जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय:- काशी के एक सम्पन्न सुँघनी साहू नाम से प्रसिद्ध वैश्य परिवार में 30 जनवरी, सन् 1890 ई० में जन्मे जयशंकर प्रसाद के बाल्यकाल में ही इनके पिता देवीप्रसाद तथा बड़े भाई का स्वर्गवास हो गया; अतः अल्पायु में ही लाड़-प्यार में पले प्रसादजी को घर का सारा उत्तरदायित्व वहन करना पड़ा।
विद्यालयी शिक्षा छोड़कर इन्होंने घर पर ही अंग्रेजी, हिन्दी, बाँग्ला तथा संस्कृत भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया। इन्होंने अपने पैतृक व्यवसाय को करते हुए भी अपनी काव्य-प्रेरणा को जीवित रखा। इनका मन अवसर पाते ही कविता-कामिनी के कानन में भ्रमण करने लगता था। अपने मन में आये भावों को ये दुकान की बही के पन्नों पर लिखा करते थे। इस प्रकार जयशंकर प्रसाद का काव्य-जीवन आरम्भ हुआ।
जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय

Jaishankar Prasad Ka Jeevan Parichay
नाम | जयशंकर प्रसाद |
जन्म | 30 जनवरी, 1890 ई० |
जन्म स्थान | उत्तर प्रदेश के वाराणसी |
मृत्यु | 15 नवम्बर, 1937 ई०, वाराणसी |
पिता | श्री देवीप्रसाद |
कार्यक्षेत्र | लेखक, कवि |
सम्मान | मंगलाप्रसाद पारितोषिक, हिन्दुस्तानी अकादमी द्वारा पुरस्कार |
रचनाएँ | काव्य-‘कामायनी’, ‘झरना’, ‘लहर’, ‘प्रेम पथिक’, ‘महाराणा का महत्त्व’, ‘उर्वशी’, ‘चित्राधार’, ‘कानन कुसुम’ आदि। |
नाटक | ‘चन्द्रगुप्त’, ‘स्कन्दगुप्त’, ‘कामना’, ‘एक घूँट’, ‘विशाखा’, ‘कल्याणी’, ‘ध्रुवस्वामिनी’, ‘जनमेजय का नागयज्ञ’, ‘राज्यश्री’, ‘अजातशत्रु’ ‘प्रायश्चित्त’ आदि। |
उपन्यास | ‘तितली’, ‘इरावती’ (अपूर्ण उपन्यास)। |
कहानी | ‘प्रतिध्वनि’, ‘कंकाल’, ‘छाया’, ‘आकाशदीप’, ‘इन्द्रजाल’ आदि। |
निबन्ध | ‘काव्य और कला’ आदि। |
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जयशंकर प्रसाद की मृत्यु कब हुई थी
प्रसादजी का जीवन बहुत सरल था। ये सभा-सम्मेलनों की भीड़ से बहुत दूर रहा करते थे। ये बहुमुखी प्रतिभा के धनी और भगवान् शिव के उपासक थे। इनके पिता साहित्य-प्रेमी और साहित्यकारों का सम्मान करनेवाले व्यक्ति थे, जिसका प्रसादजी के जीवन पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। अत्यधिक श्रम तथा राजयक्ष्मा से पीड़ित होने के कारण 15 नवम्बर, 1937 ई० को लगभग 48 वर्ष की अल्पायु में इनका देहावसान हो गया।
आधुनिक हिन्दी काव्य कवि
जयशंकर प्रसाद आधुनिक हिन्दी काव्य के ऐसे प्रथम कवि थे, जिन्होंने अपने काव्य में सूक्ष्म रहस्यवादी अनुभूतियों का चित्रण किया। यही इनके काव्य की प्रमुख विशेषता थी। इनके इस नवीन प्रयोग ने काव्य-जगत् में क्रान्ति उत्पन्न कर दी, जिसके परिणामस्वरूप हिन्दी-साहित्य में छायावाद नाम से एक युग का सूत्रपात हुआ। इनके द्वारा रचित ‘कामायनी’ छायावादी युग की अप्रतिम कृति है। इसमें सभी छायावादी विशेषताओं का समावेश दृष्टिगत होता है।
