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लाला हनुमंत सहाय का जीवन परिचय? लाला हनुमंत सहाय पर निबंध?

लाला हनुमंत सहाय का जीवन परिचय: लाला हनुमंतसहाय महान क्रान्तिकारी थे। अभी कुछ ही वर्ष हुए, वे भारत की धरती को छोड़कर स्वर्ग गये हैं। उनके निधन पर एक बहुत बड़े नेता ने श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा था, “लाला हनुमंतसहाय स्वतंत्रता के महान साधक थे। उन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए ही जन्म धारण किया था। यद्यपि वे फांसी के तख्ते पर नहीं चढ़े, किन्तु उनके त्याग और उनके शौर्य की कहानी एक ऐसी कहानी है, जिस पर दिल्ली को ही नहीं, सारे भारत को अभिमान है।

लाला हनुमंत सहाय का जीवन परिचय

लाला-हनुमंतसहाय-का-जीवन-परिचय
Lala Hanumant Sahai Ka Jeevan Parichay

lala hanumant sahai Biography in Hindi

वस्तुतः लाला अनुमंतसहाय क्रान्ति के अनन्य पुजारी थे। उनको नाम जब हमारी जुबान पर आता है, तो हमें रासबिहारी बोस, भाई बालमुकुन्द, मास्टर अमीरचन्द और अवधबिहारी आदि याद आ जाते हैं। लालाजी इन्हीं साधकों के साथियों में से थे। यों भी कहा जा सकता है कि वे इन्हीं साधकों की पीढ़ियों में से थे।

लाला हनुमंतसहाय ने जिस स्वतंत्रता के लिए तप किया था, उन्होंने उसका दर्शन भी किया। वे काफी दिनों तक स्वतंत्र भारत में दिल्ली में रहे। किन्तु स्वतंत्रता के पश्चात् देश में जो कुछ हुआ, उससे वे दुखी थे।

एक बार उन्होंने कहा था, “हमने जिस स्वतंत्रता के लिए कष्ट सहन किये, जेलों को अपना घर बनाया और फांसी के तख्ते को अपनी शय्या बनाया, उस स्वतंत्रता का सम्मान जैसा करना चाहिए, वैसा हम नहीं कर रहे हैं। भारत का विभाजन होने के पश्चात् भी एकता के सूत्र में नहीं बंध रहे हैं। भारतीयता की ओर नहीं बढ़ रहे हैं।

लालाजी दिल्ली के ही निवासी थे। उनका राजनीतिक जीवन दिल्ली में ही बना और दिल्ली में ही उनका अन्त हो गया। वे बड़े सरलहृदय और सादगीप्रिय व्यक्ति थे। यद्यपि देश की दासता की बेड़ियां कट गई थीं, किन्तु फिर भी लालाजी अपनी अन्तिम सांसों तक देश के चरणों पर अपनी श्रद्धा के फूल चढ़ाते रहे, देश की सेवा में लगे में रहे। जिस तरह सच्चे संत की सांसें परमात्मा की याद में टूटती है, उसी प्रकार लालाजी की सांसें देश की याद में ही टूटीं ।

लालाजी को क्रान्ति की प्रेरणा महान क्रान्तिकारी वीर सावरकर से प्राप्त हुई थी। 1908 ई० के दिन थे। वीर सावरकर लन्दन में श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ मिलकर भारत की स्वतंत्रता के लिए अथक प्रयत्न कर रहे थे। इंडिया हाउस में बराबर उनके भाषण भी हुआ करते थे।

उन्हीं दिनों उनकी सुप्रसिद्ध पुस्तक 1857 ई० के ‘स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास’ प्रकाशित हुई। लालाजी को सावरकर के भाषणों और उनकी उस पुस्तक से बड़ी प्रेरणा प्राप्त हुई। फलस्वरूप वे क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित हो गये।

लालाजी सावरकर को ही अपना गुरु मानते थे। सावरकर जब भी कभी दिल्ली आते थे, तो लालाजी बड़ी श्रद्धा से उनसे मिलते थे, उनके विचार सुनते थे और उनसे प्रेरणा लेते थे। गांधीजी की हत्या के पश्चात् जब सावरकर को बंदी बनाया गया, तो लालाजी ने बड़ी निर्भीकता के साथ कहा था, “स्वतंत्र भारत की हृदय को हिला देने वाली यह एक दुखद और अनुचित घटना है।

वीर सावरकर के अतिरिक्त स्वर्गीय लाला हरदयालजी से भी हनुमंतसहाय जी को प्रेरणा प्राप्त हुई थी। उन्हें उनके साथ रहने और कार्य करने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ था। लाला हरदयाल जी जब अमेरिका चले गये, तो उस समय भी हनुमंतसहाय जी का सम्बन्ध उनके साथ बना रहा। वे अपने अन्तिम जीवन में बड़े प्रेम और बड़ी श्रद्धा से उनकी चर्चा किया करते थे।

