मानवेन्द्र नाथ राय का जीवन परिचय (Manabendra Nath Roy Ka Jeevan Parichay), मानवेन्द्रनाथ का जन्म 21 मार्च, 1887 में चौबीस परगना जिले के अरवलिया नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम दीनबन्धु भट्टाचार्य था। वे जीविका की खोज में अरवलिया गये थे और वहां संस्कृत के अध्यापक हो गये थे। कुछ दिनों के पश्चात् नौकरी के ही कारण कोडलिया चले गये। दीनबन्धु भट्टाचार्य मूल रूप में मेदिनीपुर जिले के निवासी थे।
मानवेन्द्र नाथ राय का जीवन परिचय

Manabendra Nath Roy Ka Jeevan Parichay
पूरा नाम | मानवेन्द्र नाथ राय |
जन्म | 21 मार्च, 1887 |
जन्म स्थान | चौबीस परगना जिले के अरवलिया नामक ग्राम |
पिता का नाम | दीनबन्धु भट्टाचार्य |
मृत्यु | 26 जनवरी, 1954 |
मानवेन्द्रनाथ राय स्वतंत्रता के अनन्य साधक थे। वे महान देशभक्त थे, साहसी थे। स्वतंत्रता आन्दोलन के दिनों में उनका नाम बड़े गर्व के साथ लिया जाता था। उनका स्वर एक स्वर था, उनकी वाणी एक वाणी थी। उनके कथन को बड़े ध्यान से सुना जाता था।
अंग्रेजी सरकार के गुप्तचर उनके शब्द-शब्द को नोट करते थे। यद्यपि वे कम्युनिस्ट थे, किन्तु गांधीवादी और क्रान्तिकारी भी उनका बड़ा आदर करते थे। उन्होंने देश में तो स्वतंत्रता के लिए साधना की ही विदेशों में भी की। वे स्वतंत्रता की साधना करते-करते धरती से चले गए। उनकी याद भारतीयों के हृदयों में सदा बनी रहेगी।
मानवेन्द्रनाथ राय एम०एन० राय के नाम से प्रसिद्ध थे अतः हम भी यहां उनके नाम में एम०एन० राय का ही प्रयोग करेंगे। बाल्यावस्था में वे नरेन्द्र भी कहे जाते थे। उन्होंने बड़ी अद्भुत प्रकृति पायी थी। वे जिस बात को ठीक समझते थे, उसे ग्रहण तो करते ही थे, कार्यरूप में परिणत भी करते थे। कितना ही विरोध क्यों न हो, कितना ही अवरोध सामने क्यों न खड़ा हो-वे चिन्ता नहीं करते थे।
राय के पिता पुरोहित थे, किन्तु राय की प्रकृति अपने पिता को प्रकृति से बिल्कुल भिन्न थी। वे जब कुछ बड़े हुए, तो उनके हृदय में एक अद्भुत विचार उत्पन्न हुआ। वे जब लोगों को चुपचाप मूर्तिपूजा करते हुए देखते थे, तो सोचने लगते थे, लोग मूर्तिपूजा करने के ही कारण कर्मों के प्रति उदासीन हो गये हैं।
अतः वे मूर्तिपूजा के विरोधी बन गये हैं जहां भी किसी देवमूर्ति को देखते थे, या तो उसे तोड़ डालते थे, या चुरा लेते थे। उनके इस कार्य का कुटुंब में विरोध तो हुआ ही, गांव में भी विरोध हुआ कोई झगड़ा उत्पन्न नहीं हुआ, संयोगवश उनकी विचारधारा दूसरी ओर मुड़ गई।
1905 ई० में बंग-भंग आन्दोलन प्रारंभ हुआ बंगाल के कोने-कोने में आन्दोलन की आंधी चल पड़ी। गुप्त समितियां स्थापित हुई। बंगाल के क्रांतिकारी युवक गुप्त समितियों में सम्मिलित होकर तोड़-फोड़ करने लगे, अंग्रेजी शासन को हानि पहुंचाने का प्रयत्न करने लगे।
राय के हृदय के ऊपर भी उस आन्दोलन का प्रभाव पड़ा। उनकी अवस्था उन दिनों केवल 14-15 वर्ष की थी। फिर भी वे आन्दोलन में सम्मिलित हो गये। सम्मिलित होकर क्रान्तिकारियों के साथ कार्य करने लगे। 1907 ई० में उन पर प्रथम बार मुकद्दमा चलाया गया। आरोप यह लगाया गया था कि उन्होंने क्रान्तिकारियों के साथ मिलकर गांव के डाकखाने में लूट की है।
