मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय? मुंशी प्रेमचंद जी का जन्म कब हुआ था?

मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय: प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों से हिंदी कथा-साहित्य में युगांतर उपस्थित किया। अपने समय तक हिंदी में प्रचलित तिलस्म, रहस्य और जासूसी उपन्यासों की परंपरा में गुणात्मक परिवर्तन किया। उन्होंने उपन्यास को जीवन से संबद्ध किया। मुंशी प्रेमचंद मनोरंजन के साथ ही उपन्यास को जीवन की यथार्थ स्थिति की व्याख्या का दस्तावेज भी बनाया। उन्होंने यथार्थ के साथ-साथ आदर्श को भी अपने उपन्यासों में चित्रित किया। उनके इस ऐतिहासिक अवदान के समानार्थ उन्हें ‘उपन्यास सम्राट’ घोषित किया गया। प्रेमचंद का जीवन परिचय इन हिंदी।

मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय

मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय
Munshi Premchand Ka Jeevan Parichay

मुंशी प्रेमचंद का जन्म

विषयमुख्या बिंदु
नाममुंशी प्रेमचंद
बचपन का नामधनपतराय
जन्म तारीख31 जुलाई सन् 1880
जन्म स्थानवाराणसी (काशी) के समीप लमही गांव
पिता का नामअजायब राय
माता का नामआनंदी देवी
शिक्षाएम० ए०
कार्यक्षेत्रअध्यापक, लेख, पत्रकार
भाषा का ज्ञानहिन्दी व उर्दू
मृत्यु वर्ष8 अक्टूबर 1936
उपन्यासकर्मभूमि, कायाकल्प, गोदान, गबन, सेवासदन, निर्मला, वरदान, प्रतिज्ञा, रंगभूमि, कर्मभूमि, कायाकल्प, प्रेमाश्रम, मंगलसूत्र (अपूर्ण)
कहानी संग्रहप्रेरणा, कफन, प्रेम-प्रसून, प्रेम-पचीसी, प्रेम-चतुर्थी, नवनिधि, कुत्ते की कहानी, ग्राम्य जीवन की कहानियाँ, समर-यात्रा, सप्त-सरोज अग्नि-समाधि मनमोदक, प्रेम सरोवर, प्रेम-गंगा, सप्त सुमन, मानसरोवर (दस भाग)।
नाटककर्बला, रूठी रानी, प्रेम की वेदी, संग्राम।
निबन्ध संग्रहकुछ विचार
जीव चरिततलवार और त्याग, महात्मा शेखसादी, रामचर्चा, कलम, दुर्गादास।
सम्पादनगल्प रत्न, गल्प समुच्चय।

प्रेमचंद का जन्म वाराणसी (काशी) के समीप लमही गांव में 31 जुलाई सन् 1880 में हुआ। उनका नाम धनपत राय था। स्नेह के कारण उन्हें नवाब राय कहा जाता था। इनके पिता अजायब राय डाकखाने में लिपिक थे। माता का नाम आनंदी देवी था। जब प्रेमचंद 8 वर्ष के थे, तभी उनकी माता का देहांत हो गया।

अतः वे अपने पिता के साथ रहने लगे। पिता का स्थानांतरण विभिन्न स्थानों के लिए हुआ करता था। इस कारण प्रेमचंद की शिक्षा में व्यवधान पड़ा। किंतु प्रेमचंद ने ट्यूशन कर काशी के क्वींस कॉलेज से दसवीं कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण की।

मुंशी प्रेमचंद की शिक्षा (Munshi Premchand Education)

गरीब परिवार में जन्म लेने और अल्पायु में ही पिता की मृत्यु हो जाने के कारण इनका बचपन बड़े कष्टों में बीता, किन्तु जिस साहस और परिश्रम से इन्होंने अपना अध्ययन जारी रखा, वह साधनहीन, किन्तु कुशाग्र-बुद्धि और परिश्रमी छात्रों के लिए प्रेरणाप्रद है। अभावग्रस्त होने पर भी इन्होंने एम.ए. और बी.ए. की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं । प्रारम्भ में ये वर्षों तक एक स्कूल में 2० रुपये मासिक पर अध्यापक रहे। बाद में शिक्षा कुछ विभाग में सब-डिप्टी इंस्पेक्टर हो गये। कुछ दिनों बाद असहयोग आन्दोलन से सहानुभूति रखने के कारण इन्होंने सरकारी नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया और आजीवन साहित्य-सेवा करते रहे। इन्होंने अनेक पत्रिकाओं का सम्पादन किया, अपना प्रेस खोला और ‘हंस’ नामक पत्रिका भी निकाली।

