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हाइड्रोसील क्या होता है, कारण, लक्षण, यौगिक उपचार और क्यों होता है

जब पुरुषों की लैंगिक प्रणाली में किसी प्रकार कोई गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है तो एक तरफ के अण्डकोष की थैली में तरल पदार्थ भर जाता है अत: उस तरफ का अण्डकोष सामान्य से बड़ा हो जाता है। हाइड्रोसील क्या होता है, कारण, लक्षण, यौगिक उपचार और क्यों होता है, इसी को हाइड्रोसील (Hydrocele) का रोग कहते हैं।

हाइड्रोसील क्या होता है (Hydrocele Kyu Hota Hai)

हाइड्रोसील क्या होता है

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पुरुष प्रजनन प्रणाली

जब बालक गर्भ में ही होता है तब उसके अण्डकोष उदर में ही अवस्थित होते हैं । जब उसकी आन्तरिक जीवन शुरू होता है तो वे अण्डकोष उदर से उतर आते हैं तथा साथ में अपनी रक्त प्रवाहिनी शिरायें और निष्कासन नाड़ियाँ भी खींच लाते हैं। उस समय वे एक पतली त्वचा की थैली में लटक जाते हैं। उस थैली में रक्त की नलियाँ भी अवस्थित होती हैं।

हाइड्रोसील का कारण

यह जन्मजात या नवजात शिशु में हो सकता है। पर, उस समय इसकी जाँच मुश्किल होती है। बड़ी उम्र होने पर इसको पहचाना जाता है। अधिकांशत: यह स्थिति इंग्वाइनल हर्नियों के साथ देखी गई है। इस पर चर्चा हर्निया रोग के अन्तर्गत की जा चुकी है । इसमें छोटी आँत पेट के नीचे के छेद में उतर आती है। इस प्रकार का हाइड्रोसील (हाइड्रोसील क्या होता है) आमतौर पर रात में ठीक हो जाता है क्योंकि उस समय तरल पदार्थ उदर में खिंच जाता है। पर खड़े या बैठने पर वह तरल पदार्थ पुनः उतर आता है। जन्मजात हाइड्रोसील एवं इनवाइनल हर्निया का उपचार शल्य चिकित्सा द्वारा ही ठीक रहता है।

दूसरे प्रकार के हाइड्रोसील शुक्र-वाहिनी की क्रिया विधि में गड़बड़ी आने के कारण उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार का हाइड्रोसील ज्यादा ही प्रचलित है। यह फाइलेरियासिस प्रकार का हाइड्रोसील है। यह फाइलेरिया के रोगाणु के संक्रमण के कारण उत्पन्न होता है जो अत्यधिक पीड़ादायक है। यह रोगाणु मच्छरों के द्वारा शरीर की रक्त वाहिनियों में प्रविष्ट हो जाते हैं। जब वे विकसित होने लगते हैं तो उनसे छोटे-छोटे कीटाणु जन्म ले लेते हैं जो 6 से 18 महीने में पूर्ण रूप से विकसित हो जाते हैं। यह लिम्फ में ही उत्पन्न होते हैं अतः स्पर्मेटिक कार्ड के लिम्फिटिक मार्ग को अवरुद्ध कर देते हैं।

रोगी अण्डकोष में खिंचाव अनुभव करता है। जब यह स्थिति दो-तीन बार हो लेती है तो हाइड्रोसील का रोग पनप जाता है। जिसमें अण्डकोष की त्वचा पर हल्की-सी सूजन आ जाती है। ऊतकों एवं भीतरी सतह की झिल्लियों के बीच पानी भर जाता है। जब यह स्थिति लम्बे समय तक बनी रहती है तो अण्डकोष की थैली काफी बड़ी हो जाती है जिसके कारण चलने-फिरने या काम-काज करने में अड़चन होने लगती है। ऐसी अवस्था में भी ऑपरेशन ही एकमात्र उत्तम इलाज है।

