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मौलवी बरकतुल्ला का जीवन परिचय? मौलवी बरकतुल्ला पर निबंध?

मौलवी बरकतुल्ला का जीवन परिचय, मौलवी बरकतुल्ला का जन्म जन्म 7 जुलाई,1854 को भोपाल में हुआ था। इनकी मृत्यु 5 जनवरी 1928 ई० को हुई थी। मौलवी बरकतुल्ला का जन्म भोपाल राज्य में एक सम्पन्न घराने में हुआ था। उनकी शिक्षा उर्दू, अरबी और फारसी में हुई थी। वे जब बड़े हुए, तो उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड गये। इंग्लैण्ड में ही उनका झुकाव राजनीति की ओर हुआ।

मौलवी बरकतुल्ला का जीवन परिचय (Mohamed Barakatullah Ka Jeevan Parichay)

मौलवी-बरकतुल्ला-का-जीवन-परिचय

Mohamed Barakatullah Biography in Hindi

पूरा नामअब्दुल हाफ़िज़ मोहम्मद बरकतउल्ला
अब्दुल हाफ़िज़ मोहम्मद बरकतउल्ला7 जुलाई,1854
जन्म स्थानभोपाल
मृत्यु5 जनवरी 1928 ई०

उनके मन को कुछ ऐसी ठेस लगी, जिसके कारण उनका ध्यान भारत की स्वतंत्रता की ओर आकर्षित हुआ। उन्होंने सोचा, जब तक भारत में अंग्रेज रहेंगे, भारतीयों को अपमान के कड़वे घूंट पीने ही पड़ेंगे अतः उन्होंने मन ही मन निश्चय किया कि वे भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने जीवन की आहुति दे देंगे।

संयोग की ही बात थी कि, बरकतुल्ला की भेंट श्यामजी कृष्ण वर्मा से हुई। श्यामजी कृष्ण वर्मा के जाने पर बरकतुल्ला के मन का देश प्रेम और भी अधिक प्रवल हो उठा। उन्होंने सब कुछ छोड़कर देश-सेवा करने का संकल्प किया। वे पढ़ाई छोड़कर भारत लौट आये।

1905 ई० में बंग-भंग को लेकर तीव्र आन्दोलन की आंधी उठी। हजारों बंगाली युवक गिरफ्तार किये गये, सैकड़ों फांसी के तख्ते पर भी चढ़ गये। देश में एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक विद्रोह की आग भड़क उठी।

बरकतुल्ला के हृदय पर भी उस आन्दोलन का प्रभाव पड़ा। वे क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित होकर मुसलमानों में स्वतंत्रता की भावना का प्रचार करने लगे। कहा जा सकता है कि उनके प्रयत्नों के फलस्वरूप बहुत से मुसलमान बंग-भंग आन्दोलन में सम्मिलित हुए थे।

कुछ दिनों के पश्चात् मौलवी बरकतुल्ला ने अनुभव किया कि वे भारत में रहकर उन कामों को नहीं कर सकेंगे, जिन्हें वे करना चाहते हैं। यदि भारत को स्वतंत्र कराना है, तो उन्हें विदेशों में जाकर अलख जगाना होगा। फलतः मौलवी बरकतुल्ला जापान चले गये। जापान में उन्होंने जापानी भाषा का अध्ययन किया, फिर वहीं अध्यापक के पद पर प्रतिष्ठित हो गये।

बरकतुल्ला ने जापान से एक पत्र भी प्रकाशित किया। उस पत्र का नाम ‘अल इसलाम’ था। उसमें भारत की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में लेख प्रकाशित होते थे। उसकी प्रतियां विदेशों में तो जाती ही थीं, भारत में भी आती थीं। ‘अल-इसलाम’ मुसलमानों में अधिक पढ़ा जाता था।

‘अल-इसलाम’ के लेखों के कारण मौलवी बरकतुल्ला अंग्रेज सरकार की आंखों में गड़ने लगे। अंग्रेज सरकार ने जापान सरकार पर दबाव डाला कि वह या तो बरकतुल्ला को गिरफ्तार करे, या उन्हें जापान से बाहर निकाल दे। फलस्वरूप बरकतुल्ला को जापान छोड़ देना पड़ा।

मौलवी बरकतुल्ला जापान से अमेरिका चले गये। उन दिनों गदर पार्टी भारत की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में जोरों से काम कर रही थी। लाला हरदयाल भी वहीं थे। बरकतुल्ला भी गदर पार्टी में सम्मिलित हो गये और लाला हरदयाल जो के साथ मिलकर काम करने लगे।