मुंशी प्रेमचंद का विवाह (Munshi Premchand marriage)

प्रेमचन्द का विवाह विद्यार्थी जीवन में ही हो चुका था, परन्तु वह सफल न हो सका। शिवरानी देवी के साथ इनका दूसरा विवाह हुआ। शिवरानी देवी एक पढ़ी-लिखी विदुषी महिला थीं। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से इन्होंने प्रेमचन्द नाम रखा और इसी नाम से साहित्य सृजन करने लगे । इन्होंने अपने जीवनकाल में एक दर्जन उपन्यास और 3०० से अधिक कहानियों की रचना की। ‘गोदान’ इनका विश्व-प्रसिद्ध उपन्यास है।

प्रेमचंद के जीवन में परिवर्तन

सन् 1896 ई. में प्रेमचंद के जीवन में पुनः परिवर्तन आया। इस वर्ष उनके पिता का निधन हो गया। उन्होंने परिवार के पालन-पोषण के लिए प्राइमरी स्कूल में अध्यापकी किया। कुछ शुरू वर्षों के पश्चात् उनकी नियुक्ति शिक्षा विभाग में डिप्टी इंस्पेक्टर के पद पर हमीरपुर में हुई। वहां की जलवायु प्रेमचन्द के स्वास्थ्य के लिए अनुकूल नहीं थी।

अतः उन्होंने इस नौकरी को छोड़कर बस्ती जिले के एक सरकारी विद्यालय में अध्यापकी कर ली। बाद में वे गोरखपुर के नार्मल स्कूल के हेडमास्टर नियुक्त हुए। नौकरी में रहकर ही उन्होंने उर्दू में कहानियां लिखना शुरू किया। उस समय वे नवाब राव के नाम से लिखते थे। उनकी कहानियों में राष्ट्रीय विचारों की अभिव्यक्ति थी।

अतः ब्रिटिश सरकार ने ऐसे लेखन पर प्रतिबंध लगाया। प्रेमचंद की उर्दू कहानियों का संग्रह ‘सोजे वतन’ छपा और सरकार ने उसे जब्त कर लिया। साथ ही, प्रेमचंद को ऐसी कहानियां लिखना बंद करने की चेतावनी दी गई। प्रेमचंद ने नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया। इसके बाद वे नवाब राय की जगह प्रेमचंद नाम से लिखने लगे।

मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास (प्रमुख रचना)

प्रेमचंद ने कई उपन्यास उर्दू में लिखे। बाद में उनका हिंदी में अनुवाद हुआ। ‘कायाकल्प’ उनका पहला उपन्यास है, जिसकी पांडुलिपि हिंदी में थी। इसके बाद के सारे उपन्यास हिंदी में हैं और बाद में उनका अनुवाद उर्दू में हुआ। प्रेमचंद के उपन्यास निम्नलिखित हैं-

S.Noउपन्यास
1.प्रेमा
2.सेवासदन
3.वरदान
4.प्रेमाश्रम
5.रंगभूमि
6.कायाकल्प
7.निर्मला
8.प्रतिज्ञा
9.गबन
10.कर्मभूमि
11.गोदान
12.मंगलसूत्र (अपूर्ण)

इन उपन्यासों के अतिरिक्त लगभग तीन सौ कहानियां भी प्रेमचंद ने लिखीं। ये कहानियां ‘मानसरोवर’ के आठ खंडों में प्रकाशित हैं। साहित्य के विविध विषयों पर उनके निबंध और टिप्पणियां ‘विविध प्रसंग’ के नाम से तीन भागों में प्रकाशित हैं।

प्रेमचंद ने ‘हंस’ और ‘जागरण’ नाम के दो पत्रों का भी प्रकाशन और संपादन किया। हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि के लिए समर्पित युगद्रष्टा कृतिकार प्रेमचंद को गरीबी और अभाव में जीना पड़ा। अंततः सन् 1936 में प्रेमचंद का निधन हुआ।

‘प्रेमा’, ‘वरदान’ और ‘प्रतिज्ञा’ अत्यंत सामान्य कोटि के उपन्यास हैं। प्रेमचंद की पहली औपन्यासिक कृति ‘सेवा सदन’ उनकी कथा रचना की प्रतिभा की परिचायिका है। यह उपन्यास पहले ‘बाजारे हुस्न’ के नाम से उर्दू में छपा था। इस उपन्यास में दहेज प्रथा, अनमेल विवाह, वेश्यावृत्ति आदि का प्रथम बार विवेचन हुआ।

