कबीर दास का जीवन परिचय? कबीर दास का जन्म कब हुआ था?

कबीर दास का जीवन परिचय: कबीरदास का जन्म सन 1398 ई० (संवत् 1456 विक्रमी) (लगभग) में लहरतारा ताल, काशी (वाराणसी, भारत) में हुआ था इनके माता-पिता का नाम ज्ञात नहीं परंतु इनके लालन-पालन करने वाले माता-पता का नाम नीरू और नीमा था। भारत के महान् संतों में कबीर दास अग्रगण्य हैं। उनमें अक्खड़ता, स्पष्टवादिता, ब्रह्मज्ञान, सदाचार और मानवतावादी चिंतन का संपुंजन था। उन्होंने अपने चिंतन को कविता में उजागर किया। कबीर दास का मृत्यु कब हुआ था?

कबीर दास का जीवन परिचय

कबीर दास का जीवन परिचय

Kabir Das Biography in Hindi

नामसंत कबीरदास
जन्मसन 1398 ई० (संवत् 1456 विक्रमी) (लगभग)
जन्म स्थानलहरतारा ताल, काशी (वाराणसी, भारत)
पालक पिता का नामनीरु
पालक माता का नामनीमा
पत्नी का नामलोई
संतानकमाल (पुत्र), कमाली (पुत्री)
रचनाएंसाखी, सबद और रमैनी
कार्य क्षेत्रसमाज सुधारक कवि
भाषाअवधी, सधुक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी
मृत्युसन 1518 ई० (लगभग)
मृत्यु स्थानमगहर, उत्तर प्रदेश
कबीर दास का जीवन परिचय (Kabir Das Ka Jivan Parichay)

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उनका काव्य तत्कालीन सामाजिक अवस्था का खुला दस्तावेज है। उनका सारा चिंतन स्वानुभूतिजन्य है। अतः वह परंपरागत शास्त्र ज्ञान की अवहेलना भी करता है। उनकी वाणी में इतनी प्रबल ऊर्जा थी कि उसके आगे सभी विरोधी मौन हो गए।

उनके प्रवचनों से युगों से शूद्र और दलित घोषित लोगों में नई चेतना का संचार हुआ और वे सामाजिक अन्याय का बंधन तोड़कर स्वाभिमान से पूर्ण होकर खड़े हो गए। परंपरागत शास्त्रज्ञान और सामाजिक अन्याय के विरुद्ध अपनी ओजस्वी वाणी का उद्घोष करने वाले संतप्रवर कबीर दास को जन्म देकर भारत भूमि धन्य हुई थी।

कबीर दास का जन्म

कबीर दास के जन्म के बारे में अनेक मत हैं। एक मान्यता के अनुसार उनका जन्म किसी विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ और उसने लोक-लाजवश उस शिशु को काशी के लहरतारा तालाब के किनारे छोड़ दिया था।

नीरू और नीमा नाम के मुसलमान दंपती ने उस बालक को अपने पुत्र की भांति पाला-पोसा और उसका नाम कबीर रखा। नीरू गरीब जुलाहा था। अतः कबीर को विद्यालयी शिक्षा से वंचित रहना पड़ा। उन्हें अपने पैतृक धंधे में लगना पड़ा।

कबीर कपड़ा बुनते और अवकाश का समय सत्संग में व्यतीत करते थे। धीरे-धीरे कबीर का मन भक्ति में रमने लगा। उन्होंने अपने अपढ़ होने का उल्लेख करते हुए कहा है-‘मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।

कबीर दास की जन्मतिथि के संबंध में भी मतभेद है, किंतु अधिकांश विचारकों ने उनका जन्म संवत् 1456 विक्रमी माना है। इन्हें वैष्णव भक्त स्वामी रामानंद का शिष्य कहा जाता है। इस संबंध में एक किंवदंती प्रचलित है।

