जापान में सुनामी पर निबंध:- मानव ने हमेशा अपनी बौद्धिक क्षमता से प्राकृतिक शक्तियों को नियन्त्रित करने की कोशिश की है, किन्तु प्रकृति का एक ही झटका उसे उसकी हैसियत बता देता है और तब उसे लगता है कि अभी तो घोड़ी सी जमीं नापी है, पूरा आसमां अभी बाकी है। मानव ने बेशक जमीन, नदी, समुद्र, वायुमण्डल पर अपना एक छत्र राज स्थापित कर लिया हो, किन्तु प्रकृति के सामने वह आज भी बौना नजर आता है।
जापान में सुनामी पर निबंध

उसकी सारी तकनीकें, सारे के सारे आविष्कार प्रकृति की मार के आगे धरे के धरे रह जाते हैं और प्रकृति अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर मनुष्य को उसकी औकात में रहने की चेतावनी दे जाती है। जापान में आया भूकम्प और उससे उत्पन्न सूनामी भी प्रकृति की ऐसी ही एक चेतावनी थी।
11 मार्च, 2011 को सुबह दो बजकर 46 मिनट (भारतीय समयानुसार सुबह 6.15 बजे ) पर जापान में भूकम्प आया। रिक्टर पैमाने पर 8.9 तीव्रता वाले इस भूकम्प का केन्द्र देश के उत्तर-पूर्वी समुद्री तट से 125 किलोमीटर दूर प्रशान्त महासागर में 10 किलोमीटर की गहराई में (जापान की राजधानी टोक्यो से 380 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में) स्थित था। यह भूकम्प जापान में पिछले 140 साल में आया सबसे भीषण भूकम्प था।
इसके प्रभाव से समुद्र में 33 फीट से ज्यादा ऊँची लहरें उठीं। इन लहरों में मकान, जहाज, कारें और बस खिलौनों की तरह बह गए। भूकम्प के कारण उपजी सूनामी लहरों ने उत्तर-पूर्वी जापान के तटीय प्रान्तों मियागी और फुकुशिमा को बुरी तरह से प्रभावित किया। इस प्राकृतिक विनाशलीला में 10 हजार से अधिक लोग मारे गए और डेढ़ लाख से अधिक लोगों को विस्थापित होना पड़ा। ऊँची-ऊँची समुद्री लहरें मकानों कारों, पानी के जहाजों को अपने साथ दूर तक बहाकर ले गईं।
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भूकम्प की वजह से कई इमारतों में आग लग गई। टोक्यो में और उसके आसपास के 40 लाख से अधिक घरों में विद्युत आपूर्ति ठप्प हो गई। ट्रेनों के आवागमन को कई दिनों के लिए रोकना पड़ा। हवाई उड़ानों को भी कई दिनों तक रद्द करना पड़ा। देश के सभी बन्दरगाहों को भी कई दिनों के लिए बन्द करना पड़ा।
ऐसा नहीं है कि जापान ने पहली बार ऐसी विपदा का सामना किया है। जापान में पहले भी कई बार भूकम्प और तेज लहरें आ चुकी हैं। यहाँ भूकम्प आने का कारण चार प्लेटों की सक्रियता है। ये प्लेटें हैं पैसिफिक, यूरेशिया, फिलिपाइन और नॉर्थ अमेरिकन। जब भी इन प्लेटों में टकराव होता है, तो टकराव के केन्द्र से जुड़े क्षेत्र में भूकम्प आता है। भूकम्प के मामले में जापान दुनिया का सबसे संवेदनशील देश है।
इस देश में विश्व के ऐसे 20 प्रतिशत भूकम्प आते हैं, जिनकी रिक्टर पैमाने पर तीव्रता छह या उससे अधिक होती है। जापान में सर्वाधिक भूकम्प आने का कारण यह है कि पृथ्वी के महाद्वीपों और महासागरों का निर्माण जिन ठोस परतों से हुआ है, वे जापान के स्थल क्षेत्र के नीचे जुड़ती है। जब-जब इन परतों में हलचल होती है, तब-तब जापान की धरती हिलती है। परतों का सन्धि-स्थल होने के कारण इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में ज्वालामुखी हैं।
जापान में इसलिए गर्म जल के स्रोत भी सर्वाधिक हैं। प्रशान्त महासागर के इस क्षेत्र को सक्रिय भूकम्पीय गतिविधियों के कारण ‘अग्नि वलय’ (पैसिफिक रिंग ऑफ फायर) कहा जाता है। अपने ज्ञात इतिहास में जापान ने भूकम्प के बाद के रिकॉर्ड दो सौ से अधिक सूनामियों का सामना किया है।
उल्लेखनीय है कि भूकम्प जब समुद्री या महासागरीय क्षेत्र में उत्पन्न होता है, तो उसे सूनामी (Tsunami) कहते हैं। ‘सुनामी’ एक जापानी शब्द है, जिसका अर्थ है-बन्दरगाह की लहरें। सूनामी की अवस्था में समुद्र में उत्पन्न ऊर्जा तरंगें जब समुद्रतट से टकराती हैं तो 30 से 40 मीटर ऊँची लहरों का निर्माण होता है, जिनकी रफ्तार 500 किलोमीटर प्रति घण्टा से भी अधिक होती है, इसलिए ये समुद्री लहरें आवासीय क्षेत्रों के लिए अत्यन्त खतरनाक साबित होती हैं। 26 दिसम्बर, 2004 को 9.3 तीव्रता के भूकम्प के कारण हिन्द महासागर में आई सूनामी से भारत के दक्षिणी समुद्रतटीय प्रदेश भी बुरी तरह प्रभावित हुए। थे।
