बुद्धिमान मंत्री की सूझबूझ:- उज्ज्वल नक्षत्रों में नंद के दरबार में महामात्य शकटाल उनके पिता थे। शकटाल बहुत बुद्धिमान मंत्री थे। राजा नंद उनकी सूझबूझ से बहुत प्रभावित था। मंत्री शकटाल के दो पुत्र स्थूलभद्र तथा श्रीयक थे। उनकी सात बेटियां थीं। उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी पहली पुत्री एक बार में दूसरी पुत्री दूसरी बार 1 में और इस प्रकार सातवीं पुत्री सातवीं बार में, किसी भी कविता या बात को सुनकर हू-ब-हू दोहरा दिया करती थी। स्थूलभद्र भी अत्यंत प्रतिभाशाली थे।
बुद्धिमान मंत्री की सूझबूझ

राजा नंद के राजकवि का नाम था वररुचि। कविता के क्षेत्र में वररुचि का दूर-दूर तक नाम था। कवि वररुचि राजा नंद को प्रतिदिन 108 श्लोक बनाकर सुनाया करता था। राजा से एक बार मंत्री शकटाल ने कवि वररुचि की प्रशंसा करते हुए कहा- “महाराज! हमारे राजकवि वररुचि के मुख में ज्ञान की देवी सरस्वती का निवास है। इनकी कविता में जीवन का सच्चा रस होता है। सचमुच वररुचि काव्य-सम्राट हैं।”
महामात्य शकटाल के मुख से कवि वररुचि की ऐसी प्रशंसा सुनकर राजा नंद खुश हो गया। नंद ने कहा- “वाह महामात्य, आप सचमुच उदार मन के हैं। कवि वररुचि की ऐसी प्रशंसा आप ही कर सकते हैं। आज से हम कवि को एक श्लोक के लिए एक स्वर्ण मुद्रा दिया करेंगे।”
अब प्रतिदिन कवि वररुचि जब 108 श्लोक राजा नंद को सुनाया करते, तो उन्हें 108 स्वर्ण मुद्राएं राजकोष से मिल जाती थीं। एक दिन महामात्य शकटाल सोचने लगे- “यह तो ठीक नहीं है। राजतंत्र तो राजकोष पर ही आधारित है। यदि राजकोष ही खाली हो गया. तो राजा का अस्तित्व कहां रहेगा? इस प्रकार प्रतिदिन 108 स्वर्ण मुद्राएं लुटा कर तो राजा नंद पूरी तरह कंगाल हो जाएंगे। मुझे राजकोष की रक्षा के लिए कुछ करना ही पड़ेगा।”
एक दिन एकांत पाकर शकटाल ने राजा नंद से शांत भाव से कहा-“महाराज! आप कवि वररुचि को प्रतिदिन 108 स्वर्णमुद्राएं देते हैं। इसका उद्देश्य क्या है ?” “वाह, महामात्य ! आपने स्वयं ही तो वररुचि को ‘काव्य-सम्राट’ कहा था। आपकी प्रशंसा हमने सुनी तो सोचा कि कवि का सम्मान करना चाहिए।” राजा नंद ने कहा। “महाराज, यह तो आपकी अपार कृपा है। मैं आभारी हूं कि आप मेरी बात को इतना महत्व महत्व देते हैं, लेकिन… ” कहते-कहते मंत्री शकटाल जानबूझकर रुक गया।
” लेकिन क्या, महामात्य ? कहिए जो कहना है।” नंद ने कहा। “महाराज! क्षमा करें। वररुचि आपको जो श्लोक सुनाता है, वे उसके बनाए हुए नहीं होते। आपको विश्वास न हो, तो मेरी पुत्रियां राजदरबार में उसी समय वे श्लोक सुना हैं।” मंत्री शकटाल ने शांतिभाव से राजा नंद को समझाया। सकती दूसरे दिन राजदरबार में महामात्य को सातों पुत्रियां भी आईं।
वररुचि ने रोज की तरह 108 श्लोक सुनाए। राजा नंद का संकेत होते ही शकटाल की सातों पुत्रियों ने एक-एक करके वे श्लोक राजदरबार में दिया। सुना दिए। यह देखकर राजा नंद को गुस्सा आया। उसने वररुचि को स्वर्ण मुद्राएं देना बंद कर कवि वररुचि ने इसे महामात्य शकटाल का षड्यंत्र समझा। वह क्रोध और बदले की आग में जल रहा था। वह केवल एक बात सोच रहा था कि कैसे अपने अपमान का बदला ले। महामात्य शकटाल को किसी भी तरह नीचा दिखाने का उपाय कवि वररुचि सोच रहा था। उसे लग रहा था कि मंत्री शकटाल ही उसका शत्रु है। उसे रातभर नींद नहीं आई। चिंता से बेचैन होकर वररुचि टहल रहा था। बस, एक ही धुन उसके मन में थी कि खोया सम्मान कैसे प्राप्त हो ?
