देवप्रसाद गुप्त का जीवन परिचय, क्रान्तिकारी यातनाओं की तो कोई बात ही नहीं, मृत्यु से भी भयभीत नहीं होता। वह सारे भौतिक सुखों को छोड़कर, सिर हथेली पर रखकर घर से निकलता है। कांटों की राह पर चलता है और देश के चरणों पर अपना सब कुछ अर्पित कर देता है। किसी का प्यार, किसी की ममता उसकी गति को नहीं रोक पाती। वह आंधियों में, तूफानों में और झंझावातों में भी निरन्तर आगे बढ़ता ही जाता है।
देवप्रसाद गुप्त का जीवन परिचय

Dev Prasad Gupta Biography in Hindi
देवप्रसाद गुप्त महान क्रान्तिकारी थे। वे थे तो अल्पावस्था के ही, किन्तु उनमें मृत्यु से भी जूझने का अपूर्व साहस था। उन्होंने हाथ में बन्दूक लेकर साहस और वीरता के साथ अंग्रेज सिपाहियों पर गोलियां चलाई थीं। उसकी स्मृति मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
भारत में अनेक क्रान्तिकारी हो चुके हैं, किन्तु अंग्रेजी फौज पर गोलियां बरसाने वाले देवप्रसाद गुप्त अपने ढंग के अकेले ही क्रान्तिकारी थे। जिस मृत्यु का नाम सुनकर बड़े-बड़े वीरों के भी प्राण कांप जाते हैं, उसी मृत्यु को देवप्रसाद गुप्त ने दौड़कर गले लगा लिया। बंगला के एक लेखक ने उनके बलिदान के सम्बन्ध में लिखा है, “मृत्यु देवप्रसाद की प्रियतमा के सदृश थी। उन्होंने प्रियतमा के समान ही उसका आलिंगन किया था।”
1930 ई० अप्रैल के दिन थे। नमक सत्यग्रह का महायज्ञ सारे भारत में प्रारम्भ हो गया था। गांधीजी की योजना के अनुसार लाखों स्त्री-पुरुष प्रतिदिन नमक कानून तोड़ते थे, जेल की यात्रा करते थे। लाठियां चलती थीं, गोलियां बरसती थीं, किन्तु कोई भी प्रतिकार नहीं करता था। नगर-नगर में गांव-गांव में चारों ओर केवल एक ही स्वर गूंजता हुआ सुनाई पड़ता था
मादरे हिन्द न हो गमगीन, दिन अच्छे आने वाले हैं, आजादी का पैगाम तुम्हें, हम जल्द सुनाने वाले हैं। पर बंगाल में कुछ ऐसे भी युवक थे, जो गांधीजी की अहिंसा के मार्ग पर न चलकर महाक्रान्ति का पांचजन्य बजा रहे थे। इस प्रकार के लोग लाठियों का जवाब लाठियों से और गोलियों का जवाब गोलियों से दे रहे थे। देवप्रसाद गुप्त इस प्रकार के युवकों में अग्रणी थे।
देवप्रसाद गुप्त चटगांव के एक संभ्रांत बंगाली कुटुम्ब में पैदा हुए थे। वे दो भाई थे- देवप्रसाद गुप्त और आनन्दप्रसाद गुप्त देवप्रसाद बड़े थे। वे 1930 ई० में इण्टर के द्वितीय वर्ष में पढ़ रहे थे। किन्तु उनका मन पढ़ाई में बिल्कुल नहीं लगता था। वे दिन नमक सत्याग्रह के दिन थे। चारों ओर लाठियों और गोलियों की वर्षा हो रही थी।
यही नहीं, अंग्रेजी सरकार के सिपाही दानव की तरह अत्याचार भी कर रहे थे। देवप्रसाद गुप्त जब उन अत्याचारों की कहानियों को अखबारों के पढ़ते थे, तो उनका हृदय कांप तो उठता ही था, हृदय में प्रतिशोध की ज्वालाएं भी जाग उठती थीं। वे मन-ही-मन सोच उठते थे काश, हम उन अत्याचारों से बदला ले सकते, जो हमारे देशवासियों को अपने पैरों से रौंद रहे हैं!
