विपिनचन्द्र पाल का जीवन परिचय? विपिनचन्द्र पाल पर निबंध?

विपिनचन्द्र पाल का जीवन परिचय, विपिनचन्द्र पाल का जन्म 7 नवंबर, 1858 ई० में सिलहट में हुआ था। प्रथम स्वाधीनता संग्राम की आग की लपटें शान्त हो चुकी थीं। अंग्रेजों का शिकंजा कस चुका था। वे मानवता को भूल कर भारत को कानून के शिकंजे में कसते जा रहे थे। जनता चुपचाप पीड़ा को सहन कर रही थी, त्राहिमाम्-त्राहिमाम् पुकार रही थी। कहना ही होगा कि, जनता की उसी पुकार के फलस्वरूप विपिनचन्द्र पाल का जन्म हुआ था।

विपिनचन्द्र पाल का जीवन परिचय

विपिनचन्द्र-पाल-का-जीवन-परिचय

Bipin Chandra Pal Biography in Hindi

पूरा नामविपिनचन्द्र पाल
जन्म7 नवंबर, 1858
जन्म स्थानहबीबगंज ज़िला
मृत्यु20 मई, 1932

सुनकर भारत के राजनीतिक जगत में एक ऐसा युग था, जिसमें तीन महान नेताओं की गंभीर वाणी कानों में पड़ा करती थी ऐसी गंभीर वाणी कानों में पड़ा करती थी, जिसे भारत की जनता तो उत्साहित होती ही थी, किन्तु अंग्रेज सरकार भी भय से कांप उठती थी।

वे महान नेता थे- बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय और विपिनचन्द्र पाल बालगंगाधर तिलक महाराष्ट्र के, लाला लाजपतराय पंजाब के और विपिनचन्द्र पाल बंगाल के सपूत थे। ये तीनों नेता भारत की जनता में लाल, बाल और पाल के नाम से प्रसिद्ध थे।

विपिनचन्द्र पाल स्वतंत्रता के महान सेनानी थे। महात्मा गांधी के रंगमंच पर आने के पूर्व सारे भारत में उनकी ओजस्वी वाणी सुनने को मिलती थी। वे सिंह की भांति गरजते थे और सिंह की ही भांति आगे बढ़ते भी थे। उन्होंने डरना और झुकना सीखा ही नहीं था।

उन्हें जो कहना होता था, मृत्यु के सामने भी कह डालते थे और उन्हें जो करना होता था, काल के समक्ष भी कर डालते थे। वे अपने कथन और अपने कर्म से अमर हो गये हैं। उनकी कीर्ति-कौमुदी कभी भी धूमिल नहीं होगी।

विपिनचन्द्र पाल के पिता एक अच्छे वकील थे। उन दिनों भारतीयों को, योग्य होने पर भी अच्छी नौकरियां नहीं मिलती थीं। ऊंची नौकरियां अंग्रेजों के लिए ही सुरक्षित रहती थीं। अतः शिक्षित भारतीय मुख्तारी या वकालत की परीक्षा पास करके कचहरियों में कानून का व्यापार करते थे।

विपिनचन्द्र पाल की मैट्रिक तक की शिक्षा सिलहट में ही हुई। मैट्रिक की परीक्षा पास करने के पश्चात् वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से कलकत्ता गये उन दिनों कलकत्ता में केशवचन्द्र सेन की चर्चा घर-घर में हुआ करती थी वे ब्रह्मसमाज के प्रवर्तक थे। उनकी वाणी में जादू था वे अपनी वाणी से श्रोताओं को मुग्ध कर लिया करते थे। अनेक बंगाली स्त्री-पुरुष उन्हें परमात्मा का अवतार मानते थे।

विपिनचन्द्र पाल भी केशवचन्द्र के सम्पर्क में पहुंचे। वे उनके व्याख्यानों से बड़े प्रभावित हुए। वे सनातन धर्म को छोड़कर ब्रह्मसमाजी बन गये। उनके पिता को जब यह बात ज्ञात हुई, तो वे अधिक अप्रसन्न हुए। उन्होंने पाल को समझाया कि वे ब्रह्मसमाज से अपना संबंध तोड़ लें, लेकिन फिर भी पाल अपने विचारों पर ही दृढ़ रहे।

