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गणेश प्रसाद का जीवन परिचय? गणेश प्रसाद की खोज क्या है?

गणेश प्रसाद का जीवन परिचय: उनका जन्म 15 नवम्बर, सन् 1876 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में हुआ। उनके पिता मुंशी रामगोपाल लाल, बलिया के प्रसिद्ध कानूनगो थे। उनके दादा एवं परदादा भी इसी पद पर रहे। गणेश की माता जी उनके जन्म के दूसरे वर्ष ही चल बसीं अतः पिता ने दूसरा विवाह कर लिया। सौतेली माता ने गणेश को अपने पुत्रों से भी बढ़ कर ही स्नेह दिया परंतु वे स्वभाव से ही संकोची व एकांतप्रिय थे।

गणेश प्रसाद का जीवन परिचय

गणेश-प्रसाद-का-जीवन-परिचय

Dr. Ganesh Prasad Biography in Hindi

भारतीय गणितज्ञों की सूची में डॉ. गणेश प्रसाद का नाम विशेष आदर से लिया जाता है। कलियुग में भी उनके जैसे स्पष्टवादी, सादगी पसंद व मितव्ययी व्यक्ति यदा-कदा जन्म लेते हैं। गणित के क्षेत्र में उनके द्वारा किए गए स्वतंत्र अनुसंधान कार्य को भुलाया नहीं जा सकता।

डॉ. गणेश प्रसाद के द्वारा किये गये आविष्कार

S.No आविष्कार
1.ताप के गुण व परमाणुओं पर उसका प्रभाव (लेख)
2.मैथेमेटिकल सोसायटी की स्थापना
3.अनेक गवेषणात्मक लेख व पुस्तकें पाठ्यक्रम में सम्मिलित

उनकी प्रारंभिक शिक्षा बलिया की प्राइमरी पाठशाला में हुई। कहते हैं कि वे पाँचवी कक्षा में गणित में अनुत्तीर्ण होने के कारण ही फेल हो गए थे। बस उस दिन के बाद तो गणित ही मानो उनका जीवन हो गया। उन्होंने उसी विषय के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया।

उन्होंने कड़ा परिश्रम किया और ऐंट्रेंस की परीक्षा में पहला स्थान पाया। इसी परीक्षा परिणाम के कारण उन्हें सरकार द्वारा छात्रवृत्ति भी दी गई। हाई स्कूल के पश्चात् उन्होंने प्रयाग के म्योर सैंट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया।

उनका विवाह शाहबाद के मुंशी डोमनलाल की पुत्री नंदकुमारी के साथ हुआ। उस समय उनकी आयु केवल नौ वर्ष थी। जब वे कॉलेज में थे तो उनके यहाँ एक पुत्री ने जन्म लिया। तब वे सोलह वर्ष के हो चले थे। दुर्भाग्यवश उनकी पत्नी प्रसूति में ही चल बसीं।

आत्मीय जन के लाख अनुरोध करने पर भी गणेश ने दूसरे विवाह की हामी नहीं भरी। उन्होंने नवजात पुत्री कृष्णकुमारी के पालन-पोषण व गणित की पढ़ाई में ही अपने को रमा लिया था। परन्तु कृष्णकुमारी भी एक दिन पिता को बिलखता छोड़ चल दी। जीवन में पत्नी व संतान को खो देने के बाद गणित का अनुसंधान ही उनके जीवन का प्रमुख लक्ष्य हो गया।

गणित विषय में एम.ए. करने के पश्चात् उन्होंने डी.एस.सी. डाक्टरी की परीक्षा देने का विचार बनाया। न तो इस परीक्षा में कभी कोई विद्यार्थी बैठा था और न ही इसके लिए कोई कोर्स आदि था। गणेश प्रसाद का जीवट भी कुछ कम न था। उन्होंने लगातार संबंधित अधिकारियों से मिल कर इस परीक्षा में बैठने की अनुमति ले ही ली। इस प्रकार वे प्रयाग विश्वविद्यालय से डी.एस.सी. की उपाधि पाने वाले प्रथम व्यक्ति कहलाए।

इसके पश्चात् वे कुछ समय तक तो इलाहाबाद में ही गणित की पढ़ाई करते रहे परंतु शीघ्र ही उन्हें सरकार ने कैम्ब्रिज में पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति प्रदान की और वे विदेश जा पहुँचे। वहाँ उनसे पहले ही उनका सुनाम पहुँच गया था। गणित के विख्यात प्रोफेसरों ने उनकी पीठ ठोकी

गुरुजन के प्रोत्साहन व प्रेरणा के बल पर गणेश प्रसाद गहन अध्ययन में डूब गए। ‘मैसेंजर ऑफ मैथेमैटिक्स’ नामक पत्रिका में जब उनका शोधपत्र प्रकाशित हुआ तो अन्य देशों में भी उनकी ख्याति पहुँच गई। “ताप के गुण व परमाणुओं पर उसका प्रभाव” नामक लेख की भी खूब सराहना हुई। उन्हें जर्मनी से भी निमंत्रण आने लगे।

