भारत में ग्रामीण जीवन पर निबंध: भारत को गांवों का देश कहा जाता है, क्योंकि देश की आबादी का 70 प्रतिशत जनसंख्या का भाग गांवों में बसता है। देश में लगभग सात लाख छोटे-बड़े गांव हैं। ग्रामीणों का मुख्य पेशा कृषि और उससे संबद्ध धंधे हैं। युगों से ये ग्रामीण अनपढ़, उपेक्षित और शोषित रहे हैं। इनके जीवन को लक्ष्य कर साहित्यकारों ने विविध प्रकार की रचनाएं की हैं।
भारत में ग्रामीण जीवन पर निबंध

Bharat Me Gramin Jeevan Par Nibandh
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ग्राम-जीवन को अत्यंत अह्लादकारी मानकर लिखा है, ‘अहा ग्राम जीवन भी कितना सुखदायी है, क्यों न किसी का मन चाहे।” उन्हें गांव स्वर्ग-सा लगा, किंतु उन्हें गांव की झोंपड़ियों में पीड़ा का संसार नहीं दिखा।
कविवर सुमित्रानंदन पंत ने गांवों को ही भारत माता के रूप में देखा और कहा, ‘भारत माता ग्रामवासिनी, मिट्टी की प्रतिमा उदासिनी। कविवर ने ग्रामीण जीवन को ‘मिट्टी की प्रतिमा उदासिनी कहकर यह इंगित किया है कि ग्रामीण जीवन मिट्टी की प्रतिमा की तरह जड़ है और उदासी से भरा हुआ है।
हिंदी के यशस्वी कथाकार फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने अपने उपन्यास ‘मैला आंचल’ में बिहार के एक गांव का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया है और विस्तार से बताया है कि गांव में जातिवाद, मठों-महन्तों में चरित्रहीनता, धूर्तता, राजनीतिक उठापटक और अज्ञान का प्रसार चरम पर है।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि ग्रामीण जीवन को किसी ने स्वर्ग जैसा सुखदायी माना है, तो वहीं दूसरों ने उसे गतिहीन दुःखपूर्ण और अज्ञान का गढ़ बताया है। अतः इन विरोधी चित्रणों की समीक्षा कर जीवन के सत्य को स्पष्ट करना उचित होगा।
अंग्रेजी शासन
देश के स्वतंत्र होने के पूर्व अंग्रेजी शासन में गांवों पर जमींदारों का स्वामित्व था गांव की पूरी जमीन अंग्रेजों ने जमींदारों को लगान पर दे रखी थी। जमींदार काश्तकारों से मनमानी दर पर लगान वसूल लेते थे। इतना ही नहीं, वे किसानों से बेगारी भी कराते थे।
लगान वसूल में सख्ती बरती जाती थी। किसानों के पशुओं को हांक ले जाना, खेत से बेदखल कर देना और मारना-पीटना सामान्य घटनाएं थीं। खेती के लिए न तो पानी की व्यवस्था थी, न खाद-बीज या अन की बिक्री की ही कोई व्यवस्था थी। परंपरागत ढंग के हल से जुताई-बोवाई होती थी।
समय से पानी बरसा और अन्य प्राकृतिक आपदाओं से बची रही, तो फसल खलिहान में आती थी। वहीं से गांव का महाजन अपने ऋण के बदले अधिकांश अनाज सस्ते दामों पर ले लेता था। बचे अनाज को बेचकर किसान जमींदार को लगान चुकाता था। थोड़ा-बहुत जो शेष रहता था, उसी से किसान अपने परिवार का पालन-पोषण करता था।
शायद ही किसी वर्ष किसान को इतना अनाज बचता था कि वह दोनों जून परिवार को भोजन दे पाता रहा हो। गरीबी का यह हाल था कि छोटी जाति के लोग ‘गोबरहा’ (बैल के गोबर में अन्न के दाने) भी साफ करवाते थे।
जब लोकसभा में गाजीपुर के एक सांसद विश्वनाथ सिंह गहमरी ने इस बात का जिक्र किया, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल की आंखें डबडबा गई कुछ अपवादों को छोड़कर ग्रामीणों के पास न तो ठिकाने के आवास थे, न शरीर ढकने के लिए वस्त्र और न तो कृषि के लिए आवश्यक साधन अंग्रेजी शासन में ग्रामीण जीवन पूरी तरह संकटग्रस्त और अभिशापमय था।