स्वामी रामानंद से दीक्षा ग्रहण करें कबीर के मन में आया। किंतु यह भय था कि कहीं मुसलमान होने के कारण स्वामी जी उन्हें शिष्य बनाने से इनकार न कर दें। अतः कबीर ने एक युक्ति निकाली। स्वामी जी नित्य भोर में पंचगंगा घाट पर गंगास्नान के लिए जाते थे। कबीर रात में उसी घाट की सीढ़ियों पर लेट गए।

भोर में जब स्वामी जी घाट की सीढ़ियां उत्तर रहे थे, उनका पांव कबीर के शरीर पर पड़ गया। स्वामी जी के मुंह से अचानक वाणी फूटी, ‘राम-राम कह बच्चा’ कबीर ने इसे ही गुरुमंत्र मान लिया। किंतु कबीर ने स्वामी रामानंद को सगुण राम के निर्गुण-निराकार और घट-घटव्यापी ब्रह्म बना दिया। उन्होंने कहा भी है-

दसरथ सुत तिहुं लोक बखाना। राम नाम को मरमु है आना।।

कबीर दास की भक्ति-साधना में अनेक उपासना पद्धतियों का मिश्रण है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कबीर की उपासना पद्धति के संबंध में कहा है, ‘उन्होंने (कबीर) भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रगतिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया। उनकी वाणी में ये सब अवयव अवश्य स्पष्ट लक्षित होते हैं।

यद्यपि कबीर दास हठयोगियों से प्रभावित थे, तथापि वे उनके चिमटा, शृंगी, तिलक, माला आदि बाह्य उपकरणों के विरोधी थे, ‘जप माला छापा तिलक, सरै न एको काम। इसी प्रकार वे आसन मुद्रा, छापा, प्राणायाम, तीर्थ, व्रत आदि के भी विरुद्ध थे।

उनके योग में सुरति-निरति, अनाहत नाद, ब्रह्मरन्ध्र में प्राण और चित्त को स्थिर करना, अजपाजप और सहज शून्य में समाधि मान्य थे। कबीर ने हिंदुओं के बहुदेववाद और मुसलमानों के एकेश्वरवाद का खंडन कर ईश्वर के सर्वव्यापी और निर्गुण रूप की भक्ति का उपदेश किया।

यह भक्तिधारा सामान्य जन के लिए भी सुलभ हुई। कबीर के जीवन काल में ही भारी संख्या में हिंदू और मुसलमान दोनों धर्मों के लोग उनके शिष्य बने। कबीर दास की बानियों का संग्रह ‘बीजक’ नाम से संगृहीत है। यह ग्रंथ तीन भागों में विभक्त है- 1. साखी, 2. सबद और 3. रमैनी। साखी की रचना दोहों में, सबद पदों में और रमैनी चौपाई-दोहे में है। विभिन्न स्रोतों से संगृहीत ‘बीजक’ के संस्करणों में असमानता है। कबीर के चिंतन के विविध पक्ष ‘बीजक’ में हैं।

कबीर की भाषा के विषय में बहुत अधिक विवाद है। उसमें संग्रहकर्ताओं ने अपने उच्चारण और बोली का मिश्रण कर दिया है। कुछ विद्वानों का मानना है कि कबीर देशाटन करते रहते थे। अतः जहाँ जाते थे, वहां की बोली में रचना कर देते थे। भाषा संबंधी अव्यवस्था के आधार पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कबीर की भाषा को ‘सधुक्कड़ी भाषा’ कहा है।

किंतु तथ्य यह है कि कबीर ने अपनी भाषा को ‘पूरबी’ अर्थात् भोजपुरी कहा है, “भाखा मेरी पूरबी, जाहि लखे ना कोय या को तो वे ही लखे जो धुर पूरब का होय।” कबीर की प्रतिभा लोकोन्मुखी थी, अतः उन्होंने अपने चिंतन को परंपरित संस्कृत भाषा को छोड़कर लोक भाषा भोजपुरी में प्रस्तुत किया। भाषा के संबंध में उनका कथन है, “संस्कृत है कूप जल, भाखा बहता नीर।”

