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खुदीराम बोस का जीवन परिचय, क्रान्तिकारी खुदीराम बोस कौन थे

खुदीराम बोस का जीवन परिचय: खुदीराम बोस का जन्म 03 दिसम्बर 1889 को मिदनापुर, बंगाल में हुआ था। बंगाल के मेदनीपुर नगर में एक मोहल्ले का नाम हबीबपुर था। खुदीराम बोस का जन्म वहीं हुआ था। इनके पिता का नाम त्रिलोक्यनाथ बोस और माता का नाम लक्ष्मी देवी था।

खुदीराम बोस का जीवन परिचय

खुदीराम बोस का जीवन परिचय
Khudiram Bose Ka Jivan Parichay

Khudiram Bose Biography in Hindi

ब्रिटिश हुकूमत ने घोर अत्याचार किये हैं। और यह खुदा और हिन्दुस्तान के आगे तोबा न करे तो जरूर एक दिन मिट्टी में मिल जायेगी। मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि जब तक यह तोबा न करे तब तक इसे मिटाना हर भारतीय का कर्तव्य है।

बीसवीं शताब्दी प्रारम्भ होने से पूर्व युद्ध में जापान ने रूस को परास्त कर दिखाया तो बंगाल की बुद्धिजीवी जनता का मनोबल ऊँचा उठा। यूरोपियन अजेय और श्रेष्ठ हैं लोगों की ऐसी भ्रमित धारणा धराशायी हो गयी थी। उन्होंने समझ लिया संगठन ही शक्ति है।

खुदीराम बोस पालन-पोषण एवं शिक्षा-दीक्षा

कुछ दिनों के उपरान्त ही वे अपनी माँ की ममता से वंचित हो गये। पिता ने दूसरा विवाह रचा लिया। अचानक त्रिलोक्यनाथ की भी मृत्यु हो गयी। सौतेली माँ अपने भाई के घर जाकर रहने लगी। ऐसी स्थिति में इनके बहनोई अमृत लाल राय जो मेदनीपुर के जज के यहाँ हेडक्लर्क थे खुदीराम के पालन-पोषण की व्यवस्था उन्हीं की देख-रेख में सम्पन्न हुई।

बहनोई अमृत लाल राय राजकीय कर्मचारी होने के नाते घर-परिवार में भी अनुशासित व्यक्ति थे अतः खुदीराम का अल्हड़ बचपन नियन्त्रित वातावरण में ही पला। वे बड़ी तीक्ष्ण बुद्धि के मेधावी छात्र थे किन्तु शरारती एवं चंचल होने के कारण पढ़ाई के प्रति कम रुझान था।

देखने में आकर्षक व्यक्तित्व के सुन्दर किशोर थे खुदीराम जिनकी बड़ी-बड़ी रस भरी आँखें, उन्नत ललाट के इर्द-गिर्द घुँघराले काले काले बलखाते केश हठात् लोगों के मन मोहने में सक्षम थे। मन पढ़ने में न लगता खेल-कूद के प्रति अत्यधिक लगाव भी पढ़ाई में बाधक थी इसलिए परिजनों की डाँट-डपट निरन्तर चलती रहती।

खुदीराम बोस का क्रान्तिकारी योगदान

उसके सामने अंग्रेजों के अत्याचार जब जनता पर होते मन विद्रोह कर उठता। इन्हीं दिनों लार्ड कर्जन ने विश्वविद्यालय कानून बनाया और बंगाल को विभाजित कर शासन करने का निश्चय किया। दोनों आदेशों ने जनता में अचानक हलचल पैदा कर दी।

तभी चटगाँव में खबर फैली कि पुलिस इंस्पेक्टर असनुल्ला खाँ को हरिपद भट्टाचार्य ने अपनी गोली का निशाना बनाकर मार डाला। वह अंग्रेजों को खुश करने के लिए ही बंगाली युवकों को अपने बूट की ठोकरों से मार-मारकर मूच्छित किया करता।

नयी उमर के होनहार किशोरों को पकड़-पकड़ असहनीय यातनाएँ दे उनको आतंकित कर मनोबल गिराने का प्रयास करता वह भारतीय होने के बावजूद अंग्रेज अफसर के समान आचरण करता। इस समाचार ने मेदनीपुर के नवयुवकों में उत्साह की लहर फैला दी।

