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सरदार करतार सिंह सराभा का जीवन परिचय? सरदार करतार सिंह सराभा पर निबंध?

सरदार करतार सिंह सराभा का जीवन परिचय (Kartar Singh Sarabha Ka Jeevan Parichay), करतार सिंह सराभा का जन्म 24 मई, 1896 पंजाब के लुधियाना जिले के सराबा नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम मंगलसिंह था। मंगलसिंह के दो भाई और थे। उनका एक भाई उत्तर प्रदेश में इंस्पेक्टर के पद पर प्रतिष्ठित था और दूसरा भाई उड़ीसा में वन विभाग का अधिकारी था। उन दिनों उड़ीसा बंगाल के ही अन्तर्गत था।

सरदार करतार सिंह सराभा का जीवन परिचय

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Kartar Singh Sarabha Ka Jeevan Parichay

पूरा नामसरदार करतार सिंह सराभा
जन्म24 मई, 1896
जन्म स्थानपंजाब के लुधियाना जिले के सराबा नामक ग्राम
पिता का नाममंगलसिंह
मृत्यु16 नवम्बर, 1915
सरदार करतार सिंह सराभा का जीवन परिचय (Kartar Singh Sarabha Ka Jeevan Parichay)

भारत के क्रान्तिकारियों में सरदार करतार सिंह सराभा एक ऐसा नाम है, जो शौर्य, साहस, त्याग और बलिदान के लिए सदा याद किया जायेगा। महाभारत के युद्ध में अभिमन्यु ने किशोरावस्था में ही कर्त्तव्य का पालन करते हुए मृत्यु का आलिंगन किया था सरावा ने भी अभिमन्यु की भांति ही केवल बीस वर्ष की अवस्था में ही कर्तव्य वैदिका पर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया था।

उनके शौर्य और उनके बलिदान की कहानी बड़ी ही प्रेरणादायिनी है। यदि देश के युवक उस कहानी को पढ़कर सराबा के मार्ग पर चलें, तो उससे उनका मस्तक तो ऊंचा होगा ही, देश का मस्तक भी ऊंचा होगा।

बाल्यावस्था में ही सराबा के पिता की मृत्यु हो गई थी। अतः वे नवीं कक्षा तक पढ़ने के पश्चात् अपने चाचा के पास उड़ीसा चले गये। उड़ीसा से ही उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की।

1905 ई० में बंग-भंग को लेकर क्रान्तिकारी आन्दोलन आरम्भ हुआ। उस आन्दोलन का प्रभाव सराभा के हृदय पर भी पड़ा। वे क्रान्तिकारियों में सम्मिलित हो गये। यद्यपि वे गिरफ्तार नहीं हुए, किन्तु यह कहना गलत नहीं होगा कि क्रान्तिकारी विचारों की जड़ें उनके हृदय में अधिक गहराई तक पहुंच गई थीं।

1911 ई० में सरदार करतार सिंह सराभा के कुछ परिचित और सम्बन्धी अमेरिका जाने लगे। अतः सराभा भी उनके साथ अमेरिका चले गये। वे 1912 ई० में सेनफ्रांसिस्को पहुंचे। सेनफ्रांसिस्को में एक अमेरिकन अधिकारी ने उनसे पूछा, “तुम यहां क्यों आये हो?” सराबा ने उत्तर दिया, “मैं यहां उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से आया हूं।”

किन्तु सरदार करतार सिंह सराभा ने उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं की। वे हवाई जहाज बनाना और उस चलाना सीखने के उद्देश्य से एक कारखाने में भरती हो गये। जिन दिनों सराबा हवाई जहाज बनाना सीख रहे थे, उन्हीं दिनों उनकी भेंट उन लोगों से हुई जो भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्नशील थे और एशिया में जगह-जगह रहने वाले भारतीयों पर होने वाले अत्याचारों से दुखी थे।

ऐसे लोगों में लाला हरदयाल जी का नाम मुख्य है। लाला हरदयाल जी ने सेनफ्रांसिस्को में रहकर कई स्थानों का दौरा किया और कई स्थानों की सभाओं में भाषण भी दिया। कहा जाता है, सराभा उनके साथ रहते थे और उनके कार्यों में योग भी दिया करते थे।

1913 ई० की 25 मार्च के दिन ओरेगन प्रान्त में भारतीयों की एक बहुत बड़ी सभा हुई। मुख्य वक्ता लाला हरदयाल जी थे। उन्होंने सभा में भाषण करते हुए कहा, “मुझे ऐसे युवकों की आवश्यकता है, जो भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राण दे सकें।”