भूकम्प के मामले में सर्वाधिक संवेदनशील होने के कारण जापान में बच्चे-बच्चे को अचानक आने वाले भूकम्प और सूनामी से निपटने का प्रशिक्षण दिया जाता है। वहाँ बनने वाली छोटी-से-छोटी इमारत को भी भूकम्परोधी बनाया जाता है। इन इमारतों की नींव जमीन से नीचे बहुत ही गहरी होती है। इसके अलावा इनमें लोहे के सरियों का इस्तेमाल सामान्य से अधिक होता है। इतना ही नहीं जापान में प्रत्येक कार्यालय और कई घरों में भूकम्प के लिए इमरजेन्सी किट भी रहते हैं। इनमें खाने की सूखी चीजें, पीने का पानी, दवाएं रहती हैं।
स्कूल में बच्चों को भूकम्प से बचने के लिए हर महीने अभ्यास कराया जाता है। जापान में जैसे ही भूकम्प आते हैं, उसके बाद सारी सरकारी संस्थाएँ सक्रिय हो जाती हैं। रेडियो और टेलीविजन समेत सारे माध्यम अन्य प्रसारण बन्द कर देते हैं। तब सिर्फ भूकम्प सम्बन्धी प्रसारण शुरू होता है, जिसमें लोगों को लगातार भूकम्प के खतरे से बचने के उपाय याद दिलाए जाते हैं। साथ ही सूनामी के खतरे के बारे में बताया जाता है।
जापान में आए भूकम्प और उसके बाद सूनामी लहरों के कारण वहाँ के परमाणु संयन्त्रों को काफी नुकसान हुआ और जापानी सरकार ने देश में परमाणु आपातकाल घोषित कर दिया था। परमाणु संयन्त्रों के आसपास रहने वाले हजारों लोगों को सुरक्षित स्थानों पर जाने को कहा गया। भूकम्प आने के कुछ समय बाद ही यह खबर आई कि पूर्वी जापान में स्थित फुकुशिमा के दो परमाणु रिएक्टरों में कूलिंग सिस्टम ने काम करना बन्द कर दिया। संयन्त्र से बड़े पैमाने पर खतरनाक रेडियोधर्मी तत्त्व सीजियम का रिसाव होने लगा और इसके बाद पूरी दुनिया की निगाहें परमाणु रिएक्टर में हुए धमाके के बाद खतरनाक रेडियोधर्मी विकिरण के प्रभावों पर टिक गई।
द्वितीय विश्व युद्ध में अमेरिका द्वारा हिरोशिमा एवं नागासाकी पर किए गए परमाणु हमले के बाद जापान के साथ घटी यह सबसे भयंकर त्रासदी थी। जापान में हुई इस दुर्घटना के बाद पूरे विश्व में परमाणु रिएक्टरों की सुरक्षा को लेकर एक बार फिर चर्चा प्रारम्भ हो गई है। दुनिया एक बार फिर परमाणु रिएक्टरों की सुरक्षा को लेकर चिन्तित हो गई है। इस दुर्घटना के बाद कई देशों में परमाणु संयन्त्रों के भविष्य को लेकर चल रहा विवाद और गहरा गया है।
मानव ने प्रकृति के कई क्षेत्रों का अनावश्यक दोहन एवं अतिक्रमण किया है, इसी के दुष्परिणामस्वरूप पर्यावरण असन्तुलित हो गया है। पिछले कुछ दशकों में आई अधिकतर प्राकृतिक आपदाओं का मुख्य कारण मानव द्वारा किया गया पर्यावरण असन्तुलन ही रहा है। जापान में भूकम्प और उसके कारण आई सुनामी एवं परमाणु रिएक्टरों में विस्फोट जैसी दुर्घटनाएँ मानव के लिए एक चेतावनी है कि वह प्रकृति से अधिक छेड़-छाड़ न करे।
मानव को चाहिए कि वह प्रकृति के साथ सन्तुलन बनाए रखे, किन्तु उसने अपनी प्रगति के लिए तेजी से प्रकृति का दोहन किया है और ऐसा करते समय उसने अपनी सुरक्षा की भी अनदेखी की है। जापान को इस त्रासदी से उबरने में काफी समय लगेगा। इस दुर्घटना के बाद दुनिया भर के देशों ने जापान की ओर मदद का हाथ बढ़ाया। मानवता के दृष्टिकोण से यह एक अच्छी पहल थी। किन्तु दुर्घटना के बाद मदद के लिए हाथ बढ़ाना ही पर्याप्त नहीं है, इस दुर्घटना से सबक लेते हुए हमें आने वाली पीढ़ियों की मलाई के लिए अपने उत्तरदायित्व को समझते हुए प्राकृतिक सन्तुलन पर जोर देना होगा और परमाणु ऊर्जा उत्पादन जैसे किसी भी संवेदनशील कार्य को प्रारम्भ करने से पहले सुरक्षा के सभी उपायों का ख्याल रखना होगा।
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