खुदीराम बोस भी अपनी उम्र के सहयोगियों द्वारा इसी प्रकार के क्रान्तिकारी कारनामों के प्रति विशेष रुचि लेकर उनमें सक्रियता से जुड़ने की लालसा को मन में सँजोया।

उसका हृदय भी पिस्तौल और गोली से खेलने के लिए उमड़ने लगता जब उसके कानों में पड़ा कि अनुज सिंह गुप्त को मारनेवाले दिनेश मजुमदार को कालेपानी की सजा हुई मगर वह जेल फाँदकर भाग आया और उसने बड़ी बहादुरी से अपने बंगाली सहयोगी को, जो मुखबिर बना था, मौत के घाट उतार दिया।

दूसरी गर्म खबर थी बंगाल का क्रूरतम पुलिस इंस्पेक्टर लोमैन को दिन-दहाड़े युवक विनय कृष्ण बोस ने गोलियों से भून डाला। सहयोगी सिपाही निकट ही मरा पाया गया। विनय बोस पकड़े नहीं गये, भाग निकले।

बंगाल में अंग्रेजों के अत्याचारों के विरुद्ध आन्दोलन जोर पकड़ने लगा। अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार कर गली-मोहल्लों के चौराहों पर उन्हें जलाया जाता। स्वदेशी चीजें बरतने की लोग शपथ लेते, पिकेटिंग, जुलूस और सभाएँ आयोजित करते, ‘वन्देमातरम्’ की धुनें चारों ओर वातावरण में गूँजती।

नौकरशाही आन्दोलन दबाने के लिए ताकत का भरपूर प्रयोग करने में न चूकती। निरपराध लोग जेलों में से गये, बूट और बेंत की मार से सम्भ्रान्त बंगालियों को अपमानित करने का चलन जोरों पर था। आतंक से मगर नया खून भयभीत न था, विचलित न था।

उसके मन में बदला लेने की तीव्र भावना जाग्रत होती गयी, बलवती होती गयी-वे अंग्रेजों के जुल्म हरगिज नहीं सहेंगे। ईंट का जवाब पत्थर से दिया जायेगा, चाहे जान भले चली जाये। ‘बंग-भंग’ और ‘विश्वविद्यालय कानून’ ने बंगाल की नवोदित राष्ट्रीयता को चुनौती दे डाली थी। बंगालियों ने जो आन्दोलन चलाया भारत के अन्य प्रान्तों ने भी सहानुभूति स्वरूप स्वदेशी, पिकेटिंग और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार तो किया मगर कोई विशेष सक्रियता प्रदर्शित नहीं की गयी। बंगाली मौन मगर निराश थे।

अन्य प्रान्तों में असहयोग आन्दोलन चला मगर कुछ समय पश्चात् व्यर्थ प्रमाणित हुआ। अहिंसक आन्दोलन की असफलता के कारण ही जागरूक जनता ने, बुद्धिजीवियों ने अपने-अपने स्थानों पर गुप्त अनुशीलन समितियाँ स्थापित कीं जिनमें ‘अनुशीलन सुहृद’ एवं ‘युगान्तर’ समिति के नाम उल्लेखनीय हैं।

विदेशी हुकूमत का दमन चक्र चला। अंग्रेजों के अत्याचारों का बंगाल के विद्वानों, विचारकों और नेताओं ने जमकर विरोध किया तो विदेशियों ने उन्हें कुचलने का प्रयास किया। बारीन्द्रनाथ घोष ने अपने भाई अरविन्द घोष के साथ बंगाल में घूम-घूमकर अंग्रेजों के अनाचार और अत्याचार की कहानी जनता तक पहुँचायी, उन्हें जाग्रत किया, एकता का सन्देश दिया-शक्तिशाली बन संघर्ष करने की उपयोगिता समझायी, नारा दिया- संगठन में अपार शक्ति है। शक्ति का संचय ही संगठन की सफलता है। हम दुर्बल नहीं बलवान हैं, हर मोर्चे पर अंग्रेजों से लोहा लेने में सक्षम हैं।