इस उपन्यास के पूर्व भी वेश्यावृत्ति का उल्लेख है, जिससे पाठकों में उसके प्रति घृणा का भाव पैदा किया गया है। किंतु प्रेमचंद ने ‘सेवा सदन’ में वेश्यावृत्ति को नहीं, वेश्या-जीवन को विषय बनाया। समुचित दहेज न दे पाने के कारण सुमन का विवाह एक अधेड़ विधुर गजाधर से होता है। गजाधर की शंकालु प्रवृत्ति सुमन को वेश्या बना देती है।

गजाधर साधु हो जाता है। गृहस्थी उजड़ जाती है। वेश्याओं उद्धार के लिए नगर के बाहर सेवा सदन की स्थापना की जाती है और वेश्याओं नैतिक शिक्षा का कार्यक्रम बनाया है। गजाधर के साथ सुमन में रहने है और ‘सेवा सदन’ के कार्यों में लग जाती है।

स्पष्ट कि प्रेमचंद ‘सेवा-सदन’ सामाजिक समस्याओं यथार्थ रूप चित्रित किया किंतु अंत में अप्रत्याशित में जो समाधान प्रस्तुत है, कोरा आदर्शवादी फार्मूला प्रेमचंद यह प्रवृत्ति उनके अधिकांश उपन्यासों दृष्टिगोचर होती कुछ समीक्षकों इसे ही लक्ष्य कर प्रेमचंद ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवादी’ कहा है। ‘प्रेमचंद का ‘प्रेमाश्रम’ नामक उपन्यास 1922 में प्रकाशित हुआ। इसमें भी ‘सेवासदन’ तरह ‘प्रेमाश्रम’ स्थापना है। ‘प्रेमाश्रम’ स्थापना लोगों का हृदय परिवर्तन कर आर्थिक समस्याओं हल कर रामराज्य ओर अग्रसर होना है। ‘प्रेमाश्रम’ किसान जमींदारों अत्याचार विरुद्ध तनकर हो गया है। उसकी भाषा कठोर गई है।

वह कहता ‘यहां कोई दबैल है। जब कौड़ी कौड़ी लगान चुकाते तो धौंस क्यों सहें? एक-एक सिर के रख दूं।’ इस उपन्यास सन् 1921 के किसान आंदोलन प्रतिध्वनि स्पष्ट इस आंदोलन को गांधीवादी जमींदार प्रेमशंकर नया दे देता है।

उसके प्रभाव से लोगों का हृदय परिवर्तन जाता किसान आंदोलन समाप्त जाता है। सभी ‘प्रेमाश्रम’ में सुख-शांति रहने लगते हैं। रामराज्य स्थापित जाता इस कृत्रिम आदर्शवाद के कारण प्रेमाश्रम का पूर्वार्ध तो उपन्यास किंतु उत्तरार्ध काल्पनिक आदर्शवाद का व्याख्यान बन गया है।

सन् 1924 ई. में ‘रंगभूमि’ प्रकाशित हुआ। इसमें सर्वहारा और पूंजीपतियों के बीच सीधे संघर्ष का चित्रण है। पूंजीपति वर्ग सहायक जमींदार और पुलिस। महात्मा गांधी देश के औद्योगीकरण के विरोधी थे। विशाल जनसंख्या वाले देश के लिए कुटीर उद्योग को हितकारी समझते थे।

इससे बेरोजगारी की समस्या हल होगी और औद्योगीकरण से पैदा होने वाली अमानवीय समस्याएं नहीं होंगी। ‘रंगभूमि’ में प्रेमचंद ने गांधी जी के इसी सोच को कथा रूप दिया है। इस उपन्यास का फलक अधिक व्यापक है। अपने समय की विभिन्न घटनाओं, धर्मों, जातियों वर्गों के समावेश के कारण यह उपन्यास बहुआयामी बन गया है।

‘रंगभूमि’ के नायक सूरदास की जमीन पर जानसेवक सिगरेट का कारखाना *बनवाना चाहता है, किंतु सूरदास जमीन नहीं देता है। वह जानता है कि कारखाना बनने पर गांव की सहकारिता, निश्छलता, सादगी आदि समाप्त हो जाएगी। किंतु सरकारी तंत्र की मदद से सूरदास की जमीन पर कारखाना बन जाता है।

सूरदास उस जमीन पर अपनी झोंपड़ी नहीं हटाता है। वह व्यक्तिगत सत्याग्रह करता है। और अंततः गोली का शिकार होता है। जनता जग जाती और सूरदास की मूर्ति लगाई जाती है। मूर्ति को गिरा दिया जाता है। उससे दबकर सामंतवादी महेन्द्र कुमार की मृत्यु जाती किंतु पूंजीपति जानसेवक जीवित है। प्रेमचंद संकेत देते कि अभी पूंजीवाद से संघर्ष करना है।

