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हरिनाम सिंह का जीवन परिचय? हरिनाम सिंह पर निबंध?

हरिनाम सिंह का जीवन परिचय (Harinam Singh Ka Jeevan Parichay), हरिनाम सिंह का जन्म पंजाब के होशियारपुर जिले के साहरी नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम लाभसिंह था। वे खेती करते थे। घर में खाने-पीने की कमी नहीं थी। स्वतंत्रता की मंजिल पर पहुंचने के लिए हमने दो मार्ग ग्रहण किये थे। एक मार्ग तो वह था, जो अहिंसात्मक था और दूसरा मार्ग वह था, जो हिंसा पर आधारित था। अहिंसात्मक मार्ग के उद्घाटनकर्ता राष्ट्रपिता गांधी जी थे। हिंसा के मार्ग का उद्घाटन क्रान्तिकारियों के द्वारा हुआ था।

हरिनाम सिंह का जीवन परिचय

हरिनाम-सिंह-का-जीवन-परिचय

Harinam Singh Ka Jeevan Parichay

कुछ लोगों का कहना है कि भारत को स्वतंत्रता अहिंसा के मार्ग पर चलने से ही प्राप्त हुई, किन्तु हमारे विचार में यह कथन ठीक नहीं है। यदि इस कथन को सत्य मान लिया जाय, तो हम उन क्रान्तिकारियों के प्रति बहुत बड़ा अन्याय करेंगे, जो स्वतंत्रता के लिए जेलों में तो सड़े ही थे, फांसी के तख्ते पर भी झूल गये थे।

यदि समीक्षा की जाय, तो स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए जितना बलिदान क्रान्तिकारियों ने किया, उतना गांधी जी के मार्ग पर चलने वालों ने नहीं किया। यद्यपि हम दोनों के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करते हैं, किन्तु हम किसी के मोह में फंस कर क्रान्तिकारियों के बलिदानों को भूल जायें- यह हमसे कदापि नहीं हो सकता।

हरिनामसिंह सशस्त्र क्रान्ति के पक्षपाती थे। वे अंग्रेजों के शासन को अहिंसा के द्वारा नहीं हिंसा के द्वारा नष्ट करना चाहते थे। उनका सिद्धान्त था- तुम डाल-डाल, तो हम पात-पात ।

हरिनामसिंह की बाल्यावस्था प्यार और दुलार के वातावरण में व्यतीत हुई। वे जब कुछ बड़े हुए तो पढ़ने-लिखने लगे, किन्तु पढ़ाई-लिखाई में उनका मन नहीं लगता था। खेल-कूद और मार-धाड़ में उनकी अधिक रुचि थी। बड़ी कठिनाई से उन्होंने ” हाईस्कूल की परीक्षा पास की।

हाई स्कूल पास करने के पश्चात् हरिनामसिंह सेना में भर्ती हो गये। जिन दिनों वे सेना में थे, उन्हीं दिनों उनका परिचय बलवंतसिंह से हुआ। बलवंतसिंह एक कट्ट देशभक्त थे। उनके विचारों का प्रभाव हरिनामसिंह के हृदय पर भी पड़ा।

फलस्वरूप दो वर्ष के पश्चात् ही उन्होंने नौकरी छोड़ दी। वे नौकरी छोड़ कर घर पर रहने लगे। किन्तु घर पर बेकार रहना हरिनामसिंह को अच्छा नहीं लगता था। वे अपने और समाज के सम्बन्ध में बराबर सोच-विचार किया करते थे। उन्हें ऐसा प्रतीत होता था कि उनका जन्म किसी महान् कार्य के लिए हुआ है। जब तक वे उस कार्य में नहीं लगेंगे, उनके मन को शान्ति नहीं मिलेगी।

