होशियार बेटी: बहुत समय पहले की बात है। किसी नगर में एक व्यपारी रहता था। वह व्यापार करता था और इस प्रकार काफी धन कमा चुका था। उसकी एक बेटी थी, जिसका नाम रत्ना था। वह बड़ी होशियार लड़की थी। कई बार जब वणिक अपने व्यापार की उलझन में फंस जाता था, तो उसकी बेटी उसे ऐसा उपाय बताती थी कि वह उलझन दूर हो जाती थी। बहुत एक बार कोई दूसरा व्यापारी नगर में आ गया। वह अपना सामान कम मूल्य पर बेचने लगा। नगर में यह चर्चा फैल गई कि रत्ना का पिता अधिक मुनाफा कमाता है। बाहर के व्यापारी से लोग सामान लेने लगे और उसकी खूब कमाई होने लगी।
होशियार बेटी

इस बात को देखकर रत्ना के पिता सागर दत्त चिन्ता में डूब गए। उन्हें चिन्ता हो रही थी कि बाहर से आया व्यापारी अपना सामान बेचकर चला जाएगा और उसकी दुकान में सारा माल धरा का धरा रह जाएगा। वह सोच ही नहीं पा रहा था कि क्या करे? कैसे इस व्यापारी का प्रभाव कम किया जाए ? नगर के लोग उसी से सामान खरीद रहे थे।
सागर दत्त ने हारकर अपनी बेटी रत्ना को बुलाकर कहा- “बेटी रत्ना ! क्या करें? बड़ी उलझन आ गई है। बाहर से यह जो व्यापारी आया है, वह बड़ा चालाक है। कम मूल्य पर सामान बेच रहा है। सारे लोग उसी से सामान खरीद रहे हैं। हमारा सामान ज्यों-का-त्यों पड़ा है अब तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूं?”
” पिताजी! यह बताइए कि वह व्यापारी कम दामों पर सामान कैसे बेच लेता है ? क्या आप कम दाम पर सामान नहीं बेच सकते ?” रत्ना ने अपने पिता सागर दत्त से साफ-साफ शब्दों में जानना चाहा।
सागर दत्त ने कहा- “तुम तो जानती ही हो कि मैं कभी ज्यादा मुनाफा नहीं कमाता। भला बताओ, कोई भी व्यापारी कम दाम पर सामान कैसे बेच सकता है? ऐसा करने के लिए उसे बेईमानी करनी पड़ेगी। बेटी मैं तो ‘जिन’ की पूजा करता हूं बेईमानी से धन कमाना पाप मानता हूं।”
पिता की बात सुनकर रत्ना तपाक से बोली-“पिताजी, तो क्या यह व्यापारी बेईमानी करता है ?”
सागर दत्त ने दृढतापूर्वक कहा-“ऐसा ही लगता है, बेटी यह व्यापारी नकली सामान बेचता है। कम दाम होने के कारण लोग लालच में खरीद लेते हैं सारा सामान बेचकर यह रफूचक्कर हो जाता है। यह बेईमान भी है और धूर्त भी क्या करूं कुछ समझ में नहीं आता।”
“झूठ का भंडाफोड़ करना होगा।” रत्ना बोली। “लेकिन कैसे ? कौन करेगा ?” सागर दत्त ने पूछा।
“हम करेंगे, सबके सामने सच्चाई रखेंगे। लोगों को धोखे से सावधान करना हमारा धर्म है याद रखिए, बेईमानी और झूठ को सहन करना भी पाप होता है। हम लोगों को सारी असलियत बता देंगे।” रत्ना ने दृढ़ता से कहा।
दूसरे दिन जब व्यापारी की दुकान पर काफी भीड़ थी, तब रत्ना वहां जा पहुंची। उसने थाली खरीदी। व्यापारी ने जो थाली उसे दी, वह खूब चमक रही थी। रत्ना ने थाली लेकर कहा- “यह थाली असली है न?”