परिणाम यह हुआ कि पाल के पिता ने प्रतिज्ञा की कि वे कभी भी उनका मुख नहीं देखेंगे। केवल यही नहीं, उन्होंने पाल को उत्तराधिकार से वंचित कर दिया। उन्होंने जो उत्तराधिकार-पत्र तैयार किया था उसमें लिख दिया कि उनके बेटे को उनकी सम्पत्ति में से एक कौड़ी भी न दी जाय।

पिता के निर्णय से पाल के हृदय को आघात तो लगा, किन्तु फिर भी उन्होंने अपने मार्ग का परित्याग नहीं किया। वे अपने विचारों के बड़े ही दृढ़ थे। जिस बात को ठीक समझते थे, उसे कहने या करने में बिल्कुल संकोच नहीं करते थे। पिता और पुत्र में वर्षों तक बोलचाल नहीं रही।

पाल बड़े ही प्रतिभाशाली और तीव्र बुद्धि के थे। जब उनके पिता को उनकी उच्च कोटि की प्रतिभा का परिचय मिला, तो वे द्रवित हो गये। उन्होंने पाल को क्षमा ही नहीं कर दिया, बल्कि उन्हें 25,000 रुपये भी प्रदान किये।

पिता के द्वारा क्षमा किये जाने पर विपिनचन्द्र पाल स्वतंत्रतापूर्वक ब्रह्मसमाज के मार्ग पर चलने लगे। उनकी रग-रग में ब्रह्मसमाज का प्रेम संचारित हो उठा। जो भी कोई मनुष्य ब्रह्मसमाज का विरोध करता था, पाल उससे उलझ जाया करते थे। वे रास्ता चलते हुए ब्रह्मसमाज का प्रचार किया करते थे।

उन दिनों कलकत्ते में कालीचरण बनर्जी ब्रह्मसमाज के विरोधियों में अधिक प्रसिद्ध थे। पाल ने बनर्जी को शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी, किन्तु बनर्जी ने उनकी चुनौती को स्वीकार नहीं किया। जब बनर्जी शास्त्रार्थ के लिए सामने नहीं आये, तो पाल ने कई सभाओं में भाषण देकर ऐसी खिल्ली उड़ाई कि बनर्जी को सदा के लिए पस्त हिम्मत हो जाना पड़ा।

ब्रह्मसमाज सुधारवादी संस्था थी। कुछ दिनों तक तो वह सुधार के मार्ग पर चलती रही, किन्तु उसके पश्चात् उसने अपना मार्ग छोड़ दिया। वह पुराने और रूढ़िगत विचारों को प्रश्रय देने लगी, पर विपिनचन्द्र पाल ने सुधार के मार्ग को नहीं छोड़ा।

वे केवल कहते ही नहीं थे, जो कहते थे, उसे कार्यरूप में परिणत भी करते थे। उनकी धर्मपत्नी का जब स्वर्गवास हो गया, तो उन्होंने किसी कुमारी लड़की से विवाह न करके सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की विधवा भतीजी से विवाह किया। यद्यपि उनके इस विवाह का बहुत से लोगों ने विरोध किया, किन्तु फिर भी वे अपने विचारों से विचलित नहीं हुए।

शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् पाल अध्यापन कार्य करने लगे। वे लगभग दस वर्षों तक अध्यापन में प्रवृत्त रहे। अध्यापन कार्य करते हुए पाल का सम्पर्क क्रान्तिकारियों से । वे कलकत्ता की गुप्त समिति के सदस्य बन गये। किन्तु कुछ ही दिनों के हुआ। पश्चात् वे गुप्त समिति से पृथक् हो गये, क्योंकि क्रान्तिकारी कुछ कार्य करते नहीं थे केवल ब्रिटिश सरकार की आलोचना किया करते थे और उसे नष्ट करने के स्वप्न देखा करते थे।

गुप्त समिति से पृथक् होने पर पाल कांग्रेस में सम्मिलित हो गये। उन दिनों कांग्रेस शिक्षित मनुष्यों की संस्था थी। वर्ष में एक बार उसका अधिवेशन भी हो जाया करता था। अंग्रेज सरकार कांग्रेस से सजग रहती थी। वह बराबर पता लगाने का प्रयत्न करती रहती थी कि कांग्रेस के लोग क्या करते हैं और भारत की जनता क्या चाहती है।