आखिर वररुचि ने एक उपाय सोच ही लिया। वह प्रतिदिन गंगा में जाकर कमर तक जल में खड़ा होकर गंगा की स्तुति करता गंगा तट पर राज्य के निवासी वररुचि को देखते जब वह गंगा की स्तुति समाप्त करता था, तो गंगा में से एक हाथ ऊपर उठता था। लोग देखते थे कि वह हाथ वररुचि को 108 स्वर्ण मुद्राएं देता है और फिर गंगा में चला जाता है।
इस विचित्र दृश्य को लोग देखते थे, तो आश्चर्य में डूब जाते थे राज्य में धीरे-धीरे इस बात की चर्चा फैल गई। लोग कहते थे-” राजा नंदा भले ही वररुचि पर प्रसन्न न हों, लेकिन गंगा मैया तो प्रसन्न है। उधर राजा नंद ने स्वर्ण मुद्राएं देना बंद किया, तो इधर गंगा ने वररुचि की स्तुति पर प्रसन्न होकर उसे प्रतिदिन स्वर्ण मुद्राएं देना आरम्भ कर दिया है।”
सारे राज्य में जब यह चर्चा फैल गई, तो नंद को भला कैसे इसका पता न चलता ? राजा नंद ने तभी महामात्य शकटाल को बुलाकर कहा-” महामात्य ! क्या यह सच है कि कवि वररुचि की स्तुति सुनकर गंगा मैया का हाथ ऊपर उठता है और उसे 108 स्वर्ण मुद्राएं देता है ? हम इस दृश्य को अपनी आंखों से देखना चाहते हैं।”
शकटाल बहुत सूझबूझ वाला मंत्री था। वह जानता था कि इस समय यदि राजा को रोका जाएगा, तो राजा के मन में संदेह पैदा हो जाएगा। महामात्य ने कहा- “महाराज! आप बिल्कुल ठीक कहते हैं। कल आप गंगा तट पर अवश्य ही पधारें। हमें आंखों से देखकर ही वास्तविक स्थिति का पता चल सकेगा।”
उधर महामात्य ने कवि वररुचि की इस बात का रहस्य जानने के लिए गुप्तचर विभाग के एक विश्वासपात्र अधिकारी को शीघ्र सारी बात का पता लगाने को कहा।
आधी रात के समय वररुचि अपने घर से निकला। उसने बड़ी चतुराई से चारों ओर देखा गुप्तचर अधिकारी उसका पीछा कर ही रहा था। इस बात से बिल्कुल बेखबर वररुचि गंगा तट पर आया। कपड़े निकालकर वह जल में घुसा और कोई वस्तु जल में रखकर बाहर आ गया। गुप्तचर सारी घटना देख रहा था। वररुचि ने फिर अपने कपड़े पहने और घर लौट गया।
वररुचि के जाने पर गुप्तचर अधिकारी गंगा में घुसा। उसने देखा कि वहां एक यंत्र रखा हुआ है। उस यंत्र में बने हुए हाथ में 108 स्वर्ण मुद्राएं रखी हुई हैं। गुप्तचर सारा रहस्य जान गया। उसने स्वर्ण मुद्राएं तो उठा लीं, लेकिन यंत्र वहीं रहने दिया और जाकर महामात्य शकटाल को सारा रहस्य बता दिया तथा स्वर्ण मुद्राएं भी दे दीं।
वररुचि अपने घर चैन से सो रहा था और महामात्य शकटाल अपने घर में चैन की नींद में मग्न थे। दोनों ही सुबह की इंतजार में थे।
दूसरे दिन महाराजा नंद महामात्य शकटाल के साथ हजारों लोगों की उपस्थिति में गंगा के तट पर पहुंचे। राजा नंद को आया देखकर कवि वररुचि बहुत प्रसन्न हुआ। वह सोच रहा था।
कि आज राजा नंद गंगा मैया की कृपा का दर्शन करके लज्जित होगा। जब महामात्य शकटाल का अपमान हजारों लोगों के सामने होगा, तब मुझे बड़ी शांति मिलेगी।
उधर महामात्य शकटाल सारा रहस्य जान ही चुके थे। वह निश्चित और शांतभाव से राजा नंद के साथ बैठकर वररुचि के ढोंग की कलई खुलने का इंतजार कर रहे थे। गंगा तट पर आए हुए हजारों लोग उत्सुकतापूर्वक इस आश्चर्यजनक घटना को देखने के लिए आतुर थे। सब तरफ कोलाहल-सा छाया हुआ था।
