भारतीय संस्कृति पर निबंध:- ‘सम्’ पूर्वक ‘कृ’ धातु से ‘क्तिन्’ प्रत्यय लगाने पर ‘संस्कृति’ शब्द का निर्माण होता है। ‘संस्कृति’ का अभिप्राय है-मन और आत्मा का संस्कार। मन और आत्मा के संस्कार के लिए मानव समाज ने जो ‘सम्यक् कृति’ की है, वह भी संस्कृति हुई। मनुष्य प्रारम्भ से ही अपनी स्थिति में निरन्तर सुधार करता आया है। उसके रहन-सहन, खान-पान, बेष-भूषा आदि में प्रारम्भिक अवस्था की अपेक्षा आज अत्यधिक विकास हो चुका है, इसे सभ्यता कहा जाता है। शरीर के साथ मन और आत्मा भी हैं। मन और आत्मा के विकास और उनकी संतुष्टि के लिए मनुष्य ने जो प्रयत्न किया-वही संस्कृति है।
भारतीय संस्कृति पर निबंध

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संस्कृति की उपयोगिता
संस्कृति मानव मन के अज्ञान को दूर करती है, चित्त के भ्रम को और अज्ञान जनित अन्धकार को दूर करती है, ज्ञान-ज्योति का प्रकाश करती है, सद्वृति की स्थापना करती है और दुर्गुणों को नष्ट करती है। संस्कृति निर्मल मन को आनन्द देती है और शक्ति देती है। संस्कृति मानव, राष्ट्र और विश्व का उपकार करती है। संस्कृति के बिना कोई भी सुख-शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता। संस्कृति ही मानव की कल्याणकारी, जीवन संचालिका और अन्तःकरण को सुखी करने वाली होती है। संस्कृति ही मानवों में विश्वबन्धुत्व की भावना भरकर लोककल्याण करती है। भारतीय संस्कृति इन सभी विशेषताओं से युक्त होकर विश्व संस्कृतियों के तारामण्डलों में सूर्य की ज्योति के समान दीप्त हो रही है।
भारतीय संस्कृति की विशेषता
भारतीय संस्कृति (भारतीय संस्कृति पर निबंध) विश्व की सबसे प्राचीनतम संस्कृति है, यूनान, मिश्र और रोम की संस्कृतियों से यह अति उन्नत और पुरानी है। वे सभ्यताएँ काल के कराल के गाल में समा गई हैं, किन्तु भारतीय संस्कृति अनेक संकटों को झेलते हुए आज भी प्राचीन रूप में जीवित-जागृत है।
“यूनान मिश्र रोमां सब मिट गए जहाँ से। बाकी मगर है अब भी नामो निशां हमारा ।।”
अर्थात् यूनान, मिस्र, रोम की अपनी प्राचीन संस्कृतियाँ नष्ट हो चुकी हैं। किन्तु अनेक आषातों को सह कर भी भारतीय संस्कृति अपने प्राचीन रूप में आज भी जीवित है। हम भारतीयों को अपनी इस श्रेष्ठ संस्कृति पर गर्व है। भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार से है, जिनके कारण वह जीवित है।
धार्मिक भावना
भारतीय संस्कृति धर्म प्रधान है। धर्म भाव ही मनुष्यों को पशुओं से भिन्न करता है। जिन नियमों से समाज का धारण होता है और जिनसे इहलौकिक तथा पारलौकिक सुख की प्राप्ति होती है, उसे ही धर्म कहते हैं। मनु महाराज ने धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, धी, (प्रज्ञा), विद्या और अक्रोध दश-लक्षणात्मक धर्म माना है।
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः।
धीः बिद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।।
सदाचार भावना
सदाचार ही मनुष्यों को पशुओं से अलग करता है। ‘आचारः परमोधर्म’: कहकर हमारे यहाँ सदाचार को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। ब्रह्मचर्य धारण करना, सात्त्विकता, शील, विनम्रता, मन-वचन-कर्म की एकता, इन्द्रियों और मन का संयम सदाचार के अन्तर्गत आते हैं। इसी प्रकार :
‘मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत् ।
आत्मवत् सर्व भूतेषु यः पश्यति स पण्डितः ।।’
पराई स्त्री को माँ के समान मानना, पराए धन को मिट्टी के ढेले के समान समझना और सभी प्राणियों को अपने ही समान मानना यह भी सदाचार का ही अंग है और यह भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता है। इन भावनाओं से मन का समस्त क्लेश दूर होता है और मानव में देवत्व के गुण आते हैं।
आध्यात्मिक भावना
भारतीय संस्कृति में भौतिक पक्ष की अपेक्षा आध्यात्मिक पक्ष को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। हमारी संस्कृति आत्मा को अजर-अमर मानती है। शारीरिक सुखों की अपेक्षा इसमें आत्मिक सुख की महत्त्व दिया है। उपनिषदों में कथाओं के माध्यम से आत्मा के रहस्य को समझाया गया है और कहा गया है कि आत्मा को ही सुनना चाहिए; आत्मज्ञान ही सब ज्ञानों में श्रेष्ठ है। इसी को ब्रह्म विद्या भी कहा गया है। अत्यधिक भौतिक सुखों से है अशान्त और त्रस्त मानवता को भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक भावना ही सुख देने में समर्थ है, अन्य कोई भावना नहीं। आत्मा में रमण करने वाले को जो सुख है, वह सुख धन और तृष्णाओं के पीछे भागने में नहीं है।
सन्तोषामृत तृप्तानां यत्सुखं शान्त चेतसाम् ।
कुतस्तद् धन लुब्धानामितश्चेतश्चधावताम् ।।
अन्य विशेषताएँ
उक्त विशेषताओं के साथ ही पुनर्जन्म की भावना, मोक्ष की प्राप्ति की भावना – अर्थात् तपस्या द्वारा जन्म-मरण के बन्धन से छूटकर आत्मा का परमात्मा में विलीन हो जाने की भावना भारतीय संस्कृति की एक विशेषता है। इसी प्रकार अभयत्व की भावना भी भारतीय संस्कृति की अन्य विशेषता है। निर्भय मनुष्य ही विलक्षण और अलौकिक कार्य कर सकता है, किन्तु भीरु कुछ नहीं कर सकता। ‘यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु’ इसीलिए कहा गया है। जीव मात्र में ईश्वर की भावना भी हमारी संस्कृति की विशेषता है। ईश्वर संसार के कण-कण में समया है-जीव ईश्वर का अंश है-
‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी ।
चेतन अमल सहज सुख राशी ।’
अनेकता में एकता की भावना भारतीय संस्कृति की अन्य महत्त्पूर्ण विशेषता है। वह ईश्वर एक है, ज्ञानी उसको अनेक नामों से पुकारते हैं, “एवं सद्विप्राः बहुधा बदन्ति।” यह भावना अनादि और दिव्य है। इसी कारण मानव-मानव में प्रेम, सहयोग और परोपकार की भावनाएँ पनपी हैं, तथा सहिष्णुता को जन्म मिला है।
‘बसुधैव कुटम्बकम्’ अर्थात् समस्त संसार एक परिवार है। भारतीय संस्कृति की इस उदात्त भावना ने मानव को मानव से प्रेम करना सिखाया है। इसी प्रकार –
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भाग् भवेत् ॥
यह प्रार्थना हमारी दिव्य संस्कृति का प्राण है। इसी के आधार पर यह आज तक टिकी है। हमें गर्व है कि हम इस श्रेष्ठ संस्कृति के उत्तराधिकारी तथा पुजारी हैं। प्राणपण से भी हम इसकी रक्षा करेंगे।
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