क्रोध बना वरदान:- जैन धर्म में अनेक महापुरुष हुए हैं। उनमें से एक नाम है सिद्धर्षि सिद्धर्षि का जन्म गुजरात के श्रीमालपुर में हुआ था इनके पिता थे, शुभंकर और माता का नाम था लक्ष्मी सिद्धर्षि के दादा सुप्रभदेव गुजरात के राजा बर्मलात के मंत्री थे।
क्रोध बना वरदान

सिद्धर्षि को बड़े लाड़-प्यार से पाला गया। धन की कोई कमी थी नहीं। ऐसी दशा में जो होता है, वैसा ही सिद्धर्षि के साथ हुआ वह कुसंगति में फंस गया और जुआ खेलने की बुरी आदत उसे पड़ गई।
माता-पिता बहुत चिंतित रहते थे। ऊंचे कुल का बेटा सिद्धर्षि जुआ खेलकर धन लुटा रहा था, तो चिंता कैसे न होती! आखिर तय किया गया कि सिद्धर्षि का विवाह करा दिया जाए। माता पिता को विश्वास था कि विवाह के बाद गृहस्थी का बोझ पड़ने पर सिद्धार्थ सुधर जाएगा।
लेकिन माता-पिता की आशा पूरी नहीं हुई। सिद्धर्षि जुआ खेलने की आदत छोड़ नहीं सका। सभी नाते-रिश्तेवालों ने समझाया, लेकिन उसकी आदत छूटी नहीं नई नवेली वधू घर पर बैठी रहती और सिद्धर्षि आधी रात के बाद जुआ खेलकर घर आता।
वधू अच्छे घर की सुशील कन्या थी वह आधी रात तक सिद्धर्षि की प्रतीक्षा करती रहती। जब पति घर आता था, तब उसे खाना खिलाकर खुद खाती या बिना खाए सो जाती थी। वह मन में बहुत दुखी थी, लेकिन पति की बुराई करे, तो किससे करे? बेचारी मन-ही मन में घुटती रहती थी। इसका परिणाम यह हुआ कि वधू का चेहरा मुरझाया-सा रहने लगा और उसका स्वास्थ्य दिनों-दिन गिरने लगा।
सिद्धर्षि को इस बात से कोई मतलब नहीं था। जुआ खेलना और आधी रात के बाद घर लौटना उसकी आदत बन चुकी थी।
एक दिन सिद्धर्षि की मां ने जब बहू को देखा, तो सहम सी गई। उसने प्रेम से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा- “क्या बात है बेटी ? तुम्हारा चेहरा मुरझाया हुआ क्यों है ? क्या तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है? मुझे बताओ, बेटी क्या बात है ?”
सास का प्यार देखकर बहू की आंखें छलक पड़ीं। छिपाने के प्रयास से भी उसका दुख छिप नहीं सका। वह मौन ही रही आंखें धरती पर गड़ाए बैठी रही।
सास का मन धड़क उठा। उसने और भी प्यार से बहू को अपने समीप बिठाकर कहा ” क्या मैं तुम्हारी मां नहीं हूं बेटी ? इस घर में तुम्हें किस बात की कमी है। मन ठीक नहीं है, तो मैं अभी वैद्यराज को बुला लेती हूं। मुझे बता बेटी! क्या बात है? तुम उदास क्यों हो ?”