स्वतंत्रता के पश्चात् भारत
स्वतंत्रता के पश्चात् भारत सरकार और राज्य सरकारों का ध्यान ग्रामीण जीवन की ओर गया। अनेक राज्य सरकारों ने जमींदारी प्रथा को समाप्त कर किसानों को उनके खेतों का स्वामी बना दिया। किसान सीधे सरकार को लगान देने लगा। उसके सिर से एक भारी बोझ उतर गया।
उसमें स्वाभिमान जगा भारत सरकार ने कृषि कार्य को आधुनिक बनाने का प्रयास शुरू किया। सिंचाई के लिए नहरों, नलकूपों और जलाशयों की व्यवस्था हुई। उन्नत किस्म के बीज और उर्वरक उपलब्ध कराये गये हल की जगह ट्रैक्टर का प्रयोग शुरू हुआ।
सघन रूप में ‘हरित क्रांति’ का अभियान चला। इसका परिणाम यह हुआ कि कृषि में उत्पादन भारी मात्रा में बढ़ने लगा। सन् 1967 ई. तक देश विदेशों से अन्न का आयात करता था, किंतु इसके बाद देश खाद्यान्न के मामले में स्वावलंबी हो गया।
वर्तमान में देश का खाद्यान्न उत्पादन 20 करोड़ टन तक पहुंच गया है। इसका लाभ ग्रामीणों को भी मिला है। अधिकांश कृषकों को दोनों जून भोजन मिलने लगा है, किंतु ग्रामीणों की अनेक समस्याएं हैं, जिनका निराकरण होना आवश्यक है।
गांव की प्रमुख समस्याएं
गांव की प्रमुख समस्याएं हैं- शिक्षा, सहायक उद्योग, आवागमन के साधन, ऋण प्राप्ति, कुटीर उद्योग, जातिवाद, पीने का पानी, स्वास्थ्य रक्षा, सरकारी उपेक्षा आदि । यद्यपि इन समस्याओं के निराकरण के लिए सरकार ने पंचायती राज और सामुदायिक योजना को लागू किया है।
और सरकारी बजट का लगभग 70 प्रतिशत के ग्रामीण जीवन के विकास और खुशहाली के लिए खर्च कर रही है, फिर भी ग्रामीण जीवन में अपेक्षित बदलाव नहीं आया है। इस स्थिति के लिए अनेक तत्त्व जिम्मेदार हैं। उन पर अंकुश लगाकर उन्हें विकास में उपोदय बनाने की आवश्यकता है।
ग्रामीण जीवन का बड़ा आधार कृषि
ग्रामीण जीवन का सबसे बड़ा आधार कृषि है। इसके लिए पानी, बीज और उर्वरक आवश्यक हैं। यद्यपि सरकार ने पानी के लिए नहरों और नलकूपों की व्यवस्था की है, लेकिन अभी एक तिहाई कृषि के लिए कोई व्यवस्था नहीं हो पायी है। नहरों से नियमित और जरूरत के समय पानी प्रायः नहीं उपलब्ध होता है।
इसी तरह सरकारी नलकूप भी अपेक्षित सेवा नहीं दे रहे हैं। एक बार कोई नलकूप खराब होता है, तो उसे ठीक करने में कई कई महीने लग जाते हैं। उससे सिंचित होने वाली खेती पानी के अभाव में बर्बाद हो जाती है। सरकार द्वारा ग्रामीण सहकारी समितियों के कार्यकर्ता बीज और उर्वरक चोरबाजारी में बेच देते हैं।
किसान को खुले बाजार से महंगे दाम पर घटिया किस्म के बीज और उर्वरक खरीदने पड़ते हैं। पानी, बीज और उर्वरक की उचित उपलब्धता बाधित होने से कृषि उत्पादन में कमी आती है और किसान को हानि उठानी पड़ती है।
एक और समस्या है, किसी कार्य के लिए सरकारी ऋण प्राप्त करने की ऋण स्वीकृत करने वाले सरकारी कर्मचारी और भुगतान करने वाले बैंक भारी कमीशन लेते हैं। इस प्रक्रिया में है और ऋण प्राप्तकर्ताओं को सुविधापूर्वक ऋण की पूरी धनराशि प्राप्त कराया जाना सुधार अपेक्षित चाहिए। पानी, खाद और बीज की उपलब्धता पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
कृषि कार्य में लगे श्रमिकों को वर्ष भर काम नहीं मिलता है, अतः उन्हें कई महीने बेकार रहना पड़ता है। इस समस्या के निराकरण के लिए अन्य प्रकार के कार्यों की व्यवस्था होनी चाहिए। सरकार ने ‘जवाहर रोजगार योजना के अंतर्गत वर्ष में 100 घंटे कार्य देने की व्यवस्था की है।