कबीर दास ने आध्यात्मिक चिंतन और उपासना पद्धति में क्रांतिकारी उद्भावनाएं कीं। उन्होंने इससे भी महत्त्वपूर्ण एक ऐसा कार्य किया जो आज के समय और समाज के लिए प्रासंगिक है। वह कार्य है कबीर द्वारा समाज सुधार का अपूर्व प्रयत्न कबीर का उद्भव जिस मध्यकाल में हुआ था, वह सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अत्यंत विषम था।

मुसलमानों के आक्रमण ने भारतीय समाज को अस्थिर और निराश बना दिया था। मंदिरों को तोड़े जाने से जनता का विश्वास देव-पूजा से उठ गया था। ऐसे समय में कबीर दास ने लोगों के मन से निराशा और अनास्था को हटकार उनमें नई आशा और आस्था का भाव जगाने का बीड़ा उठाया।

अपने समाज मुक् के कार्य में वे पर्याप्त सफल रहे और समाज के सभी वर्गों द्वारा वे समादृत भी हुए। कबीर दास के समाज सुधारक रूप का वर्णन अग्रलिखित पंक्तियों में स्पष्ट किया जा रहा है

सर्वधर्म समन्वय की भावना

कबीर दास ने अपने समय में प्रचलित सभी पंथों और संप्रदायों की उपयोगी बातों का संग्रह कर सर्वसाधारण जनता को सुलभ कराया। उन्होंने हिंदू धर्म से अद्वैतवाद, वैष्णवों से भक्तिमय उपासना, बौद्धधर्म से शून्यवाद और अहिंसा, इस्लाम धर्म से एकेश्वरवाद, सूफीसंतों से प्रेम भावना और नाथ पंथियों से हठयोग की साधना ग्रहण कर एक नवीन मानवतावादी मत का उद्घोष किया। उन्होंने राम और रहीम को, केशव और करीम को, बिसमिल और विश्वंभर को एक बताया –

हमरे राम, रहीम, करीमा, केसव अलह राम रति सोई।
बिसमिल मेलि बिसम्भर एकै और न दूजा कोई ।।

बाह्याडंबर का खंडन और सहजता का प्रतिपादन-कबीर दास ने अनुभव किया कि कुछ लोग पूजा-पाठ, तीर्थ-व्रत आदि के नाम पर सामान्य जन को ठग रहे हैं। कबीर दास ने इसका प्रतिकार कर सहज मानवीय जीवन-क्रम का मार्ग प्रशस्त किया।

उन्होंने बताया कि बाह्याचारों से कोई लाभ नहीं, तीर्थयात्रा और मूर्तिपूजा व्यर्थ हैं। सिर मुड़ाने अथवा दाढ़ी बढ़ाने, मूर्ति पूजा अथवा छापा-तिलक लगाने से जीवन में मुक्ति नहीं मिलती है। इस संबंध में कबीर दास का कथन है-

मूड मुड़ाए हरि मिलैं, सब कोई लेय मुड़ाय।
बार-बार के मूड़ते, भेड़ बैकुंठ न जाय ।।

छापा तिलक लगाइ कै, दगध्या लोक अनेक ।

मन न रंगाए जोगी रंग लिए कपरा।
दढ़िया बढ़ाए जोगी बन गए बकरा।।

इसी प्रकार मूर्तिपूजा का विरोध करते हुए कबीर दास ने कहा, “पत्थर पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजूं पहार’। उनकी मान्यता थी कि शुद्ध मन से भगवत् भक्ति करना ही श्रेयस्कर है-

निर्मल राम नामगुन गावै, सो भगता मोरे मन भावै ।

छुआछूत का विरोध और समता का उपदेश

कबीर दास के मानवतावादी दृष्टिकोण का बहुत बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने समाज में प्रचलित छुआछूत का विरोध किया और मानव मात्र को समान समझने का उपदेश दिया। उनके उस प्रयास का सुफल यह हुआ कि उच्चता के अभिमानी द्विजातियों का अभिमान खंडित हुआ और शूद्र तथा दलित वर्गों में मानवीय गरिमा का उदय हुआ। कबीर दास पांड़े अर्थात् पंडित वर्ग से पूछते हैं, “पांड़े छूत कहां से आई।” कबीर दास ने छुआछूत मानने वालों से पूछा-

