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बाल श्रम पर निबंध | Child Labour Essay in Hindi

बाल श्रम पर निबंध:- बच्चे न केवल किसी देश की संपत्ति हैं, बल्कि ये भविष्य के ऐसे मानव संसाधन हैं, जिनमें अपार संभावनाएं मौजूद हैं। ऐसी स्थिति में बाल श्रम (Child Labour Essay in Hindi) किसी भी सभ्य समाज के लिए कलंक के समान है। जहां तक भारत का प्रश्न है तो बाल श्रम आज हमारे देश की ज्वलंत समस्याओं में से एक प्रमुख समस्या बन गया है।

‘बाल श्रमिक’ हमारी व्यवस्था, समाज व संवेदना की उस नकारात्मक शोषणवादी मानसिकता का ही मूर्त रूप है, जो स्वार्थ व दोहरी विचारधारा की तथाकथित परिणति है, जो सभ्य आर्थिक प्रगति से स्वयं को जोड़ने में गौरवान्वित महसूस करती है. साथ ही साथ गरीबी, अन्याय व स्वयं शोषणकारी अवस्थाओं को उत्पन्न करने का कारक है।

बाल श्रम पर निबंध

बाल श्रम पर निबंध
Child Labour Essay in Hindi

रुपरेखा

  • बाल श्रम की वर्तमान स्थिति।
  • बाल श्रम से अर्थव्यवस्था को होने वाले योगदान और इसके प्रतिफल के रूप में बालकों के शोषण की भयानक तस्वीर का विवरण।
  • बाल श्रम के प्रमुख कारणों पर गंभीरतापूर्वक विचार, जिनमें शोषकों और शोषितों दोनों की भूमिका का विवरण अपेक्षित है।
  • बाल श्रम को रोकने के लिए संवैधानिक उपबंधों का समीक्षात्मक विवरण और उनके कार्यान्वयन में होने वाली परेशानियों का उल्लेख।
  • अन्य सरकारी और गैर-सरकारी उपायों का विवरण दें, जो बाल श्रम को रोकने की दिशा में अब तक किए गए हों।
  • इन कोशिशों के बावजूद यदि इस समस्या का समाधान पूरी तरह नहीं हो पा रहा है तो उसके पीछे क्या कारण हैं? इस संदर्भ में सरकारी प्रयासों की अपेक्षा इस विषय पर लोगों को व्यक्तिगत स्तर पर कितना सोचना आवश्यक है।

बाल श्रम की वर्तमान स्थिति

वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार 25.2 करोड़ बच्चों की संख्या में से 1.25 करोड़ बच्चे 5-14 वर्ष के बीच के हैं, जो काम में लगे हुए हैं, जिनमें से ही 1.07 करोड़ बच्चे 10-14 वर्ष की आयु समूह के हैं। भारत में बाल-श्रमिकों की संख्या के बारे में विभिन्न संगठनों द्वारा लगाये गये अनुमान भिन्न-भिन्न तस्वीर पेश करते हैं। राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के 32वें दौर के अनुसार भारत में बाल मजदूरों की अनुमानित संख्या 1.74 करोड़ थी।

ऑपरेशन रिसर्च ग्रुप ने 1994 में भारत में कामकाजी बच्चों की संख्या 4.40 करोड़ होने का अनुमान लगाया था। सेंटर फॉर कन्सर्न ऑफ चाइल्ड लेबर के अनुसार हमारे देश में लगभग 10 करोड़ बाल-श्रमिक हैं। विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से यह संख्या सही जान पड़ती है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार जहाँ भारत में 25 करोड़ बाल-श्रमिक हैं, वहीं विश्व बैंक की मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार भारत में बाल श्रमिकों की संख्या 10-14 करोड़ के बीच है।

भारत में बाल श्रम को बढ़ावा देने वाले कई सामाजिक आर्थिक कारक

गरीबी, बेरोजगारी, छिपी हुई बेरोजगारी कम मजदूरी तथा अशिक्षा जैसे कई ठोस कारक हैं, जिनकी वजह से आज भी भारत में बाल श्रमिक मौजूद हैं- घोर दरिद्रता के कारण निर्धन माता-पिता अपने बच्चों को रोजी-रोटी कमाने के लिए भेजते हैं गरीबी को ही प्रायः कृषि में बाल-श्रम का कारण माना जाता है। इसके अलावा वयस्कों को पर्याप्त मजदूरी न मिलने से वे बच्चों को काम पर भेजते हैं।