“हां हां। असली ही है।” हकलाते हुए व्यापारी ने कहा।
“तब ठीक है। मैं सभी के सामने यहां आग जलाकर इस थाली को उसमें रखकर देखती हूं कि कहीं आपने नकली धातु पर चमकदार कलई तो नहीं करा रखी है ? कहिए, आपको कोई आपत्ति तो नहीं है?” रत्ना ने सबके सामने पूछा। ” आप भरोसा करें, यह बढ़िया है क्यों बेकार का झंझट मोल लेती हैं?” व्यापारी परेशान होकर बोला।
रत्ना ने उसकी परेशानी देख ली। वह समझ गई कि दाल में कुछ काला जरूर है। वह दृढ़तापूर्वक बोली- आप डरें नहीं। अगर थाली असली निकली, तो मैं और थालियां खरीद लूंगी। नकली हुई तो दाम नहीं दूंगी।”
व्यापारी समझ गया कि आज बुरा फंस गया है। उसने देखा कि जो थाली रत्ना के हाथ में है, वह तो नकली है। उसने सोचा कि अगर सबके सामने इस लड़की ने थाली को आग में रख दिया, तो सारा भेद खुल जाएगा। वह रत्ना से बड़े प्यार से बोला-“आओ, बेटी! मैं इन्हीं दामों में तुम्हें अंदर से दूसरी बढ़िया थाली देता हूं। लाओ, यह थाली मुझे दे दो। अंदर चलकर दूसरी ले लो।”
“नहीं श्रीमान! यह कैसे हो सकता है? मुझे तो यही थाली पसंद है। सब लोग जब इसी ढेर में से थालियां खरीद रहे हैं, तो मैं क्यों अंदर चलकर दूसरी थाली ले लूं ?” रत्ना ने वहां खड़े लोगों के सामने जब यह सब जोर-जोर से कहा, तो सभी चिल्लाने लगे कि थाली को सबके सामने ही आग में तपा कर देखा जाए। रत्ना मन-ही-मन बहुत खुश थी।
और जब थाली आग पर रखी गई, तो सारी पोल खुल गई। बढ़िया धातु के स्थान पर व्यापारी ने नकली धातु की थालियों पर कलई करा रखी थी जब सरेआम व्यापारी का भंडाफोड़ हो गया, तो नगर की जनता सागर दत्त को ही दुकान से सामान खरीदने लगी। व्यापारी अब सागर दत्त और उसकी बेटी रत्ना से बदला लेने का उपाय ढूंढने लगा।
एक दिन व्यापारी ने सागर दत्त से एक शर्त लगाने को कहा। सागर दत्त उस धूर्त की चाल को समझ नहीं सका। उसने पूछा- “बताइए, क्या है आपकी शर्त ।” व्यापारी समझ गया कि सागर दत्त के मन में लालच आ गया है। वह खुश हुआ कि अब वह सागर दत्त से बदला ले सकेगा। सबके सामने उसने सागर दत्त से कहा, “यदि आप इस माघ के महीने की रात में गले तक नदी के जल में बैठे रहें तो में अगली सुबह आपको नकद एक हजार स्वर्ण मुद्राएं दूंगा।”
सागर दत्त व्यापारी की बात सुनकर लालच में डूब गया। एक हजार स्वर्ण मुद्राएं पाने के लिए वह माघ के महीने की पूरी रात गले तक नदी के जल में बैठकर काटने को तैयार हो। गया। शर्त लग गई। सागर दत्त रात में नदी के जल में बैठने के लिए आ गया। उधर व्यापारी भी अपने तथा सागर दत्त के गवाहों को लेकर नदी के किनारे आ पहुंचा। सागर दत्त ठंडे जल में बैठ गया।
व्यापारी सोच रहा था कि आज सागर दत्त ठंड के कारण नदी में ही जमकर मर जाएगा या फिर अभी जल से निकल कर शर्त हार जाएगा। व्यापारी खुश था। सागर दत्त न तो जल से निकला और न ही ठंड से मरा।
सुबह हुई, तो सागर दत्त नदी के जल से ठीक-ठाक बाहर निकल आया हैरान होकर व्यापारी ने सागर दत्त से पूछा- “मित्र एक बात तो बताओ। तुम रात भर बर्फ जैसे ठंडे जल में कैसे बैठे रहे? क्या तुम्हें ठंड नहीं लगी ?”
