भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवन परिचय? भारतेंदु हरिश्चंद्र जी का जन्म कहा हुआ था?

भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवन परिचय: महीयसी महादेवी वर्मा ने भारतेन्दु हरिश्चंद्र की जन्मशती समारोह का उद्घाटन करते हुए कहा था, ‘जो कुछ शंकराचार्य ने धर्म की दृष्टि से किया, जो दयानंद ने आर्यवाणी के लिए किया, जो विवेकानंद ने दर्शन के लिए किया, वही भारतेंदु ने हिंदी साहित्य के लिए किया। सम्मिलित रूप में सब कुछ भारतेंदु के साहित्य में है। इतना काम किसी ने एक साथ नहीं किया।

भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवन परिचय

भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवन परिचय
Bhartendu Harishchandra Ka Jeevan Parichay

भारतेंदु हरिश्चंद्र मुख्य बिंदु

पूरा नामभारतेन्दु हरिश्चन्द्र
जन्मसन् 1850 ई०
जन्म स्थलकाशी
मृत्युसन् 1885 ई०
पिताबाबू गोपालचन्द्र
कार्य क्षेत्रकवि, पत्रकार
रचनाएँ‘प्रेम-माधुरी’, ‘प्रेम-प्रलाप’, ‘प्रेम- तरंग’, ‘प्रेम-सरोवर’, ‘प्रेमाश्रु – वर्षण’, ‘प्रेम-फुलवारी’, ‘बन्दर-सभा’ आदि।
नाटकसत्य हरिश्चन्द्र’, ‘चन्द्रावली’, ‘अँधेर नगरी’, ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’, ‘भारत-दुर्दशा’, ‘नीलदेवी’ आदि।
आलोचना‘सूर’, ‘जयदेव’ आदि।
निबन्ध‘स्वर्ग में विचार-सभा’, ‘बंग भाषा में कविता’, ‘पाँचवें पैगम्बर’, ‘मेला-झमेला’ आदि।
अनूदित‘मुद्राराक्षस’, ‘दुर्लभ बन्धु’, ‘कर्पूरमंजरी’ आदि।
पत्र-पत्रिकाएँ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’, ‘कवि वचन सुधा’, ‘हरिश्चन्द्र चन्द्रिका’ आदि।

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भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवन परिचय (Bhartendu Harishchandra Ka Jeevan Parichay)

इनका सर्वसाधारण जन से घनिष्ठ संबंध था। वे लोगों का मनोविनोद भी किया करते थे। एक बार उन्होंने विज्ञप्ति प्रकाशित कराई कि कल सायंकाल एक साधु खड़ाऊं पहने हुए पानी पर चलकर गंगा को पार करेगा।

नियत समय पर गंगातट पर जनता की भीड़ जमा हुई। लेकिन वहां रात होने पर भी कोई साधु नहीं आया। किसी ने बताया कि आज पहली अप्रैल है और भारतेंदु ने लोगों को ‘अप्रैल फूल’ बनाया है। लोग हंसते हुए वापस गए।

ऐसे ही एक बार भारतेंदु ने नगर के तोंदधारी सेठों को अपने घर पर भोजनार्थ निमंत्रित किया। सभी तुंदिल लोग आए। लेकिन भारतेंदु अनुपस्थित रहे। तुंदिल लोग भुनभुनाते हुए वापस गए। भारतेंदु की लोक-संपृक्ति का ही प्रमाण है कि उन्होंने लोकधुनों में अनेक रचनाएं कीं। वे नाटकों में अभिनेता के रूप में कार्य करते थे।

अनेक शिक्षाप्रद छोटी-छोटी पुस्तिकाओं को छपवाकर वे लोगों में वितरित भी करते थे। जन-सभाओं में स्थान-स्थान पर भाषण कर वे उनमें जागरण का संदेश देते थे। उनका जीवन पूर्णतः जनसेवा को समर्पित था।

भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म

ऐसे कृती महापुरुष का जन्म 9 सितंबर सन् 1850 ई. में वाराणसी में हुआ। इनके पिता का नाम गोपालचन्द्र उपनाम ‘गिरधर’ था। ये संपन्न अग्रवाल वैश्य और बल्लभ संप्रदाय के कृष्णभक्त थे। गोपालचंद्र एक सुकवि थे। बालक हरिश्चंद्र पर पिता के कवित्व का प्रभाव पड़ा। सात वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने छंद रचना कर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। उन्होंने अग्रलिखित दोहा रचा था-

लै ब्यौड़ा ठाढ़ भए, श्री अनिरुद्ध सुजान।
बानासुर की सैन को, हनन लगे भगवान ।।

कुछ काल तक हरिश्चंद्र ने काशी के क्वींस कॉलेज में अध्ययन किया, किंतु पढ़ाई में उनका मन न लगा। उन्होंने स्वाध्ययन से हिंदी, संस्कृत, उर्दू-फारसी, मराठी, गुजराती, बंगला आदि भाषाओं और उनके साहित्य का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया। इसी बीच उन्होंने समूचे उत्तर भारत का भ्रमण भी किया।