विपिन चन्द्र पाल, बान्धव उपाध्याय और भूपेन्द्र नाथ दत्त जैसे जुझारू विचारकों को जेल के सींखचों में बन्द कर दिया गया जब उन्होंने जनता को मातृभूमि की रक्षा करने का पाठ सिखाने का प्रयास किया। इस दमनचक्र से क्रान्ति की चिनगारी बंगालियों के हृदय में ज्वाला के रूप में पज्वलित होने लगी।

हर नवयुवक एक ज्वालामुखी बनकर अंग्रेजों के विरुद्ध उठ खड़े होने को तैयार था। उन्हीं में से एक नवयुवक क्रान्ति की मशाल हाथ में लेकर खड़ा हो गया जिसका नाम था खुदीराम बोस। उस समय बंगाल से प्रकाशित होनेवाले समाचार पत्रों में हर पंक्ति से अंग्रेजों के प्रति रोष, विद्वेष और घृणा की भावना टपकती, क्रान्ति की ज्वाला धधकती प्रतीत होती थी।

अचानक पुलिस कर्मियों एवं खुफिया तन्त्र को अपने ही देशद्रोहियों के चलते मुरारी पुकुर रोड के एक बँगले में स्थित बम का कारखाना पकड़ने में सफलता मिली। भारी मात्रा में बम, डायनामाइट, पिस्तौलें, रिवाल्वर और आपत्तिजनक साहित्य बरामद हो गया। लगभग 34 क्रान्तिकारी पुलिस की सरगर्मी से पकड़ में आ गये।

इसी कांड में मुकदमे के दौरान कई देशद्रोहियों को उनके कुकृत्य की सजा देकर मौत के घाट उतार भी दिया गया। मगर देशभक्त और देशद्रोही की पहचान तो समय पर होती है। ऐसे ही देशद्रोहियों में एक नाम उभरता है नरेन्द्र गोस्वामी का, जिसे अमर क्रान्तिकारी कन्हाई लाल दत्त और सत्येन्द्र नाथ वसु ने अस्पताल में पहुँचकर मुखबिरी के अपराध में अपनी गोलियों से भून डाला था।

वे में दोनों फाँसी के फन्दे पर झूल गये मगर अपने हाथों देशद्रोही को मुखबिरी का मजा चखाकर दम लिया था। बंगाल वह प्रान्त था जिसमें क्रान्ति की जड़ें बड़ी मजबूती से फैली थीं। जहाँ के बँगला साहित्य में, काव्य में, गीतों में, कहानियों में, बच्चों की लोरियों में भी क्रान्ति की धुनें ही गूँजती मिलती थीं।

अपनी पढ़ाई का मोह त्यागकर खुदीराम बोस बड़े साहस से क्रान्तिकारी संगठन जुड़कर आन्दोलन की आग में कूद पड़े। नये खून को एक सूत्र में पिरोया, अस्त्र से शस्त्र से सुसज्जित किया और बगावत का झंडा अंग्रेजों के विरुद्ध उठाकर, विदेशियों के दमन चक्र से भारत को मुक्त कराने का संकल्प लेने के लिए उसने अपनी कमर कस डाली।

जीने की परवाह छोड़ मृत्यु को अपनी हथेली पर उठा लिया। गुप्त क्रान्तिकारी समिति से जुड़कर वह ऐसा बढ़ा कि कभी पीछे मुड़कर देखने की मूर्खता नहीं की। कदम आगे-से-आगे बढ़ते गये, बढ़ते गये और अन्त में एक दिन ये ही बढ़ते कदम खुदीराम बोस को फाँसी के फन्दे तक ले गये।

खुदीराम बोस ऐसा उत्साही, दृढ़ और आदर्शवादी क्रान्तिकारी बना जो एकान्त में गुनगुनाता–’अबला केन माँ एत बले, बहुबल धारिणीम् नमामि तारिणीम् रिपुदल वारिणीम् मातरम् वन्देमातरम् कलकत्ते में इन दिनों ‘किंग्सफोर्ड’ का नाम क्रान्तिकारियों की हिट लिस्ट में अव्वल नम्बर पर चढ़ा था।

वह था तो प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट मगर देशभक्तों, स्वदेशी आन्दोलनकारियों और नवयुवकों को प्रताड़ित करने, सजा सुनाने, दंड देने, अपमानित करने में आवश्यकता से अधिक जोश दिखाने में प्रवीण और सिद्धहस्त था।