भारत में अनुसूचित जाति एवं जनजाति जैसे सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों में निरक्षरता व्यापक स्तर पर व्याप्त है। उनकी दृष्टि में शिक्षा की अपेक्षा अर्थोपार्जन तात्कालिक आवश्यकता है। परिणामतः उनके बच्चे बाल-श्रमिक बनकर शिक्षा से आजीवन वंचित रह जाते हैं। परिवार का बड़ा होना तथा उसके अनुरूप आय का न होना बाल-श्रम का सबसे बड़ा कारण है, क्योंकि ऐसी स्थिति में अभिभावकों के लिए बच्चों की समुचित आवश्यकताओं को पूरा कर पाना मुश्किल होता है।

औद्योगीकरण एवं आधुनिक वैज्ञानिक

औद्योगीकरण एवं आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक के कारण नियोक्ता कम खर्च पर यथाशीघ्र अधिकाधिक आय प्राप्त करना चाहता है, और बेकारी व गरीबी उन्हें सस्ते बाल श्रमिक उपलब्ध कराती है। अन्य विकासशील देशों की तरह भारत में परिवार भत्ता या बेरोजगारी भत्ता नहीं मिलता है।

इसी कारण भारतीय अभिभावक अपने बच्चों से श्रम करवाने के लिए मजबूर होते हैं। विकासशील देशों में बच्चे सदा से ही परिवार, गांव-समाज में सह योग के रूप में कार्य करते आये हैं, जबकि पश्चिमी दुनिया के लोग इन देशों की अर्थव्यवस्था के सांस्कृतिक पक्ष को समझने में असफल रहे हैं। बाल श्रम पर निबंध

बाल श्रम को रोकने के लिए संवैधानिक उपबंधों का समीक्षात्मक विवरण

बच्चों को देश में उनके अधिकार दिलाने के लिए संविधान में निम्नलिखित उपबंध बनाये गये हैं- संविधान के अनुच्छेद 15(3) द्वारा सरकार को बालकों के लिए अलग से कानून बनाने का अधिकार दिया गया है। अनुच्छेद 23 बालकों के क्रय-विक्रय एवं उनके द्वारा गैर-कानूनी तथा अनैतिक कार्य करने पर रोक लगाता है। साथ ही बालकों को भय दिखाकर या बिना पारिश्रमिक काम कराने को भी प्रतिबंधित करता है।

संविधान का अनुच्छेद 24, 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखानों, खदानों तथा औद्योगिक प्रतिष्ठानों में नियोजित करने पर रोक लगाता है। संविधान का अनुच्छेद 39 ( नीति-निदेशक तत्व ) बच्चों के स्वास्थ्य एवं उनके शारीरिक विकास हेतु पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध कराने हेतु सरकार को निर्देश देता है।

अनुच्छेद 39 (ई) में सरकार को बच्चों के बचपन की रक्षा करने और यह सुनिश्चित करने के निर्देश दिये गये हैं कि उन्हें ऐसे कार्यों में न लगाया जाये, जो उनकी उम्र और स्वास्थ्य के लिए घातक हो। बच्चों के अधिकारों को सुनिश्चित करने एवं उन्हें शोषण मुक्त करने हेतु सरकार ने 1949 में विभिन्न राजकीय विभागों एवं अन्य क्षेत्रों में श्रमिकों के नियोजन हेतु न्यूनतम आयु 14 वर्ष निर्धारित की।

बाल श्रमिकों की समस्याओं के अध्ययन हेतु 1979 में गुरुपादस्वामी समिति गठित की गयी। बाल-श्रम प्रथा के उन्मूलन हेतु सरकार द्वारा एक महत्त्वपूर्ण प्रयास एक विस्तृत अधिनियम बनाकर किया गया, जिसे बाल-श्रम निषेध एवं नियमन अधिनियम, 1986 कहा जाता है। इस अधिनियमः के माध्यम से 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को 18 हानिकारक उद्योगों, जैसे- कालीन बुनाई, बीड़ी बनाने, सीमेंट उत्पादन, भवन निर्माण, माइका कटिंग, कपड़ों की बुनाई और रंगाई, माचिस और विस्फोटक सामग्री, साबुन निर्माण और पत्थर काटने आदि में कार्य करने पर रोक लगायी गयी। बाल श्रम पर निबंध

