चतुर मंत्री : चन्द्रगुप्त के मंत्री चाणक्य की कहानी

चतुर मंत्री: बहुत समय पहले की बात है। पाटलिपुत्र में राजा चन्द्रगुप्त का राज्य था। चन्द्रगुप्त का मंत्री चाणक्य बहुत चतुर था। वह राजा को सदा अच्छी सलाह देता था, जिससे राजा अच्छे काम ही करता था। सारी प्रजा सुखी थी। सब एक दूसरे के सुख में सुखी और दुख में दुखी होते थे। राजा चन्द्रगुप्त बहुत न्यायप्रिय और दयालु था, इसलिए प्रजा उसका आदर करती थी।

चतुर मंत्री

चतुर मंत्री : चन्द्रगुप्त के मंत्री चाणक्य की कहानी

एक बार राज्य में वर्षा नहीं हुई। प्रजा आकाश की ओर ताकती, लेकिन बादलों का कहीं नामोनिशान तक नहीं था। लोग पानी के लिए तरसने लगे। खेत सूखने लगे। राज्य में अकाल पड़ गया। राजा चन्द्रगुप्त ने राजकोष से जनता के लिए धन दिया और कुएं बनवाए। भयंकर सूखा था। प्रजा घबरा गई थी।

वहां एक आश्रम था। उसके मुनि सुस्थित सूरि जैन धर्म के ज्ञाता थे। उन्होंने सोचा कि अपने शिष्य की प्राण रक्षा करना मेरा धर्म है। मुनि ने समृद्ध नाम के शिष्य को बुलाकर कहा “वत्स! तुम यहां से किसी निरापद स्थान पर जाकर अपने प्राण बचाओ और धर्म का प्रचार करो मैं यही रहूंगा।”

शिष्य ने गुरु की आज्ञा सुनकर कहा “मुनिवर जैसी आज्ञा आप देंगे, मैं वैसा ही करूंगा। मुझे ज्ञान दीजिए।” मुनि सुस्थित शिष्य की बात सुनकर प्रसन्न हुए। उन्होंने शिष्य को एक निरापद स्थान का ‘सुरिपद’ देकर वहां जाने की आज्ञा दी। शिष्य ने कहा- “गुरुवर! मुझे संकटकाल के लिए उपदेश दीजिए, जिससे मैं प्राणों की रक्षा कर सकूं।”

शिष्य को एकांत में ले जाकर मुनि सुस्थित ने उसे उपदेश दिया और संकट पड़ने पर आंखों में सुरमा लगा कर अदृश्य होने की विद्या सिखाई। इस विद्या को सीखकर शिष्य ने गुरु के चरण छूकर आज्ञा मांगी।

गुरु सुस्थित ने शांतभाव से कहा-“यह विद्या संकटकाल में प्राण रक्षा के लिए प्रयोग करना। ऐसा न हो कि तुम आंखों में सुरमा लगाकर अदृश्य होने के बाद दूसरों का अहित करने लगो। इस विद्या के प्रभाव से तुम सबको देख सकोगे, लेकिन तुम्हें कोई नहीं देख पाएगा। कर्म करके अपना जीवनयापन करना ही मनुष्य का धर्म है।”

शिष्य ने मुनि को प्रणाम किया और चल दिया। इसी बीच एक घटना हुई, जिसका पता मुनि को नहीं लगा। जिस समय वह अपने शिष्य को ‘अदृश्य होने की विद्या’ सिखा रहे थे,

उस समय दो क्षुल्लकों ने छिपकर उनकी सारी बातें सुन ली। इस प्रकार दोनों ने भी आंख में सुरमा लगाकर अपने आपको दूसरों की नजर से छिपाने की विद्या सीख ली। अकाल के कारण कहीं भी अनाज पैदा नहीं हुआ। लोग भूख से परेशान थे। राजा चन्द्रगुप्त प्रजा के लिए सारा राजकोष लुटा रहा था, फिर भी अकाल बढ़ता जा रहा था। सारे

खेत सूखते जा रहे थे। पशु, पक्षी और प्रजा पानी के लिए तरस रहे थे। वे दोनों क्षुल्लक आसपास भीख मांगकर किसी प्रकार कुछ अन्न ले आते, लेकिन भूख मिटती ही नहीं थी। वे कहीं काम नहीं करते थे। धीरे-धीरे भीख मिलनी बंद हो गई, तो वे भूख से तिलमिलाने लगे।

एक दिन दोनों ने आंखों में अंजन लगाकर राजा चन्द्रगुप्त के साथ भोजन करने का विचार किया। मुनि द्वारा बताई गई विधि से दोनों ने आंखों में सुरमा लगाया। सुरमे के प्रभाव से वे दोनों बेधड़क राजभवन में घुस गए। पहरेदारों ने उन्हें देखा ही नहीं।

जब राजा चन्द्रगुप्त भोजन करने आसन पर बैठे, तो वे दोनों क्षुल्लक राजा के साथ बैठ गए। राजा के साथ ही वे दोनों थाली में परोसा हुआ भोजन खाने लगे।