कवि वररुचि गंगा में उतर गया। उसने बड़े ही भक्तिभाव से कमर तक जल में खड़े होकर गंगा की स्तुति का गान किया। जब स्तुति पूरी हो गई, तो वररुचि ने जल में छुपाकर रखे गए यंत्र को पांव से दबाया।
सभी ने कौतुहल के साथ देखा कि गंगा के जल से निकल कर एक हाथ ऊपर उठ रहा है। वररुचि भक्तिभाव से आंखों को मूंद कर हाथ फैलाए खड़ा था। लेकिन आश्चर्य कि उस हाथ में स्वर्ण मुद्राएं नहीं थीं। वह तो खाली था। वररुचि गंगा में हक्का-बक्का खड़ा था।
महामात्य शकटाल उठकर गंगा तट पर आए। कवि वररुचि की ओर देखकर शकटाल बोले – ” बाहर आ जाइए कविवर ये रहीं वे 108 स्वर्ण मुद्राएं, जो गंगा मैया आपको प्रतिदिन खुश होकर देती थीं।”
वररुचि का भेद खुल गया था। वह सिर झुकाए गहरी लज्जा में डूबा हुआ खड़ा था। राजा नंद को क्रोध आ गया। तभी शकटाल शांतिभाव से बोले-“कविवर! संसार की आंखों में धूल
थोड़े समय के लिए तो भले ही झोंक ली जाए, लेकिन सदा के लिए किसी की आंखों में धूल नहीं झोंकी जा सकती। याद रखिए, काठ का बर्तन रोज-रोज चूल्हे पर नहीं चढ़ता।” वररुचि का ढोंग सारे लोगों के सामने प्रकट हो गया था। सारी प्रतिष्ठा एक बार में ही धूल में मिल गई। सभी ने वररुचि को बुरा-भला कहा।
दूसरी बार महामात्य शकटाल से पराजित होकर वररुचि के भीतर क्रोध और बदले की आग अधिक तेज हो गई। वररुचि ने प्रतिज्ञा की- “जब तक इस दुष्ट महामात्य शकटाल को अपमानित नहीं कर लूंगा, तब तक चैन से नहीं बैठूंगा।” क्रोध और बदले की आग में जलते हुए वररुचि का ध्यान अब कविता में कैसे लगता ? वह तो किसी भी तरह शकटाल के प्राण ले लेना चाहता था, ताकि उसे शांति मिल सके।
कुछ दिन बीत गए। बदले की आग में जलता हुआ वररुचि मौके की तलाश में बेचैन था।
महामात्य शकटाल के छोटे पुत्र श्रीयक का विवाह निश्चित हो गया। उन्होंने इस अवसर पर महाराजा नंद का विशेष सम्मान करने की बात मन में सोची।
विशेष रूप से मूल्यवान छत्र, सुंदर आभूषण तथा वस्त्र इत्यादि गुप्त रूप से तैयार कराए। इस बीच वररुचि ने महामात्य की एक दासी को अपार धनराशि देकर अपनी ओर मिला लिया था। एक दिन उस दासी ने वररुचि को महामात्य द्वारा राजा के सम्मान की बात बताई। वररुचि के होंठों पर कुटिल मुस्कान बिखर आई उसने एक षड्यंत्र रच लिया।
वररुचि ने शकटाल की दासी से कहा- “तुमने बड़ी अच्छी खबर दी है। अब तुम सारे चौराहों और रास्तों पर इस प्रकार की घोषणा करो कि महामात्य शकटाल राजा नंद को धोखे से मारकर अपने पुत्र श्रीयक को राजा बनाना चाहता है। इस काम के लिए उसने गुप्त रूप से तैयारी कर रखी है।”
दासी को इस कार्य के लिए भी वररुचि ने बहुत सा धन दिया। योजना बनाकर पूरे राज्य में यह बात फैला दी गई। सभी के मुंह पर एक ही बात थी- “महामात्य शकटाल राजा नंद को मारकर अपने पुत्र को राजा बनाना चाहता है।”
कहा गया है कि किसी झूठ को अगर सौ बार दोहरा दिया जाए, तो वह सत्य ही लगने लगता है। राजा नंद ने जब यह बात सुनी तो विश्वास नहीं किया। राजा तो महामात्य की स्वामि भक्ति के उदाहरण औरों को दिया करता था। लेकिन जब कई बार एक ही बात राजा नंद के कानों
तक रोज पहुंचती, तो आखिर संदेह ने जन्म ले ही लिया। राजा ने सोचा- “क्या मैं भूल कर रहा हूँ ? राजनीति में किसी पर अंधा विश्वास करना अपराध माना गया है। तब क्या इस खबर की सच्चाई का पता लगवाऊं ?”