‘कायाकल्प’ उपन्यास का प्रकाशन सन् 1926 हुआ। इसमें प्रेमचंद ने पुनर्जन्म में आस्था व्यक्त की है। ‘रंगभूमि’ के सामंतवादी महेन्द्रकुमार पुनः जीवित हो गए हैं। रियासतों का माहौल फिर उभर आया है। हिमालय में रहने वाले महात्मा के चमत्कार अद्भुत हैं। पूर्वजन्म की स्मृतियों को ताजा बना देते और वृद्धा को तरुणी बदल देते हैं।

प्रेमी युगल यान पर बैठ कर नक्षत्र-लोक की सैर करते हैं। ऐसे ही विचारों को प्रेमचंद ‘कायाकल्प’ में निबद्ध किया है। यह प्रेमचंद की औपन्यासिक कृतियों क्षेपक जैसा है। संभव कि इस उपन्यास को उन्होंने पहले लिखा हो और तिलस्म की परंपरा को यौगिक वैज्ञानिक रूप देने का प्रयास किया हो ‘गबन’ प्रेमचंद का बहुचर्चित उपन्यास है।

इसका प्रकाशन सन् 1930 ई. में हुआ। इस उपन्यास पूर्व प्रेमचंद ‘निर्मला’ (1927) की भी रचना की थी। इस उपन्यास में आर्थिक अभाव की समस्या है, किंतु अनमेल विवाह और दहेज की समस्या इतनी प्रबलता से उमड़ी है कि आर्थिक समस्या की विवेचना गौण हो गई. है। निर्मला के रूप भारतीय नारी मर्यादा का बहुत हृदयद्रावक चित्र प्रस्तुत हुआ है।

‘गबन’ में मध्यवर्गीय कमजोरियों को बुनियादी तौर पर उद्घाटित किया गया। है। इस वर्ग के खोखलेपन, बाहरी टीमटाम, प्रदर्शन आदि का संटीक चित्रण हुआ है। रमानाथ इस प्रकार का विचित्र पात्र है। वह अपनी दुर्बलताओं का शिकार स्वयं होता है। इसमें नारी की आभूषण-प्रियता को विश्वसनीय ढंग उठाया गया और उसके दुष्परिणामों को भी इंगित किया गया है।

रमानाथ और जालपा प्रमुख पात्र हैं। आर्थिक विपन्नता के कारण रमानाथ गबन करता पुलिस द्वारा प्रलोभन दिए जाने पर झूठी गवाही देता है। किंतु जालपा उसे अपने प्रयास से सुमार्ग पर लाती है। इस उपन्यास राष्ट्रीय आन्दोलन का भी चित्रण है। पुलिस के हथकंडों और धूर्तता का अच्छा वर्णन है। उपन्यास के अंत प्रेमचंद अन्य उपन्यासों की तरह इसमें आदर्श घुसेड़ दिया है।

एक ऐसे आश्रम की स्थापना कराते हैं, जहां ब्राह्मण, वेश्या और खटिक एक परिवार में रहते हैं। पूरी रचनात्मक संरचना को यह आदर्श धो देता है। जालपा नई जागृत नारी के रूप में प्रस्तुत की गई है। रमानाथ तत्कालीन युवकों का प्रतिनिधित्व करता है। ‘कर्मभूमि’ का प्रकाशन सन् 1982 ई. में हुआ। इसे ‘प्रेमाश्रम’ का अगला कदम कहा जा सकता है।

‘प्रेमाश्रम’ में किसानों का ही संघर्ष चित्रित है, किंतु ‘कर्मभूमि’ में किसान-मजदूर दोनों का संघर्ष है। मजदूर म्युनिसिपल कारपोरेशन के विरुद्ध लड़ रहे हैं और किसान जमींदारों के खिलाफ। ‘प्रेमाश्रम’ के किसानों में एकता नहीं थी। वे किसी मामले पर एकजुट नहीं हो पाते थे। किंतु ‘कर्मभूमि’ में किसान संगठित हैं। इस उपन्यास की रचना के पूर्व सन् 1928 ई. में बारडोली में लगान-बंदी का आंदोलन हुआ था।

सन् 1930 ई. में गांधी जी ने डांडी यात्रा की थी और सन् 1931 में गांधी इरविन समझौता हुआ था। इन सभी घटनाओं का प्रभाव ‘कर्मभूमि’ पर है। लगान-बंदी आंदोलन में पुलिस किसानों पर गोली चलाती है और उनकी गिरफ्तारी होती है। स्त्रियों पर अत्याचार होते हैं।