लाला हरदयाल की मांग पर सर्वप्रथम जिस युवक ने उठकर अपने आपको प्रस्तुत किया, वह थे सरदार करतार सिंह सराभा तालियों की गड़गड़ाहट के बीच में लाला हरदयाल ने सराभा को अपने हृदय से लगा लिया।

इसी सभा में यह भी निश्चय किया गया कि भारत की स्वतंत्रता के प्रचार के लिए ‘गदर’ नाम से एक पत्र भी निकाला जाय, जो कई भाषाओं में छपे और उन सभी देशों में भेजा जाय, जहां भारतवासी रहते हैं। फलतः 1913 ई० में ‘गदर’ प्रकाशित हुआ। ‘गदर’ के पंजाबी संस्करण का सम्पादन करतार सिंह सराभा ही करते रहे थे।

1914 ई० में विश्व में प्रथम महायुद्ध की आग प्रज्वलित हुई। अंग्रेज उस युद्ध में बुरी तरह फंसे हुए थे। अतः गदर पार्टी के कार्यकर्ताओं ने सोचा, यदि इस समय भारत में विद्रोह की आग जलाई जाय, तो भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हो सकती है।

अतः अमेरिका में रहने वाले चार हजार भारतीय इसके लिए तैयार हुए। उन्होंने अपना घर द्वार और सामान बेचकर गोला-बारूद और पिस्तौलें खरीदीं। वे सभी लोग सारे हथियार लेकर जहाज द्वारा भारत को चल पड़े। उन सभी लोगों में सराभा भी थे।

किन्तु भेद खुल जाने के कारण बहुत से लोग गोला-बारूद सहित मार्ग में ही गिरफ्तार कर लिये गये। कुछ लोग भारत के समुद्री तट पर पहुंचे, किन्तु किनारे पर उतरने के पूर्व ही गिरफ्तार कर लिये गये सरावा अपने कुछ साथियों के साथ बच निकले। वे गुप्त रूप से पंजाब में जाकर विद्रोह के लिए तैयारियां करने लगे।

सराभा गुप्त रूप से क्रान्तिकारियों से मिलकर विद्रोह की आग जलाने का प्रयत्न करने लगे। वे इसी उद्देश्य से सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, रासबिहारी बोस और शचीन्द्रनाथ सान्याल आदि क्रान्तिकारियों से मिले। उनके प्रयास से जालंधर की एक बगीची में क्रान्तिकारियों की एक गोष्ठी हुई। उस गोष्ठी में शचीन्द्रनाथ सान्याल भी सम्मिलित हुए थे। उस समय सराभा की अवस्था केवल 19 वर्ष की थी।

गोष्ठी में पंजाब के सभी क्रान्तिकारी सम्मिलित हुए थे। पंजाब के क्रान्तिकारियों ने इच्छा प्रकट की कि रासबिहारी बोस को पंजाब में आना चाहिए। और पंजाब के क्रान्तिकारियों का संगठन करना चाहिए। फलतः रासबिहारी बोस पंजाब गये।

उन्होंने पंजाब के क्रान्तिकारियों का संगठन तो किया ही, विद्रोह के लिए एक योजना भी बनाई। उस योजना के अनुसार समस्त भारत की फोजी छावनियों में एक ही दिन और एक ही समय विद्रोह की आग प्रज्वलित होने वाली थी।

करतार सिंह सराभा ने लाहौर, फीरोजपुर, लायलपुर और अमृतसर आदि फौजी छावनियों में घूम-घूमकर पंजाबी सैनिकों का संगठन तो किया ही, उन्हें विद्रोह का सन्देश भी दिया। कहना ही होगा कि सराभा के प्रयत्नों से पंजाब की समस्त फौनो

छावनियों में विद्रोह को आग सुलगने लगी थी। रासबिहारी बोस छद्म वेश में लाहौर के एक मकान में रहते थे। सरावा उनके पास बराबर आया जाया करते थे। योजना के अनुसार 1915 ई० की 21 फरवरी को समस्त भारत में क्रान्ति होने वाली थी।

किन्तु 15 फरवरी को ही भेद खुल गया हुआ यह कि एक गुप्तचर क्रान्तिकारियों के दल में जा मिला था। उसे जब 21 फरवरी को समस्त भारत में क्रान्ति होने की बात मालूम हुई, तो उसने 16 फरवरी को ही उस भेद को सरकार पर प्रकट कर दिया।

फलस्वरूप चारों ओर गिरफ्तारियां होने लगीं। बंगाल में तो गिरफ्तारियां हुई ही पंजाब में भी गिरफ्तारियों का तांता बंध गया। रासबिहारी बोस किसी तरह लाहौर से वाराणसी और वाराणसी से कलकत्ता चले गये। वे कलकत्ता से छद्म नाम से जहाज पर बैठकर जापान चले गये।

