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मेरे जीवन का लक्ष्य पर निबंध? मेरी अभिलाषा निबंध?

मेरे जीवन का लक्ष्य पर निबंध:- ईश्वर ने इस विशाल ब्रह्माण्ड की रचना की है। ईश्वर की यह रचना सोद्देश्य है, निरुद्देश्य नहीं। जब ईश्वर की सृष्टि ही किसी प्रयोजन की लेकर है; भले ही वह प्रयोजन केवल लीला हो, तो मानव के जीवन का भी कोई न कोई लक्ष्य होना ही चाहिए। मनुष्य प्राणी विश्व का सबसे श्रेष्ठ प्राणी है, क्योंकि वह मनन या विचारपूर्वक कोई कार्य करता है। श्रेष्ठ मानव जीवन में सर्वप्रथम लक्ष्य या ध्येय निर्धारित करते हैं और तब उस पर चलने के लिए अग्रसर होते हैं। वे ऐसा नहीं करते कि घर से निकले और फिर जिधर भी पैर पड़ गए, उधर ही चल पड़े।

मेरे जीवन का लक्ष्य पर निबंध

मेरे जीवन का लक्ष्य पर निबंध
Mere Jeevan Ka Lakshya Par Nibandh

इस प्रकार का लक्ष्य-हीन जीवन किसी काम का नहीं रहता। लक्ष्य बनाकर, ध्येय निश्चित कर तब दृढ़ता से उस पथ पर बढ़ने वाला व्यक्ति ही जीवन में सफल होता है।

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मेरा जीवन-लक्ष्य

मैं आज एक विद्यार्थी हूँ, पर भविष्य में मुझे क्या बनना है? इसके लिए मेरे मन में भी कुछ कल्पना है। मैंने भी एक स्वप्न संजोया है, जीवन के लिए एक लक्ष्य निर्धारित किया है। वह ध्येय है-‘गुरु’ के गौरवपूर्ण पद को प्राप्त करना । यह सब भली प्रकार जानते हैं कि श्रीराम पिता से भी अधिक पूज्य गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र को मानते थे। सम्राट् चन्द्रगुप्त अपने गुरु आचार्य चाणक्य के चरणों में लोटता था,

विश्व विजेता सिकन्दर अपने गुरु अरस्तू के समक्ष घुटनों के बल बैठता था, छत्रपति शिवाजी अपने गुरु समर्थ रामदास जी के सामने और बुन्देला वीर छत्रसाल प्राणनाथ प्रभु के चरणों में झुकते थे। उन गुरुओं ने ही उन्हें कर्त्तव्यबोध कराया था, उनका आत्मिक बल बढ़ाया था, उन्हें अनुशासित भी किया था, जिनसे वे महान् बने। इन सब उदाहरणों से प्रभावित होकर मैं भी ‘गुरु’ बनना चाहता हूँ। ‘शिक्षक ही राष्ट्र का वास्तविक निर्माता है’, इस कथन से भी मुझे अपना जीवन-ध्येय निश्चित करने में सहायता मिली है।

आज की स्थिति

आज देश में स्वार्थ सिद्ध करने वाले तथाकथित नेताओं की कमी नहीं। अर्थ के लिए अनर्थ करने वाले वैज्ञानिक और अभियन्ता (इंजीनियर) भी बहुत हैं। धन के लिए उचित-अनुचित का विचार त्यागकर कार्य करने वाले और धनवानों के संकेतों पर चलने वाले ज्ञानियों, अधिकारियों, वकीलों और न्यायाधीशों की भी कोई कमी नहीं। वित्त के लिए सद्वृत्तियों से हाथ खींचने वाले और अपना ही हित चाहने वाले (समाज भले ही नष्ट हो जाए) व्यापारियों और उद्योगपतियों की कमी नहीं।

उनके भ्रष्टाचार और अनैतिकता के फलस्वरूप आज राष्ट्र रसातल की ओर जा रहा है। इस भ्रष्टाचार और अनैतिकता का सबसे बड़ा कारण है ‘चरित्र का अभाव’। आज राष्ट्र के सामने अर्थ संकट से भी बढ़कर चारित्रिक संकट है। चरित्र का यह संकट कुशिक्षा का परिणाम है तथा कुशिक्षा आदर्श गुरुओं (शिक्षकों) के अभाव से है।

अत्यन्त विनम्र शब्दों में मैं अपने गुरुजनों से क्षमा याचना करता हुआ कहता हूँ कि आज ऐसे अध्यापकों की संख्या बहुत अधिक है, जो केवल जीविकोपार्जन के लिए ही अध्यापक बने हैं। वे अध्यापन को ‘वृत्ति’ या ‘कर्तव्य’ नहीं मानते। इसी कारण वे अपने छात्रों के सामने न कोई आदर्श रख पाते हैं और न उन्हें उचित शिक्षा ही दे पाते हैं। परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए छात्रों को कुछ ‘गुरु’ सिखाकर ही वे अपने कर्त्तव्य का इतिश्री मान लेते हैं। इस स्थिति को देखकर ही मैं केवल मात्र ‘अध्यापक’ नहीं, अपितु ‘गुरु’ बनना चाहता हूँ।

‘गुरु’ पद पाकर मैं छात्रों को अपने विषय का अध्यापन तो कराऊँगा ही गुरु के कर्त्तव्य के अनुसार उनमें चारित्रिक और नैतिक भावनाओं को साथ ही भी जगाऊँगा। मैं उनके सामने त्याग, प्रेम, परोपकार और सेवा का आदर्श स्थापति करूँगा। मेरी कथनी व करनी में कोई अन्तर न होगा। मैं किसी दुर्व्यसन का शिकार न बनूँगा। मेरा रहन-सहन अत्यन्त सरल तथा स्वच्छ होगा। मैं कबीर के कथन के अनुसार ऐसा गुरु बनूँगा जो शिष्य को बाह्य रूप से ताड़ना देता हुआ भी हार्दिक भावना से उसका मंगल करे।

“गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ खोट ।
अंतरि हाथ सहार दै, बाहर बाह्रै चोट ।।

उपसंहार

अपने उक्त ध्येय के प्रति मैं अभी से सावधान हूँ। पाठ्य पुस्तकों के अतिरिक्त अन्य प्राचीन तथा आधुनिक श्रेष्ठ ग्रन्थों का अध्ययन करता हूँ तथा महात्माओं व विद्वानों का प्रवचन सुनता हूँ। नियमित, सात्त्विक और सरल जीवन बिताता हूँ। दुर्व्यसनों व आधुनिक मनोरंजन के साधनों से, जिनमें अश्लीलता की भावना ही प्रमुख रहती है-बिल्कुल दूर रहता हूँ। इसी कारण मैं सदा अपनी श्रेणी में प्रथम रहता हूँ और गुरुजनों का कृपापात्र भी बना रहता हूँ।

ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि वे मुझे इतनी शक्ति व सामर्थ्य दें कि मैं अपने निर्धारित श्रेष्ठ लक्ष्य को प्राप्त कर राष्ट्र के नव-निर्माण में योग दे सकूँ। क्योंकि शिक्षक (गुरु) ही तो राष्ट्र का निर्माता होता है।

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