अंग्रेज सरकार के आग्रह पर अमरीकी सरकार ने लाला हरदयाल जी को गिरफ्तार कर लिया। किन्तु बाद में उन्हें जमानत पर छोड़ दिया। छूटने पर हरदयाल जी जेनेवा गये। कुछ दिनों तक जेनेवा में रहकर बर्लिन चले गये। उन्होंने बर्लिन में भारत की स्वतंत्रता के लिए एक संस्था स्थापित की। उस संस्था का नाम था ‘इण्डियन नेशनल पार्टी’।

लाला हरदयाल जी चम्पक रमण पिल्लै के सहयोग से उस संस्था को चलाने लगे। कुछ दिनों के पश्चात् बरकतुल्ला भी अमेरिका से बर्लिन चले गये और इण्डियन नेशनल पार्टी में काम करने लगे।

उन दिनों राजा महेन्द्रप्रताप भी बर्लिन में ही थे। जर्मनी की सरकार ने राजा महेन्द्रप्रताप को एक संदेश देकर अफगानिस्तान भेजा। मौलवी बरकतुल्ला भी दुभाषिये के रूप में अफगानिस्तान भेजे गये थे। महेन्द्रप्रताप जब इस्ताम्बूल पहुंचे, तो वहीं उनकी बरकतुल्ला से भेंट हुई। यह उनकी और बरकतुल्ला की पहली भेंट थी।

आगे चलकर मे दोनों ही देशभक्त एक-दूसरे के अनन्य और परम विश्वासपात्र साथी रहे। राजा महेन्द्रप्रताप ने काबुल पहुंचकर आनाद स्थायी सरकार की स्थापना की। बरकतुल्ला उस स्थायी सरकार में प्रधानमंत्री के पद पर प्रतिष्ठित थे। अस्थायी सरकार भंग होने पर वे रूस चले गये। उन्होंने रूस में कुछ दिनों तक उर्दू को पढ़ाने का काम भी किया था।

आजाद अस्थायी सरकार के भंग होने पर महेन्द्रप्रताप जी भी दो बार रूस गये थे। प्रथम बार वे ट्राटस्की से मिले थे और दूसरी बार लेनिन से मिले थे, तो उनके साथ बरकतुल्ला जी भी थे।

बरकतुल्ला जी अपने जीवन में कभी भी शान्ति से एक जगह नहीं रहे। वे बरावर घूमते रहे, घूम-घूमकर भारत के प्रति विदेशी सरकारों की सहानुभूति अर्जित करते रहे। अफगानिस्तान, तुर्किस्तान, रूस, जर्मनी और अमेरिका आदि देशों में उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में जो कार्य किये, वे सदा बड़े आदर के साथ याद किये जाएंगे।

ये स्वतंत्रता के सच्चे साधक तो थे ही, बड़े अनुभवी और विद्वान भी थे। 1914 ई० के महासमर के पूर्व उन्होंने घोषणा की थी-महासमर अवश्य होगा। अंग्रेजों को महासमर में पड़ना होगा। यही उपयुक्त समय होगा, जब भारत की स्वतंत्रता के लिए भारत में विद्रोह होना चाहिए। बरकतुल्ला की कही हुई बात सच निकली। 1914 ई० में महासमर हुआ और अंग्रेज उसमें बुरी तरह फंसे भी, पर भारत में विद्रोह नहीं हुआ।

बरकतुल्ला भारत की स्वतंत्रता के लिए उन सभी लोगों के साथ कदम-से कदम मिलाकर चले, जो उन दिनों भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न कर रहे थे। उन्होंने श्यामजी कृष्ण वर्मा, राजा महेन्द्रप्रताप और गदर पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ रहकर स्वतंत्रता के लिए साधना की।

उन्होंने जर्मनी, तुर्किस्तान, अफगानिस्तान, रूस और अमेरिका की सरकारों के द्वार खटखटाये। उनका दृढ़ विश्वास था कि उन्हें विदेशों से अवश्य सैनिक सहायता प्राप्त होगी और वे भारत को दासता के बंधनों से मुक्त करा सकेंगे। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि वे भारत लौटकर तभी जाएंगे जब भारत स्वतंत्र हो जायेगा। उन्होंने राजा महेन्द्रप्रताप जी को यही सलाह दी थी।

भारत उनके प्रयत्नों से स्वतंत्र तो हो गया, किन्तु वे स्वयं भारत लौट नहीं सके। 1928 ई० में वे कैलिफोर्निया गये। कैलिफोर्निया में उनका अंतिम भाषण हुआ था। उन्होंने अपने भाषण में कहा था- “वह दिन निकट है, जब भारत स्वतंत्र होगा।” 1928 ई० में ही 5 जनवरी को सेनफ्रांसिस्को में उनका स्वर्गवास हो गया। उस समय महेन्द्रप्रताप जी उनके पास थे।

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