और के छुवे लेत हौ सींचा। तुम ते कहौ कौन है नीचा ।।

कबीर दास ने साधु और सज्जन उसी को माना है, जो दूसरों की पीड़ा को समझता है। दूसरों को पीड़ा देने वाला असज्जन और असाधु है-

कबीर सोई पीर है, जो जाने पर पीर।
जो पर पीर न जानई, सो काफिर बेपीर ।।

अहिंसा का समर्थन और हिंसा का विरोध-कबीर दास अहिंसा के समर्थक और हिंसा के विरोधी थे। उनकी मान्यता थी कि छोटे-बड़े सभी जीव ईश्वर के बनाए हुए हैं। अतः इन पर करुणा और दया करनी चाहिए।

इसीलिए उन्होंने कहा है, ‘साईं के सब जीव हैं, कुंजर चींटी दोय।’ उन्होंने जहां भी हिंसा को देखा, उसका कठोर शब्दों में विरोध किया। मुसलमान दिन में रोजा रखते हैं और रात में मांस-भक्षण करते हैं। कबीर दास को यह कार्य बहुत बुरा लगा और उन्होंने इसके विरुद्ध स्पष्ट शब्दों में कहा-

काजी काज करौ तुम कैसा। घर-घर जबह करावइ भैंसा।
बकरी मुरगा किन फरमाया। किसके हुकुम तुम छुरी चलाया ।।

हिंदुओं द्वारा देवताओं को पशु बलि चढ़ाने को अधर्म और गर्हित कार्य कहा-

अपने हाथ करे स्थापना अजया के सिर काटी।
सो पूजा माली घर ले गयो, मूरति कुकुर चाटी ।।

वैष्णवों में हिंसा वर्जित थी, किंतु शाक्त लोग पशु बलि करते थे। अतः वैष्णव कबीर को प्रिय थे और शाक्त त्याज्य। इस संबंध में कबीर दास का कथन है, ‘वैस्व की छपरी भली, साकत को नहिं गांव।

आचरण की पवित्रता का उपदेश

कबीर दास की मान्यता थी कि मनुष्य की सबसे बड़ी निधि उसका चरित्र है। कपटाचार करने वाला व्यक्ति दूसरों को दुःख देकर पाप करता है और अंततः दुःख भोगता है। इसके विपरीत शुद्ध आचरण वाला मनुष्य परोपकारी होता है और लोक में समादृत होता है। अतः मनुष्य को खुले मन से सबसे मिलना चाहिए। ऐसा करने पर ही भगवद् प्राप्ति होती है-

साईं या संसार में सबसे मिलिए धाय ।
ना जाने केहि भेष में नारायन मिल जाय ।।

अहंकार का त्याग

कबीर दास की मान्यता है कि मनुष्य अहंकार के वश होकर मानवता से विमुख हो जाता है। वह अपने साथ समाज का भी अहित करता है। भगवान् किसी को अहंकारी नहीं रहने देता है। वह अहंकारियों को दंडित करता है। अतः अहंकार सर्वथा त्याज्य विकार है। इसे समझाते हुए कबीर दास ने कहा-

जे गुन गर्व करहु अधिकाई। अधिक गर्व न होय भलाई ।।
जासु नाम है गर्व प्रहारी। सो कस गर्व सकै संभारी ।।

प्रेम भाव का उपदेश

कबीर दास स्वभावतः मानवतावादी थे। अतः उन्होंने जीव मात्र से प्रेम रखने का उपदेश दिया। वे सारे ज्ञान में परंपरागत व्यक्ति को प्रेम भाव से हीन होने पर ज्ञानी मानने को तत्पर नहीं थे। प्रेम भाव में पगे मनुष्य को ही ये पंडित अर्थात् ज्ञानी मानते थे। इस संबंध में उनका स्पष्ट कथन है-