किंतु वे पुरुषों के साथ-साथ चलती हैं। वे कुछ डग आगे ही हैं। अंत में सरकार से समझौता हो जाता है। प्रेमचंद ने यहां भी आंदोलन पर गांधी जी की अहिंसा को थोपा है। वे कहते हैं, ‘सैकड़ों घर बरबाद होने के सिवा और कोई नतीजा नहीं निकलता।

समझौते के औचित्य को सही सिद्ध करने का रास्ता उपन्यास की श्रेष्ठता को कम करती है। इस उपन्यास में शिक्षण संस्थाओं की अर्थव्यवसायी नीति, म्युनिसिपल सदस्यों की स्वार्थपरता तथा राज्य कर्मचारियों के पतन और स्वेच्छाचार का विस्तृत चित्रण हुआ।

प्रेमचंद गोदान सर्वश्रेष्ठ उपन्यास

‘गोदान’ का प्रकाशन सन् 1936 ई. में हुआ। यह प्रेमचंद का अंतिम और सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है। समीक्षकों ने ‘गोदान’ को ग्रामीण जीवन का गद्यात्मक महाकाव्य कहा है। इस उपन्यास में दो स्वतंत्र कथाएं हैं। एक कथा का संबंध नगर से है, जिसके मुख्य पात्र हैं, मेहता, मालती, राय साहब, खन्ना, तन्खा और उनके अन्य सहयोगी।

दूसरी कथा ग्रामीण जीवन की है, जिसके मुख्य पात्र हैं, होरी, धनिया, गोबर, पटेश्वरी, दातादीन, मातादीन, झुनिया, सिलिया आदि। इस उपन्यास में होरी के माध्यम से प्रेमचंद ने महाजनी सभ्यता द्वारा किए गए शोषण को संपूर्णता में चित्रित किया है। होरी जीवन भर कर्ज और अत्याचार को सहन करता है और अंत में किसान से मजदूर हो जाता है।

भाई, पुत्र, पुत्री आदि संबंधियों से व्यक्त केवल पत्नी धनिया का सहारा पाता है। अंत में मजदूरी के बीस आने पैसे से गोदान की रस्म अदा कर स्वर्ग की इच्छा लिये मर जाता है। नगर की कथा को ग्रामीण कथा से जोड़ने के सूत्र अत्यंत क्षीण हैं। वह नागर जीवन को भी पूरी तरह नहीं चित्रित कर पाती है। उसमें केवल धमाचौकड़ी और शोर-शराबा ही है।

नागर जीवन में मेहता और मालती प्रसंग का जो चित्रण किया गया है, वह स्वच्छंतावादी आदर्शों के निकट है। इस उपन्यास में प्रेमचंद ने अपने पूर्ववर्ती उपन्यासों की तरह किसी आदर्श की स्थापना नहीं की है। यहां वे पूरी तरह यथार्थवादी हो गए हैं।

प्रश्न उठता है कि ‘गोदान में क्या है, जो उसे हिंदी का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास बनाता है?’ अन्य उपन्यासों की भांति इसमें भी किसान की कथा है, जो समसामयिक है। ‘गोदान’ को उसमें निहित मानवीय संवेदना की अनूभूति ही उसे महत्त्वपूर्ण बनाती है। विघटित होते हुए परिवार का जो गहरा दर्द ‘गोदान’ में है, वह अन्य दुर्लभ है।

‘झुनिया’ को सारी मर्यादा के विरुद्ध अपने घर में जगह देने से बढ़कर मानवता क्या हो सकती है। अपने बेटे को, जो होरी से तना हुआ था, अपना पैर छूते देखकर विहल हो जाता है। भाई हीरा की कृतज्ञता से होरी जीवन-संग्राम में जीत का अनुभव करता है। ऐसे ही मानवीय प्रसंग ‘गोदान’ को हिंदी का गद्यात्मक महाकाव्य बनाते हैं।

समग्र रूप से विचार करने पर अनेक विशेषताएं प्रेमचंद के उपन्यासों में दृष्टिगोचर होती हैं। प्रेमचंद पहले उपन्यासकार हैं, जिसने इस विधा को साहित्यिक स्तर प्रदान किया। उनका महत्त्व इस बात में है कि उन्होंने तिलस्म और रोमांस से बाहर निकालकर उपन्यास को सामाजिक जीवन से जोड़ा।

उन पर तत्कालीन स्वतंत्रता आंदोलन और महात्मा गांधी का प्रभाव था और उनके सभी उपन्यासों में यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उन्होंने पराधीनता, जमींदारों के अत्याचार, सरकारी कर्मचारियों और महाजनों द्वारा किसानों के शोषण, निर्धनता, अशिक्षा, दहेज की कुप्रथा, नारी की दयनीय स्थिति, विधवा समस्या, सांप्रदायिकता, मध्यवर्ग की कुंठा आदि का गंभीर विवेचन किया।