राजा चन्द्रगुप्त भोजन को हाथ ही लगाते थे कि थाली खाली नजर आती थी। राजा सोचने लगा कि शायद मुझे भूख अधिक लगने लगी है। वह भूखे पेट ही उठ गए। दोनों क्षुल्लकों ने पेट भर भोजन किया और लौटकर आश्रम चले गए। इस प्रकार बिना मेहनत किए ही राजा के भोजन में से खाकर उन दोनों को बड़ा मजा आया।

दूसरे दिन फिर वहीं हुआ। राजा चन्द्रगुप्त जब खाने के लिए बैठे, वे दोनों भी चुपचाप उसी थाली में खाने लगे। राजा शर्म के मारे कुछ कह नहीं सका कि उसका पेट भरा नहीं है। इस प्रकार हर दिन ऐसा ही होने लगा। राजा चन्द्रगुप्त पूरा भोजन न मिलने के कारण दिन प्रति दिन दुबले होने लगे।

एक दिन मंत्री चाणक्य ने पूछा-“राजन! क्या आपको कोई चिंता सता रही है? मैं देख रहा हूं कि इधर आप दुर्बल हो गए हैं। क्या मुझे कुछ बताकर आप चिंता से मुक्त नहीं हो सकते ? बताइए महाराज! आपको क्या चिंता है ? राजा का मन जब ठीक नहीं होगा, तो प्रजा का कल्याण हो ही नहीं सकता ?”

राजा चन्द्रगुप्त ने संकोच के स्वर में कहा- ‘क्या कहूं चाणक्य! मैं अजीब परेशानी में उलझा हुआ हूं। मैं महसूस करता हूं कि पहले से अधिक भोजन परोसे जाने पर भी मेरा पेट पूरी तरह नहीं भरता ऐसा लगता है कि भोजन मेरे पेट में नहीं पहुंचता। क्या करूं, कुछ भी समझ में नहीं आता। और कोई दूसरी चिंता मेरे मन में नहीं है। “

मंत्री चाणक्य सोच में पड़ गया। उसने राजा से कहा-” क्षमा करें महाराज! मुझे दाल में कुछ काला नजर आ रहा है। क्या मैं आज आपको भोजन करते समय देख सकता हूं?” आश्चर्य में डूबे राजा चन्द्रगुप्त ने चाणक्य को स्वीकृति दे दी।

जब राजा भोजन करने के लिए बैठे तो चाणक्य ने परोसने वाले ब्राह्मण से कहा ‘आप थाली में दो रोटियां एक बार रखिए।”

छुपे हुए दोनों क्षुल्लक अपने समय पर आकर राजा के साथ बैठ गए। जब थाली में रोटियां परोसी गई और राजा ने टुकड़ा तोड़ा तो चाणक्य ने देखा कि दूसरी रोटी अपने आप गायब हो गई। कटोरियों में रखी खीर तथा दूसरी चीजें राजा ने हुई भी नहीं, लेकिन वे कम होने लगीं।

राजा चुपचाप खाता रहा और रोज की तरह ही सारा खाना खत्म हो गया, लेकिन राजा का पेट नहीं भरा।

चाणक्य चतुर था ही। उसने कहा- “महाराज! चिंता न करें। मैं समझ गया हूं। महल में चोर हैं। मैं पकड़ लूंगा।”

राजा चन्द्रगुप्त आश्चर्य में डूब गए। मंत्री चाणक्य अपने निवास पर आकर चुपचाप सोचने लगा। उसने जान लिया कि कोई अदृश्य होने की विद्या जानता है। वह कौन है और उसे कैसे पकड़ा जा सकता है? ये सवाल मंत्री चाणक्य को परेशान कर रहे थे। वह इस बारे में रात भर सोचता रहा।

प्रातःकाल चाणक्य उठा। उसको एक उपाय सूझ गया था। वह निश्चित मन से राजा चन्द्रगुप्त के पास पहुंचा। राजा ने पूछा- “कहो चाणक्य! आज क्या सोच रहे हो ? चोर का पता चला या नहीं ?

‘आज चोर पकड़ा जाएगा, महाराज।” पूरे विश्वास के साथ मंत्री चाणक्य ने कहा और राजा से बोला- “राजन! आपको मेरी एक बात माननी होगी।” “निडर होकर कहो, चाणक्य हम तैयार हैं।” राजा चन्द्रगुप्त ने उत्साह में भरकर चाणक्य से कहा।

चतुर मंत्री ने कहा- “आज आप राजभवन में बैठकर भोजन नहीं करेंगे। मेरी प्रार्थना है।

कि खुले स्थान पर मंडप बनाया जाए, वहीं बैठकर आप भोजन करेंगे।” राजा चन्द्रगुप्त ने कहा- “लेकिन ऐसा किसलिए? हम तो सदा भोजन कक्ष में ही भोजन करते हैं। खुले स्थान पर भोजन करना क्या उचित है ?”

