गणेश दामोदर सावरकर का जीवन परिचय: गणेश दामोदर का जन्म 23 जून 1889 ई० में महाराष्ट्र के देवलाली कस्बे के पास भागुर नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता महाराष्ट्रीय ब्राह्मण थे। वे धार्मिक प्रवृत्ति के थे, भारतीय संस्कृति के प्रेमी भी थे। उनकी मां धार्मिक प्रवृत्ति की श्रेष्ठ विचारों की भारतीय महिला थी।
गणेश दामोदर सावरकर का जीवन परिचय

Ganesh Damodar Savarkar Biography in Hindi
पूरा नाम | गणेश दामोदर सावरकर |
जन्म | 13 जून 1879 |
जन्म स्थान | महाराष्ट्र के देवलाली कस्बे के पास भागुर नामक ग्राम |
पिता का नाम | बलीराम पंत |
मृत्यु | 16 मार्च 1945 |
गणेश दामोदर के मंझले भाई विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी मां की पवित्र स्मृति में लिखा है- मैंने देशभक्ति और भारतीय संस्कृति का प्रेम अपनी मां से ही उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त किया है।
भारत की स्वतंत्रता के आन्दोलन के इतिहास में कुछ ऐसे कुटुम्ब मिलते हैं, जिन्होंने अपना सब कुछ स्वतंत्रता की वेदी पर अर्पित कर दिया। सम्पत्ति और धन तो अर्पित किया ही, अपने कुटुम्ब के हर एक सदस्य को भी अर्पित कर दिया। ऐसा कौन है, जो उन कुटुम्बों की प्रशंसा न करेगा? एक कवि ने ऐसे ही देशभक्ति भावनाओं से पूर्ण कुटुम्ब के सम्बन्ध में लिखा है
ऐसे ही कुटुम्बों में महाराष्ट्र का एक कुटुम्ब भी था – सावरकर कुटुम्ब सावरकर कुटुम्ब में तीन सगे भाई थे- गणेश दामोदर सावरकर, विनायक दामोदर सावरकर और डा० नारायण सावरकर विनायक दामोदर सावरकर को कौन नहीं जानता?
सावरकर बन्धुओं में वे मंझले थे। भारत की स्वतंत्रता के लिए उनके त्याग और उनके बलिदान की समता नहीं है। यदि क्रान्तिकारियों का इतिहास उठा कर देखा जाय, तो सावरकर की भांति यातनाओं की आग में जलने वाला कोई भी क्रान्तिकारी नहीं मिलेगा।
उन्होंने अपने जीवन का दो तिहाई भाग अंडमान कारागर की अंधकारपूर्ण कोठरी में ही व्यतीत किया। गणेश दामोदर सावरकर उनके अग्रज थे। उन्होंने भी देश की स्वतंत्रता की वेदी पर अपना सब कुछ अर्पित कर दिया था। डा० नारायण सावरकर सबसे छोटे थे।
वे भी देशभक्त थे। उनका भी जीवन त्याग का जीवन था। इस प्रकार पूरे के पूरे सावरकर कुटुम्ब ने अपनी सेवाओं के द्वारा स्वतंत्रता के इतिहास में अपना अमर पृष्ठ सुरक्षित कर लिया है। उस पृष्ठ के सुनहरे अक्षर कभी धूमिल नहीं होंगे, कभी धूमिल नहीं होंगे।
गणेश की रुचि पढ़ने-लिखने में उतनी नहीं थी, जितनी शरीर को स्वस्थ और सुदृढ़ बनाने की थी। वे बाल्यावस्था में ही व्यायाम और कुश्ती की ओर अधिक ध्यान दिया करते थे। वे प्रतिदिन अखाड़े में जाते थे और कुश्ती लड़ा करते थे। उनका कहना था कि शरीर को स्वस्थ बनाये बिना किसी भी काम में सफलता नहीं प्राप्त की जा सकती।