वर्ष 1987 में ‘राष्ट्रीय बाल श्रम नीति’ की घोषणा की गयी और इसके क्रियान्वयन हेतु सरकार द्वारा प्रभावी कदम उठाये गये। सितम्बर 1990 में राष्ट्रीय श्रमिक संस्थान के श्रम मंत्रालय और यूनिसेफ के सहयोग से बाल श्रमिकों के संबंध में अध्ययन करने, शिक्षण और प्रशिक्षण शोध परियोजनाएं आदि चलाने हेतु ‘बाल-श्रमिक सेल’ की स्थापना की गयी ताकि उन्हें यथा समय मुक्त कराकर उनके अधिकार दिये जा सकें।

बच्चों के सामाजिक महत्व को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने 1979 को अंतर्राष्ट्रीय बाल वर्ष के रूप में मनाया। 8-10 मई, 2002 की अवधि में भी बच्चों के विकास संबंधी मामलों पर विचार करने तथा उपयुक्त रणनीति निर्धारित करने हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा विशेष महासभा हुई, जिसमें बच्चों के हित में कई महत्वपूर्ण निर्णय लिये गये।

बच्चों को अनिवार्य रूप से शिक्षा उपलब्ध कराने हेतु शिक्षा को बच्चों के मौलिक अधिकारों में शामिल करने संबंधी 93वां संविधान संशोधन संसद द्वारा पास किया गया, जिसमें 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने की बात कही गयी है। इसके अलावा अभिभावकों का यह मौलिक कर्तव्य निर्धारित किया गया है कि वे अपने बच्चों को शिक्षा अवश्य दिलायेंगे।

बाल श्रम उन्मूलन से सम्बन्धित अंतरर्राष्ट्रीय प्रयासों

बाल श्रम उन्मूलन से सम्बन्धित अंतरर्राष्ट्रीय प्रयासों का भी उल्लेख करना समीचीन होगा। इसके तहत अंतरर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के बलात् श्रम विरोधी सम्मेलन का उल्लेख महत्वपूर्ण है। इसके 29वें और 30वें सम्मेलन में दुनिया के तमाम देशों के साथ भारत ने भी हस्ताक्षर किए. जबकि पूरी दुनिया से किसी भी तरह के बाल श्रम को खत्म किए जाने से सम्बन्धित 32वें बलात् श्रम विरोधी सम्मेलन के कड़े प्रावधानों के कारण भारत ने हस्ताक्षर नहीं किए। बाल श्रम पर निबंध

हालांकि भारत में तमाम कानूनों के अलावा कई योजनाओं के माध्यम से भी बाल श्रम को समाप्त करने के प्रयास किए गए है। इनमें बाल श्रम उन्मूलन योजना और मध्याहन भोजन योजना सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा 14 अगस्त, 1987 को घोषित ‘राष्ट्रीय बाल श्रम नीति’ का भी इस दृष्टि से विशेष महत्व है। इसके तहत बाल श्रम उन्मूलन के लिए तीन चरणों में व्यापक कार्ययोजना तैयार गई. दूसरे चरण में विकास कार्यों पर जोर देने की बात की गई और तीसरे चरण में परियोजना आधारित कार्यक्रम तैयार करना था अर्थात् उन स्थानों को चिन्हित करना था जहाँ बाल श्रम का प्रभाव सबसे ज्यादा था।

बल श्रम प्रतिशत राज्यों के अनुसार

सकल राष्ट्रीय उत्पाद में श्रमिक वर्ग का 20 प्रतिशत योगदान है, जिसमें 7 प्रतिशत का योगदान इन बाल श्रमिकों का है। सर्वाधिक बाल श्रमिक सूचना तकनीक के अग्रणी राज्य आंध प्रदेश में हैं तो दूसरे स्थान पर उत्तर प्रदेश है। संसाधनों के असमान वितरण, अशिक्षा, सामाजिक व जातिवादी पिछड़ापन, जनसंख्या वृद्धि, बढ़ते औद्योगीकरण व शहरीकरण, शोषण, गरीबी, बेरोजगारी का एक ऐसा अनदेखा किन्तु वास्तविक चक्रव्यूह रच देते हैं जिसमें देश की जनसंख्या का एक बड़ा भाग बचपन से ही शोषित जीवन जीने को अभिशप्त हो जाता है। सामाजिक विकास की तमाम योजनाएं मात्र खोखले नारों तक ही सीमित रह जाती हैं। बाल श्रम पर निबंध

