हरगोविंद खुराना का जीवन परिचय (Dr. Har Gobind Khorana Ka Jeevan Parichay), डॉ. हरगोविंद खुराना का जन्म 9 जनवरी, 1922 को पंजाब के मुल्तान जिले रायपुर गाँव में हुआ। यह स्थान अब पाकिस्तान है। इनके पिता के गाँव के पटवारी थे। पटवारी को गाँव में खासा सम्मान मिलता है। अतः गाँव के दूसरे बच्चे इनके साथ खेलने में गर्व अनुभव करते थे। हरगोविंद का बचपन गाँव के सरल व भोले-भाले बच्चों के साथ बीता।
हरगोविंद खुराना का जीवन परिचय

नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. हरगोविंद खुराना ने कृत्रिम जीन्स के आविष्कार द्वारा चिकित्सा जगत को नया आयाम दिया। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि प्रत्येक व्यक्ति अपने अलग-अलग जीन्स के कारण ही एक-दूसरे से अलग होता है।
डॉ. हरगोविंद खुराना के द्वारा किये गये आविष्कार एवं खोजें
S. No | आविष्कार एवं खोजें |
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1. | कृत्रिम जीन्स का आविष्कार (नोबेल पुरस्कार विजेता) |
2. | दृष्टि एवं प्रकाश पर शोध कार्य |
गाँव की पाठशाला से ही उन्होंने पाँचवी कक्षा तक पढ़ाई की परंतु जब वे मुल्तान के डी०ए०वी० हाई स्कूल में पहुँचे तो अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई करनी पड़ी। हरगोविंद ने शीघ्र ही अपनी इस कमी को पूरा कर लिया और कक्षा के मेहनती छात्रों की सूची में आ गए।
दसवीं कक्षा तक आते-आते तो गणित व विज्ञान उनके प्रिय विषय हो गए थे। दसवीं के बोर्ड के इम्तहान में सर्वाधिक अंक लाने की होड़ में उन्होंने कठिन परिश्रम किया परंतु फिर भी एक छात्र उनसे बाजी मार ले गया। यह पता चलने पर हरगोविंद की आँखों से आँसू टपक पड़े।
सन् 1939 में उन्हें लाहौर के डी०ए०वी० कॉलेज में भर्ती करा दिया गया। हालांकि परिवार से इतना दूर रहना कष्टदायी था परंतु कुछ बनने की लालसा में हरगोविंद सभी बाधाएँ हँस-हँस कर पार करते गए।
21 वर्ष की आयु (हरगोविंद खुराना का जीवन परिचय) में उन्होंने बी०एस०सी० की परीक्षा उत्तीर्ण की। इस अवधि में हरगोविंद ने विज्ञान के साथ गहरा नाता जोड़ लिया था। प्रयोगशाला में प्रयोग करते समय उनकी लगन देखते ही बनती थी। वे प्रायः अपने मित्रों से कहते कि वे कुछ ऐसा अनुसंधान करना चाहते हैं जिससे सृष्टि के जटिल रहस्यों की गुत्थी सुलझाने में मदद मिले।
सन् 1945 में उन्होंने एम०एस०सी० की उपाधि प्राप्त की। रसायन शास्त्र में खोज के लिए भारत सरकार ने उन्हें छात्रवृत्ति प्रदान की ताकि वे विदेश जाकर अध्ययन कर सकें। लिवरपूल विश्वविद्यालय से उन्हें पी०एच०डी० की डिग्री मिली।
देश का विभाजन हुआ तो उनके परिवार को दिल्ली आना पड़ा। दिल्ली में उनकी माता व बड़े भाई को अनेक कष्ट उठाने पड़े। उनकी स्थाई व अचल संपत्ति तो लाहौर में ही छूट गई थी अतः दिल्ली में नए सिरे से बसना पड़ा। डॉ. हरगोविंद भी वापिस लौट आए। इस विभाजन से उन्हें गहरी चोट पहुँची थी। यहाँ पर उन्हें पता चला कि स्वतंत्र भारत की सरकार ने उनकी छात्रवृत्ति का एक वर्ष बढ़ा दिया था।
