कार्यमाणिक्कम् श्रीनिवास कृष्णन का जीवन परिचय: उनका जन्म 4 दिसम्बर सन् 1898 में दक्षिण भारत में तमिलनाडु के तिरुनलवेली जिले के वातरप नामक गाँव में हुआ। घर का परिवेश धार्मिक होने के कारण कृष्णन् बाल्यकाल से ही भारतीयता के रंग में रंग गए। उनके पिता तमिल व संस्कृत भाषा के विद्वान थे।
श्रीनिवास कृष्णन का जीवन परिचय

Karyamanikkam shrinivas krishnan Biography in Hindi
“वे एक महान वैज्ञानिक ही नहीं अपितु उससे भी अधिक हैं। वे विशिष्ट व्यक्तित्व व संपूर्ण व्यक्ति हैं।” डॉ. कार्यमाणिक्कम् श्रीनिवास कृष्णन् एक ऐसे वैज्ञानिक थे जिनके विषय में पंडित नेहरू ने उक्त शब्द कहे। ये देश के प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों की सूची में सदैव अग्रणी रहे। डॉ. कृष्णन् को विज्ञानाचार्य डॉ. चंद्रशेखर वेंकेट रमन का शिष्य बनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। सभी महत्त्वपूर्ण अनुसंधानों में उन्होंने सहायक भूमिका निभाई और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की।
कार्यमाणिक्कम् श्रीनिवास कृष्णन के द्वारा किये गये आविष्कार
S.No | आविष्कार |
---|---|
1. | स्फटिक व चुंबकीय शाखाओं पर प्रयोग |
2. | अणुओं की संरचना संबंधी अनुसंधान |
3. | सुपर कंडक्टिविटी शब्द से पहचान |
4. | टाइटेनियम, कार्बन, सोना, क्रोमियम मैगनीज, चांदी, निकेल व बैनेडियम के स्थिरांक ज्ञात किए |
अतः कृष्णन् ने भी मातृभाषा तमिल के अतिरिक्त संस्कृत भाषा का गहन अध्ययन किया। बालक अल्पायु से ही प्रकृति का परम उपासक था। गाँव-देहात के प्राकृतिक वातावरण ने उनके मनोमस्तिष्क को और भी प्रखर बना दिया। प्रारंभिक शिक्षा के लिए उन्हें वातरप में ही भेजा गया।
मदुरै के अमरीकन कॉलेज से उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की तथा मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज से बी०एस०सी० की डिग्री ली। विज्ञान की उच्च शिक्षा पाने के लिए वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के साइंस कॉलेज में विज्ञानाचार्य रमन के पास अध्ययन करने लगे।
उन्होंने सन् 1923 से 1928 तक प्रोफेसर रमन के साथ सहयोग करते समय अणुओं की भीतरी विशेषताओं पर काम किया व संसार को उनका ज्ञान कराया। इसी बीच उनके अनेक मौलिक निबंध भी प्रकाशित हुए। जिन पत्रिकाओं में उनके निबंध प्रकाशित हुए उनमें मुख्य रूप से ‘इंडियन जर्नल ऑफ फिजिक्स’ व ‘फिलासाफिकल मैगजीन’ का नाम लिया जा सकता है।
लगभग पाँच वर्ष तक यहाँ कार्य करने के पश्चात् वे सन् 1928 में ढाका विश्वविद्यालय में भौतिकी के रीडर पद को संभालने चले गए। ढाका में भी अनुसंधान कार्य प्रगति पर रहा। वहाँ उन्होंने स्फटिक व चुंबकीय शाखाओं पर अपने प्रयोग किए।
उन्हीं दिनों उनकी भेंट आचार्य सत्येंद्रनाथ बसु से हुई। जिनके सहयोग से डॉ. कृष्णन् की मौलिक प्रतिभा और भी जागृत हुई। ढाका में डॉ. कृष्णन् ने अपने विश्वविद्यालय के अनेक विज्ञान छात्रों को मौलिक गवेषणाओं के लिए प्रोत्साहित किया। उनके सभी छात्रों ने “स्फटिकों के चुंबकीय गुण” विषय पर अनुसंधान कार्य में अपना योगदान दिया।
सन् 1933 में डॉ. कृष्णन् ने कलकत्ता की साइंस एसोसिएशन में कार्य किया। उनके आगमन से संस्था को महती लाभ हुआ तथा अन्वेषण कार्य के उत्साही युवक साथ आ खड़े हुए। उन दिनों प्रोफेसर कृष्णन् ने प्रकाश विज्ञान, स्फटिक भौतिक व चुंबक पर अनेक प्रयोग किए जिससे उनकी ख्याति विदेशों तक जा पहुँची।
उन्होंने अणुओं की संरचना के अनुसंधान में पूरी तन्मयता से कार्य किया व विशेष रूप से सफलता पाई। भौतिकी के क्षेत्र में किए गए अनुसंधानों के कारण उन्हें वैज्ञानिकों की अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस में बुलाया गया।
उस कांफ्रेंस में डॉ. कृष्णन् ने “Fluorscence of Aromative Molecules” विषय पर अपने विचार व्यक्त किए, जिन्हें वैज्ञानिकों द्वारा मुक्त कण्ठ से सराहा गया। यूरोप के अनेक प्रमुख देशों व प्रयोगशालाओं के वैज्ञानिकों से भेंट कर डॉ. कृष्णन् ने अपनी जानकारी को बढ़ाया। अन्तर्राष्ट्रीय चुंबक कांफ्रेंस में बुलाया जाना भी कम गर्व की बात नहीं थी।
