धोखेबाज की हार: ईमानदार और परिश्रमी किसान की कहानी

धोखेबाज की हार:- एक गांव में एक किसान रहता था। वह बहुत ईमानदार और परिश्रमी था। वह हमेशा यही कहा करता था कि जैसा कोई करता है, वैसा ही फल उसे मिलता है। सारे गांव में यह मशहूर था कि किसान को कितना भी प्रलोभन क्यों न दिया जाए, वह कभी किसी से बेईमानी या धोखा नहीं कर सकता।

धोखेबाज की हार

धोखेबाज की हार

किसान सवेरे उठकर अपने खेत पर चला जाता था और दिनभर मेहनत करके घर लौटता था। फसल काटकर जब शहर में बेचने जाया करता, तो वहां के साहूकार लोग उसकी फसल का सामान सबसे पहले खरीद लिया करते थे।

किसान के पड़ोस में एक निकम्मा आदमी रहता था। वह दिनभर अपने घर में लेटा रहता था। कभी खेत में जाकर मेहनत नहीं करता था। उसके पुरखे जो रुपया पैसा छोड़ गए थे, वह भी धीरे- धीरे खत्म हो गया तो वह आलसी उधार ले लेकर अपने शौक पूरे करने लगा।

गांव के सभी लोग उस निकम्मे आदमी से नफरत करते थे वह हमेशा इसी चक्कर में रहता था कि किसी भोले आदमी को जाल में फंसा कर ठग लिया जाए। उसका काम इसी प्रकार चलता था। सभी जानते थे कि वह एक नंबर का धोखेबाज और धूर्त हैं।

एक बार की बात है कि किसान ने अपने खेत में ककड़ियां बोई मेहनत तो वह करता ही था, इसलिए खेत में ककड़ियों की भरपूर फसल हुई। धूर्त पड़ोसी ने जब देखा कि किसान के खेत में ककड़ियों की बहुत बढ़िया फसल हुई है, तो उसका मन जल उठा।

ईर्ष्या की आग में जलते हुए धूर्त पड़ोसी ने सोचा- “क्या किया जाए, जिससे इस किसान की कमाई हड़पी जा सके ? यह तो भोला है ही क्यों न मैं इसे किसी चक्कर में फंसा कर धन ऐंठ लू?” धूर्त ने मन-ही-मन एक चाल सोच ली।

अगले दिन उसने देखा कि किसान अपने खेत से ककड़ियां तोड़कर एक गाड़ी में भर रहा है। जब किसान सारी ककड़ियां गाड़ी में भर चुका, तो धूर्त पड़ोसी उसके पास आकर बड़े प्यार से बोला- “प्यारे भाई! लगता है ककड़ियां बेचने शहर ले जा रहे हो ? सचमुच तुम्हारी मेहनत सफल हुई। ये ककड़ियां तो बहुत ही सुंदर हैं।”

भूर्त पड़ोसी की बात सुनकर किसान खुशी-खुशी बोला “हां, भाई ककड़ियों की फसल बहुत अच्छी हुई है। शहर में बेचने जा रहा हूं।” किसान की बात सुनकर धूर्त ने कुछ देर सोचा, फिर जोरों से हंस पड़ा। किसान ने जब धूर्त पड़ोसी को हंसते हुए देखा, तो आश्चर्य में पड़ गया। उसने पूछ ही लिया, “क्या बात है, भाई ? तुम इतनी जोर से क्यों हंस रहे हो? क्या मैंने कोई गलत बात कह दी है?”

किसान की भोली बात सुनकर भूर्त पड़ोसी समझ गया कि किसान को बड़ी आसानी से फांसा जा सकता है। वह किसान से बोला- “प्यारे भाई! एक बात बताओ। अगर मैं तुम्हारी ये गाड़ीभर ककड़ियां खा जाऊं, तो तुम मुझे क्या इनाम दोगे ?”

किसान उसकी बात सुनकर ठहाका मारकर हंसा। वह सोचने लगा-“यह मेरा पड़ोसी पागल हो गया है। कह रहा है कि गाड़ीभर ककड़ियां खा जाएगा। भला कहीं एक आदमी गाड़ीभर ककड़ियां खा सकता है?”

हंसते हुए किसान ने धूर्त पड़ोसी से कहा- “छोड़ो भाई क्यों मजाक करते हो? मैं जल्दी शहर जाना चाहता हूं। भला कहीं एक आदमी इतनी ककड़ियां खा सकता है ? क्या तुम मुझे इतना मूर्ख समझते हो कि मैं तुम्हारी बातों में आ जाऊंगा ?”