किन्तु प्रमाण न मिलने और अल्पवय का होने के कारण मजिस्ट्रेट ने राय को छोड़ दिया। 1910 ई० में वे पुनः दूसरी बार हावड़ा-षड्यंत्र में बन्दी बनाये गये; किन्तु प्रमाण न मिलने के कारण पुनः छोड़ दिये गये। पुलिस ने उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया।
इस बार वे बीस महीने तक कारागार में नजरबन्द रहे। नजरबन्दी की दशा में राय ने कारागार में ही साहित्य, राजनीति और दर्शन आदि विषयों का गंभीर अध्ययन किया। उस अध्ययन का उनके मन पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। वे जब कारागार से बाहर निकले, तो अध्ययन के ही कारण उनके व्यक्तित्व में अधिक गंभीरता और दृढ़ता आ गई थी।
कारागार से छूटने पर राय रामकृष्ण मिशन में सम्मिलित हो गये और अध्यात्म के मार्ग पर चलने लगे, किन्तु कुछ दिनों पश्चात् ही उन्हें ऐसा लगा कि अध्यात्म के मार्ग पर चलने से भारत को शीघ्र स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो सकेगी। वे देश को शीघ्र स्वतंत्र देखना चाहते थे। फलतः रामकृष्ण मिशन को छोड़ कर वे क्रान्तिकारियों की प्रसिद्ध संस्था युगान्तर में सम्मिलित हो गये और अपनी कर्मठता तथा कार्य-कुशलता के कारण कुछ ही दिनों में प्रसिद्ध क्रान्तिकारी बन गये।
राय के उन दिनों के जीवन की एक घटना का उल्लेख बड़ी ही रुचि के साथ किया जाता है। घटना इस प्रकार है- प्रभात के पश्चात् का समय था। राय अपने कमरे में बैठकर अखबार पढ़ रहे थे। उनके सामने टेबिल पर तमंचा और युगान्तर दल के कुछ कागज-पत्र रखे हुए थे।
उसी समय प्रसिद्ध गुप्तचर चार्ल्स ने उनके कमरे में प्रवेश किया राय अखबार टेबिल पर रखकर बिना किसी बनावट के उससे बात करने लगे। वह राय की निर्भीकता और उनके साहस को देखकर अपने आप ही लज्जित होकर चला गया।
किन्तु इस घटना से राय के लिए यह समझना मुश्किल नहीं रहा कि अब वे कलकत्ता में निरापद अवस्था में नहीं रह सकते। अतः वे कलकत्ता से पटना चले गये। पटना में कम्पोजीटरी करने लगे। कम्पोजीटरी तो एक बहाना मात्र थी, वास्तव में वे दल का प्रचार करने के लिए ही पटना गये थे। वे वहां भी वही कार्य करते थे, जो कलकत्ता में किया करते थे।
1914 ई० में विश्व का प्रथम महायुद्ध आरंभ हुआ। अंग्रेज उस युद्ध में बुरी तरह फंसे हुए थे। अतः भारतीय क्रान्तिकारियों ने सोचा कि यह समय भारत की स्वतंत्रता के लिए बड़ा उपयुक्त है। अतः भारत में चारों ओर अंग्रेजी शासन को ध्वस्त करने के लिए प्रयत्न किया जाने लगा।
उन्हीं दिनों कलकत्ता में स्वदेशी के प्रचार के लिए एक संस्था स्थापित की गई। उस संस्था का नाम श्रमजीवी श्रमवाय था। स्वदेशी प्रचार का तो एक बहाना मात्र था। वास्तव में उस संस्था के द्वारा क्रान्तिकारी कार्यों का प्रचार किया जाता था।
क्रान्तिकारियों के पास धन की कमी थी। धन के अभाव को दूर करने के लिए दो बड़े-बड़े डाके डाले गये। वे डाके क्रान्तिकारियों के लिए ही डाले गये थे। कहा जाता है कि उन डाकों में शचीन्द्रनाथ सान्याल और यतीन्द्रनाथ मुकर्जी का मुख्य रूप से हाथ था।