प्रेम और सौन्दर्य इनके काव्य के प्रमुख विषय रहे। इन्होंने काव्य-सृजन के साथ ही ‘हंस’ और ‘इन्दु’ पत्रिकाओं का प्रकाशन भी कराया। ‘कामायनी’ पर इनको हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन ने ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ प्रदान किया था। इन्होंने हिन्दुस्तानी अकादमी द्वारा प्राप्त पुरस्कार को काशी की प्रसिद्ध साहित्यिक संस्था ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ को दान कर दिया।
कृतियों की रचना
प्रसादजी ने कुल 27 कृतियों की रचना की। इनका ‘कामायनी’ महाकाव्य छायावादी काव्य का कीर्तिस्तम्भ है। इसमें मनु और श्रद्धा के माध्यम से मानव को हृदय (श्रद्धा) और बुद्धि (इड़ा) के समन्वय का सन्देश दिया गया है। ‘चित्राधार’ इनका ब्रजभाषा में रचित काव्य-संग्रह है। ‘लहर’ में प्रसादनी को है। ‘झरना’ इनकी कविताओं का है। इस संग्रह में सौन्दर्य और प्रेम को अनुभूतियों का मनोहारी मिलता है। इनकी कहानियों एवं ऐतिहासिक नाटकों में भारत का साकार होता है।
भाषाशैली
भाषा
प्रसादजी वस्तुतः चिन्तनशील प्रकृति के व्यक्ति थे। पर्वतीय दृश्यों से इनके काव्य में प्रकृति-चित्रण का मनोहारी मिलता है। नारी भावना का चित्रण करने में ये विशेष सफल रहे हैं। भारतीय संस्कृति की भावना इनमें कूट-कूटकर भरी है।
प्रसादजी की भाषा पूर्णतः साहित्यिक परिमार्जित एवं परिष्कृती, जिसमें ओज, माधुर्य के साथ-साथ प्रवाह का गुण सर्वत्र विद्यमान है। इनकी शब्द- योजना सुगठित है और वाक्यविन्यास तथा शब्द चयन अद्वितीय है। अपने सूक्ष्म भावों को व्यक्त करने के लिए इन्होंने लक्षणा और व्यंजना शब्दशक्तियों का आश्रय लिया। प्रतीकात्मक शब्दावली के प्रयोग में ये अत्यधिक निपुण थे।
शैली
काव्य-शैलियों के विशिष्ट शिल्पी जयशंकरप्रसाद का समस्त काव्य विविध शैलियों के प्रयोग से चमत्कृत है। ये छोटे-छोटे वाक्यों एवं पद-विन्यासों द्वारा गम्भीर भाव भरने में निपुण थे। संगीतात्मकता एवं लय पर आधारित इनकी शैली अत्यन्त सरस एवं मधुर है। दार्शनिक विषयों की अभिव्यक्ति में इनकी शैली गम्भीर हो गयी है।
काव्य-सौन्दर्य में इनकी विशेष रुचि थो। शृंगार, वीर और शान्त रस के साथ प्रायः सभी रस इनके काव्य में पाये जाते हैं। इनके अलकार प्रयोग देखते ही बनते हैं। अर्यालकारों के प्रयोग में इन्होंने विशेष रुचि दिखायी है। इन्होंने सवैया, कवित के अतिरिक्त अतुकान्त पदों का भी प्रयोग किया है।
वास्तव में प्रसादजी वाग्देवी के ‘प्रसाद’ हैं। इनमें कल्पना की अद्भुत क्षमता, वैचारिक महता, राष्ट्रभक्ति की अभिव्यक्ति और शाश्वत संस्कृति प्रेम पाया जाता है। आधुनिक युग के श्रेष्ठ कवियों में प्रसाद का स्थान सर्वोपरि है।
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