यों तो लालाजी को प्रेरणा सावरकर और हरदयाल जी से मिली थी, पर उनमें जो देशप्रेम था, वह उनका पैतृक गुण था। 1857 ई० के स्वतंत्रता के प्रथम युद्ध में उनके पूर्वजों ने भी बड़ी वीरता और साहस से भाग लिया था युद्ध समाप्त होने पर अंग्रेजों ने उनकी सारी सम्पत्ति छीन ली थी और बंदी बनाकर कारागार में भी डाल दिया था।

हनुमंतसहाय जी में उनके पूर्वजों का ही रक्त था। फलतः बाल्यावस्था में ही उनके हृदय में देशभक्ति का बीज अंकुरित हो उठा था। वे ज्यों-ज्यों बड़े हुए, त्यों त्यों उनके देशप्रेम के पौधे में फल-फूल भी लगने लगे। 1910 ई० के आस-पास अपनी पैतृक देशभक्ति के ही कारण वे क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित हो गये और गुप्त रूप से अंग्रेजी शासन को समाप्त करने के लिए प्रयत्न करने लगे।

हनुमंतसहाय जी अंग्रेजी शासन के प्रबल विरोधी तो थे ही, अंग्रेजी भाषा के भी विरोधी थे। उनका कहना था, “शासकों की भाषा कभी नहीं पढ़नी चाहिए क्योंकि शासकों की ही भांति शासकों की भाषा भी दासता के बंधनों को मजबूत बनाती है।”

उनका यह भी कहना था, “शासकों के द्वारा तो शरीर ही बंधन में पड़ता है, किन्तु शासकों की भाषा के द्वारा प्राण भी बंधन में बंध जाते हैं।” यही कारण है कि हनुमंतसहाय जी आजीवन अंग्रेजी भाषा का विरोध करते रहे। स्वतंत्र भारत में वे अंग्रेजी के प्रचलन पर बड़े दुःखी रहा करते थे।

उन्होंने कई बार बड़ी निर्भीकता के साथ कहा था, “अंग्रेज तो चले गये, किन्तु वे प्राणों में जहर घोलने वाली अपनी अंग्रेजी भाषा को छोड़ गये हैं। यदि भारत को अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी है, तो उसे अंग्रेजी के मोह-जाल को छोड़ देना पड़ेगा। नई पीढ़ी को अंग्रेजी की पुस्तक ही नहीं, अंग्रेजी का अखबार तक नहीं पढ़ना चाहिए।

लाला हनुमंतसहाय जी का क्रान्तिकारी जीवन 1912 ई० से उस समय से प्रारम्भ होता है, जब दिल्ली के चांदनी चौक में लार्ड हार्डिंग की सवारी पर बम फेंका गया था। सात वर्ष पूर्व 1905 ई० में लार्ड कर्जन ने बंगाल के विभाजन की योजना देश के सामने रखी थी। बंगाल ने ही नहीं सारे देश ने उस योजना का तीव्र विरोध किया था।

बंगाली युवक तो सिर पर कफन बांध कर अपने घरों से निकल पड़े थे। सैकड़ों बंगाली युवक उस योजना का विरोध करते हुए कारागारों में तो गये ही, फांसी के तख्ते पर भी चढ़े। कई बड़े-बड़े अंग्रेज अफसर भी गोलियों और बमों के शिकार हुए। फल यह हुआ कि अंग्रेज सरकार ने बंगाल विभाजन की योजना वापस ले ली।

केवल इतना ही नहीं, अंग्रेज सरकार ने बंगाल के क्रान्तिकारी आन्दोलन से भयभीत होकर 1911 ई० में कलकत्ता के स्थान पर दिल्ली को भारत की राजधानी बनाने की घोषणा की। 1912 ई० के दिसम्बर मास में कर्जन के स्थान पर लार्ड हार्डिंग वायसराय नियुक्त हुआ। सरकार की ओर से घोषणा की गई कि 23 दिसम्बर के दिन गये वायसराय लार्ड हार्डिंग एक सवारी के साथ दिल्ली में प्रवेश करेंगे।

उधर सरकार की ओर से उक्त घोषणा की गई और इधर क्रान्तिकारियों ने वाइसराय की सवारी पर बम फेंक कर अंग्रेज सरकार के मन में भय उत्पन्न करने का दृढ़ निश्चय किया। बम फेंकने के लिए चांदनी चौक के फव्वारे के पास एक मकान को चुना गया था।