पोथी पदि-पढ़ि जगु मुआ पंडित भया न कोय ।।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ।।

शास्त्रज्ञान की उपेक्षा और अनुभव की पक्षधरता

कबीर दास ने अनुभव किया कि विभिन्न शास्त्रों की रचना कर पंडित लोग जन सामान्य को भ्रमित कर रहे हैं। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि कोरे शास्त्रज्ञान से मनुष्यता का उद्धार संभव से नहीं है। शास्त्रज्ञान मनुष्य को अहंकारी बनाता है। इसलिए उचित यही है कि लोग अपने अनुभव के आधार पर कार्य करें। शास्त्रज्ञों से कबीर की कभी नहीं पटरी बैठी। उन्होंने पंडितों से स्पष्ट कहा-

मैं कहता आंखिन की देखी। तू कहता कागद की लेखी।
मैं कहता सुरझावन हारी, तू राखे उरझाय रे ।
मेरा तेरा मनवा कैसे एक होय रे ।

‘आँखिन देखी’ का तात्पर्य अनुभवजन्य ज्ञान एवं ‘कागद की लेखी’ का अर्थ शास्त्रज्ञान है-

गुरु के लिए कबीर की भक्ति

कबीर की भक्ति में सद्गुरु का सर्वाधिक महत्त्व है। वे ईश्वर से भी बड़ा गुरु को मानते हैं। वे कहते हैं कि यदि गुरु और गोविंद दोनों साथ मिलें, तो पहले गुरु को प्रणाम करना चाहिए क्योंकि गुरु ही गोविंद तक पहुंचाता है-

गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काको लागूं पांय ।
बलिहारी गुरु आपने, गोबिंद दियो बताय।।

कबीर उन शिष्यों की निंदा करते हैं, जो गुरु की उपेक्षा करते हैं। वे ऐसे शिष्यों को अंधा और अबोध मानते हैं। वे समझाते हैं कि यदि परमात्मा रूठ जाए, तो गुरु शिष्य को संभाल लेगा लेकिन गुरु के रुष्ट होने पर ईश्वर भी शरण नहीं देता है। कबीर दास की गुरुभक्ति अनन्य है। उनका कथन द्रष्टव्य है।

कबीर दास को अपनी भक्ति पर कितना अधिक विश्वास था, इसका उदाहरण उनका जीवन ही है। लोक मान्यता है कि जो प्राणी काशी में मरता है, उसे मुक्ति प्राप्त होती है। कबीर दास को यह मान्यता नहीं मान्य थी।

भक्ति कबीर की

उन्होंने कहा कि यदि काशी में मरने से मुक्ति प्राप्त होती है, तो भगवत-भक्ति का महत्त्व खंडित होता है। अतः वे इसे स्वीकार नहीं कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि यदि ईश्वर का सच्चा भक्त है, तो वह मगहर (मगह) जैसे अपवित्र क्षेत्र में भी शरीर त्यागेगा, तो उसे मुक्ति मिलेगी। उन्होंने कहा-

जो कबिरा कासी मरै, तो रामहिं कौन निहोरा।
जस कासी तस मगहर, ऊसर हृदय राम जो होय।

और कबीर दास (कबीर दास का जीवन परिचय) अपने जीवन के अंतिम दिनों में काशी छोड़कर मगहर चले गए। सं. 1575 में उनका निधन हुआ। कबीर दास हिंदू-मुसलमान दोनों में अत्यधिक लोकप्रिय थे। अतः दोनों उनके शव को अपने धर्म के अनुसार अंतिम क्रिया के लिए लेने पर झगड़ने लगे।

अंततः जब शव पर से वस्त्र हटाया गया, तो शव की जगह केवल फूल थे। हिंदू-मुसलमानों ने आधे-आधे फूल लेकर अपने धर्मानुसार अंतिम क्रिया संपन्न की। कबीर दास का जीवन परिचय

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