राजा नंद ने अपने विशेष गुप्तचर को महामात्य के घर सब पता लगाने के लिए भेजा। गुप्तचर ने वहां जाकर अपनी आंखों से देखा कि राजा के योग्य मूल्यवान छत्र, चामर, आभूषण आदि वहां रखे हुए हैं। गुप्तचर सब कुछ स्वयं देखकर लौट आया उसने राजा नंद को सारी बात बता दी। राजा नंद क्रोध में भड़क उठा। उसे ऐसी आशा न थी।
जब महामात्य शकटाल को यह पता चला कि राजा नंद क्रोध में हैं, तो उसने मन में सोचा- “राजा मुझे ही नहीं, बल्कि पूरे परिवार को मरवा देगा। क्रोध अंधा होता है। राजा का विवेक इस समय क्रोध की आग में जल चुका है। कुछ करना होगा।”
शकटाल ने अपने पुत्र श्रीयक को बुलाकर समझाते हुए कहा- “संकट की बहुत विकट घड़ी सामने है। सारे परिवार के प्राण और अपना सम्मान बचाने के लिए अब मुझे अपने जीवन का बलिदान देना पड़ेगा। तुम्हें मेरी मदद करनी होगी।”
आश्चर्य में डूबकर श्रीयक बोला-“यह आप क्या कह रहे हैं पिताजी ? आपके जीवन का बलिदान क्या जरूरी है? क्या दूसरा कोई उपाय नहीं ? चलिए, हम चलकर महाराजा नंद को सारी बात साफ-साफ बता देते हैं।”
महामात्य ने बेटे को कहा-“नहीं, नहीं बेटा! अब राजा के मन में पड़ा हुआ संदेह का बीज फूट चुका है। क्रोध में अंधा राजा हमारी बातों पर कभी विश्वास नहीं करेगा। अब तो मेरा बलिदान ही परिवार तथा सम्मान को बचा सकता है। तुम्हें मेरा वध करना ही होगा।” शकटाल ने पूरे विश्वास और दृढ़ता के साथ श्रीयक की ओर देखा । श्रीयक कांप उठा। उसने कहा—“ यह मैं कैसे कर सकता हूं पिताजी ? क्या आप मुझसे पितृहत्या का पाप करा के, मुझे नरक में भेजना चाहते हैं ? यदि मरना ही है, तो फिर हम एक साथ क्यों न मरे ?”
शकटाल बेचैन होकर बोले- “यह कैसी बचपने की सी बात करते हो तुम? एक के लिए सबको मारना मूर्खता है।”
श्रीयक ने दुखी होकर पूछा ” आपकी हत्या करके क्या मैं पितृहत्या का दोषी नहीं बनूंगा? आप मुझसे यह पाप क्यों कराना चाहते हैं पिताजी ?”
बेटे के मन की दुविधा को समझकर महामात्य शकटाल ने उसे समझाया- “बेटा! जिस समय मैं राजा नंद को नमस्कार करूंगा, उस समय अपने मुख में तालपुट विष रख लूंगा। इस विष के प्रभाव से मेरी मृत्यु तुरंत हो जाएगी। तब तुम अपनी तलवार से मेरा सिर काट देना। इस प्रकार तुम्हें पितृहत्या का पाप नहीं लगेगा और परिवारसहित मेरा सम्मान बच जाएगा।”
महामात्य और श्रीयक दूसरे दिन राजा नंद के दरबार में पहुंचे। जैसे ही शकटाल ने सिर झुकाकर राजा को नमस्कार किया, वैसे ही श्रीयक ने तलवार से अपने पिता का सिर काट दिया। दरबार में भूचाल सा आ गया। सभी भौचक्के होकर एक-दूसरे को देखने लगे। राजा नंद ने श्रीयक से पूछा- ” वत्स ! यह तुमने क्या कर डाला? महामात्य की हत्या तुमने क्यों की है ?”
श्रीयक ने निर्भीक स्वर में कहा-“महाराज! राजद्रोही कहलाने से अच्छा तो यही है।” यह कहकर श्रीयक ने राजा को वररुचि का सारा षड्यंत्र बता दिया। महामात्य शकटाल की मौत से राजा नंद बहुत दुखी हुआ। उसने भरे दरबार में कहा- “महामात्य शकटाल सचमुच बुद्धिमान थे। मरकर उन्होंने अपनी राजभक्ति सिद्ध कर दी है। ऐसा मंत्री मिलना दुर्लभ ही है।” राजा ने श्रीयक को मंत्री पद सौंप दिया।
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