धीरज का फल: प्रजा के सुख-दुख का ध्यान रखने वाले राजा की कहानी

धीरज का फल:- प्राचीनकाल में एक बड़ा प्रतापी राजा था। वह सदाचारी था और प्रजा के सुख-दुख का ध्यान रखता था। उसके राज्य में ऊंच-नीच या अमीर-गरीब का भेद नहीं था। रानी भी पतिव्रता और सुंदर थी। उसके दो पुत्र थे। दोनों ही प्रतिभाशाली और बुद्धिमान थे। राजा सत्य, अहिंसा और प्रेम में विश्वास रखता था। वह जब पूजा करता, तो समाधि की दशा में पहुंच जाता था।

धीरज का फल

धीरज का फल

एक दिन विचित्र बात हुई। राजा जब पूजा करते समय ध्यानावस्था में था, तो उसने कुछ शब्द सुने। राजा को लगा कि जैसे कोई कान में कह रहा है- “राजन्! मैं अभी आ जाऊं या बाद में आऊं?”

राजा ने हैरान होकर आंखें खोल दीं। वहां कोई भी नहीं था। राजा सोचने लगा- ‘यह कौन है, जो मुझसे आने की आज्ञा चाहता है ?” बहुत सोचने पर भी राजा कुछ तय नहीं कर पाया। राजा हैरान और परेशान था।

उसने महामंत्री और राज ज्योतिषी को बुलाकर सारी बात बताई। राजा ने पूछा कि आवाज का रहस्य क्या है ? महामंत्री कुछ नहीं बता पाया! वह राज ज्योतिषी की ओर ताकने लगा।

राज ज्योतिषी ने विचार किया। कुछ देर तक मौन छाया रहा। फिर राज ज्योतिषी ने राजा पूछा-‘ -“महाराज! जो आवाज आप सुनते हैं, वह पुरुष की है या स्त्री की ?” से “जो आवाज मैं सुनता हूं, वह तो स्त्री की ही है।” पूरे विश्वास के साथ राजा ने राज ज्योतिषी को बताया। राजा का उत्तर सुनकर राज ज्योतिषी गंभीर होकर सोचने लगा। विचार करके वह बोला- “राजन्! पूजा के समय आपत्ति आकर आपसे पूछती है कि मैं अभी आ जाऊं या बाद में आऊं ?”

‘क्या कहा? आपत्ति पूछती है कि अभी आ जाऊं या बाद में आऊं ?” हैरान होकर राजा और महामंत्री ने एक साथ पूछा।

“हां राजन्। आपत्ति ही आप से बार-बार आने के लिए पूछती है, क्योंकि सदाचारी और धर्मात्मा मनुष्यों के पास तो आपत्ति सदा कहकर ही आती है।” राज ज्योतिषी ने बताया।

राजा कुछ देर आश्चर्य में डूबा रहा। कुछ देर बाद राजा ने राज ज्योतिषी से पूछा – “यदि आपकी बात सच है कि आपत्ति हो मुझसे आने के लिए पूछती है, तो यह भी बताइए कि मैं उसे क्या उत्तर दूं?”

राज ज्योतिषी ने बड़े शांत भाव से कहा-” राजन्! विद्वानों का तो यही कहना है कि आपत्ति अगर युवावस्था में ही आ जाए, तो अच्छा रहता है। आदमी उसे सरलता से सह लेता है यदि बुढ़ापे में आपत्ति आती है, तो मृत्यु के समान कष्ट देती है इसलिए महाराज! मेरी सलाह तो यही है कि आप निडर होकर आपत्ति से कह दें, अभी इसी समय आ जाओ। यही ठीक होगा राजन्।” राजा ने महामंत्री और राज ज्योतिषी को विदा कर दिया।