महायुद्ध के दिनों में जर्मनी भारतीय क्रान्तिकारियों को अपना सहयोग प्रदान कर रहा था। वह अंग्रेजों का शत्रु था। वह अंग्रेजों को युद्ध में पराजित करने के लिए भारत में भी विद्रोह की आग प्रज्वलित करना चाहता था। भारतीय क्रान्तिकारी भी भारत की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजी शासन को ध्वस्त करना चाहते थे। अतः वे उन दिनों जर्मन सरकार के एजेण्टों और गुप्तचरों के साथ मिलकर काम कर रहे थे।
1916 ई० में, जब युद्ध जोरों पर चल रहा था, तो वे बटेबिया गये। वे कई महीनों तक बटेबिया में रहकर प्रचार कार्य करते रहे। उन्होंने बटेबिया से ही कलकत्ता के अपने साथियों के पास यह खबर भेजी कि शीघ्र ही एक जर्मन जहाज प्रचुर मात्रा में अस्त्र-शस्त्र और धन लेकर भारतीय समुद्री तट पर पहुंचने वाला है। कहना ही होगा कि जब कलकत्ता के क्रान्तिकारियों को यह खबर मिली, तो उनके हर्ष और उनकी प्रसन्नता की सीमा नहीं रही।
किन्तु भेद खुल जाने के कारण जर्मन जहाज अस्त्र-शस्त्र लेकर भारतीय समुद्र तट पर नहीं पहुंच सका। कुछ लोग बन्दी भी बना लिये गये। राय बड़ी कठिनाई से गिरफ्तार होने से बचे। उधर यतीन्द्रनाथ मुकर्जी अपने दो-तीन साथियों के साथ उड़ीसा के बालासौर जिले में समुद्र के किनारे जर्मन जहाज के पहुंचने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
पुलिस को इस बात का भी पता लग गया। वह यतीन्द्रनाथ मुकर्जी और उनके साथियों को बन्दी बनाने के लिए वहां जा पहुंचे। दोनों ओर से खूब गोलियां चलीं। गोलीकांड में मुकर्जी और उनके साथियों को गोलियों का शिकार हो जाना पड़ा था।
राय बटेबिया में बड़ी कठिनाई में फंस गये, क्योंकि अंग्रेजी गुप्तचर उनके पीछे पड़े हुए थे। वे किसी तरह बटेबिया से निकल के गुप्त वेश में इधर-उधर घूमने लगे। वे हिन्दचीन, चीन, जापान, फिलीपाइन और कोरिया आदि देशों में काफी दिनों तक भटकते रहे। वे जहां भी जाते थे पुलिस उनके पीछे पड़ी रहती थी। उन्हें किसी भी जगह शान्ति से रहने नहीं दिया जाता था।
राय कैथोलिक पादरी के वेश में फिलीपाइन गये। जब वहां भी पुलिस उनके पीछे पड़ी, तो वे जापान चले गये। उन्होंने जापान में रासबिहारी बोस और प्रसिद्ध चीनी नेता डॉ० सनयात सेन से भेंट की। जब जापान में भी रहना कठिन हो गया, तो वे पहले कोरिया और फिर उसके पश्चात् चीन चले गये।
राय जब चीन पहुंचे तो बन्दी बना लिये गये, क्योंकि उन दिनों चीन में अंग्रेजों का अधिक प्रभाव था किन्तु पहचाने न जाने के कारण छोड़ दिये गये। राय ने कुछ दिनों चीन में रहकर भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न किया था। वे इसी सम्बन्ध में जर्मन राजदूत से भी मिले। परिणाम यह हुआ कि चीन में गुप्तचर उनके पीछे लग गये।
अतः राय एक जहाज पर बैठकर कैलिफोर्निया चले गये। राय जिस जहाज से कैलिफोर्निया गये थे, वह जर्मन जहाज था। अत: कैलिफोर्निया में उन पर इसलिए संदेह किया जाने लगा कि वे जर्मनी के गुप्तचर हैं। उन्हीं दिनों उनकी भेंट सुप्रसिद्ध लेखक यदुगोपाल से हुई। गदर पार्टी के कार्यकर्ताओं से भी उनकी जान-पहचान हुई।
राय ने यदुगोपाल की सलाह से अपना नाम बदल कर मानवेन्द्रनाथ राय रख लिया। इसके पूर्व वे नरेन्द्रनाथ राय के नाम से काम करते थे। कैलिफोर्निया में ही राय की भेंट लाला लाजपतराय जी से हुई।
