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चाफेकर बन्धु कौन थे? भारत को स्वतंत्रता दिलाने में चाफेकर बन्धु क्या योगदान था।

चाफेकर बन्धु कौन थे: चाफेकर बन्धुओं का जन्म चित्पावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पूना के क्षेत्र में इन ब्राह्मणों की अच्छी साख गिनी जाती थी। इसी कारणवश ब्रिटिश सरकार की शासकीय सेवा में कुछ लोगों ने सरलता से नौकरियाँ भी प्राप्त कर ली थीं।

एक सम्पन्न चित्पावन ब्राह्मण परिवार के घर में दामोदर पन्त चापेकर, बालकृष्ण चापेकर और वासुदेवराव चापेकर नामक तीन सुपुत्रों ने जन्म लिया। तीनों सहोदर भाइयों (चाफेकर बन्धु कौन थे) का बाल्यकाल और किशोरावस्था बड़े सुख-चैन और मस्ती भरे वातावरण में व्यतीत हुई और तीनों का विवाह अच्छे खाते-पीते घरानों में सम्पन्न हुआ था।

चाफेकर बन्धु कौन थे

चापेकर बन्धु कौन थे

Chafekar Bandhu Kaun The

माँ-बाप के निरन्तर स्नेहिल वातावरण से किसी प्रकार का अभाव उनके जीवन को छू भी न पाया था किन्तु अंग्रेजों की क्रूरता, नीचता और विश्वासघाती घातों ने चापेकर बन्धुओं के नये खून में विद्रोह की ज्वाला भड़का डाली थी।

ब्रिटिश शासन में अत्याचार, अनाचार, बलात्कार, कपट और भेदभाव की उग्रता से भारतीयों के मन में घृणा और भय विद्यमान हो गया था। वे असन्तोष की आग में जले जा रहे थे। नया खून अत्याचार, अनाचार को सहन नहीं करता अतः तीनों सहोदर नित्य अपनी आँखों में विद्रोही तेवर लिये अंग्रेजों को सबक देने की योजना बनाते जिससे उन्हें मुँह तोड़ उत्तर दिया जा सके।

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रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानन्द स्वामी विवेकानन्द महान आत्माओं के उपदेशों ने मन जागृति अंकुर प्रस्फुटित कर दिये थे। उन्होंने अनुभव दिया था कि भारतीय संस्कृति विश्व की अन्य संस्कृतियों तुलना में कैसे भी नीची नहीं लोगों यदि मनोबल ऊँचा हो बड़ी-से-बड़ी शक्ति से लोहा सकते हैं।

वास्तव में भारत महान है, जहाँ के लोग सरल धार्मिक प्रवृत्ति के होने के कारण निरीश्वरवादी नहीं उनके मन में दया निष्ठा है, आस्था है। उनकी दुर्बलता आपसी फूट कारण ही आर्थिक शोषण होता है, उनकी सामाजिक कुप्रथाएँ उनकी प्रगति बाधक हैं। चाफेकर बन्धु कौन थे

चापेकर बन्धुओ का क्रांतिकारी कदम

19वीं शताब्दी के अन्तिम दशक की दो महत्त्वपूर्ण रोमांचकारी घटनाओं ने शस्त्रक्रान्ति के इतिहास में अपना विशेष स्थान बनाया है-पहला चापेकर बन्धुओं का बलिदान और दूसरा पंजाबी नवयुवक मदनलाल धींगड़ा का बलिदान।

भारत में क्रान्तिकारी स्वाधीनता संग्राम का श्रीगणेश इतनी प्रखरता, तीव्रता और धूमधाम से हुआ जिसकी त्यागमयी निष्ठा का अभूतपूर्व प्रदर्शन संसार में अन्यत्र कहीं भी मिल पाना कठिन है। चापेकर बन्धु कौन थे

1857 के असफल विद्रोह की आग धूमिल चिनगारी के रूप में दबी सुलगना चाहती थी। वे आपस में एक ही धारणा पर चर्चा करते कि ये अंग्रेज बनिये बनकर व्यापार के बहाने भारत में घुसे, भारतीय सम्राटों के सम्मुख नतमस्तक हो सलाम मारते, अपने अतीत भूलकर वर्तमान की सुनहली धूप में अपने छल-कपट से भारत के शासक बन बैठे।