अगले दिन राजा निश्चिंत भाव से पूजा करने बैठ गया। वही आवाज राजा के कानों में गूंजने लगी- “राजन् ! मैं अभी आ जाऊं या बाद में आऊं ?” राजा तो पूरी तरह तैयार था। बेहिचक निडर होकर राजा ने कहा- “तुम अभी आ जाओ, बाद में नहीं आना।” राजा के मुंह से यह शब्द निकले कि वह आवाज आनी बंद हो गई। राजा शांत मन से पूजा गया। उसके मन में कोई भय नहीं था। करके उठ अगले ही दिन आपत्ति आ गई। पड़ोसी राज्य के राजा ने पूरी सैनिक तैयारी के साथ राज्य पर हमला कर दिया। महामंत्री और राज ज्योतिषी ने आकर राजा से कहा- “महाराज! हम लोग चारों तरफ से पूरी तरह घिर चुके हैं। अब बचने का एक ही उपाय है। आप सादे कपड़ों में महारानी और दोनों राजकुमारों को लेकर गुप्त रास्ते से निकल जाइए। प्राण रक्षा की इस समय यही एक तरकीब है देर न करें, जल्दी निकल जाएं।”

‘महामंत्री! क्या कहते हैं आप? हम कायरों की तरह मुंह छिपाकर जान बचाएं? चुपचाप भाग जाएं? यह नहीं हो सकता। हम अहिंसा के पुजारी जरूर हैं, लेकिन कायर नहीं हैं। हम लड़ेंगे।” राजा ने गरज कर कहा।

“धैर्य रखें, महाराज! आपके कहने पर ही आपत्ति आई है। इस समय विवेक और धैर्य छोड़ना धर्म नहीं है। आप सचमुच वीर हैं, लेकिन इस समय प्राण बचाना ही सबसे बड़ी बुद्धिमानी है। यह कायरता नहीं है महाराज।” राज ज्योतिषी ने राजा को समझाते हुए कहा । राजा मान गया। रानी और राजकुमारों सहित साधारण वेशभूषा में राजा गुप्त रास्ते की ओर बढ़ा। महामंत्री ने भारी मन से राजा को विदा किया। राजा जब गुप्त रास्ते से परिवार सहित बाहर आया, तो देखा कि वे घने जंगल में हैं।

चारों प्राणी भूखे और प्यासे थे चलते-चलते वे एक नगर में पहुंचे। किसी को यह भी नहीं बताया कि वे राजपरिवार के हैं।

राजा नगर में पहुंचा और उसने लोगों से कहा- “हम गरीब ब्राह्मण हैं। आप हमारी मदद कर दें। हमें कुछ अनाज और बर्तन आदि दे दें, तो मेरी ब्राह्मणी एक छोटा-सा भोजनालय चला लेगी। इस प्रकार हमारा गुजर-बसर हो जाएगा और प्राण रक्षा हो सकेगी। हम जीवनभर आपका उपकार नहीं भूलेंगे।”

नगरवासियों को राजा की बात सुनकर दया आ गई। उन्होंने ब्राह्मण समझकर उन्हें अनाज, बर्तन और कपड़े आदि के साथ ही रहने की जगह भी दे दी। मुसीबत की मारी बेचारी रानी अब ब्राह्मणी बनकर भोजन बनाने लगी। राजा नौकर की तरह लोगों को भोजन परोसता था और बेचारे राजकुमार बर्तन धोते थे।

एक दिन नगर में एक धनी व्यापारी आया। वह भोजन करने के लिए उसी भोजनालय में पहुंच गया। ब्राह्मण और ब्राह्मणी के वेश में राजा तथा रानी ने उस व्यापारी का बड़ा सत्कार किया। भोजन करने के बाद व्यापारी ने थाली में सौ स्वर्ण मुद्राएं रख दीं। ब्राह्मण वेश में राजा ने कहा- ” श्रीमान ! भोजन का मूल्य केवल एक मुद्रा है। कृपया आप शेष धन उठा लें। हम दान या भीख स्वीकार नहीं करते। क्षमा करें।”

ब्राह्मण की बात सुनकर व्यापारी कहने लगा-” आप चिंता न करें। मैं तो इस नगर में अभी काफी दिनों तक रहूंगा। भोजन में रोज यहीं किया करूंगा। इसी कारण मैं मूल्य पहले दे रहा हूं। मुझे आपका भोजन बहुत पसंद आया है।” राजा और रानी व्यापारी की बात सुनकर संतुष्ट हो गए। व्यापारी पास ही नदी के किनारे खड़ी अपनी नौका पर लौट गया।