किंतु इस योजना को उचित निर्देशन में लागू न किए जाने के कारण इसका लाभ श्रमिकों को न होकर ग्राम पंचायत के प्रधानों को हो रहा है। गांव में परंपरागत कुटीर उद्योगों की ओर सरकार का ध्यान गया है, लेकिन समुचित व्यवस्था के अभाव में उससे वांछित लाभ नहीं हुआ है। कुटीर उद्योगों को छोड़कर इनसे संबद्ध कारीगर शहरों में जा रहे हैं।
महिलाओं के विकास के लिए
महिलाओं के विकास के लिए ‘आंगनबाड़ी’ की योजना पूरी तरह कागजी हो गई है। बाल पोषाहार और गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए दी जानेवाली सामग्री की चोर बाज़ारी खुलेआम हो रही है। गांवों में इस योजना का मजाक उड़ाते हुए कहा जा रहा है, ‘दो सौ की नौकरी, चार सौ की साड़ी वाह रे आंगनबाड़ी!” यह भ्रष्टाचार सरकारी कर्मचारियों की मिलीभगत से पनप रहा है।
प्रश्न उठता है कि गांव के लोग अपने विकास के धन की लूट को क्यों नहीं रोकते हैं? इसका सीधा कारण है, शिक्षा का अभाव। यद्यपि अधिकांश गांवों में प्राथमिक विद्यालय खुल गए हैं, लेकिन उनमें गांव के ही अध्यापक नियुक्त हैं और वे विद्यालय में अध्यापन से अधिक रुचि अपने घरेलू कार्यों में लेते हैं।
गांव के लोग विद्यालयों के काम में हस्तक्षेप नहीं करते हैं। वे शिक्षा के महत्त्व को नहीं जानते हैं। फल यह है कि विद्यालयों से शिक्षा की अपेक्षा पूरी नहीं हो पा रही है। थोड़े से बच्चे मिडिल कक्षा उत्तीर्ण कर गांव से शहर के हाई स्कूलों और कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त करने जाते हैं।
वहां उनमें से अधिकांश शहर के राग-रंग में खो जाते हैं और पाश्चात्य अपसंस्कृति में प्रवीण हो जाते हैं। किसी तरह बी. ए. एम. ए. तृतीय श्रेणी में उत्तीर्ण कर गांव वापस आते हैं। वर्षों नौकरी की तलाश में दर-दर की ठोकरें खाते हैं और अंततः निराश होकर घर बैठ जाते हैं।
अपने को शिक्षित मानकर वे कृषि अथवा कोई शारीरिक श्रम का काम करना अपमानजनक मानते हैं। गांव में अधिकांश पढ़े-लिखों की यही दशा है। वे ग्रामीण समाज के लिए भार बन गए हैं। पढ़े-लिखों की दशा देखकर गांव में शिक्षा के प्रति उदासीनता बनी हुई है।
अनुसूचित जाति-जनजाति के छात्रों को सरकार छात्रवृत्ति देती है, परंतु वह धन विद्यालयों के अध्यापक और बेसिक शिक्षा अधिकारी के लिपिक आपस में बांट लेते हैं। इस के प्रकार के समाचार अखबारों में प्रायः प्रकाशित होते रहते हैं।
सरकार ग्रामीण (भारत में ग्रामीण जीवन पर निबंध) विद्यालयों में प्रति छात्र प्रति मास तीन किलो राशन आवंटित करती है, किंतु वह राशन कभी-कभी छात्रों तक पहुंचता है। उसका बड़ा भाग सीधे बाजार में चला जाता है। विद्यालयों के भवन जर्जर अवस्था में हैं, उनकी मरम्मत की किसी को चिंता नहीं है।
बच्चों को बैठने के लिए टाट पट्टी नहीं है और न तो अध्यापकों के बैठने के लिए पर्याप्त मात्रा में कुर्सी-मेज ही हैं। अनेक विद्यालयों में श्यामपट भी नदारद हैं। शिक्षा की इसी अव्यवस्था का नतीजा है कि स्वतंत्रता के बावन वर्षों के बाद भी ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षितों की संख्या चालीस प्रतिशत से अधिक नहीं है।
बालिकाओं में साक्षरता का प्रतिशत बहुत ही कम है। अशिक्षा के कारण ही ग्रामीण जन अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हो पाए हैं। यह चिंता का विषय है।
स्वास्थ्य रक्षा
