दहेज प्रथा पर निबंध (Dahej Pratha Par Nibandh), दहेज आज के सामाजिक जीवन की एक ऐसी बुराई है, जिसकी निन्दा करते हुए भी कोई उसका विरोध नहीं करता। जब अवसर आता है तो कोई भी दहेज लेने से नहीं चूकता। उसके तर्क भी कम विचित्र नहीं होते। सब दहेज ले रहे हैं तो हम अकेले क्या कर सकते हैं, जब दहेज देना पड़ेगा तो लेंगे क्यों नहीं इत्यादि तर्क आधारहीन ही कहे जा सकते हैं।
दहेज प्रथा पर निबंध

दहेज का तात्पर्य
‘दहेज’ शब्द संस्कृत की ‘दा’ धातु से बना है। ‘दा’ धातु से ‘दाय’ शब्द बनता है। इसका अर्थ होता है, देने योग्य धन प्राचीन काल में कन्या को उसके पिता तथा परिजनों द्वारा जो धन या उपहार दिया जाता था उसको दायज अथवा दायजा कहते थे। इसका अर्थ था जामाता को देने योग्य उपहार अथवा धन। ‘दहेज’ शब्द इसी दायज का बिगड़ा हुआ रूप है।
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आज के समाज में दहेज का अर्थ
प्राचीन भारत में दहेज स्वैच्छिक, अपनी सामर्थ्य के अनुसार प्रसन्नतापूर्वक दिया जाने वाला दान था लेकिन आज यह कन्या के पिता से वर के पिता द्वारा उसकी सामर्थ्य की चिन्ता न करके, उसकी विवशता का लाभ उठाकर, वसूल किया जाने वाला टैक्स है।
स्वेच्छा से दिये जाने पर दोनों पक्षों में स्वाभाविक स्नेहभाव की वृद्धि होती है किन्तु जब कोई पिता अपनी सीमा का उल्लंघन कर विवश होकर दहेज देता है तो दहेज लेने वाले से उसके सम्बन्ध हो वह स्नेहपूर्ण नहीं हो पाते।
आज दहेज विवाह के बाजार में वर का वह मूल्य है जो उसकी आर्थिक स्थिति तथा उसके परिवार की प्रतिष्ठा के अनुसार निश्चित होता है। इस बाजार में हर प्रकार का माल मौजूद है, जो आपकी क्रयशक्ति के अनुकूल हो वह आप खरीद लें।
दुष्परिणाम अथवा हानियाँ
दहेज प्रथा (दहेज प्रथा पर निबंध) आज का एक भीषण सामाजिक दोष बन चुकी है। निर्धन तथा कमजोर आर्थिक स्थिति वाले माता-पिता इससे सबसे अधिक दुःखी होते हैं। उनको अपनी पुत्रियों के विवाह में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
कभी-कभी तो उनको ऋण लेकर अथवा अपने मकान और सम्पत्ति बेचकर पुत्री के दहेज की व्यवस्था करनी पड़ती है। अनेक कन्याओं का विवाह समय से नहीं हो पाता और वे अविवाहित रह जाती हैं।
कुछ लड़कियाँ अपने माता-पिता की कठिनाइयों से दुःखी होकर आत्महत्या कर लेती हैं। कुछ पिता अपनी पुत्री तथा परिवार के साथ आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाते हैं। कभी-कभी वे विवश होकर अपनी अल्पवयस्क पुत्री का विवाह अधेड़ तथा अधिक आयु के वरों से कर देते हैं।
इस व्यक्तिगत पक्ष के अतिरिक्त उसके दोषों का एक सामाजिक पक्ष भी है। दहेज की कुप्रथा के कारण भ्रष्टाचार को भी प्रोत्साहन मिलता है। पुत्री का जन्म होते ही उसके माता-पिता उसके विवाह के लिए चिन्तित हो जाते हैं।
वे दहेज का अनुमान करके अधिकाधिक धन-संग्रह करना चाहते हैं तथा धनोपार्जन के लिए रिश्वत तथा अन्य भ्रष्ट उपायों का सहारा लेते हैं। दहेज के कारण उनके हृदय की संवेदना समाप्त हो जाती है। वे रिश्वत लेते समय किसी की विवशता की भी चिन्ता नहीं करते। वर पक्ष कन्या के पिता की मजबूरी तथा निर्धनता से भी द्रवित नहीं होता।
उसको इससे कोई मतलब नहीं होता कि वह ऋण ले रहा है अथवा अपना मकान बेच रहा है। दहेज के कारण वधुओं जो जलाने, उनकी हत्या करने, उनको प्रताड़ित करने और आत्महत्या के लिए विवश करने की अनेक घटनायें प्रायः हर दिन समाचार पत्रों की सुर्खियों में रहती हैं।
दहेज प्रथा के प्रसार के कारण
समाज में धन की पूजा की प्रवृत्ति मानवीय सद्गुणों के ह्रास का कारण है। आज समाज एक बाजार है जिसमें हर चीज बिकाऊ है। ‘वर’ भी बाजार की एक वस्तु है, वर का पिता उसको बेच रहा है और सामर्थ्य तथा आवश्यकता के अनुसार कन्या का पिता खरीद रहा है। दहेज अमीरों के लिए अपनी अमीरी के प्रदर्शन का साधन है।
गरीब और मध्यम श्रेणी का व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए दहेज देता है। यह झूठी प्रतिष्ठा भी दहेज प्रथा को बढ़ाने वाली है। अपने से उच्चतर आर्थिक स्तर के वर के साथ अपनी पुत्री का विवाह करने का प्रयास भी दहेज को प्रोत्साहन देने वाला है।
इस प्रथा की वृद्धि का एक महत्वपूर्ण कारण है-विवाह में मध्यस्थ अथवा एजेन्सी के रूप में कार्य करने वाले वर-कन्या के माता-पिता। यदि विवाह का कार्य वर-कन्या की इच्छा पर छोड़ दिया जाय, तो दहेज पर कुछ अंकश लग सकता है।
रोकने के उपाय
भारत सरकार ने सन् 1960 में दहेज की रोकथाम के लिए कानून बनाया था। परन्तु यह कानून ढंग से लागू नहीं किया जा सका है। यह बुराई “से कानून से पूरी तरह नष्ट नहीं हो सकती। इसके लिए दृढ़ सामाजिक संकल्प की आवश्यकता है। दहेज वर को अपने पौरुष का अपमान प्रतीत होना चाहिए।
लड़कियों को भी पढ़-लिखकर आत्मनिर्भर बनना चाहिए तथा दहेज लोलुप वरों से विवाह नहीं करना चाहिए। अन्तर्जातीय अथवा सजातीय स्वयंवर प्रथा चालू होनी चाहिए। प्रेम विवाह दहेज को मिटाने का एक शक्तिशाली उपाय है। इसको प्रोत्साहन देना चाहिए।
उपसंहार
दहेज प्रथा का विनाश होना आवश्यक है। इस प्रथा ने समाज का अत्यन्त अहित किया है। सामाजिक सद्भाव की रक्षा के लिए इसको रोका जाना चाहिए।