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बलबीर साहनी का जीवन परिचय? बलबीर साहनी की खोज?

बलबीर साहनी का जीवन परिचय (Dr. Birbal Sahni Ka Jeevan Parichay), डॉ. बीरबल साहनी का जन्म 14 नवम्बर, 1891 ई० में पश्चिमीपंजाब के शाहपुर जिले के भेड़ा नामक ग्राम में हुआ। यह स्थान चारों ओर से पहाड़ियों व चट्टानों से घिरा था। संभवतः यही स्थान जिज्ञासु बालक की प्रथम प्रयोगशाला बना। यहीं उसने चट्टानों के नीचे दबे रहस्यों को जानने का प्रयास आरंभ किया।

बलबीर साहनी का जीवन परिचय

बलबीर-साहनी-का-जीवन-परिचय

घटना है सन् 1947 की। भारत स्वतंत्र हो गया था। तत्कालीन शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद ने एक महानुभाव के सामने प्रस्ताव रखा “आप योग्य हैं। यदि आप चाहें तो केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय में सचिव का पद संभाल लें। हमें पूरा विश्वास है कि आप इस पद के साथ न्याय कर पाएंगे।”

डॉ. बलबीर साहनी के द्वारा किये गये आविष्कार एवं खोजें

S. No आविष्कार एवं खोजें
1.महाद्वीप विभाजन का सिद्धांत
2.दक्षिण पठार की आयु
3.ग्लोसीपटरिस वनस्पतियों की उत्पत्ति के पश्चात् उत्थान
4.वनस्पति अवशेषों के अन्वेषण

प्रस्ताव बहुत अच्छा था। स्वीकृति देने के पश्चात् उक्त महानुभाव अपने घर लौट आए परंतु यह क्या ? प्रसन्नता के सागर में हिलोरें लेने के स्थान पर वे शोक में डूब गए। महानुभाव का पूरा नाम था “श्री बलबीर साहनी” वे एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक थे। उन्होंने प्रस्ताव तो स्वीकार कर लिया परंतु अनुसंधानशाला का मोह उन्हें अपनी ओर खींच रहा था। उन्होंने विचारा

“यदि मैंने शिक्षा मंत्रालय का प्रस्तावित पद संभाल लिया तो दिन भर फाइलों की कागजी कारवाई में ही मेरा दिन बीत जाएगा। तब प्रयोगों के लिए समय ही कहाँ बचेगा ?”

सारी रात वे बेचैनी से इस विषय पर सोच-विचार करते रहे। उनके भीतर का वैज्ञानिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खोने के भय से अकुला रहा था। अंततः उन्होंने अपनी पत्नी को जगाया और कहा “मेरे लिए मेरा विज्ञान, मान-सम्मान व पद के मोह से कहीं ऊपर है।

यदि तुम भी चाहो तो मैं पद की अस्वीकृति का तार भेज दूँ ।” श्रीमती साहनी अपने पति के मनोभावों से अपरिचित नहीं थीं। उन्होंने हँस कर कहा आप वही करें जो एक वैज्ञानिक को करना चाहिए।”

बस आधी रात को विचार-विमर्श के पश्चात् अगली सुबह ही साहनी जी ने मौलाना को सूचित कर दिया में आपके द्वारा प्रस्तावित पद संभालने के सर्वथा अयोग्य हूँ।

मंत्रालय की अपेक्षा प्रयोगशाला ही मेरे लिए कहीं बेहतर स्थान है।” ऐसे थे पुरा वनस्पति विज्ञानी विशेषज्ञ ‘डॉ. साहनी’। यदि उन्हें सच्चा देशभक्त कह कर भी पुकारा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

उनके पिता प्रो. रुचिराम साहनी अपने धनी पिता की संतान थे परंतु काम-धंधा मंदा होने के कारण परिवार की आर्थिक स्थिति कुछ बिगड़ गई। रुचिराम जी ने कठिन से कठिन परिस्थितियों में धैर्य नहीं त्यागा। शिक्षा के प्रति रुझान इतना था कि प्रत्येक कक्षा में वे आसानी से छात्रवृत्ति पा लेते।