स्वास्थ्य रक्षा की गांवों में कोई सुदृढ व्यवस्था नहीं है। कहीं-कहीं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खुले हैं लेकिन उनमें न तो दवा उपलब्ध है और न तो चिकित्सक। शहरी जीवन का अभ्यस्त चिकित्सक ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्र पर नहीं आता है। वह दौड़-धूप करके अपना स्थानान्तरण शहरी क्षेत्र में करा लेता है।
गांव के लोग झोला छाप (नकली) डॉक्टरों से ही अपनी बीमारी का उपचार कराने को बाध्य हैं। पीने के लिए स्वच्छ जल की व्यवस्था का घोर अभाव है। लोग कुओं और जलाशयों का दूषित जल पीने को बाध्य हैं। गली-कूचों और सड़कों की सफाई का कोई प्रबंध नहीं है। किसी संपन्न घर में ही शौचालय होगा।
सामान्यतः लोग सड़कों के किनारे मल त्याग करते हैं। महिलाएं भी खुले में शौच करती हैं। सार्वजनिक शौचालयों की एक योजना आई थी किंतु आज तक वह अधर में ही अटकी हुई है। सरकारी लेखों में तो मलेरिया का उन्मूलन हो गया है, लेकिन गांवों में मच्छरों की संख्या नित्य बढ़ रही है और प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में ग्रामीण जन मलेरिया के शिकार हो रहे हैं।
अधिकांश गांवों में आज भी प्रसव कराने में परंपरागत गंवार दाई ही सुलभ हैं। अनेक बार प्रसव काल में उचित चिकित्सकीय सहायता अनुपलब्ध होने के कारण जच्चा-बच्चा का जीवन खतरे में पड़ जाता है। निराश्रितों के लिए वृद्धावस्था पेंशन अधिकांश पात्रों को नहीं मिल रही है। बस यही कहा जा सकता है कि सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों के स्वास्थ्य की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है।
पंचायती राज की व्यवस्था
पंचायती राज की व्यवस्था ग्रामीण जीवन के विकास और खुशहाली के लिए हुई है। इसके अंतर्गत ग्राम पंचायत क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत की स्थापना की गई है। क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत का संचालन राजनीतिक दलों के साथ हाथ में चला गया है। केवल ग्राम पंचायत ही ग्रामीणों के नियंत्रण में है।
ग्राम पंचायतों (भारत में ग्रामीण जीवन पर निबंध) पर प्रारंभ से ही गांव के दबंग लोग काबिज रहे हैं। महिलाओं को पंचायतों में तैंतीस प्रतिशत स्थान सुरक्षित किए जाने पर भी दबंग लोगों ने अपने परिवार की किसी महिला को ग्राम प्रधान चुनवा लिया है और शासन की जानकारी में महिला ग्राम प्रधान के नाम पर उसके परिवार का कोई व्यक्ति कार्य कर रहा है। यह लोकतंत्र का घोर उपहास है।
पंचायत के चुनाव ने गांवों में परंपरागत आपसी सौहार्द को समाप्त कर दिया है और उसका स्थान जातिवाद तथा दलबंदी ने ले लिया है। इससे गांव में सामाजिक संगठन अव्यवस्थित होने के साथ ही कलहपूर्ण हो गया है।
यही कारण है कि नौकरी और कोई व्यवसाय करने वाले लोग गांव छोड़कर शहरों में बस रहे हैं। आधुनिकता की हवा ने संयुक्त परिवार को समाप्त कर दिया है। यहां तक कि सगे भाइयों में भी बंटवारा हो रहा है। गांव में वही लोग रह गए हैं, जिनके पास खेत हैं अथवा जिन्हें कोई नौकरी नहीं मिली है। गांव उजड़ने की ओर उन्मुख हैं।
सरकार ने यदि इसी प्रकार गांवों की उपेक्षा जारी रखी, तो ग्रामीण जीवन सचमुच ‘मिट्टी की प्रतिमा’ अर्थात् जड़ बन जाएगा। गांव को निरक्षरता अस्वास्थ्य, जातिवाद, सरकारी भ्रष्टाचार आदि के मकड़जाल से मुक्त कराया जाना चाहिए। ऐसा होने पर ही भारत में लोकतंत्र पुष्पित एवं पल्लवित होगा।
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