सागर दत्त उस धूर्त व्यापारी की चाल को समझ नहीं सका। सहज भाव से उसने बता दिया- “जब मैं नदी के जल में बैठा, तो देखा कि नगर के एक मकान में दीपक जल रहा है। मैं उसी दीपक को देखकर गर्मी का अनुभव करता रहा और इच्छा-शक्ति की दृढ़ता के बल पर भयंकर ठंड में भी जल में बैठा रहा।”
“तब तो तुमने बेईमानी की है। तुम तो जलते हुए दीपक को देखकर जल में बैठे रहे। इसलिए मैं तुम्हें स्वर्ण मुद्राएं नहीं दूंगा। तुमने धोखा किया है।” धूर्त व्यापारी ने सागर दत्त से कहा।
सागर दत्त की एक न चली। उसने गवाहों को दस-दस मुद्राएं देकर अपने पक्ष में कर लिया और सागर दत्त को शर्त जीतने के बाद भी हजार स्वर्ण मुद्राएं नहीं दीं। बेचारा सागर दत्त क्या करता ? जब धन के लालच में गवाहों ने ही उसका पक्ष नहीं लिया, तब उसकी बात भला कौन सुनता ? निराश होकर वह अपने घर लौट आया।
रत्ना को सारी बात पता चली। वह समझ गई कि धूर्त व्यापारी ने चाल चली थी। उसने अपने पिता सागर दत्त को कहा-” आप लालच के चक्कर में पड़कर उस धूर्त की चाल में फंस गए। यह बुरा हुआ है। अब आप एक काम करें। “
“बताओ, बेटी! क्या करना है? उस बेईमान ने शर्त हारकर भी मुझे बेईमान बताया है। मैं उसे सबक सिखाना चाहता हूं।” सागर दत्त ने रत्ना से मन की बात कही।
“पिताजी, हमें धैर्य से काम लेना होगा। आप जाकर उस धूर्त व्यापारी को निमंत्रित करें कि वह एक महीने तक रोज सुबह-शाम का भोजन हमारे घर किया करे। उसी के साथ उसके और मित्रों को भी निमंत्रण दे दें कि वे भी व्यापारी के साथ बैठकर हमारे यहां भोजन किया करेंगे।” रत्ना ने पिता से कहा।
“बेटी, यह क्या कह रही हो? एक महीने तक दोनों समय हम उस धूर्त तथा उसके साथियों को भोजन कराएंगे? मेरा तो दिवाला निकल जाएगा।” घबराकर सागर दत्त ने रत्ना से कहा।
‘पिताजी, आप व्यर्थ ही चिन्ता न करें, मैं सब कुछ संभाल लूंगी। आप एक बात का ध्यान रखें कि व्यापारी से यह वादा सबके सामने करा लें कि एक महीने तक हमारे घर के सिवा वह और कहीं एक दाना भी नहीं खा पाएगा।” रत्ना ने पिता को समझाकर भेज दिया।
सागर दत्त धूर्त व्यापारी के पास पहुंचा और रत्ना का प्रस्ताव उसके सामने रख दिया। व्यापारी ने समझा कि यह तो बड़ा अच्छा मौका मिल रहा है। एक महीने तक स्वयं तो इसके घर भोजन करूंगा हो, साथ-साथ अपने साथियों को भी रोज बढ़िया से बढ़िया भोजन कराऊंगा।
व्यापारी ने सागर दत्त की शर्त सबके सामने स्वीकार कर ली। उसने वादा किया- “मैं एक महीने तक सागर दत्त के घर के सिवा और कहीं एक दाना भी नहीं खाऊंगा।” रत्ना ने सुना, तो वह बहुत खुश हुई। दूसरे दिन दोपहर से पहले ही धूर्त व्यापारी अपने साथियों को लेकर सागर दत्त के घर पहुंच गया। उसने कहा- “मित्र हम आ गए हैं। लाओ, भोजन कराओ।”