देवप्रसाद की इन भावनाओं का ही यह परिणाम हुआ कि वे क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित हो गये। उनके छोटे भाई आनन्दप्रसाद ने भी उनका अनुसरण किया। उनका घर क्रान्तिकारियों का अड्डा बन गया।
आनन्दप्रसाद ने अपने एक लेख में अपने उस समय के जीवन का वर्णन इस प्रकार किया है- रात में मेरे घर पर प्रतिदिन क्रान्तिकारियों की बैठकें हुआ करती थीं। नई-नई योजनाएं सोची जाती थीं और बनाई जाती थीं। मेरी मां हमारी गतिविधियों को देखती थीं और मन-ही-मन सोचती थीं कि यह सभी लड़के कोई भयानक काम करने जा रहे हैं,
किन्तु वह बोलती कुछ नहीं थीं। हमारे कार्यों में बाधा भी नहीं डालती थीं। मैं अपनी मां को क्रान्तिकारियों पर लिखी हुई पुस्तकें ला ला कर पढ़ने को दिया करता था। मां उन पुस्तकों को बड़े प्रेम से पढ़ा करती थीं।
मां को इस बात पर गर्व रहता था कि उनके दोनों लड़के कोई बुरा काम न करके, देश की स्वतंत्रता के लिए कार्य कर रहे हैं। उनके साथी शराबी और जुआरी न होकर देश के प्रेमी हैं। मैं कभी-कभी दो-चार बन्दूकें लाकर उनके पास रख दिया करता था।
हम लोग जब बगल के कमरे में बम बनाते थे, तो मां को पता रहता था कि हम क्या कर रहे हैं, किन्तु फिर भी मां हमारे कार्य का विरोध नहीं करती थीं। मां बम बनाने के समय बाहर दरवाजे पर खड़ी रहती थीं। जब किसी अपरिचित मनुष्य को आता हुआ देखती थीं, तुरन्त हम लोगों के पास पहुंच कर सावधान कर दिया करती थीं।
देवप्रसाद गुप्त का घर क्रान्तिकारियों का अड्डा बना हुआ था। इसका एकमात्र कारण यह था कि उनकी मां उनके कार्य में सहयोग दिया करती थीं। उनकी मां जानती थीं कि उनके लड़के जो कार्य कर रहे हैं, उनके लिए उन्हें जेल की ही नहीं, फांसी की सजा भी मिल सकती है, किन्तु फिर भी वे अपने पुत्रों के कार्यों का विरोध नहीं करती थीं।
वे जानती थीं कि चटगांव का शस्त्रागार किस तरह और कब लूटा जायेगा, क्योंकि शस्त्रागार को लूटने की योजना उनके घर में ही बनाई गई थी। वे इस बात को भी जानती थीं कि शस्त्रागार को लूटने का परिणाम क्या होगा, किन्तु उन्होंने कभी भी अपने पुत्रों को शस्त्रागार को लूटने से मना नहीं किया, बल्कि यों कहना चाहिए कि, उन्होंने अपने पुत्रों को प्रोत्साहित किया, उन्हें सहयोग दिया।
चटगांव के शस्त्रागार को लूटने के लिए देवप्रसाद गुप्त जब अपने भाई के साथ प्रस्थान करने लगे, तो वे आशीर्वाद के लिए अपनी मां के समक्ष उपस्थित हुए। आनन्दप्रसाद ने अपने लेख में उस समय का मार्मिक चित्र खींचा है। उन्होंने लिखा है- “हम दोनों भाई जब अपनी मां के पास आशीर्वाद के लिए गये तो उनकी आंखें सजल हो उठीं।
उन्होंने अश्रुपूरित नेत्रों से हम दोनों भाइयों के मस्तक पर तिलक लगाते हुए कहा- जाओ, तुम्हारा जीवन सार्थक हो। मुझे ऐसा लग रहा है कि हम अब एक दूसरे को भी नहीं देख सकेंगे।”
देवप्रसाद की मां वीरहृदया भारतीय महिला थीं। जिस प्रकार जीजाबाई ने शिवाजी के मस्तक पर तिलक लगा कर रण के लिए भेजा था, उसी प्रकार देवप्रसाद की मां ने भी तिलक लगा कर उन्हें चटगांव का शस्त्रागार लूटने के लिए भेजा था वे सचमुच मां थीं, शक्तिमती नारी थीं। उनकी प्रशंसा के लिए कोश में उचित शब्द नहीं मिलते!