स्ट्रासबर्ग में हुई इस कांफ्रेंस में डॉ. कृष्णन् के व्याख्यानों ने जादू का सा असर दिखाया। कुछ ही समय पश्चात् उन्हें सूचना मिली कि उन्हें रॉयल सोसायटी ने अपना फैलो निर्वाचित कर लिया है। इंग्लैंड की ओर से मिलने वाले इस विशेष सम्मान ने उनकी ख्याति को द्विगुणित कर दिया।
विदेशी साधारण-सी वेशभूषा वाले इस विद्वान वैज्ञानिक की प्रतिभा व असाधारण बुद्धि चातुर्य को देख दंग रह जाते। सन् 1942 में वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर नियुक्त किए गए। वहाँ उन्होंने ठोस वस्तुओं के भौतिक गुणों का विशेष रूप से अध्ययन किया ।
स्वतंत्र भारत में जब भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय अनुसंधानशालाएँ स्थापित की गईं तो सर्वप्रथम उन्हें ही राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला का निदेशक चुना गया। वहाँ अनेक नवीन गवेषणाओं के अतिरिक्त उन्होंने टाइटेनियम, कार्बन, क्रोमियम मैगनीज़, सोना, चाँदी, निकेल व बैनेडियम के स्थिरांक ज्ञात किए। इस संस्थान में उन्होंने प्रशासनिक कार्यों को भी बखूबी अंजाम दिया। इसके अतिरिक्त वे धर्मोआयोनिक समस्याओं पर भी काम करते रहे। उन्होंने ही “सुपर कंडक्टिविटी” शब्द की पहचान करवाई।
प्रोफेसर कृष्णन् स्वभाव से ही स्वतंत्र विचारों के समर्थक थे। उन्होंने अपने जीवन में कभी भी गलत सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। रवीन्द्र नाथ के गीत “एकला चलो रे” को उन्होंने जीवन में मूलमंत्र की तरह उतारा था। कोई भी समर्थन न मिलने पर भी वे अपने विचार पर अडिग रहते चाहे लाख कठिनाईयाँ क्यों न आएँ ।
उन्होंने सदैव यही चाहा कि विज्ञान की सभी शाखाओं पर काम किया जाए ताकि देश का सर्वांगीण विकास संभव हो सके। प्रोफेसर कृष्णन् का केवल एक वैज्ञानिक के रूप में मूल्यांकन करें तो अनुचित ही होगा। वे साहित्य व दर्शन के भी पुजारी थे। विज्ञान के नीरस विषयों के बीच भी वे इतिहास, कला, संस्कृति व धर्म जैसे विषयों को लेकर समय निकाल लेते। उनके व्याख्यानों में उनके ज्ञान का परिचय मिलता ।
अपनी मातृभाषा तमिल के प्रति वे विशेष रूप से आग्रही थे। उनका मानना था कि भावी वैज्ञानिकों को पाश्चात्य जगत की ओर पलायन करने की अपेक्षा भारत में ही विकसित करना चाहिए। उन्हें आडंबर से घृणा थी। प्रत्येक आचार-विचार में सादगी व स्पष्टता उन्हें विशेष रूप से प्रिय थे।
सन् 1954 में उन्हें पद्मभूषण की उपाधि से सम्मानित किया गया। डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर स्मृति पुरस्कार से भी उन्हें सम्मानित किया गया। वे “जनरल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च” के संपादक मण्डल के सदस्य भी रहे।
प्रोफेसर कृष्णन् राष्ट्रीय विज्ञान संस्थान, राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, परमाणु विज्ञान अनुसंधान मण्डल व भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे।
आजीवन अपने वैज्ञानिक अनुसंधानों के माध्यम से देश का कल्याण चाहने वाले प्रोफेसर कृष्णन् वास्तव में सादगी व सरलता की प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में (Thermodynamies of very low Temperatures) पर भी गवेषणाएँ की थीं। वे चाहते थे कि इस अनुसंधान के लिए एक ऐसी प्रयोगशाला का निर्माण हो जिसमें न्यूनतम तापमान पर अनेक पदार्थों के गुणों पर कार्य किया जा सके परंतु आर्थिक सहायता के अभाव में उनका यह स्वप्न अधूरा ही रह गया।
14 जून सन् 1961 को अचानक हृदय गति रुक जाने के कारण उनका देहांत हो गया। निःसंदेह यदि वह कुछ वर्षों तक और जीवित रहते तो देश उनके अनुसंधानों से यथोचित लाभ उठा पाता परंतु इस अल्पायु में ही उन्होंने विज्ञान जगत को जो अभिज्ञताएँ सौंपी उनको भुलाया नहीं जा सकता।
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