बोस ने लाहौर छोड़ने के पहले सराभा को सलाह दी थी कि वे काबुल चले जायें। बोस की सलाह पर सराभा काबुल की ओर चल पड़े। जब वे वजीराबाद पहुंचे, तो उनके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि इस तरह छिप कर देश से भागना उचित नहीं है। इससे तो अच्छा यही है कि देश के लिए फांसी पर चढ़कर जीवन बलिदान कर दिया जाय। ठीक ही है

वीर मृत्यु से कभी न डरते, हंस कर गले लगाते हैं, फूलों की कोमल शय्या सम, शूली पर सो जाते हैं।सराभा के मन में जब यह विचार उत्पन्न हुआ तो वे वजीराबाद की फौजी छावनों में घुस गये और फौजियों के सामने व्याख्यान देने लगे- “भाइयो, अंग्रेज विदेशी हैं। हमें उनकी बात नहीं माननी चाहिए। हमें आपस में मिलकर अंग्रेजी शासन को समाप्त कर देना चाहिए।”

सराभा का उद्देश्य भाषण देना नहीं था। उनका उद्देश्य था कि वे गिरफ्तार कर लिए जायें। निदान, वे गिरफ्तार कर लिये गये। गिरफ्तार होने पर उन्होंने बड़े गर्व के साथ स्वीकार किया कि वे अंग्रेजी शासन को समाप्त करने के लिए सैनिक विद्रोह करना चाहते थे।

करतार सिंह पर लाहौर षड्यंत्र के नाम से मुकद्दमा चलाया गया। उनके साथ 63 दूसरे आदमियों पर भी मुकद्दमा चलाया गया था करतार सिंह पर हत्या, डाका और शासन को उलटने का अभियोग लगाया गया था। मुकद्दमे में चौबीस आदमियों को फांसी की सजा दी गई अपील करने पर सात आदमियों की फांसी की सजा को स्थिर रखा गया था। उन सातों आदमियों के नाम थे सरदार करतार सिंह सराभा, विष्णु पिंगले, काशीराम, जगतसिंह, हरिनामसिंह, सज्जनसिंह और बख्शीशसिंह।

1915 ई० की 19 नवम्बर को करतार सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया गया था। जज ने उनके फैसले में लिखा था- “इस युवक ने अमेरिका से लेकर हिन्दुस्तान तक अंग्रेजी शासन को उलटने का प्रयत्न किया। इसे जब और जहां भी अवसर मिला, अंग्रेजों को हानि पहुंचाने का प्रयत्न किया। इसकी अवस्था बहुत कम है, किन्तु अंग्रेजी शासन के लिए बड़ा भयानक है।”

भाई परमानन्दजी ने सराबा के जेल जीवन के सम्बन्ध में लिखा है, “सराबा को कोठरी में भी हथकड़ियों और बेड़ियों से युक्त रखा जाता था। उनसे सिपाही बहुत डरते थे। उन्हें जब बाहर निकाला जाता था, तो सिपाहियों की बड़ी टुकड़ी उनके आगे पीछे चलती थी। उनके सिर पर मृत्यु सवार थी, किन्तु वे हंसते-मुस्कराते रहते थे।”

भाई परमानन्दजी ने सरदार करतार सिंह सराभा के सम्बन्ध में आगे और लिखा है, “मैंने सराभा को अमेरिका में देखा था। वे गदर पार्टी के कार्यकर्ताओं में मुख्य थे। वे बड़े साहसी और वीर थे। जिस काम को कोई भी नहीं कर सकता था, उसे करने के लिए सराभा सदा तैयार रहते थे। उन्हें कांटों की राह पर चलने में सुख मालूम होता था, मृत्यु को गले लगाने में आनन्द प्राप्त होता था।

सराभा अमेरिका से जहाज पर बैठकर भारत आये थे। उनके बहुत से साथी रास्ते में ही पकड़ लिये गये, किन्तु वे किसी तरह बच कर पंजाब में आ गये। जब वह पंजाब में आये थे, तब उन्हें कोई नहीं जानता नहीं था, किन्तु अपनी देशभक्ति और अपनी वीरता के कारण वे कुछ ही दिनों में सबके प्रिय बन गये।

उन्होंने पंजाब के क्रान्तिकारियों का संगठन किया और चारों ओर घूम-घूम कर फौजियों को विद्रोह के लिए संदेश दिया। यदि भेद खुल न जाता, तो सारे भारत में क्रान्ति की भयंकर आग जलती। उस आग में ब्रिटिश शासन जलकर भस्म हो जाता, निश्चित रूप से भस्म हो जाता। इनकी मृत्यु 16 नवम्बर, 1915 को हुई थी।

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