व्यापारी और उसके साथियों को सागर दत्त ने आंगन में चादरें बिछाकर बिठा दिया। उसके आदमियों ने सभी के सामने खाली थालियां और गिलास कटोरियां आदि लाकर रख दीं। उसके बाद कोई कुछ परोसने नहीं आया।
व्यापारी ने थोड़ी देर तो इंतजार किया। फिर उसने सागर दत्त से कहा- “मित्र! यह क्या ? भोजन क्यों नहीं लाया जा रहा है? हमें जोरों की भूख लगी है।” तभी रत्ना आंगन में आई और धूर्त व्यापारी से बोली-“वह देखिए, श्रीमान! सारा भोजन सामने उस तख्त पर रखा है। आप उसे देखकर भोजन करें और भूख मिटा लें।” धूर्त व्यापारी ने रत्ना को देखा, तो चौंक पड़ा। उसने सागर दत्त से पूछा – ” मित्र ! यह लड़की कौन है, जो इस प्रकार हमारा अपमान कर रही है ? क्या भोजन के लिए घर बुलाकर मेहमानों से ऐसा व्यवहार किया जाना आपको शोभा देता है? हमें बुलाया है, तो भोजन कराइए। यह क्या मजाक है ?”
रत्ना कड़ककर बोली-“माफ करें श्रीमान! मैं रत्ना हूं और ये सागर दत्त मेरे पिता हैं। हमने आपको आदर के साथ बुलाया है, फिर अपमान कैसे कर सकते हैं आपका ? आप सब भोजन कीजिए न ?”
धूर्त व्यापारी तिलमिला गया। चीखकर सागर दत्त से बोला- क्या तुम्हारी यह बेटी बेवकूफ है? दूर तख्त पर भोजन रखकर कहती है कि हम भोजन करें। क्या दूर रखा हुआ भोजन देख-देखकर भी किसी की भूख मिट सकती है ?”
“क्यों नहीं मिट सकती, श्रीमान!” रत्ना ने कड़कते हुए स्वर में पूछा- “जब दूर किसी मकान में जलते हुए दीपक की गर्मी माघ के महीने में नदी के जल में बैठे हुए आदमी को गर्मी दे सकती है, तो भला दूर रखा हुआ भोजन आपकी भूख क्यों नहीं मिटा सकता ?”
“क्या मतलब?” व्यापारी के साथ उसके साथी भी बोल पड़े।
“मतलब यही कि जैसे को तैसा मेरे पिता पूरी रात बर्फ जैसे ठंडे जल में अगर दीपक की गर्मी के सहारे बैठ सकते हैं, तो आप भी पूरे एक महीने तक दोनों समय दूर रखे हुए भोजन को देख-देखकर भूख मिटा सकते हैं।” रत्ना ने कहा। “क्या? पूरे महीने दूर रखा हुआ भोजन देखकर ही हमें भूख मिटानी पड़ेगी ?” धूर्त व्यापारी चीख कर बोला।
“जी हां। शर्त यही है। आप कहीं और एक भी दाना नहीं खा सकते। तो अब शुरू कीजिए। भोजन तैयार है।” रत्ना ने हंसते हुए व्यापारी से कहा। धूर्त व्यापारी ने हार मान ली। सागर दत्त से लगाई शर्त की एक हजार स्वर्ण मुद्राएं देकर उसने रत्ना से पीछा छुड़ाया और उस नगर से चला गया।
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