असल बात कुछ और ही थी। व्यापारी ब्राह्मणी के रूप में रानी को देखकर उसके रूप और सुंदरता पर मोहित हो गया था। वह ब्राह्मणी को अपने नगर ले जाकर उससे विवाह करना चाहता था। सौ स्वर्ण मुद्राएं देना उसकी चाल थी। इस प्रकार व्यापारी उनका विश्वास जीतना चाहता था। हुआ भी यही राजा और रानी ने व्यापारी को भला आदमी समझ लिया। व्यापारी की चाल सफल रही।

व्यापारी के जाने पर राजा ने खुश होकर रानी से कहा- “लगता है, आपत्ति के दिन कम होने लगे हैं। देखो न, एक साथ सौ स्वर्ण मुद्राएं मिल गई हैं। अब हम कोई नौकर रख लेंगे। राजकुमारों को पाठशाला भेजकर पढ़ाएंगे।” रानी भी आज खुश थी।

लेकिन आपत्ति का आना अभी शुरू ही हुआ था। दूसरे दिन व्यापारी निश्चिंत समय पर आया। राजा और रानी उससे प्रभावित हो ही चुके थे। दोनों ने उनका स्वागत किया। चालाक व्यापारी समझ गया कि उसकी चाल सफल हो गई है। भोजन कर लेने के बाद व्यापारी कुछ देर सोचता रहा। उसे देख ब्राह्मण के वेश में राजा ने पूछा- क्यों श्रीमान क्या भोजन ठीक नहीं बना है ?”

“नहीं, नहीं, भाई भोजन तो बहुत स्वादिष्ट बना है मैं तो दूसरी ही चिंता में पड़ा हूँ। सोच रहा हूं कि कल मेरे भोजन का क्या होगा ? लगता है कल मुझे भूखा ही रहना पड़ेगा।” कुछ चिंता के स्वर में व्यापारी ने कहा।

“ऐसा क्यों होगा श्रीमान ? भला आप भूखे क्यों रहेंगे ? भोजन तो हम समय पर ही तैयार कर लेते हैं।” राजा ने सहज भाव से कहा।

“बात यह है कि मैं कई वर्षों से व्रत करता आ रहा हूं। कल भी मेरा वही व्रत है। इस व्रत में पूजा के बाद मैं किसी सौभाग्यवती स्त्री के हाथ से ही भोजन ग्रहण करता हूं। घर पर तो मेरी पत्नी भोजन कराती है। इस बार यह कैसे संभव होगा ?” व्यापारी ने निराश होकर राजा और रानी की ओर देखा।

राजा और रानी कुछ देर सोचते रहे। फिर राजा ने प्रसन्न होकर कहा- ‘आप चिंता न करें श्रीमान् ! आपका व्रत पूरा होगा। मेरी पत्नी आपको पूजा के बाद भोजन करा देगी। यह तो हमारा धर्म है।” व्यापारी खुश होकर बोला- “मैं आप दोनों का आभारी हूं। आपने मेरी चिंता दूर कर दी। अब मेरा व्रत नियमपूर्वक पूरा हो सकेगा। कृपया अपनी पत्नी को दोपहर से पहले ही भोजन लेकर मेरी नौका पर भेज दें। मैं आपका अहसान मानूंगा।” राजा ने खुशी-खुशी व्यापारी का अनुरोध मान लिया।

व्यापारी की चाल सफल हो गई। वह खुश था। दूसरे दिन सुबह होते ही रानी नहाकर भोजन तैयार करने में लग गई। दोपहर से पहले ही शुद्ध भोजन लेकर ब्राह्मणी के वेश में रानी व्यापारी की नौका की ओर चल दी। राजा भोजनालय की देख रेख के लिए वहीं रुक गया। रानी व्यापारी की नौका पर पहुंच गई। उसके नौकरों ने रानी को आदरसहित नौका पर बने एक सुंदर कमरे में पहुंचा दिया। उसे बताया कि व्यापारी पूजा समाप्त करके आने ही वाला है रानी निश्चिंत मन से बैठ गई।