हाइड्रोसील के अन्य उपचार

  1. कम से कम एक हफ्ते तक पूर्ण विश्राम लेना चाहिये। केवल शौच या पेशाब के लिए ही बिस्तर से उठें।
  2. मुलायम कपड़े को गरम करके अण्डकोष के सूजन वाले हिस्से को दिन में दो बार 10-10 मिनट तक सेंकें।
  3. तीन दिन तक पूर्ण उपवास करें। यथा सम्भव तरल पदार्थों का भी सेवन बन्द कर दें।
  4. इसके उपरान्त एक हफ्ते तक केवल एक समय ही भोजन करें। उसमें सूखी सब्जी रोटी का सेवन करें। पानी का भी सेवन कम-से कम ही करें। दाल, भात, सब्जी का रस अथवा चाय आदि न लें।
  5. यदि रोगी की रुचि करे तो प्रतिदिन सवेरे, दोपहर एवं शाम को जब तक आराम न हो जाये, स्वमूत्र का पान करे।
  6. कोई भारी वस्तु न उठायें और न ही दौड़ने का प्रयास करें। तात्पर्य यह है कि कोई ऐसा कार्य न करें जिससे उदर पर जोर पड़े।
  7. चलने-फिरने अथवा खड़े होने पर लंगोट अवश्य बाँधे। क्योंकि अण्डकोष को सहारा देना आवश्यक है।
  8. मच्छरों से बचने के लिए मच्छरदानी का प्रयोग अवश्य करें। क्योंकि, इस रोग के उत्पन्न होने में मच्छरों की भी भूमिका अहम होती है।

यौगिक उपचार

आसन

  1. सूर्य नमस्कार
  2. पश्चिमोत्तानासन
  3. गोमुखासन
  4. गरुड़ासन
  5. भोजन के बाद वज्रासन
  6. सर्वांगासन
  7. हलासन
  8. व्रजोली, अश्विनी मुद्रा एवं मूलबन्ध

विशेष- उक्त आसनों का अभ्यास किसी योग्य शिक्षक की देख-रेख में ही करें। अपनी क्षमता अनुसार ही आसनों की आवृत्तियाँ करें। जितनी देर कठिनाई न हो, केवल तभी तक करें।

योगनिद्रा

  1. वस्तुतः अपान वायु भी प्राणों का ही भाग है। इसका स्थान नाभि का निचले भाग है। इसका सम्बन्ध चूँकि मूत्र, गुदा और यौन अंगों के साथ अच्छा होता है। अतः इसके प्रति सजगता बढ़ाने के लिए योग निद्रा में उस अपान वायु की गति का अनुभव करें।
  2. श्वास छोड़ते समय मणिपुर से मूलाधार तक तथा श्वास लेते समय मूलाधार से मणिपुर तक अपान वायु के आने-जाने के प्रवाह का अनुभव करने का प्रयास करें।
  3. दूसरी अवस्था में प्राणवायु के अनुभव श्वास लेते समय करें कि वह नि गले से नाभि तक जा रही है और नीचे उतर रही है और इसके साथ भावना करें कि मूलाधार से मणिपुर चक्र अपान वायु ऊपर चढ़ रही है म और अन्त में प्राण वायु एवं अपान वायु उदर में मिल रही है।
  4. अब बाहर जाती हुई श्वास के साथ प्राण वायु ऊपर गले की ओर तथा अपान वायु नीचे मूलाधार की ओर जा रही है।
  5. उक्त अनुभूति करने से श्रोणि प्रदेश (कटि प्रदेश) के प्रति अपनी सहजता बढ़ेगी जो इस रोग के उपचार का हेतु बनेगी।

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अस्वीकरण – यहां पर दी गई जानकारी एक सामान्य जानकारी है। यहां पर दी गई जानकारी से चिकित्सा कि राय बिल्कुल नहीं दी जाती। यदि आपको कोई भी बीमारी या समस्या है तो आपको डॉक्टर या विशेषज्ञ से परामर्श लेना चाहिए। Candefine.com के द्वारा दी गई जानकारी किसी भी जिम्मेदारी का दावा नहीं करता है।

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