महर्षि कणाद का जीवन परिचय? महर्षि कणाद ने किसकी खोज की?

महर्षि कणाद का जीवन परिचय: महर्षि कणाद को परमाणु सिद्धांत का जनक कहा जाता है। भारतीय संस्कृति व सभ्यता वर्षों से अथवा यूँ कहें कि सदियों से ज्ञान की गरिमा से ओत-प्रोत रही है। जिस ज्ञान व वैज्ञानिक उपलब्धियों पर आज पश्चिम वाले इतराते हैं, वह हमारे प्राचीन ग्रंथों में आज भी धरोहर की भाँति सुरक्षित है।

महर्षि कणाद का जीवन परिचय

महर्षि-कणाद-का-जीवन-परिचय

Maharshi Kanad Biography in Hindi

भारत में ही जाने कितने वैज्ञानिक ऐसे हुए जो आज भी विस्मति के गर्भ में विलीन हैं। उसी श्रृंखला में हम महर्षि अथवा वैज्ञानिक कणाद का नाम लें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। महर्षि कणाद के अनेक नामकरणों के पीछे भी एक कथानक है।

उनका जीवन चिंतन-मनन में ही व्यतीत होता था। भोजन के लिए अन्न की व्यवस्था करने का तरीका निराला था। वे प्रायः रात के समय खेतों में जाते। किसानों के धान्य ले जाने व चिड़ियों के चुगने के पश्चात् जो अन्न कण पृथ्वी पर गिरे रह जाते उन्हें चुन चुनकर वे अपना जीवनयापन करते। धरती पर गिरे कण चुन कर खाने के कारण ही उन्हें कणशोधक कह कर पुकारा जाता था।

जैसा कि प्रायः होता है उपहास उड़ाने वालों की भी कमी नहीं रहती। निंदा व्यंजक स्वरों की कमी नहीं थी। कोई उन्हें व्यंग्यात्मक स्वर में ‘कणभक्षी’ कहता तो कोई ‘कणयोगी’ परंतु वे अविचलित भाव से दूसरों की टीका-टिप्पणियों से उदासीन, अपने ही भाव जगत में मग्न रहते। वस्तु, वाक्य व विचारों के खण्डशः परीक्षण की प्रवृत्ति के कारण उन्हें ‘विच्छेदक’ की संज्ञा भी दी गई थी। उनका मानना था कि पूरी पृथ्वी की सृष्टि कण-कण से बनी है।

हर परमाणु में अपार शक्ति है अतः परमाणु को ही ईश्वर मानना चाहिए। गांधार देश में क्रमू नदी के तीर पर यक्षशिला नामक नगरी में कश्यप ब्राह्मण का निवास था। वे ही महर्षि कणाद के पिता थे। कश्यप परिवार की आजीविका हेतु पौरोहित्य करते थे। उनकी पत्नी सुलक्षणा भी एक विदुषी महिला थी।

सुलक्षणा का वनस्पतीय ज्ञान बहुत सूक्ष्म था। वे अनेक चमत्कारी जड़ी-बूटियों के विषय में जानकारी रखती थी जिनके स्पर्श मात्र से रोगी भला-चंगा हो जाता। कणाद अपने माता-पिता के सबसे छोटे पुत्र थे। बाल्यकाल में उन्हें ‘कांतिमान’ कह कर पुकारा जाता था।

कांतिमान की जिज्ञासु प्रवृत्ति जहाँ एक ओर उसके लिए लाभकारी थी वहीं दूसरों के लिए कष्ट का कारण भी बन जाती। गुरुजन के समीप बैठते ही कांतिमान कहाँ, कब, क्यों, कैसे व क्या रूपी प्रश्नों का अंबार सजा देता। किसी भी वस्तु को खोल कर उसके प्रत्येक अंग-प्रत्यंग का निरीक्षण करने का उसे विशेष चाव था। हर कार्य के कारण व परिणाम के विषय में वह विशेष रूप से उत्सुक रहता।

इस प्रश्नमाला में अग्नि उसका प्रिय विषय थी। अग्नि व उससे उठने वाले धूम्र को लेकर वह प्रायः चिंतन करता। अपने ही चिंतन-मनन के पश्चात् उस बालक ने निष्कर्ष निकाला।

“यदि प्रकाश अग्नि का ही साथी है तो कह सकते हैं कि जहाँ प्रकाश होगा वहाँ अग्नि भी अवश्य होगी तो क्या सूर्य एक अग्नि का गोला है ?”

इस विषय में जुगनू भी उसके लिए परम कौतूहल का विषय था। जुगनू नामक जीव रात के अंधकार में चमकता तो था परंतु उस प्रकाश में अग्नि अथवा दाहकता नहीं थी। जुगनू के उपयोग से चूल्हा जलाने का विचार भी यदा-कदा उसके मन में आता था। कांतिमान के इन प्रश्नों का उत्तर प्रायः माँ को ही देना पड़ता था।

कई बार वे कार्य की व्यस्तता के कारण खीझ भी जातीं परंतु कांतिमान के प्रश्नों की बौछार न थमती। जब कांतिमान की जिज्ञासा शांत न होती तो माँ कहती- “केवल ईश्वर के पास ही संसार की सभी जिज्ञासाओं का हल है।”