अंग्रेज अपने को सुसंस्कृत, सभ्य और समझदार मानता है, हमारी सभ्यता संस्कृति, रीति-रिवाजों को असभ्यता की तराजू पर तोल हमें जंगली एवं बर्बर करार देता है। इन्हें सबक सीखना ही होगा, विदेशियों को भारत से बाहर खदेड़ने के अलावा कोई और मार्ग सम्भव ही नहीं है।

आज जिस हुकूमत की जड़ें वे सुदृढ़ और मजबूत मानने लगे हैं उन्हें भारतीय युवकों का ‘संगठित दल’ अखंड भारत से उखाड़कर सात समुद्र पार फेंकने में सक्षम है। बड़े भाई दामोदर पन्त ने फौज में प्रवेश करने का निश्चय किया।

भाग-दौड़ काफी की मगर वह अंग्रेजी रंगरूटों की आँखों को धोखा नहीं दे पाया। उसका प्रयत्न असफल हो गया। फौज में भरती का स्वप्न बिखर गया मगर चापेकर बन्धुओं ने निराश हो हाथ पर हाथ रख बैठना सीखा न था।

उन्होंने ‘आर्यधर्म प्रतिबन्ध निवारक मंडली’ नामक संस्था स्थापित कर डाली। इस संस्था का लक्ष्य था अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय जनता में जागरूकता और क्रान्तिकारी संघर्ष के विषय में सफल योजना बनाना। इस संगठन ने थोड़े समय में ही आशा से अधिक सफल मार्ग प्रदर्शन करना प्रारम्भ कर दिया।

जनता की आँखें खुल गयीं, उन्होंने अनुभव किया कि अंग्रेजों का विरोध केवल एकता और शक्तिशाली संगठन के माध्यम से सम्भव है। अंग्रेज कपटी हैं, छल उनका अमोघ अस्त्र है मगर ये बनिये डरपोक भी हैं। ईंट का उत्तर पत्थर से देकर ही इनको भारत से खदेड़ना सम्भव है।

इसी प्रकार दूसरी रोमांचकारी घटना पंजाबी नवयुवक मदन लाल धींगड़ा की है जो एक सम्पन्न परिवार में उत्पन्न हुआ, लालन-पालन बड़े चाव से किया गया। बी. ए. की परीक्षा निर्भीकता के साथ समाप्त करने के उपरान्त वह विशेष अध्ययन के लिए इंग्लैंड पहुँच जाता है।

बंगाल प्रान्त में अंग्रेजों के विरुद्ध नवयुवकों का आक्रोश फूट पड़ा था। विदेशी हुकूमत के खिलाफ बगावत का झण्डा बंगाली युवकों के हाथों में फहरा रहा था। नया खून अपनी पूरी बुलन्दी से गोरी सरकार को नाकों चने चबवाने में प्रयत्नशील थे। वे मातृभूमि से अंग्रेजों का बिलकुल सफाया करने के लिए कई गुप्त संगठनों में कार्यरत थे।

इसी हलचल में लन्दन भी अछूता न बचा था। जो भारतीय किसी साधन से विदेश पहुँचते वे एकत्रित होते ही संगठित रूप से अंग्रेजी दासता से भारत को मुक्त कराने की योजना में जुट पड़ते थे। ऐसे सुपरिचित नामों में एक मदन लाल धींगड़ा भी थे।

इंग्लैंड में उन दिनों एक गुप्तचर कर्जन वाइली का नाम बड़ा चमक रहा था। वह बड़ी होशियारी से लन्दन में आने-जानेवाले भारतीयों पर निगरानी रखने में बड़ा प्रवीण था। वह प्रायः सभी मनोरंजक स्थलों, सैरगाहों और सभा मंचों में भाग लेकर गुप्त सूचनाएँ एकत्रित करने में अपनी सानी न रखता। उसकी नजर अचानक मदन लाल धींगड़ा पर पड़ी तो उसने पीछा करना प्रारम्भ कर दिया।