एक दिन एक अहंकारी मूर्ख पुलिस मैन का सामना करनेवाले एक नवयुवक सुशील सेन को बेंतों से पीटने की सजा सुनायी गयी। बेतों की बौछार उस नवयुवक पर तब तक पड़ती रही जब तक वह लहूलुहान हो मूच्छित स्थिति में धराशायी नहीं हो गया। वही ऐसा न्यायाधीश था जो स्वदेशी आन्दोलन के कार्यकर्ताओं के लिए भस्मासुर था।

जज न होकर उसका आचरण एक पुलिस अफसर से भी बुरा और पाशविक था। क्रान्तिकारी संगठन ने किंग्सफोर्ड के आचरण का मूल्यांकन किया। सदस्यों ने एकमत से स्वीकार किया कि ऐसे अधर्मी अन्यायी न्यायाधीश को उसके अपराध का दंड देना समिति का निश्चय है, निर्णय है।

इसे क्रियान्वित किया जाये। बंगाली वीरों ने आतंकवाद का बदला आतंकवाद से लेने की ठान ली थी। ‘किंग्सफोर्ड को मृत्युदंड देकर यमलोक पहुँचाने के लिए यमदूत कौन बनेगा ?” समिति ने विचार-विमर्श किया।

इस योजना का सुराग अंग्रेजों के कानों तक पहुँच गया- किंग्सफोर्ड को मौत के घाट उतारने की योजना बागियों के गिरोह में विचाराधीन है। विदेशी सरकार ने तत्काल न्यायाधीश को कलकत्ते से हटाकर बिहार के मुजफ्फरपुर शहर में स्थानान्तरण कर वहाँ का जज नियुक्त कर दिया।

क्रान्तिकारियों को स्थिति की भनक जब मिली तो उनकी बेचैनी और बढ़ गयी। हर सदस्य समिति की बैठक में यमदूत के रूप में अपना नाम प्रस्तावित करने पर उतारू था मगर इस महोत्सव को सफल बनाने लिए क्रान्तिकारी खुदीराम बोस एवं प्रफुल्लचन्द्र चाकी को यमदूत बनने का सौभाग्य प्राप्त हो गया।

दोनों प्रसन्न हो गये जैसे मुँहमाँगी मुराद उन्हें मिल गयी थी। उस समय खुदीराम बोस केवल 18 वर्ष के होनहार भारतीय तरुण थे जिसके चरण पूरी तरह तरुणाई की ओर न बढ़े थे। खुदीराम बोस और प्रफुल्लचन्द्र चाकी अपनी मुहिम पर निकल पड़े और मुजफ्फरपुर की एक धर्मशाला में डेरा जमा लिया।

दोनों मित्र दोपहर की नींद से आलस्य उतार सायंकाल घूमने के बहाने नगर की स्थिति एवं जज महोदय के पूरे दस दिन में सभी बारीक स्थितियों की जानकारी खुदीराम बोस ने पूर्णतया प्राप्त कर ली। खुदीराम बोस का जीवन परिचय

अध्ययन करने के पश्चात् निर्णय किया गया कि किंग्सफोर्ड नित्य प्रति सायंकाल घोड़ा गाड़ी से क्लब जाता है और उसी मार्ग से निश्चित समय पर घर वापस लौट आता है। ध्येय सफल होने की स्थिति में दुर्घटनास्थल से भाग जाना आवश्यक नहीं,

जितना आवश्यक किंग्सफोर्ड को हर कीमत पर मौत के घाट उतारना है। अभियान सफल होने पर यदि नियति ने जीने का अवसर दे दिया तो स्पष्ट है अन्य किसी अत्याचारी को यमलोक पहुँचाने में सक्षम हो सकेंगे।

30 अगस्त, 1908 की रात को 8 बजे खुदीराम बोस अपने निश्चित स्थान पर शिकार की प्रतीक्षा में घात लगाकर सड़क के किनारे एक पेड़ की आड़ लेकर खड़े हुए। यह वृक्ष पूसा रोड (बैनी) के मोड़ पर स्थित था। लगभग पचास-साठ कदम की दूरी पर बायें मोड़ की पुलिया पर प्रफुल्लचन्द्र चाकी बैठ गये, यह सीधा मार्ग समस्तीपुर जाता है