लाला लाजपतराय जी की सलाह से उन्होंने दो प्रकार के कार्य करने प्रारंभ किये- एक तो भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रचार और दूसरा मजदूरों का संगठन। उनका दूसरा कार्य अमरीकी सरकार के सिद्धान्तों के विरुद्ध था। अत: वे गिरफ्तार कर लिये गये, किन्तु लाला लाजपतराय जी के द्वारा जमानत दिये जाने पर छोड़ दिये गये।
राय अमेरिका से निराश होकर मैक्सिको चले गये। उन दिनों मैक्सिको में पूंजीवाद के विरुद्ध आन्दोलन चल रहा था। राय ने उस आन्दोलन में भाग लिया और अधिक ख्याति प्राप्त की। 1918 ई० में उन्होंने मैक्सिको में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की। वे स्वयं उसके मंत्री थे। कम्युनिस्ट पार्टी का एक मुखपत्र प्रकाशित होता था। राय स्वयं उस पत्र के सम्पादक भी थे।
राय ने मैक्सिको में रहकर स्पेनिश भाषा का अध्ययन किया। उन्होंने अंग्रेजी में एक पुस्तक भी लिखी, जिसका नाम ‘विश्व शान्ति का मार्ग’ था। उन्होंने अपनी उस पुस्तक में लिखा था कि विश्व में उसी समय शान्ति स्थापित हो सकती है जब साम्राज्यवाद का विनाश हो जाय और तभी संसार के सभी देशों को स्वतंत्रता प्राप्त हो जायेगी तथा उपनिवेशवाद का उन्मूलन होगा।
मैक्सिको में राय अपने कार्यों के कारण अधिक प्रसिद्ध हो गये। उनकी और उनकी कर्मठता का प्रभाव मैक्सिको के राष्ट्रपति के हृदय पर भी पड़ा। उन्होंने उन्हें अपने सलाहकार के पद पर नियुक्त किया। जिन दिनों वे उस पद पर थे, उन्हीं दिनों उनकी दूसरी पुस्तक भी प्रकाशित हुई। उस पुस्तक का नाम था- ‘भारत का भूत, वर्तमान और भविष्य’।
1919 ई० में रूस में जनक्रान्ति हुई। उस जनक्रान्ति के फलस्वरूप रूस में कम्युनिस्टों की सरकार स्थापित हुई संसार के देशों में साम्यवाद का प्रचार करने के लिए रूस की नई सरकार की ओर से दूत भेजे गये। एक दूत मैक्सिको भी पहुंचा, जिसका नाम बोरोबिन था। वह बड़ा कार्यकुशल और अनुभवी था।
मैक्सिको में उसकी भेंट राय से हुई। वह राय के विचारों और उनके व्यक्तित्व से बड़ा प्रभावित हुआ। उसने उनके सम्बन्ध में लेनिन को पत्र लिखा। लेनिन ने राय को रूप बुला लिया। राय रूस आ गये। लेनिन राय के व्यक्तित्व से ही बहुत प्रभावित हुए थे।
लेनिन राय के विचारों से अधिक सहमत थे, किन्तु उनके कुछ विचारों के प्रति उनकी असहमति भी थी। फिर भी वे राय का बड़ा सम्मान भी करते थे। राय लेनिन के द्वारा सम्मान पाकर रूस में ही रहने लगे। कुछ ही दिनों में रूसी क्रान्तिकारियों में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान बन गया। वे लाल सेना की एक टुकड़ी के अध्यक्ष पद पर भी प्रतिष्ठित किये गये थे।
राय ने रूस में रहकर साम्यवाद के प्रचार के लिए कई ऐसे पूर्वी देशों का दौरा किया, जिसमें धर्म और पूंजीवाद के कारण दैन्य फैला हुआ था। राय के प्रयत्नों से उन सभी देशों में भी साम्यवाद का प्रचार हुआ और वे सब देश भी एक-एक करके सोवियत संघ में सम्मिलित हो गये।
राय ने मास्को से दो पत्र भी प्रकाशित किये, जिनमें एक का नाम ‘बेगार्ड’ और दूसरे का नाम ‘मासेज’ था। ये दोनों पत्र गुप्त रूप से भारत भेजे जाते थे और क्रान्तिकारियों में वितरित किये जाते थे।