इन्हीं छात्रवृत्तियों के सहारे उन्होंने अपनी शिक्षा प्राप्त की। और तो और रसायन विज्ञान की शिक्षा पाने के लिए वे इंग्लैंड तक गए। विदेश से लौटते ही उन्हें लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में रसायन शास्त्र के प्रोफेसर का पद प्राप्त हो गया।

बीरबल साहनी ने अपने पिता के इन्हीं गुणों को विरासत में पाया। वे स्वभाव से ही प्रकृति प्रिय थे। घंटों वे प्रकृति की रमणीय शोभा को निहारते रहते। विभिन्न पेड़-पौधों को आत्मीयतापूर्वक छूना, उनके विषय में जानना व उनकी सार-संभाल करना उनका प्रिय खेल था। एक दिन इसी खेल-खेल में उन्होंने अमलतास का पौधा देखा।

कोई साधारण व्यक्ति होता तो शायद इस ओर अधिक ध्यान न देता परंतु वीरबल साहन के लिए यह पौधा किसी प्रेरणा से कम नहीं था। उन्हें इसकी सुंदरता ने मोह लिया था। लखनऊ में जब उन्होंने प्रोफेसर के पद को सुशोभित किया तब भी अमलतास के झूमते वृक्ष उनके इस वृक्ष के प्रति प्रेम की कहानी कहते थे।

कॉलेज में उनके एक अध्यापक थे “प्रो. शिवराम”। वे उन्हें वनस्पति विज्ञान पढ़ाते थे। उनके अध्यापन काल में डॉ. साहनी की रुचि वनस्पति विज्ञान में तीव्रता से बढ़ी और उन्होंने इसे ही आजीविका का साधन बनाने का निर्णय ले लिया।

लाहौर में उनका घर ब्रेडला हॉल के समीप ही था। स्वतंत्रता संग्राम में रुचि रखने वालों ने अवश्य ही इस स्थान का नाम सुन रखा होगा। यही वह स्थान था जहाँ प्रदर्शन के दौरान लाला लाजपत राय को लाठियों की मार से घायल कर दिया गया था।

प्रो. रुचिराम साहनी का घर ही महान देशभक्तों का आवास बनता। जब भी कभी ऐसे देशभक्त उनके घर आते तो डॉ. बीरबल उनके वार्तालाप को बहुत ध्यान से सुनते। उन्होंने मन-ही-मन संकल्प ले लिया था कि वे विज्ञान के माध्यम से अपने देश का नाम ऊँचा करने का भरसक प्रयत्न करेंगे।

सफेद खादी की अचकन, चूड़ीदार पाजामा व गाँधी टोपी उनकी प्रिय पोशाक थी। उनके विषय में एक लेखिका लिखती हैं “स्वतंत्रता आंदोलन के साथ उनकी सहानुभूति सदा बनी रही। स्वदेशी के साथ-साथ राष्ट्रभाषा हिन्दी व विज्ञान की शिक्षा हिन्दी में देने के भी वे प्रबल समर्थक थे।”

बीरबल साहनी अपने पिता की तीसरी संतान थे। भाई-बहनों में आपसी झगड़ा होने पर वे ही निष्पक्ष मध्यस्थ की भांति निपटारा करते। प्रायः होनहार विद्यार्थी या तो बहुत चंचल होते हैं या फिर अन्तर्मुखी, परंतु बीरबल साहनी पढ़ने-लिखने के साथ-साथ खेलों के भी शौकीन थे। वे जहाँ भी बैठते, सारा वातावरण हास्यरस से सराबोर हो जाता।

घर का उदार वातावरण भी उनकी प्रतिभा के विकास में सहायक रहा। प्रो. रुचिराम साहनी ब्रह्म समाज की शिक्षाओं के समर्थक थे अतः उन्होंने तत्कालीन पारंपरिक मान्यताओं को ताक पर रख कर अल्पायु में ही पुत्री का विवाह करने से इंकार कर दिया व उन्हें पढ़ाने-लिखाने में भी कोई कसर नहीं रख छोड़ी। संभवतः लाहौर में उनकी पुत्री ने ही सर्वप्रथम बी०ए० पास किया था।