अचानक किंग्सफोर्ड की हरी घोड़ा गाड़ी की आहट ने खुदीराम के हृदय में हलचल पैदा कर दी। अपने दायें हाथ में बम को ठीक से पकड़ लिया। घोड़ों की टापों का स्वर निकट आकर तेज हुआ। प्रफुल्लचन्द्र ने अपने हाथों में रिवाल्वर कस लिया। किंग्सफोर्ड की चिर प्रतीक्षित घोड़ा गाड़ी ज्यों ही पेड़ के सामने से

गुजरी खुदीराम ने बम फेंका और पूसा रोड की ओर चल दिया। घोड़ गाड़ी धमाके से आग की लपटों में ध्वस्त हुई। भीषण चीत्कार का स्वर वायुमंडल में गूँजा। प्रफुल्ल चाकी समस्तीपुर की ओर दबे पाँव खिसक लिया। प्रफुल्ल चाकी के तेज कदमों ने समस्तीपुर के स्टेशन पर खड़ी ट्रेन में बैठने के लिए दरवाजा खोलकर प्रवेश कर लिया।

वह बैठने की सीट की ओर पहुँचना ही चाहता था कि उसकी नजर नन्दलाल बनर्जी दरोगा से टकराई। बनर्जी ने चाक़ी को पहले ही देख लिया था अतः नीची नजरों से वह पीछा करते आगे बढ़ा। चाकी ने तत्काल अपने रिवाल्वर से नन्दलाल को गोली मारी मगर निशाना चूक गया।

दरोगा नन्दलाल बनर्जी आड़ लेकर गोली दागना ही चाहता था कि गोली चलने के स्वर ने उसे चौंका दिया। चाकी ने अपनी कनपटी पर गोली मार स्वयं आत्महत्या कर शहीद हो गया था। अन्धेरी रात में 25 मील का लम्बा पैदल सफर करने के पश्चात् उधर प्रातःकाल खुदीराम बोस बैनी पहुँच गये।

एक दुकान पर चने ले वह मेज पर बैठ गये पेट की भूख शान्त करने। खुदीराम का चेहरा थकान से बोझिल, अस्त-व्यस्त उतरा था, इर्द-गिर्द सिर के घुँघराले केश उलझे उलझे मन की चिन्ताएँ व्यक्त कर रहे थे। चबेने को मुँह में डालते हुए उसकी नीची नजरें निकट बैठे ग्राहकों की आँखें टटोल रही थीं कि कहीं कोई पहचान न ले।

तभी एक व्यक्ति ने मौन तोड़ते हुए दूसरे साथी से कहा- ‘रात को मुजफ्फरपुर में समस्तीपुर वाले मोड़ की पुलिया के निकट किसी ने घोड़ागाड़ी में बैठी दो अंग्रेज महिलाओं को मार डाला। खुदीराम बोस के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। वह बगैर सोचे-समझे अपना मुँह अनायास ही खोल बैठा-‘क्या…किंग्सफोर्ड नहीं मारा गया ?’ उसकी आँखों में भय का समुद्र जैसे उबल पड़ा हो।

अपना स्थान छोड़ मेज से उठ खड़ा हुआ, वहाँ से बच निकलने के लिए। खुदीराम को उपस्थित लोगों ने सन्देह-भरी दृष्टि से देखा और सभी ने उसे अपने घेरे में लेने का यत्न किया। ऊँचा इनाम पाने की लालसा में लालची भीड़ ने बोस को तत्काल दबोच लिया।

गुलामी भरी कुत्सित जिन्दगी जीनेवाले भारतीय क्रान्तिकारी जीवन को कैसे पहचान पाते कि वह उनके लिये ही मर मिटना चाहता है। उन्हीं के लिए उसने अपने हाथ खून से रंग लिये हैं। खुदीराम चाहता तो आत्मरक्षा रिवाल्वर से कर सकता था पर वह अपने भारतीयों के खून से हाथ रंगे तो कैसे? वह नहीं चाहता था।

