हमारा देश पर निबंध (Hamara Desh Par Nibandh), प्राचीन काल में हमारा देश बहुत बड़ा था। सम्राट अशोक ने इसका बहुत विस्तार कर दिया था। बर्मा, श्रीलंका, थाईलैण्ड इत्यादि देश भारत के अंग थे। सम्राट हर्षवर्धन के समय तक यह सुसंगठित होकर रहा। सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद इसका विघटन हुआ। देश छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया। राजाओं के आपसी मनमुटाव और अहंकार के कारण इस पर विटेशियों के हमले होते रहे और यह खूब लुटता रहा। अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के रूप में इसके दो टुकड़े कर दिये। पाकिस्तान से हमारे सम्बन्ध मधुर नहीं हैं।
हमारा देश पर निबंध

प्राकृतिक दशा
यदि देश के कर्णधार सच्चे हृदय से इसकी उन्नति में लग जायँ तो यह पहले जैसा धनी और शक्तिशाली हो सकता है। यहाँ की प्राकृतिक दशा बहुत अनुकूल है। एक अच्छे पहरेदार के समान हिमालय इसकी रक्षा करता है।
स्वदेश-प्रेम का उदय-स्वदेश-प्रेम पवित्र, उज्ज्वल और स्वार्थहीन हृदय में उत्पन्न होता है। जिस मनुष्य का मन जितना ही पवित्र और हृदय उज्ज्वल एवं स्वार्थहीन होगा, उस मनुष्य के हृदय में स्वदेश-प्रेम उतना ही अधिक होगा।
स्वदेश-प्रेम का यह अर्थ नहीं कि हम भारतमाता की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करते रहें या ‘भारतमाता की जय’ पुकारते रहें। देश के प्रति हमें अपना कर्तव्य भी पूरा करना चाहिए, तभी हमारा स्वदेश-प्रेम सच्चा कहलायेगा।
लोकमान्य बालगंगाधर, गोपालकृष्ण गोखले, महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, पं. जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, सीमान्त गांधी, रफीक अहमद किदवई, सरदार पटेल इत्यादि ऐसे ही पवित्र मन वाले और पवित्र हृदय वाले तथा स्वार्थ रहित व्यक्ति थे।
इन्होंने बिना किसी स्वार्थ के सब सुखों को छोड़कर देश-सेवा में अपने को लगा दिया था। इनसे भी बढ़कर क्रान्तिकारी स्वदेश प्रेमी थे। ये लोग प्राणों की तनिक भी चिन्ता न करके रात-दिन कष्ट सहते थे। हथियार बनाते थे तथा बम बनाते थे।
कभी-कभी बम फट जाता था। बम के फटने से या तो वे मर जाते थे या फिर अपंग हो जाते थे। सरदार भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, बी. के. दत्त, रामप्रसाद बिस्मिल, खुदीराम बोस इत्यादि ऐसे ही वीर थे, जिन्होंने अत्याचारी अंग्रेजों को देश से निकालने के लिए हँसते-हँसते फाँसी के तख्ते को चूम लिया या स्वयं अपना बलिदान कर दिया था।
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और सुभाषचन्द्र बोस भी कम स्वदेश-प्रेमी नहीं थे। आपने अत्याचारी अंग्रेजों को देश से निकालने के लिए सब सुखों को छोड़कर स्वदेश-प्रेम के लिए प्राणों का बलिदान कर दिया था।
कविवर जयशंकर प्रसाद ने इसी देश-प्रेम की भावना को अपनी कविता में निम्न प्रकार अंकित किया है
अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
स्वदेश-प्रेम मनुष्यों में ही नहीं पशु-पक्षियों में भी पाया जाता है। घोड़ा, गाय, कुत्ते इत्यादि को दूर ले जाकर कहीं भी छोड़ दो तो वह अपने घर पर आ जायेगा। पक्षी भी सायंकाल होने पर अपने-अपने घोंसलों में आ जाते हैं।
स्वदेश-प्रेम के अभाव में
जब देशवासियों में स्वदेश-प्रेम नष्ट हो जाता है, तब देश परतन्त्र हो जाता है और देश तब तक परतन्त्र रहता है, जब तक फिर देशवासियों में देश-प्रेम का उदय नहीं होता है। देश-प्रेम के न रहने पर महमूद गजनवी ने देश पर आक्रमण किया।
जयचन्द ने मुहम्मद गौरी को देश पर आक्रमण करने के लिए उत्साहित किया। देश सदियों परतन्त्र रहा। इस परतन्त्रता का कारण देशवासियों के हृदय में देश-प्रेम का न होना ही था।
उपसंहार
हमारा कर्तव्य-हमारा कर्तव्य है कि हम अपने देश की वस्तुओं से प्रेम करें तथा यहाँ की भूमि की रक्षा के लिए सदैव तैयार रहें। हम दीन-दुखियों की सेवा करें, देश की सम्पत्ति को अपनी सम्पत्ति समझकर उसकी रक्षा करें तथा भ्रष्टाचार से दूर रहें। हम बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह का विरोध करें तथा दहेज प्रथा दूर करने का पूरा-पूरा प्रयत्न करें। संक्षेप में ऐसा कोई काम न करें जिससे देश को कमजोर हो और इसकी उन्नति में बाधा आये।
यह भी पढ़े – मेरा विद्यालय पर निबंध? मेरा विद्यालय इन हिंदी?