ऐसे वातावरण में डॉ. बीरबल साहनी ने अपना बाल्यकाल बिताया। कालय पंजाब विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री लेने के पश्चात् उन्होंने कैम्ब्रिज के इमानुअल कॉलेज में प्रवेश लिया। यहीं उन्होंने ट्राईपास की उपाधि प्राप्त की।

उनका शोधकार्य प्रो. सर एलबर्ट चार्ल्स के नेतृत्व में आरंभ हुआ। वे एक प्रसिद्ध पुरा वनस्पति शास्त्री थे। इस प्रकार बीरबल साहनी अपनी प्रतिभा के बल पर आगे बढ़ते गए। यहाँ यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि उन्होंने अपनी विदेश शिक्षा के लिए परिवार से कोई आर्थिक सहायता नहीं ली। छात्रवृत्ति से प्राप्त राशि से ही उन्होंने इस उच्च शिक्षा को प्राप्त किया।

लंदन विश्वविद्यालय से उन्हें बी०एस०सी० की उपाधि मिली। म्यूनिख में उन्हें प्रसिद्ध वनस्पति विशेषज्ञ प्रो. के. गोयल के निर्देशन में अनुसंधान करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अनेक वैज्ञानिकों के निकट संपर्क में आकर उन्होंने जाना कि विज्ञान की सभी शाखाएँ परस्पर संबद्ध हैं। इन्हें एक-दूसरे से अलग न करते हुए, समग्र रूप से देखने का प्रयास करना चाहिए।

सन् 1919 में उन्होंने डाक्टरेट की उपाधि के लिए एक शोधपत्र प्रकाशित किया। यह उन्हें प्रस्तरी भूत वृक्ष (फासिल-प्लांट्स) नामक प्रबंध पर प्राप्त हुआ। डॉ. साहनी ने आगे चलकर वृक्ष के तने को पत्थर के रूप में बदलने का सफल प्रयोग भी किया।

शिक्षा समाप्ति के पश्चात् आजीविका का प्रश्न मुँहबाए खड़ा था। पिता की हार्दिक इच्छा यही थी कि पुत्र आई०सी०एस० बनकर उच्च पदासीन हो। डॉ. साहनी ने स्पष्ट शब्दों में कहा “यदि यह आपका आदेश है तो मेरे सिर-माथे पर, परंतु यदि आप मुझे मेरी रुचि के अनुसार चलने की आज्ञा दें तो मैं वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान करना चाहता हूँ।”

कुछ दिन तक फिर इस विषय में पिता-पुत्र का कोई वार्तालाप नहीं हुआ किन्तु रुचिराम जी अपने पुत्र की प्रतिभा को पहचान चुके थे। उन्होंने उसे मनचाहा कार्यक्षेत्र चुनने की स्वीकृति दे दी।

उन्हीं दिनों महामना मदन मोहन मालवीय जी की प्रेरणा से वे बनारस विश्वविद्यालय के प्राध्यापक बने। उनकी माता ईश्वर देवी पुत्र को सेहरा बाँधे देखना चाहती थीं। एक दिन हँसी-हँसी में ही डॉ. बीरबल ने कहा “मैं तो ऐसी कन्या से ही विवाह करूँगा जो परम सुंदरी होगी।

उनका यही वचन अक्षरक्षः सत्य हुआ। रुचिराम साहनी जी के मित्र श्री सुंदर दास सूरी की पुत्री सावित्री अनुपम सुंदरी थी। सावित्री भी साहनी जी के परिवार से पूरी तरह परिचित थी। माता-पिता ने सावित्री को बहू के रूप में पसंद किया और बीरबल साहनी व सावित्री परिणय सूत्र में बंध गए।

बीरबल साहनी व श्रीमती साहनी एक आदर्श पति-पत्नी का अनुकरणीय उदाहरण थे। श्रीमती साहनी अपने पति की सुख-दुख सहगामिनी थीं। पति के अनुसंधान कार्य में सहायता देने को वे सदैव तत्पर रहतीं। कहते हैं कि वे जीवाश्मों के चित्र भी बनाती थीं। साहनी जी की यायावर प्रकृति ने उन्हें अनेक यात्राओं के अवसर प्रदान किए।