कैम्ब्रिज की डिग्री लेकर वे जर्मनी के गाटिंजन नगर के विश्वविद्यालय में चले गए। वहाँ भी अनेक प्रतिभासंपन्न गणितज्ञों से मिलने व उनके साथ विचारों के आदान-प्रदान का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अपने विदेश प्रवास में गणेशप्रसाद ने अपनी भारतीयता को नहीं त्यागा। उनके आचार-विचार, व्यवहार व कार्यशैली में भारतीयता की स्पष्टता छाप थी।

भारत लौटने तक वे विदेश में बहुत लोकप्रियता अर्जित कर चुके थे। कैम्ब्रिज में ही उन्होंने मैथेमेटिकल सोसायटी व फिलासाफिकल सोसायटी में अनेक शोध पत्र पढ़े। अनेक वैज्ञानिक पत्रिकाओं में गवेषणात्मक लेख लिखने के अलावा उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखीं।

उन पुस्तकों को पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित किया गया। गणित विषय की पुस्तकों के साथ ही उन्होंने अंग्रेजी में “उन्नीसवीं शताब्दी के महान गणितज्ञ” शीर्षक से तीन ग्रंथ भी लिखे। जिनमें से तीसरे ग्रंथ को उनके मरणोपरांत प्रकाशित किया गया।

जब वे भारत लौटे तो म्योर सेंट्रल कॉलेज में गणित विषय के प्राध्यापक नियुक्त किए गए। तत्पश्चात् उन्हें बनारस भेजा गया। डॉ. गणेश प्रसाद ने सदा समय की पाबंदी का कड़ाई से पालन किया। कारण चाहे कोई भी हो वे उसे देरी का बहाना नहीं बनाते थे।

कहते हैं कि वे दो घोड़ों से जुती गाड़ी पर कॉलेज जाते परंतु उसके जरा-सा भी देर से आने पर वे पैदल ही चल देते थे। बनारस में वे गणित के एकमात्र प्रोफेसर थे परंतु गणित के लिए ऐसा प्रेम था कि चार कक्षाओं को प्रतिदिन गणित पढ़ाने पर भी वे थकते नहीं थे।

सन् 1910 में कलकत्ता की मैथेमेटीकल सोसायटी के अधिवेशन में उन्होंने अपना निबंध प्रस्तुत किया। सन् 1912 में दूसरा निबंध पढ़ा। कलकत्तावासी भी उनकी प्रतिभा से अनजान नहीं रहे। सन् 1914 में कलकत्ता विद्यालय के कुलपति ने उन्हें नवस्थापित विज्ञान कॉलेज में प्रयोगात्मक गणित का प्रोफेसर बनाने का प्रस्ताव रखा। चार वर्ष तक कलकत्ता में काम करने के पश्चात् डॉ. गणेश प्रसाद सन् 1918 में काशी विश्वविद्यालय के सेंट्रल हिन्दू कॉलेज के प्रिंसिपल बन कर लौट आए।

इस पद पर डॉ. गणेश प्रसाद के दायित्व दुगने हो गए। उन्होंने अध्यापन प्रणाली को नए सिरे से व्यवस्थित किया। गणित की प्रगति के लिए ‘मैथेमेटिकल सोसायटी’ की स्थापना की। अनेक समितियों व सभाओं की अध्यक्षता, कक्षाओं में अध्यापन कार्य व अन्य जिम्मेवारियाँ संभालते संभालते उनका शरीर अस्वस्थ हो गया। विवशता में डेढ़ वर्ष पश्चात् उन्हें प्रिंसिपल का पद त्यागना पड़ा।

तत्पश्चात् वे पुनः कलकत्ता विश्वविद्यालय में उच्च गणित के हार्डिज प्रोफेसर बनाए गए। यही स्थान मृत्युपर्यंत उनकी कर्मस्थली रहा। कलकत्ता में अध्यापन कार्य के दौरान भी उनका अनुसंधान कार्य निर्बाध गति से चलता रहा। उन्हें ‘कलकत्ता मैथेमेटिकल सोसायटी’ का सभापति बनाया गया। वे ‘एसोसिएशन फॉर कल्टीवेशन ऑफ साईस’ के उपसभापति भी रहे। सन् 1923 में उन्हें विधान सभा का स्वतंत्र सदस्य चुना गया।

लोगों ने उनकी सहृदयता व परदुखकातरता को पहचाना व पूरा सम्मान दिया। विश्वविद्यालयों की विभिन्न समितियों को प्रायः उनके अमूल्य सुझावों की आवश्यकता पड़ती रहती थी। इतनी व्यस्तता के बावजूद उन्होंने कभी भी इस विषय में टाल-मटोल नहीं की। सन् 1924 व 1925 ई. में उन्होंने ग्राम में अनिवार्य प्रारंभिक

शिक्षा नामक प्रस्ताव को पास कराने में बहुत सहायता की और सन् 1926 में उन्हीं प्रस्तावों के आधार पर कानून बनाया गया। उन्होंने अपनी दिवंगत पुत्री के नाम दो स्वर्णपदकों की घोषणा भी की-