जिन क्रान्तिकारियों ने बम फेंकने की योजना बनाई थी, उनमें हनुमंतसहाय जी भी थे। हनुमंतसहाय जी के अतिरिक्त जिन क्रान्तिकारियों का विशेष हाथ था, उनमें रासबिहारी बोस, भाई बालमुकुन्द, मास्टर अमीरचन्द, अवधबिहारी और बसन्तकुमार आदि मुख्य थे।

23 दिसम्बर का दिन था, दिल्ली को नई दुल्हन की भांति सजाया गया था। चांदनी चौक में चारों ओर झंडियां और पताकाएं लहरा रही थीं। छतें, बारजे और खिड़कियां नर-नारियों से भरी हुई थीं। वायसराय की हाथी की सवारी जब विविध प्रकार के वाद्यों की ध्वनियों के साथ फव्वारे के पास पहुंची, तो एक मकान की छत पर से उस पर बम फेंका गया। कहा जाता है, आजकल जिस मकान में पंजाब नेशनल बैंक है, बम उसी मकान की छत के ऊपर से फेंका गया था।

वायसराय तो बाल-बाल बच गया, किन्तु उसका अंगरक्षक घायल हो गया। सारा जुलूस तितर-बितर हो गया और भगदड़ सी मच गई। यह बमकांड अंग्रेज सरकार के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती थी। फलस्वरूप कलकत्ता, दिल्ली और लाहौर में अनेक स्थानों में तलाशियां हुईं, एक सौ से भी अधिक देशभक्त बन्दी बनाए गये।

बन्दी बनाये जाने वालों में हनुमंतसहाय जी भी थे। बमकांड के पश्चात् ही हनुमंतसहाय जी ने दिल्ली छोड़ दी थी। वे लगभग एक वर्ष तक गुप्त रूप से इधर-उधर घूमते रहे। आखिर, वे बन्दी बना लिए गये। दिल्ली षड्यंत्र के नाम से बन्दी बनाए गये देशभक्तों पर मुकद्दमा चलाया गया। भाई बालमुकुन्द, अवधविहारी और मास्टर अमीरचन्द को फांसी की सजा दी गई।

हनुमंतसहाय जी को आजीवन काले पानी की सजा देकर अंडमान भेजा गया था। कुछ दिनों के पश्चात् लालाजी को अंडमान से भारत लाया गया। हनुमंतसहाय जी ने भारत की विभिन्न जेलों में रहकर कठिन यातनाएं सहन कीं।

मांटगोमरी की जेल में उन्होंने कैदियों में विद्रोह की आग जलाकर अपनी अपूर्व निर्भीकता और वीरता का परिचय दिया था। यद्यपि उनका यह विद्रोह सफल नहीं हुआ था, किन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि कैदियों में जागरण का भाव उत्पन्न हो गया था। वे अपने अधिकारों को समझने लगे थे।

रावलपिंडी की कारागार में हनुमंतसहाय जी के साथ बड़ी पैशाचिकता का व्यवहार किया गया था। उनके पैरों में बेड़ियां पड़ी रहती थीं। उन्हें बांधकर लोहे की छड़ों से पीटा भी गया था। एक बार तो उनकी नाक से रक्त तक बहने लगा था।

उन्हें महीनों अंधेरी कोठरी में रखा जाता था, जहरीली दवा पीने के लिए दी जाती थी। जहरीली दवा के कारण वे पेचिश के शिकार हो गये। उनकी स्मरणशक्ति भी नष्ट हो गई थी। यहां तक कि उन्हें अपने पुत्र का नाम भी याद नहीं रहता था।

1920 ई० में हनुमंतसहाय जी को लाहौर की जेल से छोड़ दिया गया। वे जेल से छूटकर दिल्ली पहुंचे, तो दिल्ली-निवासियों ने उनके स्वागत में अपना हृदय निकालकर रख दिया था। स्वयं स्वामी श्रद्धानन्द जी ने भी बड़े प्रेम के साथ उनका स्वागत किया था।

जेल से छूटने पर हनुमंतसहाय जी पर गांधीजी के विचारों का प्रभाव पड़ा। फलस्वरूप वे कांग्रेस में सम्मिलित हो गये। उन्होंने गांधीजी के द्वारा किये जाने वाले स्वतंत्रता के आन्दोलनों में भाग लिया। गिरफ्तार होकर उन्होंने जेल की सजाएं भी काहीं।

1947 ई० में जब भारत स्वतंत्र हुआ, तो दूसरे अनेक लोग तो कुर्सियों पर बैठकर सुखोपभोग करने लगे, हनुमंतसहाय जी जीवन के अन्त तक तपस्वी की भांति ही जीवन व्यतीत करते रहे। वे तपस्वी की भांति ही जीवन व्यतीत करते हुए संसार से चले गये। अपने त्याग और अपनी सेवाओं के कारण लाला हनुमंतसहाय सदा याद किये जायेंगे, सदा याद किये जायेंगे।

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