उपाधि नहीं मिली। भाई परमानन्द का जीवन परिचय
जिन दिनों भाईजी लन्दन में थे, उन्हीं दिनों बंगाल के विभाजन को लेकर सारे बंगाल में बड़े जोरों का आन्दोलन प्रारंभ हुआ। बंग-भंग विरोध के साथ ही स्वदेशी के प्रचार की आंधी भी चल पड़ी। इधर आन्दोलन न रुका और उधर दमन-चक्र भी आरम्भ हो गया। बहुत से लोग गिरफ्तार किये गये, कुछ युवक फांसी पर भी चढ़ा दिये गये।
उन्हीं दिनों पंजाब के लायलपुर में भूमि-कर को लेकर आन्दोलन प्रारंभ हुआ। वह आन्दोलन लाला लाजपतराय और भगतसिंह जी के चाचा सरदार अजीतसिंह की प्रेरणा से प्रारंभ हुआ था। अतः अंग्रेज सरकार ने इन दोनों महान नेताओं को बन्दी बनाकर निर्वासन का दंड दिया। दोनों नेता भारत से बाहर मांडले भेज दिये गये।
भाई परमानन्द जी के कानों में जब यह खबर पड़ी, तो उनके हृदय में अंग्रेजी शासन के प्रति घृणा और क्रोध पैदा हो उठा। उन्होंने सभा करके अंग्रेज सरकार की दमन-नीति की निन्दा की। उन्होंने निन्दा प्रस्ताव पर बोलते हुए कहा- “अंग्रेजी सरकार कितने ही दमन का आश्रय क्यों न ले, किन्तु भारत स्वतंत्र होकर रहेगा। वह दिन शीघ्र आयेगा, जब अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना पड़ेगा।
1909 ई० में भाई परमानन्द जी भारत लौटे। उन्होंने सारे देश का दौरा किया। चारों ओर घूम-घूमकर उन्होंने उस भय को देखा, जो अंग्रेजों के दमन के कारण जनता के हृदय पर छाया हुआ था। इस कदर छाया हुआ था कि कोई अंग्रेजों के विरुद्ध बात. तक नहीं करता था। भाईजी को इससे दुःख तो हुआ ही बड़ी निराशा भी हुई।
भाईजी जब दौरे से लौटकर आये, तो अपने गांव चले गये। उन्होंने इस 3 मास का समय अपने गांव में व्यतीत किया। 3 मास के पश्चात् जब लाहौर गये, तो गिरफ्तार किए गये। उन पर राजद्रोह का मुकद्दमा चलाया गया। मुकद्दमे में उन्हें देश से बाहर चले जाने का दंड दिया गया।
भाईजी ने अमेरिका जाकर चिकित्सा विज्ञान का अध्ययन करने का निश्चय किया। किन्तु अमेरिका जाने के लिए धन की आवश्यकता थी, और धन के नाम पर उनके पास केवल 64 रुपये थे। फिर भी वे निराश नहीं हुए। हाथ में गीता लेकर घर से निकल पड़े। तरह-तरह के कष्ट उठाते हुए फ्रांस जा पहुंचे।
फ्रांस में भाईजी को पता चला कि लाला हरदयाल मार्तनीज टापू में हैं अत: भाईजी हरदयालजी से मिलने के लिए मार्तनीज जा पहुंचे। हरदयाल जी उन दिनों पीले वस्त्र धारण करते थे। संन्यासियों का सा जीवन व्यतीत करते थे।
भाईजी ने जब उनसे पूछा कि आप में यह परिवर्तन क्यों हुआ, तो उन्होंने उत्तर दिया- किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए साधना करना आवश्यक है। अतः मैं इस समय सब कुछ छोड़कर साधना में संलग्न हूं।
भाईजी ने उत्तर में कहा- “आपका यह मार्ग ठीक नहीं है। आपको क्रान्तिकारी कार्यों में ही लगना चाहिए। जीवन में सफलता विरक्ति से नहीं, कर्म से प्राप्त होती है। देश दासता के बन्धनों में फंसा हुआ है। उसे मुक्ति दिलाना परमावश्यक है। प्रत्येक भारतवासी का इस समय यही धर्म है, यही कर्म है। स्वामी विवेकानन्द अमेरिका में अपना कार्य अधूरा छोड़ गये हैं। अमेरिका जाकर उनके अधूरे कार्य को पूरा कीजिये।
भाईजी के शब्दों ने लाला हरदयाल के प्राणों में जादू का मंत्र-सा फूंक दिया। में वे साधना छोड़कर पुनः क्रान्तिकारी कार्यों में लग गये। भाईजी कुछ दिनों तक मार्तनीज टापू में रहकर कैलीफोर्निया होते हुए सेनफांसिस्को गये। भाई परमानन्द का जीवन परिचय
वे सेनफ्रांसिस्को में रहकर चिकित्सा और मनोविज्ञान का अध्ययन करने लगे। उनके पास धन का अभाव था। वे जीवन के निर्वाह के लिए मजदूरी करते थे। जूठे बर्तन भी मलते थे। उन्होंने परिश्रम से चिकित्सा और मनोविज्ञान का अध्ययन किया।
भाईजी ने पत्र लिखकर लाला हरदयाल जी को कैलिफोर्निया बुला लिया। उन्होंने उनके सम्बन्ध में अखबारों में कई लेख लिखे और कई सभाओं में उनके भाषण कराये इसका परिणाम यह हुआ कि हरहदयाल जी सेफर्ड विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र और संस्कृत के अध्यापक हो गये।