हरिनामसिंह उस महान् कार्य की खोज में लग गये, जिसे उन्होंने करना था। वे उस महान् कार्य की खोज में ही बर्मा चले गये। जब वर्मा में भी उनके मन को शान्ति प्राप्त नहीं हुई, तो वे हांगकांग चले गये। हांगकांग में उन्होंने ट्राम विभाग में नौकरी करं ली। उन दिनों हांगकांग में बहुत से ऐसे भारतीय रहते थे जिन्हें अमेरिका और कनाड़ा पहुंचने पर लौटा दिया गया था।

अमेरिका और कनाडा के अधिकारियों ने उन्हें विमान से उतरने ही नहीं दिया था। उनमें कितने ही ऐसे लोग भी थे, जिनके पास खाने-पीने तक के लिए कुछ भी नहीं था। हरिनामसिंह उनकी सब प्रकार से सहायता तो करते ही थे, उनका उत्साह भी बढ़ाया करते थे।

कनाडा से लौटे हुए भारतीय हरिनामसिंह को उन भारतीयों के दुःखों की कहानियां भी सुनाया करते थे, जो उन दिनों कनाडा में रहते थे। हरिनामसिंह उनकी दुःख भरी कहानियां सुन कर बड़े दुखी होते और सोचा करते थे, काश, वे कनाडा जाकर अपने देश-भाइयों की सेवा कर सकते! हरिनामसिंह के भन का दुःख जब अधिक बढ़ गया, वे कनाडा चले गये और विक्टोरिया में रहकर भारतीयों की सेवा करने लगे।

कनाडा में रहते हुए हरिनामसिंह ने अनुभव किया कि कनाडा और अमेरिका में अच्छा जीवन व्यतीत करने के लिए उच्च शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक है। अतः वे संयुक्त राज्य के सीयेटल नगर में जाकर ऊंची शिक्षा प्राप्त करने लगे। उन्होंने तीन वर्षों तक लगातार पढ़कर अच्छी शिक्षा प्राप्त की। फलतः उनका जीवन बदल गया, उनके मन में ऊंचे और अच्छे विचारों का समावेश हुआ।

हरिनामसिंह शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् पुनः विक्टोरिया चले गये। उन्होंने विक्टोरिया में कुछ भारतीयों के सहयोग से एक कम्पनी खोली। उस कम्पनी का नाम ‘इंडिया ट्रेडिंग कंपनी’ था। हरिनामसिंह ने एक अंग्रेज को उसका मैनेजर नियुक्त किया था। कंपनी का काम जब जोरों से चलने लगा और वह उन्नति की ओर बढ़ने लगी,

तो गोरे व्यापारियों का माथा ठनक उठा। वे कंपनी को हानि पहुंचाने का प्रयत्न करने लगे। जब कपट और बेईमानी से हानि पहुंचाने में सफल नहीं हुए, तो अंग्रेज मैनेजर को मिलाकर हानि पहुंचाने का कुचक्र रचने लगे।

हरिनामसिंह को जब इस कुचक्र का पता चला तो उन्होंने अंग्रेज मैनेजर को कार्यमुक्त कर दिया। फल यह हुआ कि गोरे व्यापारी हरिनामसिंह के विरोधी हो गये। वे उन्हें फंसाने के लिए कुचक्र तो रचने ही लगे, पग-पग पर उनके लिए संकट भी पैदा करने लगे।

निदान हरिनामसिंह अपने एक मित्र की सलाह से अमेरिका चले गये, पर कुछ दिनों पश्चात् पुनः कनाडा चले गये। कनाडा से उन्होंने एक पत्र निकाला जिसका नाम ‘दी हिन्दुस्तान’ था। उस पत्र के द्वारा वे कनाडा में रहने वाले भारतीयों में अधिक प्रसिद्ध हो गये। कनाडा के भारतीय उन्हें अपना नेता मानने लगे।

हरिनामसिंह के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर कनाडा सरकार के मन में उनके प्रति विष पैदा हो उठा। सरकार ने उन पर कई अभियोग लगाकर उन्हें आदेश दिया कि वे 48 घंटे के भीतर कनाडा छोड़ दें। उन पर जो अभियोग लगाये गये थे,