” अरे नहीं भाई मजाक नहीं कर रहा हूं। मैं सचमुच ये गाड़ीभर ककड़ियां खा सकता हूं। तुम्हें यकीन नहीं है, तो शर्त क्यों नहीं लगा लेते ?” चुनौती देते हुए उस धूर्त पड़ोसी ने किसान को उकसाया।

आखिर किसान उसके जाल में फंस ही गया। उसने भी मजाक के स्वर में कह दिया “ठीक है, तुम भी क्या याद करोगे ? शर्त लगाता हूं। अगर तुम ये गाड़ीभर ककड़ियां खा लोगे तो मैं तुम्हें एक ऐसा लड्डू दूंगा जो इस नगर के द्वार से न निकल सके।”

धूर्त पड़ोसी खुश हो गया। उसने गवाह बुलाकर सबके सामने शर्त रख दी। किसान से उसने कहा- “देखो प्यारे भाई! अगर तुम लड्डू न दे सके, तो सौ सोने की मुद्राएं देनी पड़ेंगी।” किसान जानता था कि कोई भी आदमी गाड़ीभर ककड़ियां खा ही नहीं सकता। उसने ‘हां’ कह दी।

धूर्त ने गवाहों के सामने कहा-“ठीक है, आप सब लोग गवाह हैं। मैं अब इन सब ककड़ियों को आप सबके सामने ही खा लेता हूं।” इतना कहकर वह धूर्त गाड़ी में से ककड़ियां उठा-उठा कर उनका थोड़ा-सा किनारा मुंह से काट-काट कर रखने लगा। थोड़ी देर में ही उसने सारी ककड़ियों के किनारे मुंह से काट-काट कर वहीं फेंक दिए। इस प्रकार एक भी ककड़ी उसके पेट में नहीं गई, लेकिन सारी की सारी ककड़ियों पर दांतों के निशान हो गए। किसान और सारे गवाह मूर्त की इस हरकत को देख रहे थे, लेकिन कोई कुछ नहीं बोला।

धूर्त ने किसान से कहा- “लो प्यारे भाई! मैंने ये गाड़ीभर ककड़ियां खा ली हैं। लाओ, शर्त के अनुसार मेरा लड्डू दो या फिर सी स्वर्ण मुद्राएं मुझे दो।”

किसान अपनी सारी ककड़ियों को नष्ट होते देख चुका था। वह धमकते हुए बोला “तुमने तो एक भी ककड़ी नहीं खाई है। फिर लड्डू तुम्हें कैसे दिया जाए? तुम तो शर्त हार गए हो। मेरी सारी ककड़ियों का मूल्य मुझे दो।”

धूर्त पड़ोसी तो चालाक था ही। गवाहों को बुलाकर कहने लगा-” अरे वाह, प्यारे भाई!

कमाल करते हो तुम? अगर मैंने ककड़ियां नहीं खाईं हैं, तो चलो तुम इन्हें बेचकर दिखाओ।

अभी सारी बात का पता चल जाएगा।”

किसान ने आवाज लगाकर ककड़ियां खरीदने वालों को बुलाया। जो भी आता, वह यही कहता-” थे तो खाई हुई ककड़ियां हैं? इन्हें बाजार में क्यों बेच रहे हो ?” और फिर एक एक करके सभी खरीददार यही कहकर लौट गए कि ये तो खाई हुई ककड़ियां हैं।

अब तो धूर्त पड़ोसी किसान के ऊपर गुस्सा करते हुए चीखने लगा- “पहले तो शर्त लगाई और अब हार गए हो, तो बेईमानी करते हो? या तो मुझे एक बड़ा लड्डू दो, जो नगर द्वार से न निकल सके, या सौ स्वर्ण मुद्राएं मुझे दो। मैं शर्त जीत गया हूं।” गवाहों ने भी धूर्त की बात का समर्थन किया क्योंकि हर खरीददार ने यही कहा था कि ‘ये ककड़ियां तो खाई हुई हैं।’

झगड़ा बढ़ गया। किसान बड़े चक्कर में पड़ गया था। धूर्त उससे लड्डू मांग रहा था।

आखिर जब मामला नहीं सुलझा तो धूर्त अपना मामला नगर के न्यायालय में ले गया। सारे गवाहों ने एक स्वर से कहा कि सभी खरीददारों ने कहा है कि ‘ये ककड़ियां तो खाई हुई हैं।’ नगर के न्यायाधीश क्या करते? गवाहों के बयानों से यह सिद्ध हो गया था कि धूर्त पड़ोसी ने गाड़ीभर ककड़ियां खा जाने की शर्त लगाई थी। बाजार के सभी खरीददारों ने यही कहा कि ये ककड़ियां तो खाई हुई हैं। इसलिए भूर्त अपनी शर्त जीत गया।

बेचारा किसान चक्कर में पड़ गया। उसका वह धूर्त पड़ोसी एक ही रट लगाए हुए था कि मुझे एक बड़ा लड्डू दो, जो नगर-द्वार से न निकल सके। अगर नहीं दे सकते, तो फिर सौ स्वर्ण मुद्राएं तुरंत दो। किसान ने बहुत बार समझाया, लेकिन धूर्त अपनी जिद पर अड़ा ही रहा।