“तो क्या मैं ईश्वर से मिल सकता हूँ?” कांतिमान ने पूछा। “नहीं पुत्र, उनसे मिलने के लिए कठोर तप करना पड़ता है तभी वे प्रसन्न हो पाते हैं।”

“माँ! मैं भी घने वन में जा कर तप करूंगा और उनसे पूछूंगा कि आकाश में चाँद-तारे कहाँ से आते हैं? छोटा-सा बीज, विशाल वृक्ष कैसे बन जाता है ? इस तरह में सृष्टि के सारे राज जान जाऊँगा ।” सृष्टि के इन रहस्यों को जानने की लालसा ने कांतिमान को महर्षि कणाद बना दिया।

घूमते हुए खिलौने की गति ने कांतिमान के मन में विचार उत्पन्न किया कि गति में ही जीवन है। यदि गतिशीलता समाप्त हो जाए तो मनुष्य का जीवन भी समाप्त हो जाएगा। उसी प्रकार का नियम संभवतः पृथ्वी पर भी लागू होता होगा।

कांतिमान की असाधारण लगने वाली गूढ़ बातें उस समय तो निरा पागलपन जान पड़ती थीं परंतु एक समय ऐसा भी आया जब समाज ने उन्हें मान्यता दी। एक बार यक्षशिला व आस-पास की नगरियों में बड़ा भारी भूडोल

आया। अनेक ग्राम नष्ट हो गए। पुरोहित कश्यप को भी सपरिवार ग्राम त्यागना पड़ा। चलते-चलते वे प्रभासपट्टण पहुँच गए। आचार्य सोमव्रत के गुरुकुल में कांतिमान को विद्यार्जन के लिए भेजा गया। आश्रम में शीघ्र ही इस नए छात्र की प्रतिभा की धाक जम गई। कांतिमान ने बहुत उत्साह से चारों वेद कंठस्थ कर लिए।

जब वह बारह वर्ष का था तो उसकी माँ चल बसीं। माँ की असमय मृत्यु ने किशोर हृदय को व्याकुल कर दिया। पिता व भाई-भावजों की बहुत-सी चेष्टाओं के पश्चात् वह संयत हो सका।

आर्चाय चाहते थे कि उनका प्रतिभाशाली छात्र उनके आश्रम में ही अध्यापन कार्य करे क्योंकि वह तर्कशास्त्र में बेजोड़ था परंतु कांतिमान जीवन को बंधे-बंधाए नियमों से जीना नहीं चाहता था।

पिता की हार्दिक इच्छा थी कि वे कांतिमान का विवाह कर दें परंतु पुत्र के हठ के आगे उनकी एक न चली। अतः पुत्र को वर वेष में देखने की साध लिए ही वे चल बसे। भाई-भावज के साथ रहते-रहते कांतिमान इतना उदासीन व एकाकी हो गया कि उसे अपने खाने-पीने की भी सुध न रहती। प्रयोगशाला ही उसका घर बन गई थी।

यूँ तो कांतिमान का किसी से कोई लेना-देना न था परंतु प्रयोगशाला की किसी भी वस्तु को हाथ लगाने पर वह क्रोधित हो उठता। एक दिन ऐसे ही किसी कारण से बहस छिड़ गई तो उसने तत्काल घर छोड़ दिया व एकांत स्थान पर कुटिया बना कर रहने लगा।

कांतिमान ने घने वन के एकांत में चिंतन को पर्याप्त समय दिया। उसी अवस्था में उसने धान्य-कण बीन कर भोजन का प्रबंध किया। वह न मिलने की दशा में फल व कंदमूल ही उसका भोजन थे।

कांतिमान ने संसार को कणमय जगत व सर्वव्यापी कणों का सिद्धांत दिया और महर्षि कणाद के नाम से विख्यात हुए। उन्होंने ‘वैशेषिक दर्शन’ नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ के दस अध्याय हैं जिनमें तीन सौ सत्तर सूत्र हैं। प्रत्येक सूत्र से एक महान अर्थ की सृष्टि होती है।

एक अध्याय में वे विश्व के मूलभूत पदार्थों का विवरण देते हुए कहते हैं कि प्रत्येक पदार्थ अनेक पदार्थों के संयोग से बनता है। एक रूप में ही अनेक रूप समाए रहते हैं तथा विभिन्न रूप पुनः एक रूप में ही समा जाते हैं।

जल, पृथ्वी, तेज, वायु व आकाश में गुणों का वर्णन करते यह भी कहते हैं कि हुए वे “कारणाभावाव् कार्याभावः” (प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य रहता है बिना कारण के कार्य नहीं बनता।) विश्व में असंख्य परमाणु हैं जिनके संयोग से ही विविध पदार्थ बनते या बिगड़ते हैं।

इस प्रकार ग्रंथ के सभी अध्याय विशेष जानकारी से परिपूर्ण हैं। उनके ज्ञान की ख्याति दूर-दिगंत तक पहुँची और अनेक शिष्य उनके पास ज्ञानार्जन हेतु पधारने लगे।

इस प्रकार महर्षि कणाद शिष्यों को पढ़ाने के साथ-साथ अपने प्रयोगों व नवीन अनुसंधानों में भी व्यस्त रहे। ऐसे लोकोपकारी वैज्ञानिक के विचार आज भी सटीक व अर्थवान है। महर्षि कणाद का जीवन परिचय

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