छात्रों की गतिविधियों पर अंकुश रखने में प्रवीण वाइली अपनी योजना के तहत सरगर्मी से कार्यरत हो धींगड़ा के निकटतम सर्किल में प्रवेश कर गया। उसे यह भी जानकारी मिल गयी कि मदन लाल धींगड़ा नामक छात्र एक बलिष्ठ एवं निर्भीक भारतीय है जो प्रायः अन्य छात्रों की अपेक्षा शान्त और गम्भीर मुद्रा में नित्य प्रति खोया खोया दृष्टिगोचर होता है।

उसकी विदेश यात्रा साधारण अध्ययन नहीं चूँकि वह प्रान्त की बस्तियों में अनेकों भारतीयों के सम्पर्क में पहुँच गुप्त सभाएँ भी आयोजित करने की अभिरुचि रखता है। लंदन की खुफिया तन्त्र सचेत हो सक्रियता से उसकी गतिविधियों पर नजर रखने लगा।

सर कर्जन वाइली का सन्देहास्पद चेहरा भी मदन लाल धींगड़ा की आँखों में पहले ही नाच गया था। दोनों पक्ष एक-दूसरे से सावधान अपनी-अपनी चालों के मोहरे बिछाने में जुटे थे। धींगड़ा ने निडरता से अपना कार्य जारी रखा, वह जल्दबाजी में किसी अनहोनी को स्वयं न्यौता पहले नहीं देना चाहता था।

एक दिन खुली सभा में मदन लाल धींगड़ा ने सर कर्जन वाइली को जब अपनी गोली का निशाना बनाया तो भीड़ में भगदड़ मच गयी। इस प्रकार इस नवयुवक ने बड़ी सकर्तता और वीरता का परिचय देते हुए अपनी मातृभूमि के अपमान का बदला उनके देश की धरती पर खून के बदले खून बहाकर ले लिया।

ब्रिटिश हुकूमत को इससे बड़ी चुनौती और क्या दी जा सकती थी? मदन लाल धींगड़ा पर मुदकमे का नाटक रचाया गया। धींगड़ा ने बड़े साहस और उत्तेजना-भरे स्वरों में अदालत में सिंह गर्जना की- ‘मैंने सचमुच सर कर्जन वाइली पर गोली चलाकर उसकी हत्या की है, मुझे इसका दुःख नहीं प्रसन्नता और गर्व अनुभव रहा है।

मेरी तो परमात्मा से एकमात्र यही कामना है कि जब तक भारत ब्रिटिश शासन से मुक्त हो विजयी नहीं होता मैं बारम्बार उसी माँ के गर्भ से पैदा हो-होकर अपने पवित्र उद्देश्य की पूर्ति के लिए निरन्तर अपने प्राणों की आहुति देता चला जाऊँ।

यह क्रान्तिकारी अमर वीर मदन लाल धींगड़ा 16 अगस्त, 1906 को हँसते-हँसते फाँसी के फन्दे को चूमकर इतिहास के पृष्ठों पर अपना हस्ताक्षर चापेकर बन्धुओं के हृदय में सुलगती चिनगारी आग के भयंकर शोलों में परिवर्तित हो गयी। एक देशभक्त के लिए जीवन में इससे बड़ी चुनौती और क्या हो सकती है?

उन्होंने परिवार, माँ-बाप, बाल-बच्चे और सुखमय जीवन के मोहक सपनों को धूलि धूसरित कर अंग्रेज अफसर से बदला लेने का तत्काल निश्चय कर डाला। योजना को मूर्त रूप देने के लिए समय की प्रतीक्षित अवधि में ही पूरे प्रारूप पर तीनों भाइयों ने सावधानी से विचार-विमर्श कर लिया। दामोदर चापेकर का खून खौलने लगा था।

अंग्रेज सैनिकों के साथ घरों में घुसकर जो छेड़खानी कर नारियों के साथ बलात्कार करे, उनकी इज्जत लूटे, धन-सम्पदा छीने-ऐसे वाल्टर चार्ल्स रैण्ड के दुराचरणों को आखिर किस सीमा तक सहन किया जा सकता था? पाप का घड़ा भर गया, लोगों के धैर्य की सीमा टूट चुकी-तभी जनता की नम आँखें चापेकर बन्धुओं पर आ टिकी थी।

