कन्हाई लाल दत्त का जीवन परिचय: भारत को आजादी दिलाने में क्रांतिकारी कन्हाई लाल दत्त का महत्वपूर्ण योगदान था। कन्हाई लाल दत्त का जन्म 30 अगस्त 1888 ई. में हुआ था। माँ और पिता बम्बई में थे। कन्हाई लाल दत्त का इतिहास बताये।
कन्हाई लाल दत्त का जीवन परिचय

Kanhailal Dutt Biography in Hindi
सर्वप्रथम अंग्रेजों ने बंगाल में ही अपने चरण रखे। उसी भूमि पर शक्ति अर्जित कर सारे भारतवर्ष पर शासन चलाया, उसे सुदृढ़ किया अर्थात् बंगाल से ही उनके स्वर्णिम स्वप्न साकार हुए।बंगालियों ने ही सर्वप्रथम अंग्रेजी शिक्षा, वेश-भूषा, रहन-सहन और उनकी संस्कृति की नकल करते हुए स्वयं में परिवर्तन किये।
अंग्रेजों के सहयोगी, वफादार और नौकरियों में भद्र बंगाली पुरुष ही अधिक हुए। इसी प्रकार जब अंग्रेजी राज्य की जड़ें उखाड़ फेंकने की इच्छा जाग्रत हुई तो यह भी सत्य है कि बंगाल के लोगों ने ही बगावत का बिगुल बजाया, गोरी सरकार की जड़ों को समूल नष्ट करने के लिए सर्वप्रथम कुदाल बंगालिगों ने ही उठाकर चलायी।
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कन्हाई लाल दत्त पालन-पोषण एवं शिक्षा-दीक्षा
उनका प्रारम्भिक पालन-पोषण एवं शिक्षा-दीक्षा उसी प्रवास में सम्पन्न हुआ था। बचपन से ही कन्हाई लाल दत्त एक साहसी, दृढ़प्रतिज्ञ, निडर, परोपकारी और सच्चरित्र-निष्ठावान नवयुवक थे। इसके उपरान्त वे बम्बई छोड़ कलकत्ता विश्वविद्यालय में आ गये। देशभक्ति और देश पर मर मिटने की ललक कलकत्ते के प्रवास में अनेकों बलिदानी युवकों की संगति का फल थी। नया खून कुछ कर गुजरने के लिए क्रान्तिकारी संगठन से जुड़ गया था।
साथ-ही-साथ उस मेधावी कन्हाई लाल दत्त ने कलकत्ता विश्वविद्यालय का छात्र रहकर डबल आनर्स के साथ बी. ए. परीक्षा उत्तीर्ण की थी। इसी छात्र जीवन में आगे चलकर नरेन्द्र गोस्वामी नामक वैभवशाली नवयुवक से मित्रता हुई थी जो धीमे-धीमे देशभक्त बनने के लिए दल के इर्द-गिर्द रहकर विश्वसनीयता अर्जित कर क्रान्ति दल से जुड़ गया था।
कन्हाई लाल दत्त का क्रान्तिकारी योगदान
यह स्वप्न में भी न सोचा था कि यह देखने में सरल और सुन्दर व्यक्तित्व का धनी मन से बड़ा कृपण और चोर प्रवृत्ति का पोषक है, समय आने पर किसी भी क्षण गिरगिट के समान रंग बदल सकता है। अपने साथियों के लिए फाँसी का फन्दा निकट झुलवाकर मौत को आमन्त्रण दिलवा सकता है।
लेकिन हर प्राणी की पहचान तो उचित समय आने पर ही होती है। क्रान्तिकारी सहयोगी नरेन्द्र गोस्वामी मुखबिर बन गया है, मन को सरलता से विश्वास नहीं हो रहा था। सबकी नजरें अपने विश्वासपात्र प्रिय मित्र नरेन्द्र गोस्वामी पर ही टिकी थीं।
जब से नरेन्द्र को माफी मिली थी पुलिस ने उसे अन्य लोगों से दूर हटाकर अस्पताल में समुचित सुरक्षित व्यवस्था की थी। साथ एक अंगरक्षक यूरोपियन मैट हर समय निगरानी में सतर्कता बरतता।