1996 में सर्वोच्च न्यायालय ने बाल श्रम को गैर-कानूनी घोषित किया। श्रम मंत्रालय व यूनीसेफ आदि ने अध्ययन, शिक्षण प्रशिक्षण, शोध परियोजनाओं पर गोष्ठियों की व बाल श्रमिक सेल की स्थापना भी की। पंचवर्षीय योजनाओं में बाल श्रम परियोजना के अंतर्गत उन्मूलन हेतु बजट राशि भी बढ़ायी गयी, किन्तु वह सब अन्ततः अन्य शासकीय योजनाओं की भांति ही संवेदनाहीन व स्वार्थी नौकरशाही की अनुत्तरदायित्वपूर्ण मानसिकता की भेंट चढ़ गयी मिड डे मील स्कूल चलो जैसे कई समानार्थक व समउद्देशीय कार्यक्रम नौकरशाही की संवेदनहीनता व अनुत्तरदायित्वपूर्ण प्रवृत्ति तथा अशिक्षा, उपेक्षा आदि के चलते ये परियोजनाएं गरीब परिवारों के वृहद समूहों तक पहुंचने से पहले या मात्र कुछ समय बाद ही विफल होती गई हैं।

अन्य सरकारी और गैर-सरकारी उपायों का विवरण

वास्तव में इस बुराई को जड़ से समाप्त करने के लिए न सिर्फ सरकार को बल्कि आम जन को दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा। सरकार यदि बच्चों के माता पिता को रोजगार मुहैया कराये जिससे वे अपने बच्चों का भरण-पोषण ठीक से कर सकेंगे तो इस समस्या से निजात पाई जा सकेगी। सामाजिक संस्थाओं को इस कार्य में बढ़-चढ़कर भाग लेना चाहिए, वे अभिभावकों को जागरूक बनायें तथा उन्हें यह विदित करायें कि बाल श्रम देश की कितनी बड़ी समस्या है एवं इससे उनके बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा।

सरकार को कुटीर तथा लघु उद्योगों को आगे बढ़ाने के लिए ग्रामीण जनता को प्रोत्साहित करना चाहिए, जिससे बच्चों के माता-पिता आत्मनिर्भर बन सकें तथा ऐसी नौबत ही न आये कि उन्हें अपने बच्चों से मजदूरी करवानी पड़े। साथ ही बच्चों के लिए निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की योजना सरकार ने कागजों पर लागू तो की है पर इसका सही क्रियान्वयन नहीं हो रहा है, अतः सरकार को इसके लिए कठोर कदम उठाने चाहिए।

मैले-कुचैले चीथड़ों से तन को ढांके से बाल श्रमिक अपने शोषण की कहानी बिना कुछ कहे ही बयां कर जाते हैं। इन्हें भविष्य की चिंता नहीं रही, दो जून का निवाला मिल जाए, यही जीवन का परम उद्देश्य है। अपने श्रम के महत्व से अनभिज्ञ ये बच्चे दो सौ रुपये की ही मासिक मजदूरी पर कमर तोड़ मेहनत करते हैं।

बाल श्रमिक, कालीन उद्योग से लेकर ईंट भट्ठों, रेस्टोरेंट व पटाखा बनाने वाली कंपनियों तक में अस्वास्थ्यकर कार्यों को बिना रुके कर रहे हैं। जिन्दगी के गर्म थपेड़ों ने उनकी मासूमियत व अल्हड़ता को जला कर उनकी किस्मत में बेबसी को लकीरे खींच दी हैं। बाल श्रमिक हमारे समय की त्रासदी को भोगता समाज का एक खामोश घटक है।

एक ऐसी अकस्मात घटना, जिसकी यातना हर पल बढ़ने पर है करोड़ों बच्चे इन खतरनाक परिस्थितियों में खुद को झोंके हुए हैं। वे गुलामी से भी बदतर हालात से जूझ रहे हैं और बेहद जोखिम वाले काम करने के लिए विवश हैं। इनसे समाज और मानवता के सरोकार कहीं दूर जा छिटके लगते हैं। बाल श्रमिक मानवीय यातना की कड़ी बन गये हैं। अफसोस है कि इनकी शिनाख्त तो है, परन्तु परिचय नहीं।

बाल श्रम का मसला

विश्व के एजेंडे में सबसे ऊपर बाल श्रम का मसला होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है। एक प्रकार के ठंडेपन में इनका वजूद सिमटकर रह गया है। इधर कानून बनने के बावजूद भारत में घरेलू नौकरों के तौर पर काम कर रहे बच्चों का शोषण और उत्पीड़न जारी है। उनका मानसिक, दैहिक और यौन शोषण किया जाता है। सच तो यह है कि बाल श्रमिक मानवीय शोषण का सबसे घिनौना और वीभत्स रूप है।