उच्च वर्गीय और मध्यवर्गीय समाज में नारी की स्थिति तथा उसके अधिकारों के प्रति प्रेमचंद की जागरूकता प्रायः उनके सभी उपन्यासों में चित्रित है। किंतु विधवा-विवाह का प्रश्न ‘प्रतिज्ञा’ में उठाया गया है। मध्यवर्ग की कुंठाओं का सबसे सघन चित्रण ‘गबन’ और ‘निर्मला’ में है। ‘सेवा ‘सदन’ में वेश्या-जीवन का पूरी तरह विवेचन हुआ है।

उद्योगों के फलस्वरूप ग्रामीण जीवन के मूल्यों में विघटन तथा पूंजीवाद के बढ़ते प्रभाव का चित्रण हुआ है। यद्यपि उनके शुरुआती उपन्यासों में घटनाओं की सृष्टि का प्रयास लक्षित होता है, किंतु वे क्रमशः मुक्त होते गए हैं।

‘गोदान’ में उन्होंने किस्सागोई की उस कला को प्रस्तुतः करने में सफलता पाई है, जिसका आधार घटनाएं नहीं, मनोवैज्ञानिक स्थितियों से दीप्त सहज मानव-व्यापार है। इसी तरह उनके उपन्यासों में यथार्थ को आदर्श से मंडित करने की ललक है, किंतु वह भी क्रमशः कम होती गई है और ‘गोदान’ में किसी आदर्श को स्थापित करने का कोई आग्रह नहीं है।

प्रेमचंद मुख्यतः ग्रामीण जीवन के कथाकार हैं। कुछ आलोचकों ने इसीलिए इन्हें ‘किसानी जीवन का कथाकार कहा है। अभिजात वर्ग और शहरी जीवन का चित्रण उन्होंने बहुत कम किया है और जहां ऐसे स्थल आए हैं, वहां उनका मन नहीं रमा है।

‘गोदान’ में शहरी जीवन का चित्रण बहुत हल्के रूप में हुआ है। प्रेमचंद को जमींदारों, साहूकारों, सरकारी कर्मचारियों, पुरोहितों आदि शोषकों का चित्रण करने में पूरी सफलता मिली है। प्रेमचंद राष्ट्रप्रेमी रचनाकार हैं, परंतु वे अपने उपन्यासों में राष्ट्रीय भावना को सशक्त अभिव्यक्ति नहीं दे पाए हैं।

यही कारण है कि वे सामाजिक सुधारों और प्राकृतिक विपत्तियों में सहायतार्थ ‘सेवा समितियों के गठन तथा उनके कार्यों का वर्णन करते हैं, किंतु सत्याग्रह या स्वतंत्रता प्राप्ति के निमित्त किए गए आंदोलनों का चित्रण करने से बचते हैं। यह तथ्य ‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’ और ‘कर्मभूमि’ से प्रमाणित होता है।

उन्होंने कई उपन्यासों में अंतर्जातीय विवाह की समस्या उठाई है। दो जातियों के युवक-युवतियों में प्रेम संबंध स्थापित होता है, परंतु विवाह संबंध में बदलने के पूर्व ही प्रेमी-प्रेमिका की मृत्यु या किसी अन्य बहाने से उन्हें अलग कर दिया गया है। सोफिया-विनय, अमरकांत-सकीना, चक्रधर- मनोरमा आदि प्रेमी युगलों की कथाएं इसका प्रमाण हैं।

‘प्रतिज्ञा’ में विधवा विवाह की समस्या उठाकर भी अमृतराय और पूर्णा का विवाह उन्होंने नहीं कराया है। केवल ‘गोदान’ में माता दीन और सिलिया का विवाह करने का साहस उन्होंने दिखाया। संभवतः सामाजिक आलोचना के भय से प्रेमचंद समाज-सुधार की दिशा में क्रांतिकारी कदम उठाने से रह गए।

प्रेमचंद के उपन्यासों के कथा-नायक स्त्री-पुरुष दोनों हैं, जो विभिन्न प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं। जिस प्रकार युगानुरूप प्रेमचंद के विचारों का विकास होता गया, उसी प्रकार उनके नायक भी विकसित होते दिखाई देते हैं। प्रेमचंद के उपन्यासों की घटनाएं नायकों को चक्कर में फंसाए रखती हैं और कभी नायक स्वयं घटनाओं का निर्माण करते हैं।