लज्जा से आंखें झुकाकर आखिर बहू ने बता ही दिया- “मैं तो यहां बहुत सुखी हूं मां आपके पुत्र जुआ खेलने में इतने खो जाते हैं कि घर आना भी भूल जाते हैं। प्रायः रात के तीसरे चौथे पहर में घर लौटते हैं, तब तक मुझे रोज ही उनकी प्रतीक्षा में जागना पड़ता है। इसी कारण नींद पूरी नहीं होती है। शायद इसलिए स्वास्थ्य शिथिल है, और कोई बात नहीं है। “
बहू के मुंह से यह सब सुनकर सास का कलेजा फट गया। बहू के सिर पर हाथ फेरकर सास बोली – “बेटी तेरे कष्ट का कारण मैं ही हूं। मैंने ही अपने निकम्मे बेटे के साथ तुझे बांध कर तेरा जीवन कष्ट में डाल दिया है। तू इतने दिन तक सहती रही और मुझे बताया तक नहीं? बेटी तू सच ही ऊंचे कुल की कन्या है। पति के इस बुरे व्यवहार को सहकर इतने दिन चुपचाप बिता दिए।” यह कहते-कहते सास का गला रुंध गया।
आखिर सास ने मन-ही-मन एक निश्चय कर लिया। उसने बहू से कहा- “बेटी! अब मैं ही उसे रास्ते पर लाऊंगी। आज रात को तुम उसकी प्रतीक्षा मत करना। जब वह आधी रात के बाद घर आएगा, तब दरवाजा मैं खोलूंगी। तुम नहीं आओगी, यह मेरी आज्ञा है। ” सास की आज्ञा मानकर बहू सो गई।
सिद्धर्षि की मां लक्ष्मी उसकी प्रतीक्षा में दरवाजे पर आकर बैठ गई। रात बीतने लगी और मां जागती रही। रात का तीसरा पहर बीता, तो सिद्धर्षि के आने की आहट सुनाई दी। रोज की तरह चोर की तरह आकर सिद्धर्षि ने धीरे से दरवाजा खटखटाया।
मां तो तैयार बैठी थी। बेहद क्रोध में भरकर मां ने दुत्कार चौथे पहर में इधर-उधर भटकने वाला कौन है ?” -भरे स्वर में पूछा- ” रात के “मैं तुम्हारा बेटा हूं मां दरवाजा खोल दो।” मां की आवाज पहचान कर सिद्धर्षि ने मां से विनती करते हुए धीरे से कहा।
“नहीं, नहीं। मर्यादा का उल्लंघन करने वाले के लिए इस घर में स्थान नहीं है। दरवाजा नहीं खुलेगा।” क्रोध में गरजते हुए सिद्धर्षि की मां ने साफ-साफ कह दिया। *मां! मुझे ठंड लग रही है। गुस्सा क्यों करती हो?”
“साफ-साफ सुन लो, सिद्धर्षि! यह दरवाजा तुम्हारे लिए नहीं खुलेगा। जहां तुम्हें द्वार खुला मिले, वहीं चले जाओ यह घर इज्जतवालों का है तुम्हारे लिए यह द्वार बंद है।” मां का स्वर तेज था और उसमें दृढ़ता साफ झलक रही थी।
सिद्धर्षि थोड़ी देर रुका। दरवाजा नहीं खुला। सिद्धर्षि को उल्टे पैरों लौटना पड़ा। वह चलता ही गया। सामने एक धर्मस्थान का द्वार खुला मिला। मां के शब्द उसके कानों में गूंज उठे – ” जो दरवाजा खुला मिले, वहीं चले जाओ।” सिद्धर्षि ने एक क्षण रुककर सोचा, और फिर खुले द्वार से धर्मस्थान में प्रवेश किया।
धर्मस्थान में पहुंचकर सिद्धर्षि ने देखा कि मुनिगण विविध ध्यानमुद्राओं में बैठे हैं। कितने ही मुनिगण एकाग्र चित्त होकर स्वाध्याय में लीन दिखाई दिए। उन सभी के चेहरों पर अलौकिक तेज था। मुनियों की सौम्य, शांत एवं प्रभावपूर्ण मुखमुद्रा देख कर सिद्धर्षि का मन प्रकाश से भर गया। सिद्धर्षि सोचने लगा-“ये मुनिगण कितने महान हैं, इनके मुखमंडल पर कितना तेज है और मैं कितना अधर्मी हूं। व्यसनों ने मेरा जीवन खोखला कर दिया है। जन्म देने वाली मां ने आज मुझे दुत्कार दिया है मेरा तो जीवन ही व्यर्थ है।”
धर्मस्थान के वातावरण से सिद्धर्षि इतना प्रभावित हुआ कि वह स्वयं को धिक्कारने लगा। सिद्धर्षि ने मन-ही-मन मां को प्रणाम करते हुए सोचा- “मां ने आज क्रोध करके मुझ पर सचमुच महान उपकार किया है। अगर मां मुझ पर आज क्रोध न करती, तो इन महान मुनियों के दर्शन करने का सौभाग्य मुझे कैसे मिलता ? सच ही तो है, जैसे गर्म दूध पीने से शरीर का पित्त नष्ट हो जाता है, वैसे ही मां के क्रोध से मेरे मन का मैल नष्ट हुआ है। आज मां का क्रोध मेरे लिए वरदान बन गया है। “
सिद्धर्षि ने आचार्य देव को श्रद्धापक प्रणाम किया। सिद्धर्षि को देखकर आचार्य श्री ने शांतभाव से पूछा- “तुम कौन हो, वत्स!”