प्रत्येक यात्रा में श्रीमती साहनी अवश्य साथ जातीं। डॉ. साहनी उन घुमक्कड़ों में से थे जो प्रकृति को बहुत निकट से जानने की इच्छा के कारण अपने प्राणों को भी दाँव पर लगा बैठते हैं। दुर्भाग्यवश उनके साथ भी कुछ ऐसी दुर्घटनाएँ घटीं परंतु उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आई।

एकांत व दुर्गम स्थलों पर ही डॉ. साहनी को प्रकृति के नवीनतम रूप देखने का अवसर मिलता। यही अभिज्ञताएँ उनके अनुसंधान क्षेत्र का मुख्य हिस्सा रहीं।

बनारस विश्वविद्यालय में एक वर्ष पढ़ाने के पश्चात् वे पंजाब विश्वविद्यालय में भी गए। वहाँ भी केवल एक वर्ष तक ही वनस्पति विज्ञान पढ़ाया। उसके बाद उन्हें लखनऊ विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किया गया। संभवतः यही आजीवन उनका कार्यक्षेत्र रहा।

इस विश्वविद्यालय में डॉ. साहनी की लगन व परिश्रम देखते ही बनते थे। उन्होंने अनुसंधान कार्य तो किया ही, साथ ही एक सफल अध्यापक के रूप में भी जाने गए। उन्होंने विज्ञान के पाठ्यक्रम में वांछित परिवर्तन किए तथा छात्रों से मधुर संबंधों की पहल के लिए बी०एस०सी० की कक्षाएँ भी स्वयं लेने लगे।

वनस्पति विज्ञान पढ़ाते समय डॉ. बीरबल चित्रों द्वारा अपने एक-एक वाक्य को स्पष्ट कर देते। उनकी भावपूर्ण, प्रभावोत्पादक शैली का छात्रों पर विशेष प्रभाव पड़ता।

उन्हें कक्षा में दिए जाने वाले व्याख्यान की तैयारी नहीं करनी पड़ती। प्रत्येक पाठ के उदाहरण व संदर्भ तो मानो उन्हें मुँह जुबानी याद थे। उन्हीं के सुनाम के फलस्वरूप अन्य छात्र भी लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने को उत्सुक रहते। वनस्पति विज्ञान के साथ-साथ भू-विज्ञान भी उनकी रुचि का क्षेत्र था। उनका मानना था कि भू-विज्ञान का अध्ययन होना भी आवश्यक है।

प्रयोगशाला में उपकरणों का अभाव था परंतु डॉ. साहनी ने अनुसंधान कार्य को कभी रुकने नहीं दिया। वे सदैव छात्रों को अनुसंधान कार्य के लिए प्रोत्साहित करते। उनका दृष्टिकोण था कि विज्ञान की एक शाखा की समस्या का हल विज्ञान की किसी अन्य शाखा की विधि से निकाला जा सकता था।

सन् 1922 में वे भारतीय विज्ञान शाखा के अध्यक्ष चुने गए। विज्ञान के प्रति समर्पण भावना के कारण ही उन्हें विज्ञान विभाग का डीन बना दिया गया। लखनऊ में भू-विज्ञान का प्रारंभ भी उन्हीं के कर कमलों से हुआ।

भू-गर्भ सर्वे विभाग ने भी उनकी प्रतिभा को सराहा। सन् 1922 में वे गर्मियों की छुट्टियों में कलकत्ता के इडेन गार्डन की सैर करने गए। वहाँ उन्होंने जमीन में गड़े हुए वृक्षों के तने देखे। कुछ तो जमीन के अंदर धंस चुके थे तथा कुछ आड़े-तिरछे पड़े थे।

उस सार्वजनिक स्थल पर पड़े इन अवशेषों पर सबकी नजर पड़ती तो होगी परंतु किसी ने भी उन्हें गंभीरता से नहीं लिया था। डॉ. साहनी ने उनकी भली-भांति जाँच की व एक गवेषणात्मक लेख तैयार किया। इस लेख को सभी स्थानों पर सराहा गया।

