हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय:- हिन्दी के मूर्धन्य गद्यकारों में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की गणना होती है। इनका जन्म सन् 1907 ई० में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के ‘दूबे का छपरा’ गाँव में हुआ था। इन्होंने आजीवन साहित्य-साधना में लगे रहकर हिन्दी-साहित्य को अनेक उत्कृष्ट कृतियाँ प्रदान की। उपन्यास एवं निबन्ध विधाओं में इन्हें विशेषता सफलता प्राप्त हुई।
हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय

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Hazari Prasad Dwivedi Biography In Hindi
नाम | हजारी प्रसाद द्विवेदी |
जन्म | सन् 1907 ई० |
जन्म स्थल | उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में ‘दूबे का छपरा’ ग्राम में |
मृत्यु | 17 मई, 1971 ई० |
पिता | श्री अनमोल द्विवेदी |
माता | श्रीमती ज्योतिकली देवी |
कार्यक्षेत्र | अध्यापक, लेखक, सम्पादक |
सम्मान | पद्मभूषण, मंगला प्रसाद पारितोषिक |
उपन्यास | उपन्यास |
निबन्ध | ‘अशोक के फूल’, ‘कुटज’, ‘विचार और वितर्क’, ‘कल्पलता’, ‘साहित्य के साथी’, ‘आलोक पर्व’ आदि। |
आलोचना | ‘सूर साहित्य’, ‘कबीर’, ‘सूरदास और उनका काव्य’, ‘हिन्दी-साहित्य की भूमिका’, ‘नाथ सम्प्रदाय’, ‘हमारी साहित्यिक समस्याएँ’, ‘साहित्य समीक्षा’, ‘कालिदास की लालित्य योजना’, ‘हिन्दी-साहित्य आदिकाल का नख -दर्पण में हिन्दी-कविता’, ‘साहित्य का मर्म, ‘भारतीय वाङ्मय’, ‘साहित्य-सहचर’ आदि। |
शोध साहित्य | ‘मध्यकालीन धर्म-साधना’, ‘हिन्दी सिद्ध साहित्य’, ‘जैन साहित्य’, ‘अपभ्रंश ‘साहित्य’, ‘नाथ सम्प्रदाय’ आदि। |
सम्पादित साहित्य | ‘संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो’, ‘नाथ-सिद्धों की बानियाँ’, ‘प्रबन्ध कोश’ आदि। |
हिन्दी साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान
हिन्दी साहित्य में इनके महत्त्वपूर्ण योगदान को रेखांकित करते हुए डॉ० द्वारिकाप्रसाद (हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय) सक्सेना ने कहा है कि “डॉ० द्विवेदी अपने अद्भुत रचना-कौशल, विविध विचार-प्रदर्शन एवं अनुपम अभिव्यंजना-वैविध्य के कारण साहित्य के क्षेत्र में मूर्धन्य स्थान के अधिकारी हैं।” आचार्य द्विवेदीजी के पिता का नाम पं० अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिकली था। इनके पिता ज्योतिष विद्या के महान्, ज्ञाता थे; अतः वे अपने पुत्र को भी ज्योतिषाचार्य बनाना चाहते थे।
हजारी प्रसाद द्विवेदी की शिक्षा (Hazari Prasad Dwivedi Education)
इनकी शिक्षा का प्रारम्भ संस्कृत से हुआ। इन्होंने अपने पिता की इच्छानुसार इण्टर करने के उपरान्त काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से ज्योतिष तथा साहित्य में आचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन् 1940 ई० में ये हिन्दी एवं संस्कृत के अध्यापक के रूप में शान्तिनिकेतन गये। वहाँ अनेक वर्षों तक कार्य करते हुए ये गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के निकट सम्पर्क में आ गये। तदुपरान्त ये काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यक्ष नियुक्त हुए। कुछ समय तक आपने पंजाब विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया।
हजारी प्रसाद द्विवेदी को मिले पुरस्कार