विपिनचन्द्र पाल प्रसिद्ध वक्ता थे। उनकी वाणी बड़ी प्रभावशालिनी थी। जब वे कांग्रेस में सम्मिलित हुए तो उनकी प्रभावशालिनी वाणी ने उन्हें सर्वप्रिय बना दिया। वे कांग्रेस के क्षेत्र में आदर के पात्र बन गये।

कांग्रेस का तीसरा अधिवेशन मद्रास में हुआ। सुप्रसिद्ध बैरिस्टर तैयब जी अध्यक्ष थे। विपिनचन्द्र पाल और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी भी बंगाल के अस्सी प्रतिनिधियों के साथ कांग्रेस के अधिवेशन में सम्मिलित हुए थे। पाल और बनर्जी ने एक प्रस्ताव के द्वारा यह मांग की थी कि अस्त्र-शस्त्र कानून को भंग कर दिया जाय। पाल ने अपने प्रस्ताव पर जो भाषण दिया था, वह बड़ा ही प्रभावशाली था। उनके उस भाषण से कांग्रेस के क्षेत्र में बड़ी हलचल पैदा हुई थी।

मद्रास कांग्रेस के पश्चात् विपिनचन्द्र पाल इंग्लैण्ड गये। उन्होंने इंग्लैण्ड की कई सभाओं में भाषण दिये और समाचार पत्र में लेख भी लिखे। उनके भाषणों और उनके लेखों का इंग्लैण्ड की जनता पर बड़ा प्रभाव पड़ा। कुछ अंग्रेज यह समझ गये कि भारत में अंग्रेजों के द्वारा जो कुछ हो रहा है, वह उचित नहीं है।

विपिनचन्द्र पाल को इंग्लैण्ड में अपनी जीविका के लिए चिन्ता भी करनी पड़ती थी, क्योंकि उनके पास धन का अभाव था। वे समाचार पत्रों में लेख लिख कर जीविकोपार्जन किया करते थे। 1900 ई० में उन्होंने स्वयं एक पत्र प्रकाशित किया था, जिसका नाम स्वराज्य था। वे स्वराज्य में जो विचार प्रकट करते थे, वे प्रभावपूर्ण तो होते ही थे, नई दिशा का उद्घाटन भी करते थे।

विपिनचन्द्र पाल जब भारत लौटकर आये, तो उन्होंने कलकत्ते से एक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। उस साप्ताहिक पत्र का नाम ‘इंडिया’ था। पाल “इंडिया’ का प्रकाशन और सम्पादन करने के साथ ही साथ ‘बन्देमातरम्’ का भी कार्य किया करते थे।

विपिनचन्द्र पाल ने बंग-भंग और स्वदेशी आन्दोलन में इतना अधिक काम किया कि बंगाल में ही नहीं, सारे भारत में उनका नाम फैल गया। उन्होंने बंग-भंग के विरुद्ध सारे भारत का दौरा किया और अनेक सभाओं में भाषण दिये।

उन्होंने एक सभा में बोलते हुए कहा था- “हम अंग्रेजों से स्वराज्य लेकर रहेंगे। हमें किसी की कृपा और किसी की दया की आवश्यकता नहीं है। हम अपने बल से, अपने पौरुष से स्वराज्य प्राप्त करेंगे। यदि अंग्रेज हम से यह कहें कि हम तुम्हें स्वराज्य दे रहे हैं, तो हम लेने से अस्वीकार कर देंगे।

हमें तो उसी स्वराज्य से प्रसन्नता प्राप्त होगी, जिसे हम अंग्रेजों से छीन लेंगे। हमें विदेशी वस्त्र का बहिष्कार करना चाहिए और बहिष्कार करना चाहिए विदेशी माल का। हमें अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए विवश कर देना चाहिए।

बंग-भंग आन्दोलन के दिनों में सरकार की ओर से दमनचक्र भी जोरों से चलने लगा। गिरफ्तारियां तो होने ही लगीं, अखबारों पर अंकुश भी लगाया जाने लगा। उन दिनों ‘संध्या’ और ‘बन्देमातरम्’ दो पत्र बड़े ही उग्र विचारों के थे। ‘संध्या’ के सम्पादक ब्रह्म वंद्योपाध्याय थे और ‘वन्देमातरम्’ के सम्पादक थे अरविन्द घोष। दोनों ही पत्रों के सम्पादक गिरफ्तार हुए और उन पर मुकद्दमा भी चलाया गया।