भारतीय वैज्ञानिकों में उन्होंने ही सर्वप्रथम वनस्पतियों के पुरातत्व पर कार्य किया था। उन्हीं के प्रयासों से लखनऊ विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान से संबंधित महत्त्वपूर्ण कार्य हुए। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने सन् 1929 में उन्हें अत्यंत सम्माननीय उपाधि से विभूषित किया।

भारत व विदेशों की प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्थाओं ने सदैव उन्हें पूरा मान-सम्मान दिया। बंगा एशियाटिक सोसायटी ने उनके अनुसंधान कार्यों को महत्ता प्रदान करते हुए अपना सम्मानित फैलो
चुना व बारक्ले स्वर्ण पदक भी दिया।

नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस की ओर से भी उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। विज्ञान के प्रचार व प्रसार से जुड़ी प्रत्येक गतिविधि में वे सोत्साह भाग लेते। भारत की प्रमुख वैज्ञानिक पत्रिका “करैंट साइंस” के प्रकाशन में भी उन्होंने रुचि ली। वनस्पति अवशेषों के अन्वेषण के उपरांत उन्होंने निम्नलिखित अनुसंधान कार्य भी किए-

  1. दक्षिण पठार की आयु,
  2. महाद्वीप विभाजन सिद्धांत,
  3. ग्लोसीपटरिस वनस्पतियों की उत्पत्ति के पश्चात् हिमालय का उत्थान।

इन अन्वेषणों से अनेक समस्याओं का समाधान संभव हुआ। वे अपने ही ढंग के पेलियो बोटेनिस्ट थे। सूक्ष्म जीवाश्मों पर भी उन्होंने कार्य किया। एक बार उन्हें पंजाब विश्वविद्यालय की ओर से भाषण देने के लिए रोहतक (हरियाणा) जाना पड़ा।

रोहतक से कुछ ही दूरी पर “खोखरा कोट” नामक टीला था। पंजाब विश्वविद्यालय के कुछ अधिकारियों ने उनका ध्यान इस ओर खींचा। डॉ. साहनी ने उस टीले पर हथौड़े से चोट की व अवशेषों की जाँच के आधार पर सिद्ध कर दिया कि वहाँ निवास करने वाली जाति विशेष प्रकार के सिक्के बनाने की कला जानती थी।

वहाँ से सिक्के ढालने के साँचे भी मिले। उन साँचों में कुछ सिक्के भी थे जिनकी विद्वानों द्वारा जाँच की गई। जिससे पता चला कि वे सिक्के महाभारतकालीन यौधेय लोगों के थे । इतिहास के पन्नों पर भी यौधेय लोगों का वर्णन आता है। इस प्रकार डॉ. साहनी ने इतिहास के उन स्थलों को भी उजागर किया जो संसार की दृष्टि के सामने होते हुए भी ओझल थे।

डॉ. बीरबल साहनी की यात्राएँ केवल मनोरंजन का साधन भर नहीं थीं। इंग्लैंड जाने से पूर्व वे जोजिला दरें के पास मचोई नामक ग्लेशियर की यात्रा पर गए थे, जहाँ से उन्हें लाल शैवाल प्राप्त हुआ।

उसी शैवाल पर विदेश में अनेक परीक्षण किए गए। लद्दाख की पैदल यात्रा के दौरान उन्हें खनियार नामक स्थान पर रुकने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस घने वन में घास के मैदान के बीचों-बीच एक झील थी। झील के पानी के बीच में एक छोटा-सा टापू था।

उस तैरते हुए टापू पर अनेक वनस्पतियों के झुंड थे। डॉ. बीरबल साहनी उन वनस्पतियों को देख मंत्रमुग्ध हो उठे और वहीं रुकने का निश्चय कर लिया। उन्होंने अनेक वनस्पतियों के नमूनों की जाँच की व नए संधान किए। वे कला के पुजारी थे। उनका निवास स्थान मनोहर लता-पुष्पों से सजा था।