नायक दृढ़ चरित्र वाले तो चित्रित किए गए हैं, फिर भी अनेक बार वे दो परिस्थितियों के दास हैं और उन्हीं के मध्य उनका विकास होता है। उनके नायक राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं को पूर्णतः सुलझा न पाने पर भी समाज के यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने में सफल हैं। ‘सेवासदन’, ‘कायाकल्प’, ‘निर्मला’ और ‘गबन’ नायिका प्रधान उपन्यास हैं।

‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ नायक प्रधान कृतियां हैं किंतु ‘सेवासदन’ से ‘गोदान’ तक स्त्री और पुरुष नायकों का समानांतर विकास भी हुआ है। प्रेमचंद के नायकों की तीन कोटियां हैं। एक वे नायक, जो प्रेमचंद के विचारों के वाहक हैं। दूसरा वर्ग उन नायकों का है, जो उपन्यास की घटनाओं और परिस्थितियों में विकास करते हैं और तीसरा वर्ग उन नायकों का है, जो परिस्थितियों का निर्माण करते हैं।

‘सेवासदन’ की सुमन वेश्या- जीवन को लेकर आती है और वह संपूर्ण कथा पर छायी हुई है। यद्यपि उसका चरित्र काल्पनिक और अधिक आदर्शवादी हो गया है, फिर भी वह पुरुषशासित समाज की थोथी मान्यताओं पर गहरी चोट करती है। निर्मला अनमेल वृद्ध विवाह में फंसी नारी है। वह दहेज प्रथा और आर्थिक पराधीनता का पर्दाफाश करती है।

‘गबन’ की जालपा अपनी प्रारंभिक कमजोरी गहना प्रेम से उबरकर लक्ष्यभ्रष्ट पति का उद्धार करने में सफल होती है। ‘रंगभूमि’ का नायक सूरदास पूरी तरह गांधीवाद के सत्य-अहिंसा और सत्याग्रह का प्रतिनिधित्व करता है। वह विरोधियों की हर चोट को दृढ़तापूर्वक सहता है। उसकी पराजय भी विजय से उत्तम है। ऐसा नायक दुर्लभ है।

‘गोदान’ में पूरा घटनाचक्र होरी से संबद्ध है, किंतु उसमें नायक के नहीं गुण है। वह मुर्दा किसान है। उसकी मृत्यु भी कारुणिक है। निश्चय ही, होरी तत्कालीन किसानी जीवन का प्रतिनिधि है, लेकिन उसमें अपनी परिस्थितियों को बदलने की शक्ति नहीं है। होरी का पुत्र गोबर अवश्य तेज-तर्रार हैं और वह भावी पीढ़ी का ‘प्रतिनिधि बनने की क्षमता में संपन्न लगता । स्पष्ट है कि प्रेमचंद के कुछ ही नायक आद्यंत उदात्त हैं।

भाषा और शिल्प की दृष्टि से प्रेमचंद ने हिंदी को विशिष्ट स्तर प्रदान किया। विषय के अनुसार शिल्प के अन्वेषण का कार्य प्रेमचंद ने ही सर्वप्रथम किया। उनकी विशेषता यह है कि उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए दृश्य अत्यंत सजीव, गतिमान और नाटकीय हैं। मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय

उनकी भाषा की खूबी यह है कि शब्दों के चयन और वाक्य-योजना की दृष्टि से उसे सरल और सामान्य व्यवहार की भाषा कहा जा सकता है। सरल भाषा होने पर भी उसमें सरसता और सजीवता की कमी नहीं है। ‘गोदान’ में भाषा का वैविध्य जितने स्तरों पर दिखाई देता है, वह अन्य हिंदी उपन्यासों में दुर्लभ है।

भाषा के सटीक सार्थक और व्यंजनापूर्ण प्रयोग में वे अपने समकालीनों को ही नहीं, बाद के उपन्यासकारों को भी पीछे छोड़ देते हैं। प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में लोकोक्तियों और मुहावरों का भी भरपूर प्रयोग किया है। वस्तुतः प्रेमचंद ने ही हिंदी उपन्यास को अभिव्यक्ति का सही माध्यम बनाया। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर प्रेमचंद को उपन्यास सम्राट’ और उनके रचना-काल को हिंदी उपन्यास का ‘प्रेमचंद युग’ कहना सर्वथा उचित है। मुंशी प्रेमचंद की मृत्यु 8 अक्टूबर 1936 वाराणसी में हुई थी। मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय

मुंशी प्रेमचन्द की भाषा-शैली

भाषा

प्रेमचन्द साहित्य में हमें दो प्रकार की भाषा के दर्शन होते हैं। इनकी आरम्भिक रचनाओं की भाषा सहज, सरल एवं बोलचाल की है। इसमें उर्दू, अरबी-फारसी के शब्दों का बाहुल्य है। इनकी बाद की रचनाओं की भाषा अत्यन्त परिष्कृत बड़ीबोली है। इसमें संस्कृत को तत्सम शब्दावली की प्रचुरता है। बाद की भाषा भले ही परिष्कृत और तत्सम शब्दावली से युक्त है, किन्तु सहजता, सरलता एवं व्यावहारिकता का अभाव उसमें कहाँ भी दृष्टिगत नहीं होता। भाषा का प्रवाह इनकी अपनी निजी विशेषता है।

शैली

प्रेमचन्द की शैली विषय एवं भाव के अनुरूप बदलती रही है। इनकी रचनाओं में यद्यपि हमें सभी प्रचलित शैलियों के दर्शन होते हैं, किन्तु जिन शैलियों का सर्वाधिक प्रयोग इन्होंने अपनी भाषा में किया है, उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

1.वर्णनात्मक शैली

किसी घटना, वस्तु और पात्रों के परिचय में इन्होने इसी शैली का प्रयोग किया है। इनके कथा-साहित्य में इसी शैली का प्राचुर्य है। अनेक स्थानों पर इन्होंने इस शैली में पात्रों के संवादों के माध्यम से नाटकीय सजीवता का भी समावेश किया है।

2.विवेचनात्मक शैली

विचारों को गहन अभिव्यक्ति के समय इनके साहित्यिक पात्र इसी शैली का प्रयोग करते दिखायी देते हैं। इनके उपन्यासों में परिस्थितियों और पात्रों के चरित्र-विश्लेषण में इस शैलों का बहुतायत से प्रयोग हुआ है।

3.मनोवैज्ञानिक शैली

प्रेमचन्द के पात्रों को यह प्रमुख विशेषता है कि उनके चरित्र को उन्होंने बड़े ही मनोवैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत किया है। इसीलिए उनका प्रत्येक कार्य तर्क और सोद्देश्यपूर्ण लगता है।

4.भावात्मक शैली

कथा-सम्राट् की उपाधि मिलने के पीछे उनकी इस शैली का बड़ा योगदान है। उन्हें यह उपाधि उनके विपुल कथा-साहित्य के लिए विद्वत् समाज ने प्रदान नहीं की, वरन् उसमें जो भावात्मकता पाठक के हृदय में एक टीम बनकर उसे विचलित कर देती है, वहीं उनका सम्रात्व प्रमाणित करती है। सुप्रसिद्ध समालोचक द्वारिकाप्रसाद सक्सेना ने इनकी इसी भावात्मकता की ओर संकेत करते हुए लिखा है- “हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचन्द का आगमन एक ऐतिहासिक घटना थी। उनको कहानियों में ऐसी घोर- यन्त्रणा, दुःखद गरीबी, असा दुःख, महान् स्वार्थ और मिथ्या आडम्बर आदि से तड़पते हुए व्यक्तियों की अकुलाहट मिलती है, जो हमारे मन को कचोट जाती है और हमारे हृदय में टीस पैदा कर देती है।”

5.हास्य

व्यंग्यात्मक शैली-सामाजिक विषमताओं एवं विदूपताओं पर प्रेमचन्द ने इसी शैली के द्वारा करारी चोट की है। निस्सन्देह प्रेमचन्द भारतीय समाज के सजग प्रहरी एवं सच्चे प्रतिनिधि साहित्यकार थे। इनके जैसी नारी वेदना, दलित शोषण, वर्ण-व्यवस्था की कटु कर्कश कठोरता, मजदूर-किसानों की दीन-हीन अवस्था की मर्माहत पीड़ा अन्यत्र दुर्लभ है। तत्कालीन भारतीय समाज का वास्तविक दर्शन हमें उसकी स्वाभाविक कठोरता के साथ दृष्टिगत होता है। इन्होंने केवल समस्याओं का नग्न-यथार्थ चित्रण ही नहीं किया है, वरन् उनका आदर्श, सरल समाधान भी प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। अतः इन्हें आदर्शोन्मुख यथार्थवाद का लेखक कहा जाता है। वे सच्चे अर्थों में कथा-सम्राट् है और रहेगे।

FAQ

Q1 : प्रेमचंद किस नाम से मशहूर है?

Ans : प्रेमचंद “मुंशी प्रेमचंद” नाम से मशहूर थे।

Q2 : प्रेमचंद की पढ़ाई किस कक्षा तक हो पाई थी?

Ans : प्रेमचंद की पढ़ाई बी.ए. कक्षा तक हो पाई थी।

Q3 : प्रेमचंद का जन्म कब हुआ?

Ans : प्रेमचंद का जन्म 8 अक्टूबर 1936 हुआ था।

यह भी पढ़े –

Leave a Comment