सिद्धर्षि ने अपना परिचय देते हुए विनयपूर्वक बताया- “आचार्यवर! मेरा अतीत बहुत अंधकारपूर्ण और पाप कर्मों से भरा हुआ है। मैं अब आपकी शरण में आ गया हूं। कृपा करके मुझे ज्ञान का अमृत दीजिए। “
धर्मस्थान के आचार्य ने सिद्धर्षि को गौर से देखा। उसके शारीरिक लक्षणों को देखकर सामुद्रिक शास्त्र के बल पर आचार्य ने जान लिया कि यह युवक एक दिन जैन धर्म और दर्शनों का महान ज्ञाता बनेगा। सिद्धर्षि का चौड़ा ललाट देखकर आचार्य का मन हर्ष से भर उठा।
सिद्धर्षि को शांतभाव से प्रबोधित करते हुए आचार्य प्रवर ने कहा- ‘वत्स! जैसे तलवार की धार पर चलना बेहद कठिन है, वैसे ही मुनि धर्म की मर्यादाओं का पालन करना भी बहुत कठिन है।”
” आपके चरणों में रहकर मैं सभी कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर लूंगा। मुनिवर। मुझे शरण में ले लीजिए।” सिद्धर्षि ने विनयभरी दृढ़ वाणी में आचार्य श्री को उत्तर दिया।
” वत्स! केवल कहने से काम नहीं चलता। मुनि को आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना पड़ता है। अपने भीतर के अभिमान रूपी सर्प को मारकर भिक्षावृत्ति पर जीवन बिताना पड़ता है। एक नहीं, अनेक प्रकार के तपों की साधना करनी पड़ती है। भला, तुम जैसा स्वेच्छाचारी व्यक्ति किस प्रकार ऐसी साधना कर पाएगा? वत्स! मुनि बनना सरल काम नहीं है। तुम घर लौट जाओ।” आचार्य प्रवर ने सिद्धर्षि को समझाते हुए उसकी परीक्षा लेनी चाही।
सिद्धर्षि पर जैसे जादू हो गया था। आचार्य के चरणों में गिरकर उसने पुनः विनय के स्वर में कहा- “व्यसनों से भरा हुआ मेरा जीवन शांतिपूर्ण नहीं है मुनिवर। मैं मन में दृढ़ निश्चय कर चुका हूं कि मुझे श्रमण-धर्म स्वीकार करना ही है। आचार्यवर! मैं श्रमण अवश्य बनूंगा। मुझे दीक्षा दीजिए।”
आचार्य प्रवर सिद्धर्षि के दृढ़ निश्चय को देखकर गद्गद हो उठे। उन्हें लग रहा था कि काली रात का अंधेरा हट रहा है और ज्ञान का सूरज सिद्धर्षि के जीवन में प्रभा भर रहा है।
अंतिम परीक्षा लेते हुए आचार्य ने सिद्धर्षि को कहा- “वत्स! श्रमण धर्म की दीक्षा लेने के लिए तुम्हें माता और पिता के साथ ही अपनी पत्नी की भी अनुमति लेनी होगी। तभी तुम श्रमण बन सकोगे।” पूर्व दिशा में सूर्य निकला। प्रभात हो गया।
जब सिद्धर्षि घर नहीं आया, तो उसके पिता शुभंकर उसकी खोज करते-करते धर्मस्थान पर पहुंच गए। उन्होंने देखा कि पुत्र सिद्धर्षि आचार्य की सेवा में बैठा हुआ है। जैसे ही सिद्धर्षि की दृष्टि अपने पिता पर पड़ी, उसने विनयपूर्ण वाणी में कहा- “पूज्यवर ! मुझे श्रमण धर्म में दीक्षित होने की आज्ञा प्रदान कीजिए।”
पुत्र की बात सुनकर शुभंकर सहम से गए। उन्होंने सिद्धर्षि को समझाते हुए कहा- “बेटा! यह तुम क्या कर रहे हो ? तुम्हारी मां और पत्नी तो घर पर रो रही हैं। मां ने जो क्रोध किया था, उसे भूल जा उठ बेटा! घर चलकर अपनी मां और पत्नी को धीरज दे।”
“नहीं, पूज्यवर ! मां का क्रोध ही तो मेरे लिए वरदान बन गया है। मैं अब बुराइयों से भरे संसार में प्रवेश नहीं कर पाऊंगा।” सिद्धर्षि ने शांतभाव से पिता को उत्तर दिया। “बेटे जोश और रोष में किया गया निर्णय सही नहीं होता है। मां ने रोष में कहा और तुम जोश में चले आए हो यह निर्णय कैसे सही हो सकता है?” पिता ने फिर सिद्धर्षि को समझाया।
सिद्धर्षि अपने निश्चय पर अटल, अडिग रहे। पिता ने जब पुत्र का दृढ़ संकल्प देखा, तो श्रमण बनने की आज्ञा दे दी। सिद्धर्षि घर आए। द्वार पर खड़े होकर मां और पत्नी की भी अनुमति ली लौटकर धर्मस्थान में आए और आचार्य गर्थि के पास श्रमण धर्म की दीक्षा ले ली। सिद्धर्षि के लिए मां का क्रोध वरदान बन गया।
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