चटगांव के शस्त्रागार को लूटने के लिए 17 युवकों का एक दल बनाया गया था। उन युवकों को अलग-अलग कार्य सौंपे गये थे। शस्त्रागार को लूटने का कार्य देवप्रसाद को ही सौंपा गया था। यों भी कहा जा सकता है कि इस काम को उन्होंने हठपूर्वक अपने हाथों में लिया था, क्योंकि इस काम में अधिक साहस और शक्ति प्रदर्शन की आवश्यकता थी।
1923 ई० की 18 अप्रैल का दिन था। दिन के साढ़े दस बज रहे थे। वीर क्रान्तिकारी सिर पर कफन लपेटे हुए शस्त्रागार की ओर दौड़ पड़े। किसी ने बिजली के तार काटे, किसी ने टेलीफोन के तार काटे और किसी ने सिपाहियों के मार्ग में अवरोध खड़ा किया। देवप्रसाद गुप्त अपनी टोली के साथ शस्त्रागार पर टूट पड़े। देखते-ही-देखते पिस्तौलें, बन्दूकें, गोलियां लूट ली गईं। कितनी पिस्तौलें और बन्दूकें • लूटी गई इसकी कोई गिनती नहीं।
शस्त्रागार को लूटने के समय जो भी सामने आता था, उसे गोलियों से उड़ा दिया जाता था। कितने आहत हुए ठीक-ठीक कुछ कहा नहीं जा सकता। देवप्रसाद गुप्त का जीवन परिचय
शस्त्रागार को लूटने की खबर चारों ओर बिजली की तरह फैल गई। शीघ्र ही सेना जा पहुंची। देवप्रसाद गुप्त ने भागकर, जलालाबाद की पहाड़ियों पर शरण ली। उनके साथ उनके दल के कई अन्य युवक भी थे। अंग्रेजी सेना भी पीछा करती हुई जलालाबाद की पहाड़ी पर जा पहुंची।
देव प्रसाद गुप्त ने बड़ी वीरता और बड़े साहस के साथ अंग्रेजी सेना का सामना किया। वे युद्ध करते-करते स्वर्गवासी हुए। उनकी लाश, बांसों की झुरमुट में पाई गई थी। उनके शरीर पर कई गोलियों के घाव थे। उन घावों से पता लगता था कि उन्होंने बड़ी वीरता के साथ अन्तिम सांस तक अंग्रेजी सेना का सामना किया था।
देवप्रसाद गुप्त के बलिदान की कहानी बड़ी मार्मिक और प्रेरणाप्रद है। कुछ लोगों का कथन है कि देवप्रसाद जलालाबाद की पहाड़ी पर अंग्रेजी सेना से युद्ध करते हुए शहीद हुए थे। किन्तु कुछ लोग उनके बलिदान के सम्बन्ध में एक दूसरी ही कहानी कहते हैं, जो इस प्रकार है-
अंग्रेजी सेना ने जब जलालाबाद की पहाड़ी को, चारों ओर से घेर लिया, तो देवप्रसाद गुप्त अपनी टोली के साथ जलघाट नामक गांव में चले गये। कैप्टन कैमरूल को जब पता चला तो उसने सेना की एक टुकड़ी के साथ उस गांव को घेर लिया। वह गांव के हर एक घर की तलाशी लेने लगा।
कैमरूल जब एक घर की तलाशी ले रहा था, तो उसे उस घर की छत पर कुछ खटपट सुनाई पड़ी। उसके मन में संदेह जाग उठा और वह सीढ़ियों के रास्ते छत पर चढ़ने लगा। उसी समय सहसा उसे गोली लगी और वह वहीं ढेर हो गया।
कैमरूल के ढेर होते ही छत के ऊपर से एक युवक नीचे कूद पड़ा। नीचे हवलदार बन्दूक लिये खड़ा था। युवक ने हवलदार से बन्दूक छीनने का प्रयत्न किया, किन्तु उसे सफलता प्राप्त नहीं हुई। युवक घर से बाहर निकल कर बांसों की झाड़ियों की ओर भाग चला। हवलदार ने गोलियां चलाते हुए युवक का पीछा किया। एक-एक करके कई गोलियां युवक को लगीं। आखिर युवक बांसों की झाड़ियों में गिरकर शहीद हो गया।
वह युवक कोई अन्य नहीं, देवप्रसाद गुप्त थे। देवप्रसाद गुप्त का बलिदान भारतीय युवकों को सदा याद रहेगा, सदा प्रेरणादायक बना रहेगा।
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