महारानी विक्टोरिया की हीरक जयन्ती मनाने के लिए योजना का प्रारूप तय हुआ। सरकारी व्यवस्था बड़ी धूम-धाम से जश्न मनाने में जुट गयी। 22 जून की रात को पूरे शहर को रोशनी से लाद दिया गया, सारा पूना नयी नवेली दुलहिन के समान सुसज्जित खड़ा जैसे मुस्करा रहा था। दामोदर चापेकर ने अपने दोनों छोटे भाइयों सहित प्रिय मित्र महादेव विनायक रानाडे को भी अपने साथ ले लिया।

योजना के अनुरूप सभी मंच के निश्चित स्थलों पर वे अपने-अपने स्थानों पर पहुँच गये। जब हीरक जयन्ती का जश्न अपनी पूरी तरुणाई की चरम सीमा को छूने लगा तो दामोदर चापेकर ने अपने रिवाल्वर से वाल्टर चार्ल्स रैण्ड को गोली का निशाना बना दिया। रैण्ड के साथ ही एक अंग्रेज अपर्स्ट नामक लेफ्टीनेंट भी गोली खाकर धराशायी हो गया।

महारानी विक्टोरिया की हीरक जयन्ती का जश्न मातमी भगदड़ में बदल गया। जिसका जिधर भी मुँह उठा उधर ही जान बचाने के लिए भाग छूटा। उस भगदड़ में दामोदर चापेकर के दोनों भाई बालकृष्ण व वासुदेव चापेकर एवं महादेव रानाडे बड़ी चतुराई और सावधानी से दुर्घटना स्थल से साफ निकल भागे।

अंग्रेज अफसरों द्वारा किये गये तमाम सुरक्षा व्यवस्था के कवच तोड़ क्रान्तिकारी किशोरों ने रैण्ड और लेफ्टीनेंट की हत्या कर उनके दानवी आचरण का बदला ले लिया था। उन्होंने विदेशी हुक्मरानों को चेतावनी दे दी थी कि आग से न खेलो, अब खून का बदला खून से लेंगे।

पुलिस ने काफी भाग-दौड़ की छापे मारे, निर्दोष लोगों को पकड़ जेलखाने में बन्द किया मगर चापेकर बन्धुओं का बाल भी बाँका न हुआ। वे निरन्तर पुलिस की आँखों में धूल झोंकते रहे। जगह-जगह पर खुफिया तन्त्र फैला दिया गया मगर सब बेकार।

अचानक एक दिन बेविन नामक जासूस ने रामा पांडु नाम के सिपाही को फुसला लिया। उसने हत्याकांड का सुराग देते हुए गणेश शंकर द्रविड़ और नीलकंठ द्रविड़ को दोनों नाम-पते बता उनसे सम्पर्क सधवाया। चाफेकर बन्धु कौन थे

नीलकंठ और गणेश शंकर द्रविड़ सहोदर भाई थे। जिन्होंने लालचवश सम्पूर्ण जानकारी खुफिया अफसर बेबिन को देकर विश्वासघात किया दामोदर पन्त चापेकर को बम्बई में गिरफ्तार कर लिया गया। मुकदमा चलाया गया।

अदालत में दामोदर पन्त चापेकर ने बड़ी निडरता से स्वीकार किया कि उसने ही वाल्टर चार्ल्स रैण्ड को गोली मारकर हत्या की है। रैण्ड ने भारतीय निरपराध लोगों को अपनी दुष्प्रवृत्तियों का शिकार बनाया था अतः उसकी हत्या करना कोई अपराध नहीं है।’

मुकदमे के नाटक के अन्त में दामोदर पन्त चापेकर को फाँसी की सजा सुनायी गयी जिसके परिणामस्वरूप उन्हें 18 अप्रैल, 1898 को यरवदा जेल में फाँसी पर चढ़ा दिया गया। दामोदर पन्त ने फाँसी का फन्दा बड़ी निर्भीकता से चूमकर इस नश्वर संसार को छोड़ अमरत्व प्राप्त कर लिया।