हरगोविंद बहुत समय से चाह रहे थे कि स्विट्जरलैण्ड जाकर कार्य करें और अब यह अवसर हाथ आ ही गया। वहाँ पहुँच कर उन्हें पता चला कि यदि वे ज्यूरिख से एक विशेष कोर्स कर लें तो अच्छे काम की संभावनाएँ बढ़ जाएंगी। एक वर्ष के कोर्स के पश्चात् जब उन्हें वास्तविकता का पता चला तो वे निराशा से भर उठे।
अब उन्हें यह चुनाव करना था कि वे लंदन जाएँ या फिर दिल्ली लौट आएँ। उनके भाई ने पत्र में लिखा “दिल्ली में भी काम की कमी नहीं रही। यदि तुम दिल्ली आ जाओ तो नेहरू जी से भेंट कर कोई राह निकाली जा सकती है। तुम्हें कोई-न-कोई उच्च पद अवश्य मिल जाएगा।”
हरगोविंद केवल उच्च पद की लालसा नहीं रखते थे। उनकी इच्छा थी कि कुछ ऐसा काम मिले जिसे करने के साथ-साथ वे अपना अनुसंधान कार्य भी पूरा कर पाएँ। उन दिनों भारत में ऐसी सुविधाएँ मिल पाना थोड़ा कठिन था अतः उन्होंने लंदन को ही कार्य क्षेत्र चुनने का निश्चय किया।
स्विटजरलैण्ड प्रवास के दौरान उनकी भेंट एक युवती से हुई। मित्रता प्रगाढ़ आत्मीयता में बदल गई। वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में न्यूफील्ड रिसर्च फैलो के रूप में अध्ययनरत रहे परंतु दोनों में पत्र व्यवहार चलता रहा। वह युवती भी विज्ञान की छात्रा थी अतः दोनों के विचारों में आश्चर्यजनक साम्य था ।
सन् 1950 में डॉ. हरगोविंद को नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक ए. टाड के साथ काम करने का अवसर प्राप्त हुआ। वे उन दिनों न्यूकलोटाइडस नामक मिश्रित जैविक पदार्थ पर अनुसंधानरत थे। डॉ. खुराना को भी इस कार्य में विशेष रुचि थी।
सन् 1952 में उन्हें सूचना मिली कि उन्हें वैंकुवर स्थित ब्रिटिश कोलम्बिया विश्वविद्यालय की ब्रिटिश कोलंबिया रिसर्च काउंसिल के आर्गेनिक रसायन शास्त्र विभाग का अध्यक्ष पद सौंपा जा रहा है। यह समाचार पाते ही उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा।
कनाडा जाने से पूर्व उन्होंने अपनी प्रेयसी को पत्नी बनाने का निर्णय ले लिया। उन्होंने भारत में अपने परिवारजन को सूचना दी कि वे एक विदेशी युवती से विवाह करना चाहते हैं। परिवार के सदस्य भी वहीं आ गए और डॉ. खुराना विवाह बंधन में बंध गए।
जब वे कनाडा पहुँचे तो नवविवाहिता पत्नी उनके साथ थी। अगले आने वाले आठ वर्ष उनके लिए बहुत महत्त्वपूर्ण थे। डॉ. खुराना ने को-एन्जाइम पर कार्य किया। डॉ. जान डी. मोफट उनके सहयोगी थे। इसी अनुसंधान के दौरान उन्होंने जीवन की ईकाईयों से संबंधित रसायनों की खोज पर भी ध्यान दिया। उनके लेख वैज्ञानिक पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित होते रहे और शीघ्र ही वे एक सफल वैज्ञानिक के रूप में जाने लगे।
सन् 1958 में उन्हें कैमिकल इंस्टीट्यूट ऑफ कनाडा की ओर से ‘मर्क अवार्ड’ प्रदान किया गया। यह पुरस्कार उन्हें जीवाणु रसायन विज्ञान तथा आर्गेनिक रसायन विज्ञान के क्षेत्र में योगदान देने के लिए दिया गया था। वे अनवरत अपने शोधकार्यों में जुटे रहे व सन् 1960 में उन्हें प्रोफेशन इंस्टीट्यूट ऑफ द पब्लिक सर्विस ऑफ कनाडा का स्वर्ण पदक भी दिया गया।