उधर व्यापारी ने नौकरों को आदेश दे ही रखा था। रानी के नौका पर आते ही उन्होंने नौका चला दी। रानी तो कमरे में बैठी थी, इसलिए उसे कुछ भी पता नहीं चला। नाव धीरे धीरे चलती जा रही थी।

व्यापारी पूजा से निबटकर आया तो ब्राह्मणी के रूप में आई रानी ने उसे आदर के साथ भोजन कराया। भोजन कराने के बाद रानी ने घर जाने की आज्ञा मांगी। व्यापारी ने हंसकर कहा ‘अब भला तुम कहां जाओगी ? बताओ तो सही, उस गरीब ब्राह्मण के पास तुम्हारे लिए है ही क्या ? भोली ब्राह्मणी! हम तो उस नगर से बहुत दूर आ गए हैं। मैं तुम्हें अपनी पत्नी बनाना चाहता हूँ। तुम जैसी सुंदर स्त्री का स्थान मेरा घर ही है मेरा सभी कुछ तुम्हारा है।”

रानी तो भौचक्की रह गई। वह दौड़कर कमरे से बाहर आई। सचमुच, उसने देखा कि नौका तो जल के बीच में है। वह समझ गई कि व्यापारी ने धोखा दिया है। रानी ने मन-ही मन सोचा कि आपत्ति विकराल रूप में आई है। इसे धीरज रखकर ही सहना होगा। रानी ने हिम्मत नहीं खोई।

वह कमरे में लौटी और दृढ़ स्वर में बोली – ” आप मुझे धोखे से बुलाकर ले आए हैं। मैं पतिव्रता हूं। आप अगर मुझसे मेरी इच्छा के विरुद्ध विवाह करने की कोशिश करेंगे, तो मैं प्राण दे दूंगी। आप एक वादा करें, तो मैं मरूंगी नहीं। आप एक साल प्रतीक्षा करें। तब तक मैं अपने पति की राह देखूंगी। यदि मेरे पति नहीं आ सके, तो मैं आपसे विवाह कर लूंगी।”

“मुझे तुम्हारी शर्त मंजूर है, मैं प्रतीक्षा करूंगा। “- खुश होकर व्यापारी ने कहा। वह सोच रहा था कि सालभर में इसका पति भला कैसे मिलेगा? उसे लगा कि जबर्दस्ती करने से यह स्त्री प्राण दे देगी। वह एक साल तक प्रतीक्षा करने के लिए तैयार हो गया। रानी को एक साल का समय तो मिल ही गया।

उधर राजा ने बहुत देर तक रानी का इंतजार किया। जब वह नहीं लौटी, तो राजा नदी पर पहुंचा। वहां देखा कि नौका कहीं नहीं है। आसपास काम करने वालों से उसने पूछा। लोगों ने बताया कि एक स्त्री के नौका पर चढ़ते ही नौका चल पड़ी थी। लोगों ने कहा कि शायद वह स्त्री व्यापारी से मिली हुई थी।

राजा ने यह सब सुना, तो उसका दिल फूट पड़ा। उसे लगा कि आपत्ति का उस पर कड़ा प्रहार हुआ है। वह वापस लौटा और उसी रात राजकुमारों को लेकर उस नगर से चल दिया। अगले दिन वे एक घने जंगल में पहुंच गए। राजकुमारों को भूख लग रही थी। राजा कहीं बस्ती की तलाश में था।

चलते-चलते वे एक नदी के किनारे आ गए। नदी के दूसरी ओर कोई नगर था। नदी में पानी ज्यादा था। राजकुमारों को तैरना नहीं आता था। राजा ने बड़े बेटे से कहा- “बेटा इन्द्र !

तुम इधर खड़े रहो। मैं अभी विजय को दूसरे किनारे छोड़कर तुम्हें लेने आता हूं।” राजकुमार इन्द्र ने कहा- “पिताजी! मुझे तो डर लगता है।” राजा ने अपनी कमर से दुपट्टा खोलकर राजकुमार इन्द्र को एक वृक्ष से बांध दिया। फिर विजय को पीठ पर चढ़ाकर नदी पार करने के लिए जल में उतर गया। दूसरे किनारे पहुंचकर उसने अपनी पगड़ी से राजकुमार विजय को पेड़ से बांध दिया। तब राजकुमार इन्द्र को लाने के लिए वह पुनः नदी में कूद पड़ा।