वे अपने घर पर ही प्रकृति देवी की आराधना करते थे। इसके अतिरिक्त वे अनेक विषयों में रुचि रखते थे। वनस्पति विज्ञान से संबंधित होने के कारण उन्हें अनेक फूल पौधे व पत्तियों के रेखाचित्र बनाने का अभ्यास हो गया था। इस प्रकार उनके हृदय में चित्र निर्माण के प्रति लगाव पैदा हुआ और वे मिट्टी की मूर्तियाँ बनाने लगे।

संगीत भी उनके लिए शांति पाने का माध्यम था। आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि प्रसिद्ध पुरा वनस्पति विज्ञानी डॉ. बीरबल साहनी एक कुशल सितारवादक व वायलिनवादक थे । प्रायः वे देर रात तक जग कर अपनी प्रयोगशाला में अन्वेषण कार्य करते ।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. साहनी अपने मधुर व्यवहार से सभी का मन मोह लेते। लाख व्यस्तता रहने पर भी वे निमंत्रित सभाओं में अवश्य पहुँचते और अपने विचार प्रकट करते। सादगी ऐसी कि देखने वाला यह मानने को तैयार ही नहीं होता कि उक्त सज्जन ही देश के महान वैज्ञानिक हैं

नई पीढ़ी के वैज्ञानिकों की प्रतिभा को निखारने में उन्होंने सदैव रुचि ली विशेषतः अनुसंधानरत छात्रों को उनका पूरा सहयोग व समर्थन प्राप्त होता। वे चाहते थे कि मानव जाति के विकास के लिए विज्ञान के प्रयोगों का उपयोग हो ।

डॉ. साहनी राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रबल समर्थक थे। उन्हें भारत देश व उसकी मातृभाषा के सम्मान का सदैव ध्यान रहता। वे प्रायः अपने भाषणों में विज्ञान की शिक्षा को हिन्दी में देने पर जोर देते ।

देशभक्ति भी ऐसी कि एक बार खादी धारण की तो आजीवन उस बाने को नहीं त्यागा। वे अपनी सादी खद्दर की उस पोशाक में संयम व त्याग की प्रतिमूर्ति जान पड़ते थे।

मौलिक अनुसंधान हेतु एक पुरा वनस्पति संस्थान (पेलियो बोटेनी इंस्टीट्यूट) स्थापित करने का स्वप्न उन्होंने वर्षों से पाल रखा था। 19 मई, सन् 1946 को पुरा वनस्पति विज्ञान संस्थान को प्रारंभिक स्वरूप देने के लिए एक ट्रस्ट व समिति का गठन हुआ। इस अनुसंधान शाला में संग्रहालय, प्रयोगशाला, पुस्तकालय व वैज्ञानिकों के निवास स्थान बनाने की योजना भी बनाई गई थी।

पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस महान लक्ष्य की पूर्ति में अपना सहयोग दिया। इस प्रकार संस्थान के लिए धन की भी कमी न रही। बलबीर साहनी का जीवन परिचय

3 अप्रैल, सन् 1949 को लखनऊ में पंडित नेहरू ने इस संस्थान की आधारशिला रखी। देश-विदेश में वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने अपने शुभकामना संदेश भेजे। डॉ. साहनी कुछ दिन पूर्व ही अमेरीका के दौरे से लौटे थे। संस्थान का काम भी सिर पर था अतः उन्हें आराम करने का भी अवकाश नहीं मिला।

दुर्भाग्यवश एक सप्ताह पश्चात् ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे इस नश्वर संसार से चले गए। श्रीमती साहनी को उन्होंने अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले ही कहा था कि वे उनके संस्थान का ध्यान रखें। बलबीर साहनी का जीवन परिचय

श्रीमती साहनी ने पति को दिए वचन को पूर्णतया निभाया और संस्था का पालन-पोषण किया। वही संस्थान आज अनेक युवा प्रतिभाओं का मार्गदर्शन कर रहा है। मात्र 58 वर्ष की आयु में डॉ. साहनी हमसे बहुत दूर चले गए। निःसंदेह वे यदि जीवित रहते तो उनकी अनेक प्रतिभाएँ हमारे सम्मुख आतीं।

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