उन्हीं के समान पशुवत आचरण यदि उसने भी किया तो मानवता कलंकित हो उठेगी। बोस ने जनता के सम्मुख आत्म-समर्पण कर दिया चूँकि अपनी पिस्तौल से अपने देशवासियों का रक्त बहाना कायरता है। गोली चली तो कुछ लोग मरेंगे ही। भीड़ अपनी विजय पर प्रसन्न थी और क्रान्तिकारी मौन नतमस्तक खड़ा था एक अभियुक्त के समान जनता की अदालत में।

खुदीराम को बन्दी बनाकर जेल भिजवा दिया गया। मुकदमे के दौरान एक दिन खुदीराम बोस को ज्ञात हुआ कि प्रफुल्लचन्द्र चाकी को घेरनेवाले दरोगा नन्दलाल बनर्जी को दिन-दहाड़े क्रान्तिकारियों ने गोली से उड़ाकर कर चाकी के खून का बदला ले लिया। बोस का हृदय प्रसन्नता से भर गया।

खुदीराम बोस पर मुकदमा चलाया गया। बोस की पैरवी कालिदास बोस नामक वकील ने की मगर उन्होंने जज के सम्मुख अपने बयानों में स्पष्ट कहा- ‘बम घोड़ा गाड़ी पर मैंने फेंका है। मैं किंग्सफोर्ड को जान से मारना चाहता था। हमारे बंगाल के अनेक नौजवानों को उसने कठोर-से-कठोर सजाएँ दी हैं। मुझे खेद है कि मेरे बम से मिसेज और मिस कैनेडी की व्यर्थ जान चली गयी। इस कांड की सारी जिम्मेवारी मेरी है।”

क्रान्तिकारी खुदीराम बोस को आत्मिक सुख और हार्दिक शान्ति प्राप्त हुई जब उन्होंने जज से फाँसी की सजा की घोषणा सुन ली। मुँहमाँगी मुराद मिली थी। खुदीराम बोस का जीवन परिचय

प्रातः 6 बजे 11 अगस्त 1908 को गीता का सस्वर पाठ करते हुए खुदीराम बोस फाँसी के तख्ते पर चढ़कर शहीद हो भारतीय स्वाधीनता के संग्राम में अमर हो गये। उनका नाम शहीदों के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है

जिसने 18 वर्ष की अल्पायु में भारत माँ के लिए अपना बलिदान सहर्ष कर दिया। आनेवाली युवक पीढ़ियाँ उस अमर सेनानी की स्मृति में अपना मस्तक गर्व से उठाकर चल सकती हैं। उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया, यह सत्य है।

सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी शिव वर्मा ने ‘नव निर्माण में अमर शहीद बोस की अन्त्येष्टि और शवयात्रा का चित्रण करते हुए लिखा- ‘शवयात्रा का दृश्य बड़ा ही हृदयविदारक और मार्मिक था। एक फूलों से सुसज्जित शय्या पर उनका शव रखा था।

माथे पर चन्दन का तिलक, सिर पर घुँघराले काले केशों की छटा, अधर खुले हुए, बड़े-बड़े नेत्रों से प्रस्फुटित दिव्य ज्योति, होंठों पर निडरता और संकल्प-भरी मुस्कान अब भी दृष्टिगोचर हो रही थी।

शवयात्रा में सम्मिलित लोग सजल नयनों से गीत के स्वर मन्द मन्द गति गुनगुना रहे थे जो वातावरण को गम्भीरता प्रदान कर रहे थे। से ‘खुदीराम बोस जया हाशिते हाशिते, फाँसी ते करिलो प्राण शेष; तुई तो ना माँगो तादेर जननी, तुई तो ना माँगो तादेर देश । ‘

‘राम नाम सत्य है!’ और ‘वन्देमातरम्’ के व्योम-व्यापी नारों के साथ खुदीराम बोस की अर्थी उठी थी। ज्यों-ज्यों अर्थी आगे बढ़ी उस करुण-क्रन्दन का स्वर सड़कों से उभरता आसमान को छूने लगा। चारों ओर नर-मुंडों का जनसमूह उमड़ रहा था।

हजारों श्रद्धालुओं का अपार समूह अर्थी लिये श्मशान पहुँचा। फूलों-भरी शय्या से शव को चिता पर रख काली बाबू ने घृत, धूप और शाकल की सहायता से मुखाग्नि दी। ‘वन्दे मातरम्’ का स्वर आसमान में गूँज उठा और उनका शव चिता में जलने लगा।

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