बाल्यावस्था में ही गणेश के हृदय में देशभक्ति के अंकुर फूट उठे थे। वे ज्यों ज्यों वय की सीढ़ियों पर चढ़ते गये, त्यों-त्यों उनकी देशभक्ति के अंकुर में नये-नये कल्ले और पत्ते भी निकलने लगे। 15-16 वर्ष की अवस्था में उनकी देशभक्ति का अंकुर हरे-भरे पौधे के रूप में लहलहाने लगा था।
1906 ई० में बंग-भंग के विरोध में सारे देश में आन्दोलन की आंधी चल पड़ी। उसी आन्दोलन के साथ ही साथ स्वदेशी का आन्दोलन भी चला। कहने के लिए वह स्वदेशी का आन्दोलन था, वास्तव में उसके मूल में क्रान्तिकारी आन्दोलन छिपा हुआ था। गणेश के ऊपर भी उस आन्दोलन का प्रभाव पड़ा। वे उस आन्दोलन में सम्मिलित होकर कार्य करने लगे।
गणेश दामोदर ने अपने आस-पास के स्थानों में स्वदेशी का प्रचार तो किया ही, विदेशी वस्त्रों की होली भी जलाई। वे अपने मित्रों के साथ घर-घर जाकर विदेशी कपड़े मांग लाते थे और उन्हें एक जगह एकत्र करके उनमें आग लगा दिया करते थे। जब विदेशी कपड़े जलने लगते थे, तो वे अपने मित्रों के कंठ से कंठ मिलाकर बन्देमातरम् का नारा भी लगाया करते। उनके स्वदेशी प्रेम और साहस की प्रशंसा तिलक ने भी की थी।
गणेश दामोदर की आस्था शक्ति में थी। वे स्वतंत्रता अहिंसा से नहीं, शक्ति से प्राप्त करना चाहते थे। उन्होंने शक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से ही एक संस्था का गठन किया था। उस संस्था का नाम था, तरुण भारत सभा तरुण भारत सभा के दो उद्देश्य थे-
- व्यायाम और कुश्ती के द्वारा युवकों को बलवान बनाना
- युवकों को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देकर उन्हें रणकुशल बनाना। कहना ही होगा कि तरुण भारत सभा को अपने दोनों उद्देश्यों में महान सिद्धि प्राप्त हुई थी।
उन दिनों पूना, नासिक और नागपुर आदि बड़े-बड़े नगरों में जो भी देशभक्त और साहसी युवक थे, वे सभी तरुण भारत सभा के सदस्य थे। स्वयं विनायक दामोदर सावरकर भी तरुण भारत सभा के ही सदस्य थे। उन्होंने तरुण भारत सभा के सदस्य के रूप में ही क्रान्ति के पथ पर चलना प्रारम्भ किया था।
कुछ लोगों का कथन है कि गणेश दामोदर की तरुण भारत सभा ही आगे चल कर ‘मित्र-मेला’ के रूप में परिणत हो गयी थी। मित्र- मेला क्रान्तिकारियों की एक संस्था थी, जिसने महाराष्ट्र में विप्लव की आग जलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
विनायक दामोदर सावरकर, गणेश दामोदर सावरकर और चाफेकर बन्धु आदि क्रान्तिकारी ‘मित्र-मेला’ के ही सदस्य थे। विनायक दामोदर सावरकर ने मेला पर एक कविता की रचना भी की थी, जो उन दिनों बड़ी आपत्तिजनक समझी गयी थी।
1906 ई० में बैरिस्टरी पढ़ने के लिए विनायक दामोदर सावरकर इंग्लैण्ड गये। इंग्लैण्ड में वे श्यामजी कृष्ण वर्मा के सम्पर्क में आये। उनके सम्पर्क में आने पर वे क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित हो गये, इंग्लैण्ड में क्रान्ति-ज्वाला जलाने लगे।