द्विवेदीजी की साहित्य-सेवा के परिणामस्वरूप सन् १९४६ ई० में लखनऊ विश्वविद्यालय ने इन्हें डी० लिट्० की मानद उपाधि से सम्मानित किया और भारत सरकार ने सन् 1957 ई० में पद्मभूषण का अलंकरण प्रदान किया। इन्हें इनकी आलोचनात्मक कृति ‘कबीर’ पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक भी प्रदान किया गया। ‘सूर साहित्य’ की आलोचना पर इन्हें इन्दौर साहित्य समिति ने स्वर्णपदक देकर सम्मानित किया। द्विवेदीजी की साहित्य-चेतना निरन्तर जाग्रत रही और वे आजीवन साहित्य-सृजन में लगे रहे। रुग्णावस्था के कारण इनका 72 वर्ष की आयु में अस्वस्थता के कारण 19 मई, सन् 1979 ई० को देहावसान हो गया। द्विवेदीजी उच्चकोटि के निबन्धकार, उपन्यासकार, आलोचक, चिन्तक तथा ओधकर्ता थे।
बाल्यकाल में ही इन्होंने व्योमकेश शास्त्री से कविता लिखने की कला सीखनी आरम्भ की। शनै: शनै: इनकी साहित्यिक प्रतिभा विलक्षणता को प्राप्त होने लगी। कवीन्द्र रवीन्द्र और बांग्ला के साहित्य का इनके साहित्य पर अत्यधिक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। सिद्ध साहित्य, जैन साहित्य, अपयश साहित्य एवं भक्ति-साहित्य को अपनी आलोचनात्मक दृष्टि से आलोकित करके इन्होंने इन साहित्यों का बड़ा उपकार किया।
हजारी प्रसाद द्विवेदी की भाषा शैली
भाषा
आचार्य द्विवेदी ने सरल, सुस्थिर, संयत एवं बोधगम्य भाषा का प्रयोग किया है। सामान्यतः वे तत्सम प्रधान शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग करते हैं। भाव और विषय के अनुसार इनकी भाषा का रूप बदलता रहता है। उन्होंने निबन्धों की भाषा में संस्कृत शब्दों को ही प्राथमिकता दी है। संस्कृत शब्दावली की प्रचुरता के कारण कहीं-कहीं क्लिष्टता भी आ गयी है सामान्यतः उसमें स्पष्टता और प्रवाह बना रहा है। द्विवेदी जी ने व्यावहारिक भाषा का प्रयोग भी किया है, जिसमें उर्दू, अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों का प्रयोग है। इनकी भाषा में ‘देशज’ और ‘स्थानीय’ बोलचाल के शब्दों का भी प्रयोग है तथा मुहावरों का कम ही प्रयोग हुआ है।
शैली
द्विवेदी जी एक महान शैलीकार थे। उनकी शैली में विभिन्नता एवं विविधता है। उनकी शैली चुस्त और गठी हुई है। द्विवेदी जी के साहित्य को शैली की दृष्टि से हम निम्नलिखित रूपों में विभाजित कर सकते हैं।
गवेषणात्मक शैली
यह द्विवेदी जी की प्रतिनिधि शैली है। उनकी आलोचनात्मक एवं विचारात्मक रचनाएँ इस शैली में लिखी गयी है। इनमें स्वाभाविकता के सर्वत्र दर्शन होते हैं। इस शैली में उनकी संस्कृतनिष्ठ प्रांजल भाषा की प्रधानता रही है।
आलोचनात्मक शैली
आलोचनात्मक रचनाएँ तथा ‘कबीर’, ‘सूर साहित्य’ जैसी व्यावहारिक आलोचना की रचनाएँ इस शैली में है। इस शैली की भाषा संस्कृत-प्रधान और स्पष्टवादिता से पूर्ण है।
भावात्मक शैली
इस शैली का प्रयोग द्विवेदी जी ने वैयक्तिक और ललित निबन्धों में किया है। भावुकता, माधुर्य और प्रवाह शैली की विशेषताएं हैं।
व्यंग्यात्मक शैली
द्विवेदी जी के निबन्धों में व्यंग्यात्मक शैली का बहुत ही सुन्दर और सफल प्रयोग हुआ है। उनके व्याय सार्थक होते हैं। इस शैली में भाषा चलती हुई तथा उर्दू, फारसी आदि के शब्दों से युक्त है। इसके अतिरिक्त द्विवेदी जी की रचनाओं में अनेक स्थलों पर उद्धरण, व्याख्यात्मक, व्यास एवं सूक्ति शैलियों के भी दर्शन होते है।
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