किसान उसके जाल में फंस चुका था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। उसने धूर्त पड़ोसी से कहा- “ठीक है भाई! तुम शर्त जीत गए हो, यह मैं मान लेता हूं। अब मुझे एक दिन का समय तो दो मैं कल तुम्हें लड्डू बनवा कर दे दूंगा।” किसान की बात सुनकर धूर्त पड़ोसी ने मन ही मन सोचा यह भोला किसान भला एक दिन में ऐसा लड्डू कहां से बनवा कर लाएगा, जो नगर द्वार से न निकल सके।” उसने खुशी-खुशी एक दिन का समय किसान को दे दिया।

किसान बेचारा कुछ जानकार लोगों के पास गया। उसने धूर्त पड़ोसी की धोखेबाजी की सारी कहानी सुनाकर उनसे मदद मांगी। सभी जानते थे कि धूर्त ने बेचारे भोले-भाले किसान को आदर

को धोखा देकर ठग लिया है, लेकिन उससे बचने का उपाय किसी को नहीं सूझ रहा था। तभी उनकी निगाह पास से जाते हुए एक जैन साधु पर पड़ी। उन्होंने साधु सहित बुलाकर सारी बात बताई और किसान की मदद करने को कहा।

साधु ने कुछ देर सोचा, फिर किसान से कहा- “तुम सचमुच ईमानदार और भोले हो। मैं तुम्हें एक रास्ता बताता हूं। वैसा ही करोगे तो तुम्हारी जीत हो जाएगी।” किसान खुश हो गया। साधु ने उसे एक उपाय बता दिया। किसान घर गया और निश्चित होकर सो गया।

अगले दिन धूर्त पड़ोसी आ गया। किसान ने कहा-” भाई अपने सब गवाहों को बुला ला। मैं लड्डू बनवा लाया हूं। मेरी ओर से ये साधु महाराज गवाह हैं।” धूर्त तो अभिमान में अकड़ा हुआ था ही। उसने गवाह बुला लिए। सबके सामने किसान ने कहा- ” आप सब गवाह हैं। मैंने कहा था कि मैं इन्हें ऐसा लड्डू दूंगा जो नगर-द्वार से न निकल सके। आप सब नगर द्वार पर चलिए मैं शर्त के अनुसार इन्हें आप सबके सामने वह लड्डू दूंगा।”

सभी गवाहों के साथ किसान और धूर्त पड़ोसी नगर द्वार पर आ गए। वहां आकर किसान ने एक छोटा-सा लड्डू नगर के द्वार पर रख दिया। अब धूर्त से किसान ने कहा—“लो भाई! अपना लड्डू उठा लो।” भूर्त क्रोध में बोला” यह क्या मजाक है प्यारे भाई ? तुमने कहा था कि ऐसा लड्डू दोगे जो नगर द्वार से न निकल सके।’

किसान ने गवाहों से कहा-” भाइयो! जरा आप इस लड्डू से कहिए कि यह नगर द्वार से निकल कर दिखाए। देखिए, मैं आप सभी के सामने इसे कहता हूँ कि ‘नगर-द्वार से निकल’, लेकिन यह चलता ही नहीं। अब आप सब भी कहकर देख लें। ” सभी गवाहों ने एक स्वर में कहा-“यह तो चलता ही नहीं। नगर द्वार से कैसे निकल सकता है ?”

साधु महाराज ने कहा- “तब तो आप सब इस किसान की बात मानते हैं कि लड्डू नगर-द्वार से नहीं निकलता है। बताइए, सब मानते हैं न?” सभी ने ‘हां’ कह दी। साधु ने कहा- ” अपना लड्डू उठा लो और यहां से भाग जाओ।” धूर्त समझ गया कि अब उसकी चालबाजी नहीं चल सकती। वह लज्जित होकर चला गया।

किसान साधु महाराज के चरण छूकर बोला-महाराज! आपकी कृपा से मेरा धन आज लूटने से बचा है। मैं आपका आभारी हूं।” साधु ने शांतभाव से कहा-“तुम भोले हो, यह तो ठीक है। लेकिन धूर्त की बातों में आकर अपने असली काम को भूल गए थे, इसीलिए तुम ठगे गए हो। याद रखो, जो अपने काम से काम रखता है, उसे कोई नहीं ठग सकता।”

किसान ने साधु महाराज को विश्वास दिलाया कि अब वह कभी लालच में नहीं पड़ेगा। सदा अपने काम से काम रखने का प्रण भी किसान ने किया। साधू अपनी राह चले गए और किसान धूर्त के चंगुल से निकल गया।

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