उनमें कुछ प्रमुख थे-(1) हरिनामसिंह बम बनाते हैं, (2) हरिनामसिंह भारत में अंग्रेजी शासन को उलटना चाहते हैं, और (3) हरिनामसिंह कनाडा में रहने वाले भारतीयों में अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह का प्रचार करते हैं। किन्तु एक अंग्रेज के प्रयत्न से हरिनामसिंह के निर्वासन का दंड रद्द हो गया। उस अंग्रेज का नाम कैमिस्बर्ग था।

वह संयुक्त राज्य अमेरिका में रहता था और हरिनामसिंह का मित्र था। हरिनामसिंह ने उसे तार द्वारा अपने निर्वासन की सूचना दी थी। उसने भी तार द्वारा ही कनाडा की सरकार से प्रार्थना की थी, कि हरिनामसिंह को कनाडा से बाहर न निकाला जाय। फलत: हरिनामसिंह के निर्वासन की आज्ञा वापस ले ली गई।

कैमिस्वर्ग स्वयं ही कनाडा गया। वह हरिनामसिंह को अपने साथ अमेरिका ले गया। उन्होंने अमेरिका में पुनः पढ़ाई की ओर ध्यान दिया और बर्कले विश्वविद्यालय में पढ़कर ऊंची उपाधि प्राप्त की।

वर्कले विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए हरिनामसिंह ‘गदर’ में भारत की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में लेख लिखा करते थे। ‘गदर’ अखबार गदर पार्टी के द्वारा निकाला जाता था जो कई भाषाओं में छपता था। उन्हीं दिनों हरिनामसिंह के दो साथी भारत में बमकांड के सम्बन्ध में गिरफ्तार किये गये थे। उनके नाम दिलीपसिंह और गुरुदत्तसिंह थे।

इन्हीं दिनों कोमांगाटामारू जहाज भी अमरीकी बन्दरगाह पर पहुंचा। अमरीकी सरकार के अधिकारियों ने जहाज के यात्रियों को तट पर उतरने से रोक दिया। फलतः जहाज के यात्री बड़ी कठिनाइयों में पड़ गये। हरिनामसिंह ने अमरीकी सरकार के इस कार्य का विरोध तो किया ही, संकट में फंसे यात्रियों की पर्याप्त सेवा भी की।

फलस्वरूप अमरीकी सरकार ने हरिनामसिंह को बन्दी बना लिया और उन्हें आदेश दिया कि वे अमेरिका छोड़कर चले जायें। अतः हरिनामसिंह अमेरिका छोड़ कर भारत के लिए चल पड़े। वे भारत पहुंचने के पूर्व चीन, जापान, स्याम और मंगोलिया आदि देशों में गये। इन सभी देशों में हरिनामसिंह ने गदर पार्टी के कार्यों का प्रचार किया। वे जहां भी गये, उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में सहानुभूति प्राप्त करने का प्रयत्न किया।

हरिनामसिंह भारत न आकर मांडले चले गये। उन दिनों मांडले ब्रिटिश शासन के ही अंतर्गत था। मांडले पहुंचते ही हरिनामसिंह अंग्रेज सरकार के द्वारा गिरफ्तार कर लिये गये।

हरिनामसिंह पर राजद्रोह का मुकद्दमा चलाया गया। मुकद्दमे में उन्हें फांसी की सजा दी गई। फांसी की सजा देने के पहले उन्हें कारागार में रखा गया किन्तु वे किसी प्रकार भाग निकले और भारत आ पहुंचे। भारत में पुनः बन्दी बना लिये गये। करतारसिंह सराबा के साथ उन पर भी मुकद्दमा चलाया गया। उन्हें फांसी की सजा दी गई. वे देश के लिए मिट कर भी अमिट बन गये।

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