उन्होंने इंग्लैण्ड में ही ‘भारत का प्रथम स्वतंत्रता युद्ध’ नामक पुस्तक की रचना की। यह पुस्तक जब छपकर भारत में आई, तो जब्त कर ली गयी। कहा जाता है कि सावरकर की प्रेरणा से मदनलाल धींगरा ने कर्जन वायली की हत्या की थी। कर्जन वायली एक अंग्रेज अफसर था, जो भारत का बड़ा विरोधी था।
विनायक दामोदर सावरकर के इन कार्यों से भारत में उनके कुटुम्ब पर कड़ी दृष्टि रखी जाने लगी। गणेश दामोदर पर पहले से ही कड़ी दृष्टि रखी जाती थी। 1909 ई० में उन्होंने ‘लघु अभिनव भारत मेला’ के नाम से कुछ कविताओं का संग्रह प्रकाशित किया। कविताएं बड़ी ओजस्विनी थीं। सरकार की दृष्टि में कविताएं आपत्तिजनक थीं।
अतः गणेश दामोदर गिरफ्तार कर लिये गये उन पर मुकद्दमा चलाया गया। बम्बई हाई कोर्ट के एक महाराष्ट्रीय जज ने उनकी कविताओं पर टिप्पणी करते हुए कहा था- गणेश दामोदर की कविताएं प्रतीकात्मक हैं।
कविताओं में देवी-देवताओं का नाम लिया गया है, किन्तु वास्तव में देवी-देवताओं के नाम के बहाने अंग्रेजी सरकार को उलटने की प्रेरणा दी गई है। संग्रह की कविताओं का उद्देश्य है- चाहे जैसे भी हो, अंग्रेज सरकार को उलट दो।
बम्बई हाईकोर्ट के जजों की दृष्टि में वे कविताएं इतनी भयानक समझी गई थीं कि उनकी रचना और उनके प्रकाशन के लिए ही गणेश दामोदर को कालेपानी की सजा दी गई। गणेश दामोदर सावरकर का जीवन परिचय
नीचे की अदालत के जिस जज ने गणेश दामोदर को सेशन सुपुर्द किया था, उसका नाम जैक्सन था। इंग्लैण्ड में जब विनायक दामोदर के कानों में इस फैसले की खबर पड़ी, तो उन्होंने इंडिया हाउस की एक सभा में ओजस्वी भाषण देते हुए कहा था- जैक्सन से अवश्य बदला लिया जायेगा।
उन्हीं दिनों वीर सावरकर को पेरिस से कुछ पिस्तौलें और कारतूस प्राप्त हुई। सावरकर ने उन पिस्तौलों और कारतूसों को चतुर्भुज अमीन नामक एक व्यक्ति द्वारा अपने भाई के पास भेज दिया गणेश सावरकर ने अपनी गिरफ्तारी के पूर्व उन पिस्तौलों और कारतूसों को मित्र- मेला के सदस्यों में वितरित कर दिया था।
जिन दिनों गणेश सावरकर को सेशन सुपुर्द किया गया, उन्हीं दिनों औरंगाबाद के एक युवक ने जैक्सन की हत्या कर दी। कहा जाता है, जिस पिस्तौल से जैक्सन की हत्या की गई थी, वह उन्हीं पिस्तौलों में से एक थी, जिन्हें सावरकर ने चतुर्भुज अमीन के द्वारा अपने बड़े भाई के पास भेजा था।
इन सब घटनाओं से पता चलता है कि गणेश सावरकर सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी थे और उनका कई घटनाओं से सम्बन्ध था। उनके मुकद्दमे के फैसले में उन घटनाओं को भी आधार बनाया गया था।
गणेश सावरकर को काले पानी का दंड भोगने के लिए अंडमान भेज दिया गया। कारागार में उनके साथ बड़ी कठोरता का बर्ताव किया जाता था। उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी जाती थीं किन्तु वे उन सभी यातनाओं को बड़ी वीरता और साहस से सहन किया करते थे।