बाल श्रमिक का पूरा अस्तित्व ही मालिक के मिजाज पर निर्भर रहता है। भिन्न सांस्कृतिक धरातलों पर भी समस्या में कोई फर्क दिखाई नहीं पड़ता। मध्यम तथा उच्चवर्गीय परिवारों में तो यह प्रथा व्यापक रूप से प्रचलित है। यहाँ तक कि निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों तक में घरेलू नौकर रखने की प्रवृत्ति पनप रही है। घरेलू नौकर को बहुत मामूली पगार और अंशकालिक आधार पर रखा जाता है।

घरेलू नौकर बालक या बालिका हो, तो फिर उसका मेहनताना खाने-पीने और कपड़े-लत्ते तथा रहने के ठौर-ठिकाने में ही पूरा कर लिया जाता है। यह ऐसा वर्ग है जिसको टीस पर किसी का ध्यान नहीं जाता। उस पर ढाए जाने वाले जोर जुल्म को बाहरी समाज नोटिस में नहीं लेता। कह सकते हैं कि घरेलू नौकरों पर जुल्म को एक तरह से सामाजिक स्वीकृति तथा सहमति हासिल है।

तकनीकी तौर पर घरों में किया जाने वाला बाल श्रम जोखिम भरा नहीं माना जाता। बाल श्रमिकों की बेहतरी के लिए कई देशों में कानून जरूर बनाए गए हैं लेकिन उनका कार्यान्वयन नहीं हो पाता। काम के घंटे साप्ताहिक छुट्टी जैसी बातों का इन कायदे-कानूनों में जिक्र है, लेकिन इनसे कितनों का भला हो पाता है, इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता।

घरेलू नौकरों की ठीक-ठीक संख्या कितनी है, इस लिहाज से कोई विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, न तो राष्ट्रीय स्तर पर न हो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फिर भी अनुमान है कि घरेलू बाल श्रमिकों की संख्या करोड़ों में होगी। बहरहाल, बाल श्रमिकों संबंधी जो आंकड़े उपलब्ध हैं. उनसे किसी निष्कर्ष पर सहज पहुंचना संभव नहीं है।

मासूमों का शोषण

मासूमों का जिस प्रकार शोषण किया जाता है, उनका बचपन छीना जाता है, वह अपने आप में बुराई है। यदि हम किसी का बचपन लौटा नहीं सकते तो हमें केवल इस आधार पर किसी का बचपन छीनने का कोई अधिकार नहीं है कि वह गरीब मां के गर्भ से पैदा हुआ है। बालश्रम पर बनाई गई एक समिति यह बताया है कि बच्चों के मामलों में श्रम उस समय भीषण अहितकर बन जाता है।

जब उससे उसको शारीरिक क्षमता से ज्यादा काम लिया जाता है, उसके काम का समय उसकी पढ़ाई. मनोरंजन और आराम में बाधक होता है, उसे अपने काम के हिसाब से मजदूरी नहीं मिलती और उसका काम उसके स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए खतरनाक होता है। बाल मजदूरी को रोकने और राष्ट्र के बचपन को सुरक्षित और अराजकतारहित बनाने के लिए कई कानून बनाए जाते हैं और बच्चों से मजदूरी करवाने को अवैध घोषित किए जाने के बावजूद बाल मजदूरी का चलन थमा नहीं है। ग्रामीण बच्चों को बंधुआ मजदूरी की सीमा तक शोषित किया जाना जारी है।

ये कानून बच्चों से मजदूरी कराने वालों को दंडित करने का प्रावधान करके बाल श्रमिक की गुंजाइश मिटाते तो हैं। किन्तु ग्रामीण बच्चों के मामलों में उन्हें तब अक्सर बेबस रह जाना पड़ता है जब स्वयं ग्रामीण जन ही अपने नौनिहालों को कानून की नजर बचाकर मजदूरी की भट्टी में झोंक देते हैं। बाल श्रम पर निबंध

सर्वोच्च न्यायालय ने 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के नियोजन पर रोक लगाई है। गैर-खतरनाक उद्योगों में बाल श्रमिकों की स्थिति सुधारने के लिए भी न्यायालय ने व्यापक निर्देश जारी किए हैं। स्वैच्छिक संगठन इस सामाजिक विषमता को समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। लेकिन विकराल समस्या का अस्तित्व तभी समाप्त हो सकता है, जब बाल श्रम कराने वाले तथाकथित रईस लोग और अपने बच्चों के बचपन का नियामक मानने वाले उनके अभिभावकगण, इस मामले में कोई ठोस और सकारात्मक कदम उठाएंगे।

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