अरविन्द घोष पर जब अदालत में मुकद्दमा चलने लगा, तो विपिनचन्द्र पाल से कहा गया, कि वे उनके विरुद्ध गवाही दें, किन्तु उन्होंने अरविन्द के विरुद्ध गवाही देने से अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा- “मैं फांसी पर चढ़ सकता हूं, किन्तु किसी भी देशभक्त के विरुद्ध गवाही नहीं दे सकता।”

परिणाम यह हुआ कि अदालत की मान-हानि के विरुद्ध विपिनचन्द्र पाल पर मुकद्दमा चलाया गया। उन्हें छः मास की सजा दी गई। उनकी सजा के विरुद्ध विद्यार्थियों ने अदालत के सामने जोरदार प्रदर्शन किया। विद्यार्थियों और पुलिस में भिड़ंत भी हुई। एक विद्यार्थी को गिरफ्तार किया गया, जिसका नाम सुशील सेन था।

किंगफोर्ड की अदालत में सुशील सेन पर मुकद्दमा चलाया गया। उसने सेन को बेंत लगाने की सजा दी। फोर्ड देशभक्तों को प्रायः कठिन सजाएं दिया करता था। उसके अत्याचारों से क्षुब्ध होकर ही खुदीराम बोस ने उसे जान से मार डालने की प्रतिज्ञा की।

फोर्ड जब बदल कर मुजफ्फरपुर गया, तो खुदीराम ने मुजफ्फरपुर जाकर बम के द्वारा उसकी गाड़ी को उड़ा देने का प्रयत्न किया; किन्तु वह तो बच गया और उसके धोखे में एक दूसरा अंग्रेज मारा गया।

विपिनचन्द्र पाल को दंडित किये जाने पर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की अध्यक्षता में एक सभा हुई। सभा में विपिनचन्द्र पाल के साहस की प्रशंसा तो की ही गई, उनकी धर्मपत्नी को एक हजार रुपये की थैली भी भेंट की गई। जेल से छूटने पर विपिनचन्द्र पाल फिर जोरों से काम करने लगे। उन्होंने सारे
देश का दौरा किया। वे जहां भी जाते थे,

हजारों स्त्री-पुरुष उनके भाषणों को बड़े चाव से सुनते थे। मद्रास में एक भाषण के कारण उन्हें नगर से बाहर निकाल दिया गया था। विपिनचन्द्र पाल ने बम के ऊपर कई लेख लिखे थे। उनके उन लेखों के कारण उन पर मुकद्दमा चलाने का प्रयत्न किया गया, किन्तु प्रमाण न मिलने के कारण वे छोड़ दिये गये।

1919 ई० में विपिनचन्द्र पाल ने कांग्रेस के शिष्ट मंडल के रूप में इंग्लैण्ड की यात्रा की। उन्होंने इंग्लैण्ड में भारत की स्वाधीनता के सम्बन्ध में बड़े ही उग्र विचार प्रकट किये थे। उनके विचारों को सुन कर कांग्रेस के नेताओं को भी आश्चर्यचकित होना पड़ा था। 1928 ई० में वे सर्वदल सम्मेलन में भी सम्मिलित हुए थे।

किन्तु गांधी जी जब राजनीति के रंगमंच पर आये, तो विपिनचन्द्र पाल की गति धीमी हो गई। वे असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित नहीं हुए। उन्होंने गांधी जी की राजनीति का विरोध तो नहीं किया, किन्तु उसमें उनकी रुचि नहीं थी।

वे स्वाधीनता तो चाहते थे, किन्तु उसके साथ ही साथ भारतीय संस्कृति की सुरक्षा भी चाहते थे। वे किसी भी मूल्य पर न तो देश का बंटवारा चाहते थे, न हिन्दू संस्कृति को छोड़ना चाहते थे। 20 मई, 1932 को विपिनचन्द्र पाल इस धरती को छोड़कर सदा के लिए चले गये। अपनी देश-सेवाओं के कारण वे सदा याद किये जाते रहेंगे। विपिनचन्द्र पाल का जीवन परिचय

यह भी पढ़े –

Leave a Comment