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गोपीमोहन साहा का जीवन परिचय? गोपीमोहन साहा पर निबंध?

गोपीमोहन साहा का जीवन परिचय (Gopi Mohan Saha Ka Jeevan Parichay), गोपीमोहन साहा का जन्म बंगाल की धरती की गोद में हुआ था। उनके माता पिता कलकत्ते में रहते थे। कलकत्ते में ही उनकी बाल्यावस्था व्यतीत हुई थी और कलकत्ते में ही उनकी शिक्षा-दीक्षा भी हुई थी। ऊपर की पंक्तियों के अनुसार जिस मनुष्य के हृदय में अपने देश के लिए प्रेम नहीं होता, उसका हृदय पाषाण की भांति होता है। इसी बात को बंगला के एक प्रसिद्ध कवि ने अपनी एक कविता में इस तरह लिखा है- जिस मनुष्य के हृदय में देश का प्रेम जागृत नहीं होता, वह मनुष्य मनुष्य होते हुए पशु के समान होता है।

गोपीमोहन साहा का जीवन परिचय

गोपीमोहन-साहा-का-जीवन-परिचय

Gopi Mohan Saha Ka Jeevan Parichay

साहा ने इन दोनों कविताओं के विरुद्ध हृदय पाया था, अनमोल हृदय पाया था ऐसा हृदय पाया था, जिसमें देश के प्रेम का सागर उमड़ा करता था। बड़े-बड़े देशप्रेमी भी उनके देशप्रेम की प्रशंसा किया करते थे।

साहा क्रान्तिकारी थे। उनका अहिंसा में नहीं, हिंसा में विश्वास था। वे दिन में तो बड़ी कर्मठता के साथ अपने रास्ते पर चलते ही रहते थे, रात में निद्रावस्था में भी रह-रह कर चिल्ला उठते थे- मैंने उस अंग्रेज की हत्या की।

जब तक मैं अंग्रेजी शासन को मिटा नहीं दूंगा, संतोष की सांस नहीं लूंगा। साहा की निद्रावस्था की इन बातों को जो भी सुनता था, वह उन्हें उन्मत्त समझे बिना नहीं रहता था, किन्तु क्या वे उन्मत्त थे? नहीं, उनके मन में देश की स्वतंत्रता के अतिरिक्त और कुछ था ही नहीं। वे खाते पीते, सोते-जागते निरंतर स्वतंत्रता के ही ध्यान में डूबे रहते।

साहा बाल्यावस्था में ही बड़े निर्भीक स्वभाव के थे। वे किसी से भी डरते नहीं थे। निशाना भी खूब साधते थे। उनका निशाना अचूक होता था। वे बाल्यावस्था में ही देशभक्तों और क्रान्तिकारियों की कहानियों को प्रेम से पढ़ा करते थे।

साहा को अपने जीवन में देश के अतिरिक्त और किसी अन्य कार्य को करने का अवसर नहीं मिला। इसका कारण यह था कि किशोर वय में ही वे फांसी के तख्ते पर चढ़ गये थे। कहा जा सकता है कि उनका जन्म देश की स्वतंत्रता के लिए, फांसी के तख्ते पर चढ़ने के लिए ही हुआ था।

1922 ई० में जब असहयोग आन्दोलन बन्द हो गया, तो चारों ओर निराशा छा गई। गांधी जी ने तो सत्याग्रह बन्द कर दिया, किन्तु गोरी सरकार ने अपना दमन चक्र बन्द नहीं किया। सत्याग्रह के बन्द हो जाने पर वह ऐसे लोगों को बन्दी बना कर दंडित करने लगी, जिन्होंने असहयोग आन्दोलन की सहायता की थी या उस आन्दोलन में सम्मिलित हुए थे।

अंग्रेजी सरकार के दमन-चक्र से सारे देश में असंतोष की आग जल उठी। बंगाल का क्रान्तिकारी आन्दोलन उसी असंतोष का परिणाम था। अन्यान्य नगरों की भांति जब कलकत्ता में भी गिरफ्तारियां होने लगीं, तो क्रान्तिकारी जागरूक हो उठे। वे अपने को संगठित करके अंग्रेजी सरकार को उलटने का प्रयत्न करने लगे।

1923 ई० के अगस्त महीने में संखाई टोला के डाकखाने को लूटकर उसके पोस्टमास्टर की हत्या कर दी गई। 1923 में ही दिसम्बर के महीने में चटगांव में एक बहुत बड़ा डाका डाला गया। यह डाका डाकखाने के लोगों और क्रान्तिकारियों के ही द्वारा डाला गया था। इस तरह के कार्यों से क्रान्तिकारियों को जो धन प्राप्त होता था, उसे वे अस्त्र-शस्त्रों की खरीद और दल के संगठन के कार्यों में खर्च करते थे।