कुछ दिनों के पश्चात् वीर सावरकर को भी कालेपानी की सजा देकर अंडमान भेज दिया गया। दोनों भाई एक ही कारागार में रहते थे। किन्तु उन्हें आपस में मिलने नहीं दिया जाता था। दोनों भाइयों को आजन्म कालेपानी की सजा दी गई थी।
जिन दिनों दोनों भाई आजन्म कालेपानी की सजा काट रहे थे, उनके घर को आर्थिक दशा बड़ी शोचनीय थी। गिरफ्तारी के पूर्व ही गणेश सावरकर का विवाह हो चुका था। उनकी पत्नी जब कारागार के पते से पत्र भेजती थी, तो वह पत्र भी गणेश सावरकर को नहीं दिया जाता था।
यद्यपि गणेश सावरकर को आजीवन कालेपानी का दंड दिया गया था, किन्तु वे बीच में ही छोड़ दिये गये। वीर सावरकर को उनकी रिहाई के कई वर्षों पश्चात् छोड़ा गया था। कारागार से छूटने के पश्चात् गणेश सावरकर के विचारों में परिवर्तन हो गया। वे क्रान्तिकारी कार्यों को छोड़कर हिन्दू संगठन के कार्यों में लग गये। वे तपस्वी का
सा जीवन व्यतीत करते थे और हिन्दुओं को एकता के सूत्र में बांधने का प्रयत्न किया करते थे। उनका कहना था कि हिन्दुओं के संगठन से ही देश की एकता और अखंडता की रक्षा हो सकती है। गणेश सावरकर 1966 ई० तक धरती पर रहे। वे जब तक धरती पर रहे बी कर्मठता के साथ देश और जाति की सेवा में लगे रहे। उनकी सेवाओं ने उन्हें वन्दनीय ही नहीं, अमर भी बना दिया है।
सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी यशपाल जी ने गणेश सावरकर के सम्बन्ध में एक सस्मरण लिखा है। उन्होंने अपने उस संस्मरण में ऐसी बातों का उल्लेख किया है, जिनसे गणेश सावरकर के क्रान्तिकारी जीवन पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। अतः हम यहां उनके संस्मरण के महत्त्वपूर्ण अंश उद्धृत कर रहे हैं।
उन दिनों प्रसिद्ध क्रान्तिकारी बैरिस्टर सावरकर के बड़े भाई ‘बाबा’ दिल्ली आकर ‘वीर अर्जुन’ पत्र के कार्यालय में ठहरे हुए थे। एक समय सावरकर बंधु देश की स्वतंत्रता के लिए क्रान्ति के आन्दोलन के नेता ही नहीं, बल्कि प्रवर्तक थे, परन्तु उन दिनों उनका कार्य क्षेत्र हिन्दू महासभा बन चुका था। वे हिन्दू महासभा के काम से ही दिल्ली आये थे।
लड़कपन में सावरकर बन्धुओं के कार्य और साहित्य का प्रभाव मुझ पर कितना गहरा था, यह अनुमान कर सकने के लिए एक ही बात काफी है कि पच्चीस वर्ष पूर्व उनकी लिखी पुस्तक ‘अंडमान की गूंज’ के अनेक भावपूर्ण वाक्य मुझे आज भी याद आते रहते हैं। हम लोगों की सावरकर बन्धुओं के प्रति इतनी श्रद्धा थी कि उनका दर्शन करने का अवसर हम चूकना नहीं चाहते थे।
सावरकर हिन्दू महासभा का काम अपना चुके थे, परन्तु हमें विश्वास है कि हमारे उद्देश्य में उनसे सहायता अवश्य मिलेगी। मैं और भगवती भाई एक साथ उनसे मिलने गये। साधारणतः मुझे किसी महापुरुष के चरण छूने की इच्छा नहीं होती।
