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चम्पकरमण पिल्ले का जीवन परिचय? चम्पकरमण पिल्ले पर निबंध?

चम्पकरमण पिल्ले का जीवन परिचय: चम्पकरमण पिल्ले का जन्म ट्रावनकोर राज्य के त्रिवेन्द्रम् नगर में 15 सितम्बर, 1891 ई० के दिन एक संपन्न घराने में हुआ था। पिल्ले की प्रारंभिक शिक्षा त्रिवेन्द्रम् नगर में ही हुई। वे पढ़ने-लिखने में अधिक तेज नहीं थे, किन्तु खेल-कूद में उन्हें अधिक चातुर्य और दक्षता प्राप्त थी।

चम्पकरमण पिल्ले का जीवन परिचय

चम्पकरमण-पिल्ले-का-जीवन-परिचय

Chempakaraman Pillai Biography in Hindi

पूरा नामडाक्टर चम्पकरमण पिल्ले
जन्म15 सितम्बर 1891
जन्म स्थानत्रिवेन्द्रम्
मृत्यु23 मई, 1934 ई० बर्लिन

डाक्टर चम्पकरमण पिल्ले स्वतंत्रता के अमर साधक थे। वीर थे, साहसी थे। कष्टों से ही नहीं, देश के लिए मृत्यु से भी युद्ध करने की क्षमता रखते थे। उन्होंने अपना तन, मन, धन सब कुछ देश के चरणों पर निछावर कर दिया था।

वे 17 वर्ष की अवस्था से लेकर जीवन की अन्तिम सांस तक विदेशों में देश की स्वतंत्रता के लिए जूझते रहे। उनके सम्बन्ध में निम्नांकित पंक्तियों से कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। देश जब गुलाम है, तो चैन कहां है, स्वर्णमय प्रभात शुभ्र रैन कहां है।

पिल्ले जब बड़े हुए, तो पढ़ने के लिए इटली चले गये। उन्होंने इटली में रहकर बारह भाषाओं का अध्ययन किया। इटली के पश्चात् उन्होंने फ्रांस और जर्मनी में उच्च शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने अर्थशास्त्र और इंजीनियरिंग में डाक्टरेट किया था।

पिल्ले शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् बर्लिन में इंजीनियर सलाहकार हुए। उन्होंने बर्लिन की बड़ी-बड़ी फर्मों को उचित सलाह देकर सुयश प्राप्त किया। जर्मनी के बड़े बड़े उद्योगपति उनका सम्मान करते थे, अपने काम-काज के संबंध में उनसे सलाह लेते थे।

पिल्ले उन्नति की मंजिल की ओर बढ़ते जा रहे थे। उन्हीं दिनों 1814 ई० में विश्व में प्रथम युद्ध की आग जल उठी। अंग्रेज भी उस युद्ध में फंसे हुए थे। पिल्ले ने सोचा, यही समय है जब जर्मनी की सहायता से भारत को अंग्रेजों के पंजे से मुक्त कराया जा सकता है।

उन दिनों ज्यूरिख में भारत के सम्बन्ध में एक अंतर्राष्ट्रीय समिति काम कर रही थी। पिल्ले स्वयं उस समिति के अध्यक्ष थे। पिल्ले ने ज्यूरिख के चांसलर से मिलकर उससे अनुरोध किया कि उन्हें ऐसी सुविधाएं दी जाएं जिनसे वे अंग्रेजों के विरुद्ध साहित्य का प्रकाशन कर सकें।

पिल्ले के अनुरोध को स्वीकार कर लिया गया। उनकी इच्छानुसार ही उन्हें सुविधाएं प्रदान की गई। पिल्ले ज्यूरिख से बर्लिन चले गये उन दिनों बर्लिन में लाला हरदयाल जो भी रहते थे। पिल्ले ने लाला हरदयालजी के सहयोग से इंडियन नेशनल पार्टी की स्थापना की। वे उस पार्टी के द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध प्रचार का कार्य करने लगे। पार्टी जर्मन सरकार के विदेश विभाग की देख-रेख में कार्य करती थी।

इंडियन नेशनल पार्टी के और भी कई भारतीय क्रान्तिकारी सदस्य थे, जिनमें वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, हेरम्बलाल, तारकनाथ दास, राजा महेन्द्रप्रताप और बरकतुल्ला आदि मुख्य थे। उन दिनों बर्लिन में इन भारतीय क्रान्तिकारियों की धूम थी। जर्मन सम्राट कैंसर की भी इन्हें सहानुभूति प्राप्त थी।

पिल्ले ने इंडियन नेशनल पार्टी के द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध साहित्य का प्रकाशन और वितरण तो किया ही, स्वयंसेवकों का एक दल भी स्थापित किया। उन्होंने जर्मन सम्राट कैंसर से मिलकर उसे इस बात के लिए राजी किया कि जर्मन पनडुब्बियां भारत के समुद्री तटों पर जाकर बम बरसायें।

पिल्ले स्वयं बम बनाने और बम-वर्षा का काम सोखकर जर्मन की नौसेना में भर्ती हो गये। इतना ही नहीं, पिल्ले एक पनडुब्बी में बैठकर बंगाल की खाड़ी में गये। उन्होंने अंडमान की कारागार में बन्द विनायक दामोदर सावरकर और दूसरे क्रान्तिकारियों को छुड़ाने का भी प्रयत्न किया।