तैरते तैरते जब राजा बीच धार में पहुंचा, तो एक बहुत बड़ा मरगमच्छ उसे खाने को लपका। राजा जान बचाने के लिए तेजी से नदी के प्रवाह की तरफ तैरने लगा। वह जितनी तेजी से आगे बढ़ता था, मगरमच्छ उतनी ही तेजी से पीछे आता था। आखिरकार निढाल हुए राजा को मगरमच्छ निगल गया।

राजा को निगलकर मगरमच्छ नदी किनारे रेत पर आकर लोटने लगा, ताकि शिकार पेट में दम तोड़ दे। पास ही कुछ धोबियों ने यह सब देखा। वे लाठियों और भालों से मगरमच्छ पर टूट पड़े। उन्होंने इतना पीटा कि विशालकाय मगरमच्छ ने घबराकर राजा को उगल दिया। धोबियों ने मगरमच्छ को मार डाला।

मगरमच्छ के मुंह से राजा निकल तो आया, लेकिन वह बेहोश था। उसका रंग पीला पड़ गया था। जहां-जहां मगरमच्छ के दांत लगे थे, वहां से खून बह रहा था। धोबियों के मुखिया ने तुरंत राजा का इलाज किया। बड़ी मेहनत के बाद राजा को मौत के मुंह से निकाल कर वे अपनी बस्ती में ले आए। उधर, जब राजा नदी के दूसरी ओर नहीं पहुंचा, तो पेड़ से बंधा राजकुमार इन्द्र घबराकर रोने लगा। इधर, दूसरा राजकुमार विजय भी बेचैन हो गया। वह भी जोर-जोर से रोने लगा।

तभी उस समय राज्य का राजमंत्री दल-बल के साथ वहां से गुजरा। उसने किसी बालक के रोने की आवाज सुनी तो नदी की तरफ गया। वहां छोटा राजकुमार विजय पेड़ से बंधा रो रहा था। मंत्री ने उसे खोला और सारी बात पूछी। विजय ने रोते हुए अपने पिता को मगरमच्छ द्वारा खा जाने और दूसरी तरफ भाई इन्द्र के होने की बात बता दी।

राजमंत्री ने तुरंत सैनिकों को नदी पार जाकर इन्द्र को लाने का आदेश दिया। सैनिक इन्द्र को ले आए। मंत्री दोनों राजकुमारों को अपने घर ले आया। मंत्री के यहां कोई संतान नहीं थी। उसकी पत्नी ने जब सुंदर राजकुमारों को देखा, तो वह बहुत खुश हुई। उन्होंने राजकुमारों को बेटों की तरह रख लिया।

आपत्ति अब अपने पूरे वेग पर थी। उसने राजा का सभी कुछ छीन लिया था। धोबियों की बस्ती में घायल राजा धीरे-धीरे ठीक होने लगा। एक दिन मुखिया ने उससे पूछा- “भाई, तुम कौन हो? अपना कुछ अता-पता तो हमें बताओ?”

राजा ने उदास होकर कहा-“मैं आपत्ति के जाल में उलझा हुआ एक अभागा इंसान हूं। मेरा सब कुछ लुट चुका है। बस, यही मेरी कहानी है।” यह कहते हुए राजा की आंखें भर आईं। “अब कहां जाओगे ?” मुखिया बोला।

“कहां जाना है, क्या करना है? मुझे कुछ नहीं सूझता मुझे यहीं रहने दें। मैं भी कपड़े धो लिया करूंगा।”

आपत्ति में फंसे राजा ने अपना असली परिचय नहीं बताया। मुखिया को दया आ गई। उसने कहा- “भाई तुम खुशी से यहां रह सकते हो हम तुम्हारी पूरी मदद करेंगे।” राजा वहीं रह गया। वह घाट पर जाकर कपड़े धोने लगा।