राय ने अहमदाबाद की कांग्रेस में अपना एक पर्चा भेजकर कांग्रेस के नेताओं को सलाह दी कि कांग्रेस के रूप को बदल देना चाहिए। उसके द्वारा साम्राज्यवाद का विरोध और समाजवाद का प्रचार करना चाहिए। कहा जाता है कि स्वर्गीय नेहरू कुछ अंशों में राय के विचारों से सहमत थे।
1924 ई० में बोलशेविक षड्यंत्र के नाम से एक मुकद्दमा चला। उस मुकद्दमे में तीन अभियुक्त थे- अमृतपाद डांगे, शौकत उस्मानी और एम०एन० राय दो अभियुक्तों को तो सजा दी गई, पर अंग्रेज सरकार एम०एन० राय को पकड़ नहीं सकी; क्योंकि वे तो रूस में थे। इस मुकद्दमे से यह पता चलता है कि राय रूस में रहते हुए भी भारत में साम्यवादी दल की स्थापना तो करते ही थे, उसके कार्यों के प्रचार में भी योग दिया करते थे।
राय केवल भारत में ही साम्यवाद का प्रचार नहीं करते थे, चीन में भी करते थे। राय मास्को से चीन चले गये। जिन दिनों वे चीन में थे, उनका रूसी कम्युनिस्टों से विरोध हो गया। रूसी कम्युनिस्ट उन्हें बदनाम करने लगे। अतः वे जर्मनी चले गये। जर्मनी के कम्युनिस्ट भी उन्हें साम्राज्यवादी कहकर उनकी निन्दा करने लगे। किन्तु राय विचलित नहीं हुए। वे अपने विचारे हुए मार्ग पर दृढ़ता के साथ चलते रहे।
1931 ई० की 21 जनवरी को बड़े आश्चर्य के साथ समाचार पत्रों में यह खबर पढ़ी गई कि राय बम्बई में गिरफ्तार कर लिये गये। वे जर्मनी से बम्बई कब और किस प्रकार आये इस सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं जा सकता। कहा जाता है कि राय दो तीन वर्षों से महमूद के नाम से इधर-उधर घूम रहे थे। गिरफ्तार होने पर उन पर मुकद्दमा चलाया गया। उन्हें आठ वर्ष की काले पानी की सजा दी गई।
राय दो-तीन वर्षों तक काले पानी में रहे। तत्पश्चात् छोड़ दिये गये। छूटने पर वे कांग्रेस में सम्मिलित हो गये। किन्तु कांग्रेस का वातावरण उनके मन के अनुकूल नहीं था। अतः उन्होंने कांग्रेस से पृथक् होकर एक नई पार्टी की स्थापना की। उस नई पार्टी का नाम था- रेडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी उनकी उस पार्टी में बुद्धिजीवियों की संख्या अधिक थी।
1939 ई० में विश्व में दूसरे महायुद्ध की आग प्रज्वलित हुई। राय के विचारों में बड़ा परिवर्तन हुआ। उन्होंने इस बात का प्रचार करना आरम्भ किया कि युद्ध में फासिस्टों का विरोध और अंग्रेजों का साथ देना चाहिए। उन्होंने अपने विचारों के प्रचार के लिए एक अखबार भी निकाला था।
अंग्रेज सरकार ने प्रचुर मात्रा में धन देकर उनको सहायता की। इसके लिए भारत में चारों ओर राय की निन्दा की जाने लगी। किन्तु राय ने अपने विचारों का प्रचार बन्द नहीं किया।
1948 ई० में राय अपनी पार्टी भंग करके मानववाद का प्रचार करने लगे। वे जिस मानववाद का प्रचार कर रहे थे, वह समाजवाद से पृथक् था। फलतः राय के मानववाद की भी निन्दा ही की गई। किन्तु राय ने अपने विचारों में परिवर्तन नहीं किया। वे जब तक जीवित रहे, बड़ी दृढ़ता के साथ अपने विचारों का प्रचार करते रहे।
26 जनवरी, 1954 को राय का स्वर्गवास हो गया। वे बहुत बड़े विद्वान् और विचारक थे। 17 भाषाओं पर उनका आधिपत्य था। उन्होंने अंग्रेजी में कई पुस्तकों की रचना की। वे अपने जीवन में कई रास्तों पर चले, किन्तु उनका ध्येय एक ही था- भारत स्वतंत्र हो।
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