यद्यपि वे सफल नहीं हुए और उनकी पनडुब्बी नष्ट हो गई, किन्तु इससे उनकी साहसिकता और देशभक्ति पर प्रकाश तो पड़ता ही है।

पिल्ले की पनडुब्बी तो नष्ट हो गई, किन्तु वे बच गये। अंग्रेजी सरकार ने उनकी गिरफ्तारी के लिए चारों ओर जाल बिछा दिया। एक लाख रुपये के पुरस्कार की भी घोषणा की गई, किन्तु फिर भी पिल्ले गिरफ्तार नहीं हो सके। वे सही-सलामत बर्लिन लौट गये।

1915 ई० की। दिसम्बर को राजा महेन्द्रप्रताप जी ने काबुल में स्वतंत्र अस्थायी भारत सरकार की स्थापना की। चम्पकरमण पिल्ले उस सरकार में विदेश विभाग की देख-रेख करते थे। वे तीन-चार वर्षों तक काबुल में ही रहे। 1919 ई० में जब स्वतंत्र भारत सरकार भंग हो गई, तो पिल्ले काबुल से दक्षिण अफ्रीका गये। उन दिनों गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में ही रहते थे। पिल्ले ने गांधी जी से भेंट की और उनकी सलाह से दलितों की सेवा करने का निश्चय किया।

महायुद्ध जब समाप्त हुआ और जब वारसाई संधि हुई, तो पिल्ले ने बड़े साहस के साथ विरोध किया। उन्होंने एक मांगपत्र भी प्रकाशित किया था जिसमें आठ बातों की मांग की गई थी। सबसे बड़ी मांग यह थी कि अंग्रेजों को भारत छोड़ देना चाहिए।

1924 ई० में पिल्ले ने एक प्रदर्शनी का आयोजन किया था, जिसमें भारत की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में भी कुछ चित्र रखे गये थे। जो भी भारतीय नेता यूरोप जाते थे, पिल्ले उनसे मिलते थे और भारत की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में विचारों का आदान-प्रदान करते थे।

उन्होंने यूरोप में ही मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू और विट्ठलभाई पटेल आदि नेताओं से भेंट की थी। द्वितीय महायुद्ध आरंभ होने पर जब नेताजी सुभाषचन्द्र बोस गुप्त रूप से बर्लिन पहुंचे, तो पिल्ले ने उनसे भेंट की। उन्होंने अपनी वह योजना बताई, जो प्रथम महायुद्ध के समय तैयार की गई थी।

उन्होंने उन्हें बताया कि किस तरह सेना लेकर जापान से बर्मा पहुंचा जा सकता है और किस तरह वर्मा से भारत पर आक्रमण करके उसे अंग्रेजों के पंजे से मुक्त किया जा सकता है।

कहना ही होगा कि पिल्ले की योजना के अनुसार ही नेता जी सुभाषचन्द्र बोस अपनी आजाद हिन्द फौज को लेकर कोहिमा तक पहुंच गये थे। वे भारत पर आक्रमण भी करना चाहते थे, किन्तु समय और परिस्थिति ने उनका साथ नहीं दिया।

पिल्ले बर्लिन में अस्वस्थ हो गये। भारत की स्वतंत्रता के प्रश्न को लेकर उनका हिटलर के साथ विरोध हो गया। अतः बीमार होने पर वे चिकित्सा के लिए इटली चले गये जिन दिनों वे इटली में अपनी चिकित्सा करा रहे थे, उन्हें पता चला कि बर्लिन में नाजियों के द्वारा उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली गई है। फलत: वे इटली से पुनः बर्लिन चले गये।

पिल्ले ने बर्लिन जाकर नाजियों के कार्य का विरोध किया, किन्तु परिणाम उल्टा हुआ। नाजियों ने उनके साथ बुरा व्यवहार तो किया ही, उन्हें दंड भी दिया। इतना कठोर दंड दिया कि वे मूच्छित हो गये थे। बीमार तो पहले ही से थे। नाजियों के द्वारा दंडित किये जाने पर उनकी हालत अधिक बिगड़ गई। चिकित्सा की सुविधा भी नहीं थी, फलस्वरूप 1934 ई० की 23 मई के दिन बर्लिन में ही उनका स्वर्गवास हो गया।

पिल्ले की हार्दिक इच्छा थी कि जीवन के अंतिम दिनों में वे भारत में ही रहें और उनकी हड्डियां उसी मिट्टी में मिलें जिसकी गोद में उन्होंने जन्म लिया था, किन्तु उनकी यह इच्छा पूर्ण नहीं हो सकी। बर्लिन में जब उनकी सांसें टूट रही थीं, तो अवश्य उनके मन में निम्नांकित भावनाएं रही होंगी-प्यारी जन्मभूमि, हम जा रहे हैं।

हम तुम्हें दासता के बंधनों से छुड़ाने के लिए दर-दर भटकते रहे, पर हम तुम्हें छुड़ा न सके। हमारी हार्दिक इच्छा थी कि हम तुम्हारी ही गोद में अनन्त निद्रा में सोयें। देखो, तुम हमें भूल मत जाना।

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