इस असहनीय पीड़ा को मझले भाई बालकृष्ण चापेकर अधिक समय तक सहन नहीं कर सके। ऐसे संकट के समय भी दोनों चापेकर बन्धु आर्यधर्म प्रतिबन्ध निवारक मंडली’ का कार्य यथावत गुप्त रूप से चलाते रहे और संगठन की एकता के लिए नित्य प्रति तन, मन, धन से जुटे रहे।

अन्त में दिसम्बर 1898 के एक दिन बालकृष्ण चापेकर ने स्वेच्छा से ही आत्म-समर्पण कर दिया। निश्चित था उन पर भी मुकदमा चलाया जाये। कनिष्ठ भाई वासुदेव का हृदय अशान्त हो उठा। इस पीड़ा ने नाना प्रकार के विचारों ने मस्तिष्क के केन्द्र में हलचल पैदा कर तूफान उठा डाला।

बड़े भाई फाँसी पर चढ़कर शहीद हो चुके, मझले भाई ने जान-बूझकर शहीद होने की दिशा में चरण बढ़ाने शुरू कर दिये हैं। ऐसी स्थिति में अब एक ही रास्ता है कि भाई के गद्दार साथियों को जिनके विश्वासघात के कारण उन्हें फाँसी का फन्दा चूमने के लिए विवश होना पड़ा मौत के घाट पहले ही उतार दिया जाये।

अपराध का दंड यदि जयचन्दों को देना ही श्रेयष्कर है तो क्यों न मझले भाई जीवित रहते ही अपराधियों को सजा दे दी जाये ? ” बालकृष्ण के वासुदेव चापेकर ने योजना के प्रारूप पर अपने अभिन्न विश्वसनीय सहयोगी महादेव विनायक रानाडे व खंडेराव साठे से बड़ी गम्भीरता से विचार-विमर्श कर निश्चित निर्णय ले लिया।

एक दिन बड़े भाई दामोदर पन्त चापेकर (चाफेकर बन्धु कौन थे) के मुखबिर सर्वश्री गणेश शंकर द्रविड़ एवं नीलकंठ द्रविड़ बन्धुओं को महादेव रानाडे और खंडेराव ने निश्चित स्थान पर बुलाने में सफल हो गये। वासुदेव चापेकर ने ऐसे स्वर्णिम सुअवसर का लाभ उठाते हुए अपनी पिस्तौल से दोनों भाइयों को गोली का निशाना बना डाला। खून की प्यास अभी बुझी न थी।

पिस्तौल से शेष दो मुखबिर और उड़ाने थे। इसी प्रकार ब्रेविन जासूस और कान्स्टेबल रामा पांडु को मारने के लिए ज्यों ही पिस्तौल की गोलियों ने आग उगली अचानक दुर्भाग्य से निशाना चूक गया।

ब्रेविन और रामा पांडु बाल-बाल बच गये। योजना विफल हो गयी। सभी पर मुकदमा चलाने का नाटक रचाया गया। अदालत में बालकृष्ण चापेकर, वासुदेव चापेकर और रानाडे को फाँसी की सजा सुनायी गयी।

इस कांड के सह-अभियुक्त श्री साठे को 10 वर्ष के कठोर कारावास का दंड दिया गया। अपनी-अपनी सजाएँ सुन सभी क्रान्तिकारियों में उत्साह था, निडरता थी, चेहरे पर मुस्कान भरा तेज देदीप्यमान था।

इस प्रकार 8 मई, 1899 को वासुदेव राव, 10 मई को रानाडे और 12 मई बालकृष्ण ‘चापेकर को यरवदा जेल में ही फाँसी पर लटका दिया गया। चापेकर को बन्धुओं ने आजादी की लड़ाई में शहीद होकर देश के नवयुवकों के हृदय में अभूतपूर्व स्थान बना डाला जिनके पदचिह्नों पर चलनेवाले अपना बलिदान देकर भविष्य में अमर होते चले गये।

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