अध्ययन और देश-भ्रमण से उनमें देश-प्रेम और साहित्यानुराग का उद्भव हुआ। वे अत्यंत कोमल, हृदय, उदार गुणियों और सुकवियों के आश्रयदाता तथा स्वाभिमानी थे अपनी दानशीलता और उदारता में उन्होंने अपना सर्वस्व गंवा दिया और जीवन के अंतिम दिनों में आर्थिक संकट भी झेला।

उनका कहना था, ‘जिस दौलत ने मेरे बाप-दादों को खाया है-उसे मैं खा जाऊंगा।’ सचमुच उन्होंने सारी पैतृक सं अपने स्नेहियों और मित्रों में लुटा दी। वे कृष्णभक्त थे, किंतु किसी अन्य संप्रदाय या धर्म के प्रति विद्वेष न रखकर उसका आदर करते थे।

उन्होंने स्वसमाज के अंधविश्वासों को दूर करने का सफल प्रयास किया। उन्होंने पाश्चात्य शिक्षा का अभाव मिटाने के लिए अपने घर पर ही अंग्रेजी का चौखंभा स्कूल शुरू किया। वर्तमान में वही स्कूल हरिश्चंद्र महाविद्यालय नाम से विख्यात है।

वस्तुतः उन्होंने अपना पूरा जीवन समाजोत्थान, देश-प्रेम और साहित्य-सेवा में लगाया। सन् 1880 ई. में उनकी हिंदी-सेवा और देश-भक्ति को सम्मानित करने के लिए उन्हें ‘भारतेंदु’ उपाधि से अलंकृत किया गया।

भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाये प्रमुख रचनाएं

भारतेंदु ने कुल मिलाकर छोटी-बड़ी लगभग दो सौ पुस्तकों की रचना की। उनकी प्रमुख रचनाएं निम्नलिखित हैं-

  1. प्रेम सरोवर
  2. प्रेम माधुरी
  3. प्रेम तरंग,
  4. प्रेम फुलवारी (सभी काव्य),
  5. वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति,
  6. चंद्रावली,
  7. भारत दुर्दशा,
  8. नीलदेवी,
  9. अंधेरनगरी,
  10. प्रेमयोगिनी,
  11. विषस्य विषमौषधम्
  12. नाटक

नाम का नाटक संबंधी निबंध-संग्रह। इन ग्रंथों के अतिरिक्त भारतेंदु ने अनेक ग्रंथों का अन्य भाषाओं से अनुवाद भी किया। उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं का भी प्रकाशन किया, जैसे- ‘बालाबोधिनी’ ‘कवि वचन सुधा’ और ‘हरिश्चंद्र मैगजीन (हरिचंद्र पत्रिका)।

हिंदी के नवोदित लेखकों को देश-विदेशों की साहित्यिक गतिविधि से अवगत कराने के लिए उन्होंने ‘पेनीरीडिंग क्लब’ की स्थापना की। हिंदी भाषा में भाषण कला को प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने ‘बनारस इंस्टीट्यूट एवं यंगमेंस एसोसिएशन’ तथा ‘डिबेटिंग क्लब’ की स्थापना की।

इनके अतिरिक्त उन्होंने लोगों में अध्ययन की रुचि बढ़ाने विचार से ‘कारमाइकेल लाइब्रेरी’ और ‘सरस्वती भवन’ नाम पुस्तकालयों की स्थापना की। हिंदी की उन्नति लिए अपने समय सभी रचनाकारों का मंडल बनाया। मंडल ‘भारतेंदु मंडल’ नाम प्रसिद्ध इसमें प्रताप नारायणसिंह, भट्ट, चौधरी बदरी नारायण प्रेमघन, राधाकृष्ण दास आदि थे।

भारतेंदु का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कि उन्होंने हिंदी में गद्य-रचना मार्ग किया। उनके हिंदी गद्य दो प्रचलित थीं। एक प्रतिनिधित्व शिवप्रसाद हिंद’ करते उस धारा लिपि तो देवनागरी थी, किंतु उसमें उर्दू-फारसी शब्दों की बहुलता थी। उनकी भाषा सामान्य जन के सहज थी। दूसरी धारा का नेतृत्व लक्ष्मण सिंह कर भाषा संस्कृत तत्सम शब्दों का बाहुल्य था।

उनकी भाषा सहज थी। भारतेंदु ने इन दो अतिवादी रूपों मध्यम मार्ग खोज निकाला। उन्होंने व्यावहारिक भाषा को गद्य के लिए प्रयुक्त किया। इस भाषा में उर्दू-फारसी के प्रचलित शब्दों प्रयोग साथ ही संस्कृत प्रचलन में आए का भी निषेध था।