इसी बीच व्यापारी भी रानी को लेकर उसी राज्य में आ पहुंचा। ब्राह्मणी के वेश में रानी उस व्यापारी के जाल में फंसी हुई थी। वह हर समय पूरी चौकसी रखता था। रानी बेचारी किसी प्रकार दिन तो काट रही थी, लेकिन उसकी चिंता बढ़ने लगी थी। एक साल पूरा होने में अब केवल एक महीना ही बाकी रह गया था। व्यापारी की कैद में बेचारी रानी अपने पति और बेटों को याद करके रोती रहती थीं। करती भी क्या ? आपत्ति के सामने वह मजबूर थी। व्यापारी ने वहीं डेरा डाल दिया।

दूसरी ओर, दोनों राजकुमार उस राजमंत्री के घर सुख से पलने लगे। उन्हें अब पाठशाला में भेजकर राजमंत्री अस्त्र-शस्त्र की विद्या सिखलाने लगा। कारण यह था कि राजमंत्री और उसकी पत्नी उन दोनों को अपने बेटों की तरह पाल रहे थे दोनों राजकुमार होनहार और प्रतिभाशाली थे। वे जल्दी ही सारी विद्याएं सीखने लगे।

राजमंत्री कभी-कभी उन दोनों को सेनापति के साथ भेज दिया करता था। सेनापति भी उन्हें बहुत प्यार करने लगा था। असल में वे थे तो राजा के बेटे ही, इसलिए उनके संस्कारों में ऊंचे कुल के गुण देखकर सभी उन्हें प्यार करते थे।

उस राज्य का राजा किसी घातक रोग का शिकार था। दूर-दूर से वैद्य बुलाए गए। राजा की बीमारी किसी की भी समझ में नहीं आ रही थी। पूरे राज्य में चिंता फैली हुई थी। सभी राजा के जीवन के लिए भगवान से प्रार्थना कर रहे थे।

इसी बीच एक दिन धोबियों के मुखिया ने धोबी बने हुए राजा को बुलाया। मुखिया ने कहा- ” भाई! मैं कुछ बीमार हूं। क्या तुम नगर से जरूरी सामान ला सकते हो ?”

” क्यों नहीं? बताइए, क्या-क्या लाना है ?” राजा ने उत्तर दिया।

धोबियों के मुखिया ने धोबी बने राजा को सामान की पूरी सूची देकर नगर में भेज दिया। राजा नगर में पहुंच गया।

दुर्भाग्य से उस राज्य के राजा की मृत्यु उसी दिन हो गई। राज्य में शोक छा गया। नगर की सभी दुकानें भी शोक के कारण बंद कर दी गई। सामान नहीं मिला धोबी के वेश में रह

रहे राजा ने मन में सोचा―”क्यों न मैं आज की रात नगर के द्वार के बाहर सोकर ही गुजार दूं ? प्रातः काल होने पर जैसे ही नगर का प्रवेश द्वार खुलेगा, वैसे ही मैं सारा सामान खरीदकर जल्दी अपने गांव लौट जाऊंगा।” यह सोचकर राजा नगर-द्वार के सामने ही अपनी चादर बिछाकर लेट गया। कुछ खाने सामान साथ लाया ही था वही खाकर जब लेटा, तो थकान के कारण नींद आ गई।

अगली सुबह जब उसकी आंखें खुलीं, तो वह भौचक्का होकर देखता रह गया। कुछ सैनिक और राजसी वस्त्र पहने हुए कई लोग उसे घेरकर खड़े थे। वह घबराकर उठ बैठा। उसने एक आदमी से जब पूछा, तो वह आदर के साथ बोला- “महाराज! आपकी जय हो। आप हमारे राजा हैं। मैं आपके इस राज्य का राजमंत्री हूं। चलिए महाराज! चलकर अपना राजसिंहासन संभालिए।” ‘क्या कहते हैं आप ? आपको धोखा हुआ है, मंत्री जी मैं तो गरीब धोबी हूं! सामान खरीदने आया हूं। मुझे तो शीघ्र अपने गांव लौटना पड़ेगा।” सहमकर धोबी बने राजा ने कहा।

‘आप धोबी थे, लेकिन क्षमा करें, राजन्! अब तो आप इस राज्य के राजा हैं।” राजमंत्री ने सम्मानपूर्वक कहा। “अजीब बात है ? मैं भला कैसे राजा बना ?” राजा ने कहा।