सन् 1960 में वे अमरीका चले गए और राक फैलर संस्थान से अतिथि प्रोफेसर के रूप में जुड़ गए। मैडीसन के विस्कोसिन विश्वविद्यालय ने उन्हें इंस्टीट्यूट ऑफ इंजाइम रिसर्च के प्राध्यापक व सहनिदेशक का पद सौंपा जिस पर वे करीब दस वर्ष तक रहे।
इसी संस्थान में डॉ. खुराना को अपना चिरसंचित स्वप्न पूर्ण करने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्होंने कृत्रिम जीन्स पर शोधकार्य आरंभ किया। न्यूक्लोराइडस के मिश्रण युक्त न्यूक्लिक एसिड को परखनली संश्लेषित करते समय उन्हें कृत्रिम जीन्स बनाने का विचार आया। जीन्स के सहयोग से ही जैव अणुओं की संरचना होती है। जीन्स के बिना जीवन असंभव है।
इन्हीं जीन्स के प्रभाववश माता-पिता व संतानों तथा भाई-बहनों के बीच समानता देखने को मिलती है सर्वप्रथम ग्रेगट मेण्डेल नामक वैज्ञानिक ने इस सिद्धांत की खोज की थी। उन्होंने अपना प्रयोग मटर के पौधे पर किया था।
डॉ. हरगोविंद खुराना ने हमें माता-पिता से संतान में पहुँचने वाले गुणों की जानकारी दी। आनुवंशिकी के क्षेत्र में उनका योगदान भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने कृत्रिम जीन्स का निर्माण कर पौधों की नस्लों को परिवर्तित व संशोषित करने की विधि खोज निकाली। उनकी धारणा है कि जीन्स में बदलाव द्वारा संतान के गुण-दोषों में भी मनचाहा बदलाव लाया जा सकता है।
सन् 1968 में उनका नाम नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया। नोबेल पुरस्कार पाना अपने आप में बहुत बड़ा गौरव है। डॉ. खुराना नोबेल पुरस्कार पाने वाले तीसरे भारतीय हैं। यह पुरस्कार पाते ही वे देश-विदेश में लोकप्रिय हो उठे।
भारत के कई विख्यात संस्थानों ने उन्हें अपने यहाँ आमंत्रित किया। डॉ. खुराना भारत आए और युवा वैज्ञानिकों को अपने विचार व सिद्धांतों से परिचित करवाया। उन्होंने बताया कि चिकित्सा विज्ञान में कृत्रिम जीन्स का विशेष महत्त्व है।
कैंसर, अस्थमा आदि अनेक जानलेवा रोगों की भी इनके बदलाव द्वारा रोकथाम की जा सकती है। ऐसे रोग जो वंश परंपरा से चले आ रहे हो उन पर काबू पाना कठिन नहीं रहा। मनुष्य को दीर्घायु बनाने में भी कृत्रिम जीन्स की मदद ली जा सकती है।
हाँ, यह भी अक्षरक्षः सत्य है कि जीन्स विज्ञान का दुरुपयोग भी हो सकता है। जिससे मानव जाति खतरे में पड़ सकती है परंतु दूसरी ओर इसके लाभों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता।
डॉ. खुराना को इस अनुसंधान कार्य के लिए अनेक पुरस्कार व सम्मान प्राप्त हुए। उन्हें नेशनल अकेडमी ऑफ सांइसेज कर सदस्य चुना गया। यह सम्मान अमरीका के विशिष्ट वैज्ञानिकों को ही प्रदान किया जाता है।
अस्सी वर्ष की आयु पार कर चुके डॉ. खुराना अब भी अपने अनुसंधान कार्यों से विमुख नहीं हुए। आजकल वे “दृष्टि एवं प्रकाश” पर विशेष रूप से शोधरत हैं। विज्ञान जगत उनकी सेवाओं का चिरऋणी रहेगा।
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