आगे चलकर द्वारा व्यवहृत भाषा हिंदी-गद्य लिए हुई। हिंदी गद्य में आधुनिक विषयों भारतेंदु निबंध, नाटक, इतिहास, राजनीति, साहित्य लिखा। उन्होंने समकालीन रचनाकारों भी विषयों पर लिखवाया। भारतेंदु द्वारा गद्य भाषा को विद्वानों ‘हरिश्चंद्री हिंदी’ नाम दिया स्वयं भारतेंदु ने लिखा, चाल सन् 1873 ई.।

भारतेंदु के निबंधों उनकी प्रगतिशील मान्यताएं, व्यंग्य-विनोद, देश-प्रेम आदि सभी दर्शन हैं। उनके निबंधों रूढ़ियों पर चोट की गई है। ‘काशी’ नामक निबंध उन्होंने हिंदुओं अंधविश्वास अज्ञान का पर्दाफाश किया। ‘तदीय सर्वस्व’ अस्पृश्यता बाह्याडंबर करारा प्रहार किया। ‘सबै जाति गोपाल की’ नाम निबंध उन्होंने जाति-भेद विरोध किया।

भारतेंदु ने गद्य के लिए खड़ी बोली को परिमार्जित कर प्रयुक्त किया और मात्रा साहित्य की रचना की। किंतु वे कविता लिए खड़ी बोली को प्रस्थापित में सफल कविता लिए परंपरा प्रचलित ब्रजभाषा प्रचलित रही।

अपनी कविता नए-नए छंदों प्रयोग उन्होंने कविता को लोक जागरण माध्यम बनाया। उन्होंने अपनी की रचनाओं भारतीयों जागरण का मंत्र फूंकने प्रयास किया। जनता को शोषण सचेत और सावधान करने तथा स्वदेशी को अपनाने लिए अपनी प्रतिभा को प्रयुक्त किया।

इस संबंध उन्होंने विविध की रचनाएं कीं। नाटक, निबंध, मुकरी, चने लटका आदि सभी कुछ ‘अंधेर नगरी’ उन्होंने तत्कालीन शासन के अविचारित कार्यों पर किया-अंधेर चौपट राजा टके सेर भाजी, सेर खाजा।

भारतेंदु दूरदृष्टि संपन्न व्यक्ति उन्होंने हिंदू-मुसलमान दोनों की एकता महत्त्वपूर्ण माना और बार-बार दोनों को मिलकर रहने का आह्वान किया। उन्होंने यह जान लिया कि अपने अत्याचारों कारण ही अंग्रेजी राज का अंत होगा। इस तथ्य उन्होंने ‘अंधेर नगरी’ अंत में लिखा जिस राज्य में धर्म, नीत, बुद्धि या सज्जनों का द्रष्टव्य है

भारतेंदु ने हिंदी और देश-समाज की सेवा करने वाले मुसलमानों और हरिजनों की प्रशंसा कर अपनी विशाल हृदयता का परिचय दिया। उन्होंने स्पष्ट कहा, ‘इन मुसलमान हरिजन पर कोटि हिंदू वारिए। अंग्रेजों के शोषण के विरुद्ध लोगों को जगाने के लिए व्यंग्यपूर्ण ‘मुकरियों’ की रचना की। इनमें उन्होंने अंग्रेजों के छली-प्रपंची रूप का चित्र उपस्थित किया। इस संबंध में ‘मुकरी’ देखें-

भीतर-भीतर सब रस चूसे,
हंसि-हंस के तन मन धन मूसे,
जाहिर बातन में अति तेज।
क्यों सखि साजन, नहिं अंगरेज।।

भारतेंदु जन-जागरण के लिए काव्य-रचना की भाषा और विधा को जनभाषा रखने के पक्षधर थे। उनका आग्रह था, ‘इस हेतु ऐसे गीत छोटे-छोटे छंदों और साधारण भाषा में बनें, वरंच गंवारी भाषा में और स्त्रियों की भाषा में विशेष हों। कजली, ठुमरी, खेमटा, कहरवा इत्यादि ग्रामगीतों में इनका प्रचार हो।

हिंदी के आधुनिक भाव-बोध से संपन्न करने वाले और राष्ट्रीयता के उद्घोषक भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवन काल केवल पैंतीस वर्ष का रहा और सन् 1885 ई. में परलोकवासी हुए। किंतु इसी अल्प समय में उन्होंने हिंदी समाज और देश के लिए जितना अधिक कार्य किया, वह युगों-युगों तक भारतीयों को प्रेरणा देता रहेगा। निश्चय ही, ‘प्यारे हरिश्चंद्र की कहानी रह जाएगी।

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