“महाराज! कल हमारे राज्य के राजा की मृत्यु हो गई है। उनका कोई पुत्र नहीं है। इस राज्य की यह परंपरा है कि पुत्रहीन राजा की मृत्यु हो जाने पर अगले दिन प्रातः नगर-द्वार खुलने पर जो भी पहला आदमी मिले, वही राजा होता है। आप ही आज द्वार खुलने पर हमें सबसे पहले मिले हैं। चलिए, राजमहल में चलकर राज्य संभालिए।” मंत्री ने प्रार्थना की। सब तरफ खुशी दौड़ गई। लोगों ने ‘महाराज की जय हो’ का गगनभेदी शोर किया। पूरे नगर में लोग नाचने-गाने लगे।

राजा को पूरे सम्मान के साथ राजमहल लाया गया। राजा को स्नान कराया गया। राजसी वस्त्र पहनकर राजा पूजा करने बैठा। अचानक पूजा करते-करते राजा की समाधि लग गई। तभी एक नारी स्वर राजा को सुनाई दिया- “राजन्! मेरा समय पूरा हो गया है। अब मैं आपको छोड़कर जा रही हूं।”

राजा चौंक पड़ा। चारों ओर देखने लगा। वहां कहीं भी कोई दिखाई नहीं दिया। राजा ने जोर से पूछा – “तुम कौन हो ? सामने आकर अपना रूप दिखाओ।” उत्तर में फिर एक नारी स्वर गूंज पड़ा-“राजन् मैं आपत्ति हूं मैं आपसे पूछकर ही आई थी। इसलिए अब बताकर ही वापस भी जा रही हूं। मेरा समय पूरा हो गया है राजन्। अब आपके सुख का समय आ गया है। मैं विधाता के कालचक्र में बंधकर आई थी। मैंने आपके धीरज की परीक्षा ले ली है।”

राजा पूजा पूरी करके उठा। आज उसका मन बहुत हल्का था। राजा को रानी और दोनों राजकुमारों की याद हो आई राजा ने सोचा- “मेरे सुख के दिन तो आ गए हैं, लेकिन वे तीनों कैसे हैं, कहां हैं? पता नहीं, आपत्ति के जाल में फंसकर वे मर गए या अभी जीवित हैं ?” राजा उदास हो गया। तभी राजप्रहरी आया। राजा की जयकार करके उसने बताया कि आज राजदरबार में राजा प्रजा के बड़े-बड़े लोगों से मिलने वाले हैं। राजा तैयार हो गया।

जैसे ही राजा राजदरबार में पहुंचा, चारों ओर से जय-जयकार की आवाजें आने लगीं। राजा तो सचमुच ही राजा था। वह तो आपत्ति के जाल में फंसकर पहले ब्राह्मण और फिर धोबी बना था। वह राजदरबार की सारी मर्यादाएं जानता ही था। सिंहासन पर बैठते ही उसने बंदियों को मुक्त करने की आज्ञा दी।

राजा का आदेश सुनकर राजमंत्री ने बताया- “महाराज! लगभग साल पहले हमने अपने पड़ोसी राज्य पर हमला किया था। वहां के महामंत्री और राज ज्योतिषी को हमने बंदी बना लिया था। उन पर आरोप है कि अपने राजा तथा उसके परिवार को गुप्त रूप से बचाकर उन्होंने कहीं भगा दिया था, उनका क्या करें।”

” उन दोनों को पूरे आदर के साथ राजदरबार में लाया जाए” – राजा ने आदेश दिया। महामंत्री और राज ज्योतिषी को दरबार में लाया गया। देखते ही उन्होंने अपने राजा को पहचान लिया। राजा ने महामंत्री तथा राज ज्योतिषी को गले से लगा लिया। फिर एक वर्ष की सारी घटनाएं बताकर रानी तथा राजकुमारों के बिछुड़ने का समाचार दिया।

राज ज्योतिषी ने हर्ष के स्वर में कहा-“राजन्। अब आपत्ति लौट चुकी है। आपने धीरज और दृढ़ता से उसका सामना किया है। अब सुख का समय आ गया है। आप चिंता न करें। सब ठीक हो जाएगा।”

