मेवासिंह का जीवन परिचय (Mevasingh Ka Jeevan Parichay), मेवासिंह का नाम स्वतंत्रता के इतिहास में सदा बड़े आदर के साथ लिखा जायेगा। वे महान देशभक्त थे, महान शूरवीर थे। देशभक्ति उनकी रंग-रंग में समाई हुई थी। वे सब कुछ देख सकते थे, किन्तु अपने देश का अपमान नहीं देख सकते थे। वे देश के अपमान से ही क्षुब्ध होकर मिट गये। सदा के लिए चिरंतन निद्रा में सो गये। उनके मिटने और चिर निद्रा में सोने की कहानी रोमांचकारी तो है ही, बड़ी प्रेरणादायिनी भी है।
मेवासिंह का जीवन परिचय

उन दिनों कनाडा में बहुत से क्रान्तिकारी और देशभक्त सिख रहते थे। वे मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए जब भारत में कुछ नहीं कर सके, तो कनाडा चले गये। वे कनाडा में जीवन निर्वाह के लिए तरह-तरह के श्रम-युक्त काम करते थे और भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न भी किया करते थे। उन सिखों में भाई भागसिंह, वतनसिंह और भाई मेवासिंह का नाम बड़े गर्व के साथ लिया जा सकता है।
दोपहर के पूर्व का समय था। कनाडा के एक गुरुद्वारे में गुरु ग्रन्थ साहब का पाठ चल रहा था। स्त्री-पुरुष बड़ी श्रद्धा के साथ पाठ सुन रहे थे। सहसा वायुमंडल गोलियों की आवाज से गूंज उठा। लोगों ने विस्मय-भरी दृष्टि में देखा, एक सिख हाथ में पिस्तौल लिए हुए, तन कर खड़ा है। उसकी गोलियों से आहत होकर एक महान पुरुष और एक महान देशभक्त लुढ़के पड़े हैं। उनके शरीर से रक्त निकल रहा है। और वे सदा के लिए मौन हो गये हैं।
उस मानव-कलंक सिख का नाम बेलासिंह और मृत महान पुरुष का नाम भाई भागसिंह था। वतनसिंह ने जब गोलियों की आवाज सुनी और भाई भागसिंह को लुढ़का हुआ देखा, तो वे कांप उठे।
वे बिजली की तरह उस हत्यारे की ओर झपटे, जो हाथ में पिस्तौल लिये हुए तनकर खड़ा था। वतनसिंह उसके पास पहुंच कर, उसे दबोच लेना चाहते थे किन्तु वे उनके पास पहुंचे कि उसके पूर्व ही उसने उन पर भी गोलियां चला दीं। गोली छाती में जा घुसी। वतनसिंह धरती की गोद में गिर कर प्राणशून्य हो गये। इस प्रकार गुरुद्वारे की धरती दो-दो वीरों के रक्त से लाल हो उठी।
बेलासिंह भाई भागसिंह और वतनसिंह की हत्या करके भाग निकला, किन्तु उसे बन्दी बना लिया गया। हत्या के अपराध में उस पर मुकदमा चला। उसने न्यायालय में बयान देते हुए कहा, “मैंने भाई भागसिंह की हत्या इमिग्रेशन विभाग के अधिका हॉपकिन्सन के कहने पर की है। हॉपकिन्सन ने मुझे इस कार्य के लिए कई हजा डालर दिये हैं।”
हॉपकिन्सन बड़ा बदनाम अंग्रेज अफसर था वह भारतीय देशभक्तों से मन ही मन जला करता था। वह उन्हें बन्दी बनवाता था, सजाएं दिलवाता था और अवसर पाकर मृत्यु के घाट भी उतारा करता था। कोमांगा टामारू जहाज के सिख यात्रियों को उसने बड़ा तंग किया था, जहाज से नीचे उतरने से रुकवा दिया था। परिणामत: सिख यात्री जहाज पर ही रहे। भूख और प्यास से युद्ध करते रहे।
हॉपकिन्सन ने ही लाला हरदयाल जी को बन्दी बनाने का भी जाल रचा था। वे उसी के फरेब के कारण गिरफ्तार भी कर लिये गये थे, किन्तु बाद में जमानत पर छोड़ दिये गये थे। अतः कहना ही होगा कि भारतीयों में हॉपकिन्सन के अत्याचारों की बड़ी चर्चा थी।
न्यायालय में जब मेवासिंह ने बेलासिंह का बयान सुना तो उनके मन में प्रतिहिंसा की आग जाग उठी। उन्होंने बेलासिंह को मृत्यु के घाट उतारने की प्रतिज्ञा तो की ही, हॉपकिन्सन को भी उसके अत्याचारों का फल चखाने का प्रण किया।
मेवासिंह पंजाब के रहने वाले थे, बड़े वीर और साहसी थे। देश के प्रेम में ही उन्होंने अपना घर-द्वार छोड़ दिया था। वे कनाडा में भाई भागसिंह जी के ही साथ रहते थे, उनके प्रत्येक कार्य में योगदान दिया करते थे।
मेवासिंह ने बेलासिंह और हॉपकिन्सन को मार डालने का प्रण किया, तो वे उसके लिए तैयारियां करने लगे। उन्होंने अच्छे ढंग की एक पिस्तौल प्राप्त की। वे पिस्तौल में गोलियां भर कर निशाना साधने का प्रयास करने लगे।
उन्होंने इस काम में दक्षता प्राप्त करने के लिए हजारों रुपये भी खर्च किये। जब उन्हें विश्वास हो गया कि उनका निशाना खाली नहीं जायेगा, तो वे जेब में पिस्तौल डालकर प्रतिदिन न्यायालय में जाने लगे।
बेलासिंह का मुकद्दमा अब भी चल रहा था। मेवासिंह प्रतिदिन न्यायालय में जाते थे। चुपचाप बैठकर न्यायालय की कार्यवाही को सुना करते थे। 1914 ई० की 31 अक्तूबर का दिन था। बेलासिंह की ओर से हॉपकिन्सन गवाही देने के लिए न्यायालय में उपस्थित हुआ।
वह गवाही दे ही रहा था कि मेवासिंह के हृदय के भीतर छिपी हुई प्रतिहिंसा जाग उठी। उन्होंने जेब से पिस्तौल निकाल कर हॉपकिन्सन को गोली का निशाना बनाया। गोली की आवाज से न्यायालय का कमरा गूंज उठा। निशाना भरपूर बैठा। हॉपकिन्सन ने अपने स्थान पर ही गिर कर दम तोड़ गया।
न्यायालय में भगदड़ मच गई। जज अपनी मेज के नीचे छिप गया। मेवासिंह ने पिस्तौल फेंक कर गरजते हुए कहा, “किसी को भी डरने की आवश्यकता नहीं है। मुझे जिस देशद्रोही से बदला लेना था, उसका मैं काम तमाम कर चुका। अब मुझे कोई भी गिरफ्तार कर सकता है।”
फलतः मेवासिंह गिरफ्तार कर लिये गये उन पर मुकदमा चलाया गया। उन्होंने अपना अपराध स्वीकार करते हुए कहा, “हॉपकिन्सन मेरे देश का शत्रु था। मैंने उसका वध करके अपने कर्त्तव्य का पालन किया है। मेवासिंह को फांसी की सजा दी गई। वे 1915 ई० की 11 जनवरी को फांसी पर चढ़ा दिये गये। उनकी याद में भारत माता की आंखों में अब भी आंसू आते हों, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
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