उनकी कठिनाइयां दूर हो गई और वे सरलतापूर्वक क्रान्तिकारी कार्य करने लगे। भाईजी ने चिकित्सा और मनोविज्ञान में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। 1913 ई० में उनके देश-निर्वासन की अवधि समाप्त हो गई। अतः वे भारत लौट आये।
भाईजी लाहौर में रहकर चिकित्सा द्वारा जनता की सेवा करने लगे। उनके चिकित्सालय में सरदार भगतसिंह, भगवतीचरण, सुखदेव और राजगुरु आदि क्रान्तिकारी आया-जाया करते थे। उनसे सलाह तो लेते ही थे, प्रेरणाएं भी लिया करते थे। पंजाब के तत्कालीन गवर्नर डायर को जब यह बात मालूम हुई, तो उसने सोचा, हो न हो, परमानन्द अपने चिकित्सालय में बम बनाया करते हैं।
इन्हीं दिनों पंजाब के गवर्नर को गुप्तचर विभाग से यह खबर मिली कि परमानन्द जी की लाला हरदयाल जी से मित्रता है। युद्ध के दिनों में लाला हरदयाल विदेशों में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध प्रचार करेंगे। वही काम भारत में परमानन्द जी करना चाहते है। वे भारत में विद्रोह की आग जलाने के लिए तैयारियां कर रहे हैं।
परिणाम यह हुआ कि भाईजी को बन्दी बना लिया गया। लाहौर षड्यंत्र के नाम से उन पर मुकद्दमा चलाया गया। उनका सम्बन्ध दिल्ली के बमकांड से जोड़ा गया। उनके साथ ही और कई क्रान्तिकारियों पर मुकद्दमा चलाया गया था।
मुकद्दमे में कुछ लोगों को फांसी की सजा दी गई और कुछ लोगों को काले पानी की सजा दी गई थी। भाईजी को भी फांसी की सजा दी गई थी, किन्तु जब एंड्रज और मालवीय जी ने प्रयत्न किया तो उनकी फांसी की सजा को आजीवन काले पानी की सजा में बदल दिया गया।
1915 ई० के सितम्बर मास में भाईजी को मांडले भेज दिया गया। मांडले की जेल में उन्हें बड़ी-बड़ी यातनाएं दी गई। उन्हें कोल्हू और पुर में जोता जाता था। कष्टों को सहते सहते वे आकुल हो उठते थे। एक बार तो वे आकुल होकर आत्महत्या तक करने के लिए तैयार हो गये थे, किन्तु वीर सावरकर ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया। एक बार उन्होंने दो मास तक अनशन भी किया था।
भारत में जब भाईजी की सजा का चारों ओर विरोध किया गया और उनके छुटकारे की मांग की जाने लगी, तो 1919 ई० में उन्हें छोड़ दिया गया। भाईजी जब मांडले से लौट आये, तो उन्होंने सारे भारत में एक अद्भुत दृश्य देखा। चारों ओर हिन्दुओं और मुसलमानों के दंगे हो रहे हैं। कांग्रेस मुसलमानों को प्रसन्न करने में लगी हुई थी। कांग्रेस की यह नीति भाईजी को अच्छी नहीं लगी। अतः उन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया।
असहयोग आन्दोलन के दिनों में भाईजी ने लाहौर में कई राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाएं स्थापित कीं। उन्होंने लाजपतराय जी के लोक-सेवक मंडल में भी कार्य किया।
कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के कारण पंडित मदन मोहन मालवीय और लाला लाजपतराय जी ने कांग्रेस को छोड़ दिया। भाईजी, लालाजी और मालवीय जी के प्रयत्नों से 1923 ई० में हिन्दू महासभा की स्थापना हुई। हिन्दू महासभा की स्थापना होने पर वे अपना सारा समय हिन्दू संगठन में ही लगाने लगे। सारे भारत में वे हिन्दुओं के प्रसिद्ध नेता के रूप में सम्मानित किये जाने लगे। 1931 में वे हिन्दुओं के प्रतिनिधि के रूप असेम्बली के सदस्य निर्वाचित हुए थे।
भाई परमानन्द जी ने अपने जीवन का शेष काल हिन्दुओं के संगठन में ही व्यतीत किया। हिन्दुओं के संगठन का बिगुल बजाते हुए ही वे सदा के लिए भारत से चले गये। उन्होंने देश, जाति और धर्म की जो सेवाएं की हैं, वे युग-युगों तक याद की जायेंगी। वे महान् विद्वान भी थे। उन्होंने कई पुस्तकों की रचना करके अमर यश प्राप्त किया था। इनकी मृत्यु 8 दिसम्बर, 1947 को हुई थी।
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