31 अगस्त को प्रातःकाल नरेन्द्र गोस्वामी और सत्येन्द्र नाथ वसु स्वीकारोक्ति की अन्तिम लिखा-पढ़ी के सन्दर्भ में एक टेबल पर आमने-सामने आ बैठे थे। कुछ ही क्षणों में आवश्यक कागजात निकालकर कार्य प्रारम्भ करने के लिए ज्यों ही गोस्वामी ने अपनी नजर मेज पर फेंकी अचानक टेबुल के नीचे से पिस्तौल की गोली का शब्द गूँजा।
गोली गोस्वामी के पैरों में लगते ही वह छिटककर मेज से हटा और तेजी से बाहर की ओर भाग निकला। सत्येन्द्र वसु ने उसका पीछा किया। गोस्वामी के यूरोपियन शरीर रक्षक मैट ने वसु का रास्ता रोकने के लिए धक्का-मुक्की की।
कमरे से बाहर हाल में डॉक्टर के निकट कन्हाई लाल दत्त उस क्षण पहले से विराजमान थे। गोली का स्वर सुनकर दत्त ने अपने हाथ में भरे रिवाल्वर सहित दौड़ नरेन्द्र गोस्वामी के पीछे-पीछे चलना प्रारम्भ कर दिया।
अस्पताल के अहाते के बाहर गली थी और निकट ही सामने वार्ड। बीच में एक फाटक पड़ता उस समय बन्द नजर आया। कन्हाई लाल दत्त ज्यों ही रिवालवर ताने फाटक के निकट खड़े नर्सिंग अर्दली के पास आया उसने भयभीत मुद्रा में फाटक खोल इशारे से भागनेवाले की दिशा का निर्देश भी स्पष्ट किया कि उसका शिकार नरेन्द्र किधर भागा है।
कन्हाई लाल दत्त ने एक सिंह के समान अपने शक्तिशाली चरणों से नरेन्द्र का पीछा कर बड़ी शीघ्रता से तलाश लिया और निकट पहुँचते ही अपने रिवाल्वर की गोली से निशाना बना डाला। क्रान्तिकारी दत्त की गोली खाकर नरेन्द्र धराशायी हो गया।
सत्येन्द्र वसु भी पिस्तौल ताने दुर्घटना स्थल पर पहुँचे और अपनी पिस्तौल की गोलियों से उस पर वार किया। नरेन्द्र गोस्वामी ने उसी स्थल पर अपना दम तोड़ दिया। उसके शरीर से खून बह चला था मगर नेत्र खुले थे- सम्भवतः उसके सुनहले सभी स्वप्न बिखर गये थे। प्राण पखेरू पिंजड़े से उड़ भागा था।
देश में इस दुर्घटना की खबर जब जनता के कानों तक पहुँची चारों ओर खुशी की लहर दौड़ गयी। भारतीयों ने जैसे ही जहाँ भी सुना उनकी अन्तरात्मा ने बलिदानी युवकों की सराहना की। नवयुवकों के मस्तक गर्व से ऊँचे उठ गये, उनका सीना साहस और शौर्य से भरकर तन गया। मुकदमा शुरू हुआ और बड़ी शीघ्रता से जज ने ‘अलीपुर षड्यन्त्र केस’ के अभियुक्तों में कन्हाई लाल दत्त और सत्येन्द्र नाथ वसु को फाँसी की सजा सुना दी गयी।
10 नवम्बर, 1908 को कन्हाई लाल दत्त को फाँसी के तख्ते पर जब खड़ा किया और जल्लाद ने गले में रस्सी के फन्दे को डाला तो दत्त ने मुस्कराकर पूछा- ‘क्या यह रस्सी थोड़ी मुलायम नहीं हो सकती थी? बड़ी खुरदरी और कड़ी है गर्दन में लगती है, भाई!’ इष्ट-मित्र आशुतोष लाश लेने पहुँचे। अंग्रेज सिपाही ने बतलाया कि जिस देश में ऐसे वीर जन्म लेते हैं, वह धन्य है। मरते दम तक मुस्कान चेहरे पर रही, भय के चिह्न आँखों में कभी उतरे ही नहीं।
कन्हाई लाल दत्त की शवयात्रा बड़ी धूम-धाम से जनता ने निकाली। असंख्य लोगों ने श्रद्धांजलियाँ अर्पित कीं। नौकरशाही घबरा उठी थी इसलिए कुछ दिन बाद सत्येन्द्र वसु को फाँसी देकर चुपचाप जेल में ही दफना दिया गया।