उधर व्यापारी को रानी ने एक वर्ष का समय दिया था। अब केवल एक दिन बचा था। रानी छटपटा रही थी। वह सोच रही थी- “कल प्रातः यह दुष्ट व्यापारी बलपूर्वक मुझे अपनी पत्नी बनाएगा। तब क्या होगा? नहीं, नहीं! मैं ऐसा अनर्थ नहीं होने दूंगी। मैं नदी में कूदकर अपनी जान दे दूंगी।”

दूसरी ओर, राजमंत्री के यहां बेटों की तरह पल रहे राजकुमार इन्द्र और विजय रोज की तरह सेनापति के साथ बाहर घूमने निकले। वे सब नदी के किनारे आ गए, जहां व्यापारी की बड़ी-सी नौका खड़ी थी।

तभी ब्राह्मणी के रूप में रह रही रानी ने नदी में कूदने के लिए छलांग लगा दी। व्यापारी ने तेजी से उसे दबोच लिया। रानी को व्यापारी ने पकड़ रखा था।

जब रानी ने देखा कि वह व्यापारी के चंगुल में फंस गई है, तो उसने जोरों से शोर मचाना शुरू किया। रानी चीख रही थी- “छोड़ मुझे बदमाश, पापी, नीच! मुझे मर जाने दे। मैं कभी तुझ जैसे पापी से विवाह नहीं करूंगी छोड़ दे मुझे छोड़ दे।”

पास ही राजकुमारों के साथ घूमते हुए वीर सेनापति ने जब रानी के चीखने-चिल्लाने की आवाज सुनी तो वह नंगी तलवार लेकर तुरंत नौका पर पहुंच गया। व्यापारी को देखकर सेनापति गरज उठा-“इस स्त्री को तुरंत छोड़ दो, नहीं तो सिर काटकर धरती पर फेंक दूंगा।”

सेनापति की गरजदार आवाज सुनकर व्यापारी के होश उड़ गए। वह हकलाता हुआ बोला—” श्रीमान्! यह मेरी स्त्री है। झगड़ा करके नदी में कूदना चाहती है। आत्महत्या कर रही थी। बड़ी मुश्किल से मैंने पकड़कर बचाया है।”

तभी रानी चीख कर बोली- ‘यह नीच झूठ बोल रहा है। इस पापी ने मुझे एक साल से कैद में रख रखा है। मुझे धोखे से अपहरण करके लाया है।” रानी की बात सुनकर सेनापति ने उस व्यापारी को तुरंत बंदी बना लिया। इसी बीच राजकुमार इन्द्र और विजय भी सैनिकों सहित नौका पर आ गए। रानी ने उन्हें देखते ही पहचान लिया। दोनों बेटे मां के गले से लिपट गए। सेनापति आश्चर्य में डूबा खड़ा था।

राजकुमार इन्द्र और विजय अपनी मां को लेकर राजमंत्री के यहां पहुंचे। बदमाश व्यापारी को कारागार में भेज दिया गया। आपत्ति का जाल कटते ही बेटों को उनकी मां मिल गई। अभी भी रानी घबरा रही थी इसीलिए रानी ने राजमंत्री को अपना असली परिचय नहीं दिया और दोनों राजकुमारों को भी मना कर दिया कि वे भी असलियत किसी को न बताएं। अगले दिन व्यापारी को न्याय के लिए राजा के सामने लाया गया। ब्राह्मणी के रूप में रह रही रानी को भी दरबार में लाया गया। इन्द्र और विजय भी मां के साथ दरबार में आए। राजा ने रानी और दोनों बेटों को पहचान लिया। रानी दौड़कर राजा के चरणों में जा गिरी। उसकी आंखों से आंसुओं की धारा बह रही थी। दोनों राजकुमार भी राजा के गले लग गए। राजदरबार में सभी आश्चर्यचकित से यह दृश्य देख रहे थे।

रानी ने राजा को व्यापारी द्वारा धोखा देने और एक साल तक बंदी रखने की बात बताई। राजा ने उस नीच व्यापारी को कड़ी कैद का दंड दिया। राजा को अपना राज्य भी मिल गया और यह दूसरा राज्य भी राजा, रानी और राजकुमार सुख से रहने लगे।

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