“महाराज! यह मेरी प्रार्थना है। वैसे भी संकटकाल में मंत्री, वैद्य और गुरु की सलाह राजा को माननी चाहिए, यह राजनीति में कहा गया है।” चाणक्य ने कहा। “ठीक है, चाणक्य! हम वही करेंगे, जैसा तुम हमें कहोगे। हम जानना चाहते हैं कि चोर कौन है ? हमसे उसकी क्या शत्रुता है ?” उत्साहपूर्वक राजा ने कहा।

“महाराज! जब तक मैं न कहूं, तब तक आप भोजन के आसन से उठेंगे नहीं। एक बात और है। चाहे कितनी भी जिज्ञासा हो, आप बीच में कुछ न पूछें।” प्रार्थना करते हुए चतुर चाणक्य ने कहा।

अब चाणक्य ने एक मंडप बनवाया। चारों तरफ से उसे बंद करा दिया। केवल एक ही प्रवेशद्वार रखा गया। चाणक्य ने भूमि पर कालीन नहीं बिछवाए, बल्कि ईंटों का बहुत बारीक चूरा द्वार से मंडप तक बिछवा दिया।

राजा चन्द्रगुप्त के भोजन का समय हुआ। छिपे हुए दोनों क्षुल्लकों ने देखा कि आज भोजन की व्यवस्था राजभवन में नहीं है, बल्कि मंडप में है। वे कुछ समझ नहीं सके। आंखों में लगाए हुए सुरमे के प्रभाव से वे दोनों भोजन वाले मंडप में आ गए। चतुर चाणक्य ने देखा कि ईंटों के बारीक चूरे पर दो मानवों के पैरों के निशान साफ-साफ दिखाई दे रहे हैं। वह समझ गया कि चोर एक नहीं, बल्कि दो हैं।

चाणक्य के अतिरिक्त और कोई इस बात को नहीं जान पाया। जब राजा को भोजन परोसा जाने लगा। राजा चन्द्रगुप्त ने भोजन करना शुरू किया, उधर चाणक्य ने चारों तरफ से बंद उस मंडप में धुआं करा दिया।

जब चारों ओर धुआं भर गया तो राजा बेचैन हो गया। वह बोलने को था, तभी उसे याद आया कि चाणक्य ने बोलने के लिए मना कर रखा है धुआं बढ़ने लगा। सभी की आंखों से धुएं के कारण पानी निकलने लगा।

तभी सबको आंखों में धूल झोंकने वाले दोनों क्षुल्लकों का असली रूप प्रकट हो गया। धुएं के कारण आंखों के पानी ने सुरमे को धो दिया था, इसलिए विद्या का प्रभाव समाप्त हो गया। सबने देखा कि दो क्षुल्लक राजा की थाली में चोरी-चोरी भोजन कर रहे हैं।

राजा ने दुख और आश्चर्य के साथ पूछा- ” अरे क्षुल्लकों! तुमने यह चोरी क्यों की है ? तुम तो सबके पूज्य हो। फिर यह अधर्म क्यों किया ?” दोनों क्षुल्लकलखित खड़े थे। चाणक्य ने कहा-“महाराज! ये दोनों स्वार्थ में अंधे हो गए हैं। ये भूल गए कि चोरी करना महापाप है। पेट भरने के लिए इन्होंने महान गुरु की बताई विद्या का अपमान किया है। कर्म किए बिना इस प्रकार भोजन करना तो पाप है।”

चाणक्य उन दोनों क्षुल्लकों को मुनि के आश्रम में ले गया। जब मुनि सुस्थित ने सारी बात सुनी तो उन्हें खेद हुआ। मुनि ने कहा- “अरे नीच क्षुल्लकों! चोरी का पाप करके तुम कलंकित हुए हो। इसका प्रायश्चित करके तुम्हें शुद्धि मिल सकती है। लेकिन तुमने मेरी विद्या का दुरुपयोग करके राजा को धोखा दिया है, इसके लिए तुम्हें क्या दंड दिया जाए ?”

वे दोनों लज्जित थे। मुनि के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगे। बोले-“हम पापी हैं।

भूख की आग में हमारा विवेक जल गया था। हम स्वार्थ में सचमुच अंधे हो गए थे। हम प्रायश्चित के लिए तैयार हैं।”

मुनि सुस्थित ने कहा- “कर्म किए बिना कुछ खाना अपराध है। अब तुम जाकर किसी बंजर पड़े खेत को अपने परिश्रम से जोतो और उसमें बीज बोओ जो तुमने चोरी करके खाया है, उसे मेहनत करके धरती से पैदा करके भूखों को दो तभी प्रायश्चित होगा।’ उसी समय आकाश में बादल उमड़ आए। वर्षा देखकर प्रजा नाच उठी। वे दोनों क्षुल्लक किसी खेत को जोतने के लिए चल पड़े।

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