गांधी जी से भेंट होने पर मुझे ऐसी इच्छा नहीं हुई। परन्तु याद है कि हम दोनों ने ही ‘बाबा’ के चरण छूकर अभिवादन किया था और निशंक अपना वास्तविक परिचय देकर अपने उद्देश्य में सहायता मांगी थी। बाबा ने हमें निराश भी नहीं किया। उन्होंने हम लोगों को कुछ दिन बाद उनके दक्षिण में रहने पर वहां मिलने का परामर्श दिया।
बाबा के परामर्श के अनुसार मैं बम्बई गया। उनके बताये पते पर धोबी तालाब में सावरकर बन्धुओं में सबसे छोटे बाल सावरकर डेण्डिस्ट को खोजकर बाबा का संदेश देकर उनका पता पूछा। प्रसिद्ध क्रान्तिकारी नेता बैरिस्टर सावरकर तब रत्नागिरि में नजरबंद थे। जांच-पड़ताल हुए बिना उनसे मिलने की आज्ञा न मिल सकती थी। सबसे बड़े भाई बाबा अकोला में थे। सावरकर बन्धुओं के राजनीतिक कार्यक्रम का नेतृत्व वे ही कर रहे थे।
अकोला में बाबा एक छोटे-से मकान की दूसरी मंजिल में, किनारे की एक छोटी-सी कोठरी में बैठे थे। कोठरी में मेज, कुर्सी या खाट नहीं थी, फर्श पर एक होल्डाल में उनका काले कम्बल का बिस्तर लगा हुआ था।
जैसे रेल के प्लेटफार्म पर कुछ समय आराम कर रहे हों। बिस्तर के समीप बिना ढक्कन का एक पैकिंग का खाली बक्सा आड़ा रखा हुआ था। कुछ पुस्तकों और थोड़े-से सामान के लिए यह बक्सा शेल्फ का काम दे रहा था। इसी कोठरी में दूसरी ओर खूब उजले मंजे हुए पीतल के बर्तन में जल रखा था।
दिसम्बर का आरंभ था, आकाश में कुछ बदली थी। मैं रात गाड़ी में बिताकर लगभग सात बजे सुबह बाबा के यहां पहुंचा था। कुछ सर्दी मालूम हो रही थी। बाबा एक रूईदार मिर्जई पहने थे। मिर्जई का रंग कत्थई था।
बटनों की जगह तनियां लगी हुई थीं। बाबा बिस्तर पर धोती पहने हुए बैठे थे। उनके बिस्तर के ऊपर दीवार पर कील से उनकी पूरी और विचित्र पोशाक लटकी हुई थी। यह थी एक जोधपुरी बिरजिस और काली टोपी।
बिस्तर के पायताने कुछ अन्तर से झड़ा-पुंछा खूब मोटा और भारी, देशी चमरौधा जूते का जोड़ा पड़ा था। तनीदार मिर्जई, खाकी जीन की चुस्त बिरजिस, चमरौधा जूता और काली टोपी के पंचमेल की ओर ध्यान जाये बिना न रहा।
बाबा ने बहुत वत्सल भाव से मेरा स्वागत किया। अपने बिस्तर के समीप ही मेरे बैठने के लिए बिस्तर लगा दिया। पहुंचते ही गरम पानी से हाथ-मुंह धुलवाकर गरम चाय पिलाई और बैठने पर कम्बल ओढ़ा दिया। वे स्वयं केवल रूईदार मिर्जई पहने, बिना कुछ ओढ़े, मेरुदंड को सीधा किये बैठे थे।
उस समय भी उनकी आयु मेरा अनुमान है, पचास से क्या कम रही होगी? सर्दी कुछ जरूर थी, परन्तु बाबा (गणेश दामोदर सावरकर का जीवन परिचय) के कम्बल न लिए रहने पर मुझे केवल ओढ़ने में संकोच हुआ। बाबा ने आग्रह किया- “नहीं, नहीं। तुम सफर से आये हो, सर्दी ज्यादा है, ढक-ओढ़कर बैठना चाहिए।” भोजन के समय भी उन्होंने वैसे ही आग्रह और ध्यान से भोजन कराया।