डाकखाने के लोग और डाके से सरकार के कान खड़े हो गये। वह कुपित होकर दमन-चक्र चलाने लगी। कई क्रान्तिकारी बन्दी बनाये गये। उनमें से कुछ को तो प्रमाण के अभाव में छोड़ दिया गया, कुछ लोगों को फांसी की सजाएं दी गई और कुछ लोगों को कारागार में बन्द कर दिया गया।

जिन लोगों को कारागार में बन्द किया गया था, उन्हें यातनाओं की आग में जलाया जाता था। भेद करने के उद्देश्य से उन्हें नग्न कर दिया जाता था। उन पर पाखाने से भरी बाल्टियां उंडेल दी जाती थीं और उन्हें बर्फ की सिल्लियों पर सुलाया जाता था। यह सभी पैशाचिक कार्य पुलिस कमिश्नर टेगर्ट की आज्ञा से किये जाते थे।

टेगर्ट देशभक्तों और क्रान्तिकारियों के साथ अत्याचार करने के लिए प्रसिद्ध था। उसने बहुत-से देशभक्तों को सजाएं दिलाई थीं और दर्जनों क्रान्तिकारी युवकों को फांसी की सजाएं भी दिलाई थीं। गालियां उसकी जुबान पर रहती थीं। वह बूटों की ठोकरें मारने में भी नहीं हिचकता था।

गोपीमोहन साहा कॉलेज में पढ़ते थे, पर क्रान्तिकारियों में सम्मिलित हो गये थे। उनके कानों में टेगर्ट के अत्याचारों की कहानियां बराबर पड़ा करती थीं। आखिर, उन्होंने क्षुब्ध होकर प्रतिज्ञा की कि वे टेगर्ट को यमलोक पहुंचा कर रहेंगे। अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए साहा उचित अवसर की खोज करने लगा।

टेगर्ट की हत्या साहा के मन पर छा गई थी। वे सोते-जागते टेगर्ट की हत्या के सम्बन्ध में ही सोच-विचार किया करते थे। रात में स्वप्न में भी टेगर्ट की हत्या को ही देखा करते थे। वे स्वप्न में कह उठते थे- क्या खूब, मैंने टेगर्ट पर ऐसी गोली मारी कि वह चित हो गया!

टेगर्ट का बंगला चौरंगी में था गोपीमोहन साहा जेब में भरी हुई पिस्तौल डाल कर उसके बंगले के आस-पास घूमा करते थे। वे इस बात के लिए अत्यधिक व्याकुल रहते थे कि कब अवसर प्राप्त हो और कब वे टेगर्ट की हत्या करके देश के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करें।

1924 ई० की 12 जनवरी की संध्या के बाद का समय था। गोपीमोहन साहा टेगर्ट के बंगले के पास छिपे हुए थे। सहसा उनकी दृष्टि एक अंग्रेज पर पड़ी, जो टेगर्ट के बंगले से निकल रहा था। उन्होंने अंधेरे में भ्रमवश सोचा, अवश्य यह टेगर्ट ही है। बस फिर क्या था, उन्होंने गोली चला दी। गोली छाती में लगी। वह अंग्रेज उसी जगह गिरकर प्राणशून्य हो गया।

साहा मन ही मन अतीव प्रसन्न हुए कि उन्होंने टेगर्ट का काम तमाम कर दिया, किन्तु क्या वह अंग्रेज सचमुच टेगर्ट ही था? नहीं, वह एक व्यापारी था। साहा को जब इस बात का पता चला, तो वे बहुत दुखी हुए, पर अब क्या हो सकता था? साहा घटनास्थल पर ही बन्दी बना लिये गये।

साहा पर मुकद्दमा चलाया गया। मुकद्दमे में उन्हें मृत्यु दंड दिया गया। उन्होंने मृत्यु का दंड सुन कर कहा था, “मुझे दुख है कि मेरे हाथों एक निरपराध मनुष्य की हत्या हुई। मैं तो उस टेगर्ट की हत्या करना चाहता था, जो मेरे देश का शत्रु है।

फांसी का दण्ड दिये जाने के पूर्व साहा को बड़ी निर्दयता के साथ यातनाओं की आग में जलाया गया था। कहा जाता है, भेद जानने के उद्देश्य से उन्हें बर्फ में गाड़ दिया गया था, किन्तु फिर भी वे हिमालय की भांति दृढ़ बने रहे।

1924 ई० की 9 मार्च का प्रातः काल था। कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कारागार में गोपीमोहन साहा को सूली पर चढ़ा दिया गया। उनका पंचभौतिक शरीर पंचतत्त्वों में मिल गया। किन्तु उनके यश का शरीर आज भी विद्यमान रहेगा। सदा विद्यमान रहेगा, क्योंकि देश की स्वतंत्रता के लिए प्राण देने वाला मनुष्य कभी नहीं मरता।

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