  1. कृष्णाकुमारी देवी स्वर्ण पदक बी.ए. व बी.एस.सी. में गणित में सबसे अधिक अंक पाने वाले छात्र हेतु।
  2. कृष्णाकुमारी देवी स्वर्ण पदक एम. व एम.एस.सी. में गणित में सबसे अधिक व साठ प्रतिशत से अधिक अंक पाने वाले छात्र हेतु।

डा. गणेश प्रसाद का जीवन सादगी व संयम का प्रतिरूप रहा। यदि वे चाहते तो पत्नी की मृत्यु के पश्चात् दूसरा विवाह कर लेते परंतु उन्होंने उस दिन के पश्चात् स्त्रियों की तरफ नजर उठा कर भी नहीं देखा। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ ही उनके जीवन का मूल मंत्र था। आर्थिक रूप से दृढ़ होने पर भी उन्होंने अपनी आवश्यकताएं सीमित रखीं। उनके घर के द्वार अनुसंधान प्रिय छात्रों के लिए सदैव खुले रहते थे।

छात्रों को वे अपनी संतान के समान आदर देते। प्रायः निर्धन छात्रों की फीस आदि वे स्वयं भर देते। प्रतिभाशाली छात्रों को छात्रवृत्ति दिलाने में वे कोई कोर-कसर न रखते। गणित के छात्र तो मानो उनकी आँख का तारा थे। वे हर संभव प्रयास करते कि किसी भी कारण अनुसंधान प्रेमी छात्र अपने शोधकार्य से विमुख न होने पाए।

डॉ. साहब की प्रतिभा केवल गणित विषय तक ही सीमित न थी। धर्म व इतिहास भी उनके प्रिय विषय थे। उनके द्वारा दिए गए भाषणों में वाग्विदग्धता देखते ही बनती थी। विद्वजन उनकी जानकारी व ज्ञान को देख चकित रह जाते। इतने मानसिक परिश्रम के पश्चात् भी उनकी स्मरण शक्ति विलक्षण थी। प्रायः किसी भी विषय पर चर्चा करते समय वे विद्वानों के उद्धरण आदि दिया करते।

कर्तव्यपालन ही उनका धर्म था परंतु मृत्यु से करीब तीन वर्ष पूर्व उन्हें एक दुर्घटना का सामना करना पड़ा जिससे उन्हें अनुभव हुआ कि संसार में ईश्वरीय सत्ता भी है। हमें उसे अपने सुख में याद अवश्य करना चाहिए।

इसके अतिरिक्त उनका हिन्दी प्रेम भी विख्यात था। उनका मानना था कि अपने देश में उच्च स्तर की शिक्षा भी हिन्दी में दी जानी चाहिए क्योंकि हिन्दी हमारी मातृभाषा है। उन दिनों विश्वविद्यालयों में हिन्दी के प्राध्यापक को प्रोफेसर कहने की रीति न थी परंतु डॉ. गणेश प्रसाद हिन्दी के प्राध्यापकों को उनका उचित सम्मान दिलवा कर ही रहे और हिन्दी के प्राध्यापक भी प्रोफेसर कहे जाने लगे।

डॉ. गणेश प्रसाद ने गणित के क्षेत्र में जो योगदान दिया उसे यूरोप के गणिताचार्यों द्वारा भी सराहा गया। उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों में “ऑन दी कांस्टीट्यूशन ऑफ मैटर एंड एनालिटिकल थियोरीज़ ऑफ हीट” आज भी पाठयक्रम में शामिल की जाती है। आगरा विश्वविद्यालय की स्थापना में भी उनका योगदान अविस्मरणीय है।

सन् 1935, 9 मार्च का दिन उनके जीवन का अंतिम दिन था। उस दिन आगरा में यूनिवर्सिटी कौंसिल की बैठक थी। बैठक में उन्होंने विशेष रूप से भाग लिया क्योंकि उन्हें कानपुर के कृषि कॉलेज के दो छात्रों को बी.एस.सी. परीक्षा में बैठने की अनुमति दिलवानी थी। इस कार्य के पश्चात् उन्होंने परीक्षकों की नियुक्ति के विषय में भी अपने सुझाव प्रस्तुत किए।

विचार प्रस्तुत करने के पश्चात् वे अपने स्थान पर जा बैठे। अभीष्ट कार्यों को कर लेने का संतोष उनके मुख पर था परंतु वे पुनः उस कुर्सी से स्वयं उठ नहीं पाए। तत्काल उपचार के प्रबंध किए गए परंतु उनकी अंतिम घड़ी आ पहुँची थी। आगरा के थाम्पसन अस्पताल में संध्या समय मस्तिष्क पक्षाघात ने उनके प्राण ले लिए।

गणित के क्षेत्र में ही नहीं, एक सच्चे महामानव के रूप में भी डॉ. गणेश प्रसाद को सदैव स्मरण किया जाएग स्थापना हुई। दामोदर घाटी के लिए बनाई गई बहुमुखी योजना में भी उन्हीं का हाथ था।

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