उस दिन बदली और सर्दी तो थी ही, बाबा को जुकाम भी था। घर की महिला प्रति दो-ढाई घंटे के बाद कांसे या पीतल की कटोरी में रखे गिलास में उनके लिए चाय ले आती थीं। बाबा कटोरी-गिलास मेरी ओर बढ़ा देते। मेरे ना-ना करने पर भी यह पेय मुझे पीना ही पड़ता। बाबा अपने लिए और मंगवा लेते। इस पेय का स्वाद चाय जैसा था। पूछने पर बाबा ने स्वीकार किया-“यह चाय तुलसी की पत्ती और अदरक की है, चाय पत्ती की नहीं।”
मेरा अनुमान था कि बाबा जुकाम के उपचार के लिए ऐसी चाय पी रहे हैं, परन्तु उन्होंने बताया- सदा ही वे ऐसी चाय पीते हैं और वही गुणकारी भी होती है। कुछ संकोच से पूछा- “गुण और उपयोगिता के विचार से ही ऐसी चाय पीते हैं या चाय को विदेशी रिवाज मानकर उसके प्रति विरक्ति है?”
मेरे इस प्रश्न का कारण बाबा की विचित्र पोशाक भी थी। मुझे ऐसा जान पड़ कि सैनिक चुस्ती, मुस्तैदी के साथ-साथ इस देश का पुराना रंग-रूप बनाये रहा रखने के लिए भी बाबा का विशेष आग्रह था। इस बात का एक और भी प्रमाण देखा था। दोपहर के समय उनके उत्साही नवयुवक शिष्यों की एक मंडली अपनी व्यायामशाला की बात उन्हें सुना रही थी। बात मराठी में होने पर भी मैं समझ पा रहा था कि किसी फुटबाल के मैच का जिक्र है।
एकान्त पाते ही शस्त्रों, धन और सम्बन्धों के लिए सहायता का अनुरोध उनसे किया। दिल्ली में हुई बातचीत के आधार पर बाबा मेरे आने का कारण जानते ही थे। मेरे अनुरोध से असहमति प्रकट न कर उन्होंने अपने कार्यक्रम या दृष्टिकोण की
व्याख्या करते हुए समझाया- “विदेशी दासता से राष्ट्र को मुक्त कराना हमारा उद्देश्य है। राष्ट्र की मुक्ति का उद्देश्य अपनी राष्ट्रीयता की उन्नति और रक्षा करना ही है। अंग्रेजी शासन के अतिरिक्त देश में दूसरा भी हमारा एक राष्ट्रीय शत्रु है, जो हमारी राष्ट्रीय एकता का विरोधी है और अंग्रेज के पक्ष में होकर हमारे स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रयत्नों को विफल कर देता है। यह है मुसलमानों की अपने आप को देश के हिन्दू जन-समुदाय और देश की परम्परागत संस्कृति से पृथक् समझने की भावना।
मेरे मौन को बाबा (गणेश दामोदर सावरकर का जीवन परिचय) ने सम्भवतः मेरी सहमति का ही संकेत समझा। वे बोले, “इस समय राष्ट्र के लिए सबसे अधिक घातक है, जिन्ना के नेतृत्व में मुसलमानों की भारतीय राष्ट्रीयता का विरोध कर राष्ट्र में दूसरा राष्ट्र बनाने की नीति। जिन्ना इस नीति का प्रतीक और प्रतिनिधि है।
यदि आप लोग इस व्यक्ति को समाप्त कर देने की जिम्मेदारी लें, तो स्वतंत्रता प्राप्ति के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा दूर हो सकेगी। इसके लिए हम पचास हजार रुपये तक का प्रबन्ध करने की जिम्मेदारी ले सकते हैं। इनकी मृत्यु 16 मार्च 1945 को हुई थी।
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